Thursday, December 16, 2021

हर दिल में बसता है फौजी

    वक्त का तो काम ही है चलते जाना, ढलते जाना, बीतते जाना। वक्त की तेज धारा की नदी की पता नहीं कितनी सदियों-सदियों से चली आ रही यह परिपाटी है। अटूट रीत है। इस नदी में जिन्हें तैरने का हुनर आता है, वही कमाल कर गुजरते हैं। उन्हीं के नाम का डंका बजता है। उन्हीं को सदियों तक याद रखा जाता है। यूं तो कितने इस धरा पर आते हैं और चले जाते हैं। सबको कहां याद रखा जाता है। याद रखा भी नहीं जा सकता। वक्त के वक्ष पर अपने अमिट हस्ताक्षर छोड़ जाने वीर... शूरवीर यकीनन किसी आम मिट्टी के नहीं बने होते। विधाता उन्हें बड़े मनोयोग से गढ़ता और बनाता है। तभी तो वे जीते जी सबके चहेते... तो चले जाने के बाद भी दिलों में बसेरा बनाये रहते हैं। अपने देश के प्रथम चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत और उनकी अर्धांगिनी मधुलिका के अंतिम संस्कार की टीवी पर जब खबरें आ रही थीं तब मैं उनकी वीरता, त्याग और अटूट समर्पण के बारे में सोच रहा था। आंखें नम हो रही थीं। ऐसा लग रहा था कि अपने बेहद करीबियों ने अचानक साथ छोड़ दिया है।
तीनों सेनाओं के प्रमुख योद्धा बिपिन रावत के साथ-साथ जिन 12 अन्य शूरवीरों को देश ने हेलिकॉप्टर दुर्घटना में खोया उन्हीं में शामिल थे शहीद गुरसेवक। उनका पार्थिव शरीर आर्मी के प्लेन से जैसे ही अमृतसर पहुंचा तो उनके पिता और भाई-बहन ताबूत से लिपटकर रोने लगे, लेकिन इस रोने में गर्व भी समाहित था। पत्नी अंतिम बार अपने शहीद पति का चेहरा देखने को तरसती रही, लेकिन सैन्य अधिकारियों ने शरीर की हालत ठीक न होने का हवाला देकर चेहरा दिखाने से मना कर दिया। गुरसेवक के चार साल के मासूम बेटे गुरफतह ने जब अपने पिता की अर्थी को अंतिम सैल्यूट किया तो वहां पर उपस्थित कोई भी ऐसा शख्स नहीं था, जिसका कलेजा न कांपा हो और अश्रुधारा बही न हो। चारों तरफ ‘भारत माता की जय’ और ‘शहीद गुरसेवक सिंह अमर रहे’ के नारे गूंज रहे थे और मासूम गुरफतह भीड़ को बड़े अचंभे के साथ देख रहा था। उसने वही यूनीफार्म पहन रखी थी, जो उसके पिता ने मात्र डेढ़ महीने पहले बड़े चाव से उपहार में दी थी।
    शहीद कुलदीप सिंह राव के अंतिम दर्शनों के लिए उनके पैतृक गांव घरड़ाना में अथाह भीड़ उमड़ पड़ी। मां कमलादेवी और पिता रणधीर सिंह ने अपने लाड़ले बेटे की पार्थिव देह को जब भरी आंखों से सैल्यूट किया तो पूरा गांव जयकारों से गूंज उठा। शहीद की बहादुर पत्नी यश्विनी ने पति की तस्वीर सीने से लगा रखी थी। अंतिम यात्रा में वे शांत और खामोश रहीं। मुखाग्नि भी उन्होंने दी, लेकिन अंत में उनके सब्र का बांध टूट गया और चीख पड़ीं- ‘‘आई लव यू कुलदीप।’’
    अभिता सिंह, डिप्टी कमांडेट, नेवी जो शहीद कुलदीप की बहन हैं को छोटे भाई के कहे यह शब्द बार-बार याद आ रहे थे, ‘देखना दीदी मैं भी सेना में जाऊंगा। तुमसे भी आगे और दुनिया मुझे देखेगी।’ बहन ने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि जब देश पर मर मिटने की बारी आएगी तो छोटा भाई सचमुच उससे आगे निकल जाएगा। भाई तिरंगे में चिर निद्रा में सोया था और वह अपना सब्र खोते माता-पिता को संभालने में लगी हुई थीं। एल.एस. लिद्दर की 17 वर्षीय बेटी आशना अपने बहादुर पिता को मुखाग्नि देने के बाद पहले तो फफक-फफकर रोयी, फिर उसने खुद को संभाला और कहा कि, ‘‘मेरे पिता मेरे सबसे बड़े हीरो थे। मेरी हर बात मानते थे। यहां खड़े-खड़े मुझे सबकुछ याद आ रहा है। पापा की अच्छी यादों के साथ अब हमें जीवन जीना है।’’ ब्रिगेडियर की साहसी देश प्रेमी पत्नी गीतिका लिद्दर के शब्द थे, ‘‘मैं एक सैनिक की पत्नी हूं। हमें उनको अच्छी विदाई देनी चाहिए, मुस्कुराते हुए विदा करना चाहिए।’’
    सच तो यह है कि सैनिकों की तरह उनके परिवार भी सच्चे होते हैं। योद्धा सैनिकों को अपने स्वजनों से ही भरपूर ताकत मिलती है और वो मनोबल भी मिलता है, जो उनके हौसलों को कभी भी ठंडा नहीं होने देता। माता-पिता, बहन, पत्नी और बच्चे जिस तरह से अपने आंसुओं को छुपाकर शहीद जवानों को याद कर गर्वित हो रहे थे, उसी से पता चल रहा था कि सैनिकों को धूप, बरसात, बर्फ आंधी में भी कौनसे स्नेह और अपनत्व की ताकत हर पल ऊर्जावान बनाये रहती है। जनरल बिपिन रावत के पिता और दादा भी सेना में थे। सेना नायक का तो जन्म ही राष्ट्र के लिए हुआ था। उनकी पत्नी भी सैनिकों के परिवारों के हित के प्रति समर्पित थीं। जनरल रावत छोटे-बड़े सैनिक में कभी कोई भेदभाव नहीं करते थे। सेना के अधिकारियों के घरों में जवानों के काम करने की परिपाटी को उन्होंने ही खत्म किया। उन्हें उन जयचंदों से भी घोर नफरत थी, जो खाते भारत का है और गाते पाकिस्तान का हैं। सेना में अवैध हथियारों की खरीद-फरोख्त, कमीशनबाजी, नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद और मनमानी पोस्टिंग पर भी उन्होंने बंदिशें लगा दी थीं। चीन और पाकिस्तान उनसे खौफ खाने लगे थे। उन्हें किसी भी शोषण प्रवृत्ति से नफरत थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो उनपर अटूट भरोसा करते ही थे, उनके गांव के लोग भी उनके सरल स्वभाव के मुरीद थे। उनकी बेबाकी, निडरता और साहस की दास्तानें श्रद्धांजलि देने पहुंचे लोगों की जुबान पर थीं। लोग रणनायक के बारे में बताते-बताते खामोश हो जाते। अपने नायक को खोने की पीड़ा आंसू बन बहने लगती। सहज, सरल यह शूरवीर जब भी गांव आते तो गांव वालो से गढ़वाली में बात करते थे। रिटायरमेंट के बाद योद्धा का अपने पिछड़े गांव के लिए बहुत कुछ करने का इरादा था। अभी उनका एक साल का कार्यकाल और बचा था। उत्तराखंड के जिला पौड़ी गढ़वाल में है जनरल का गांव सैण। हैरतभरा सच यह भी है कि उनके घर तक जाने के लिए पक्की सड़क तक नहीं है। देश का रणनायक घर तक पक्का मार्ग चाहता था, लेकिन...? किसी राजनेता का घर होता तो उसे डेढ़ से दो किलोमीटर पक्की सड़क बनने का इंतजार नहीं करना पड़ता। नेताओं के बच्चों की जब जंगलों में भी शादी समारोह होते हैं तो वहां पर पहुंचने के लिए रातोंरात पक्की सड़कें बन जाती हैं! यही फर्क सबको नजर आता है, जो बहुत तड़पाता है। राजनेता दिखावा करते हैं। फौजी तो आम भारतीयों के दिलों में बसते हैं। हर सजग राष्ट्र प्रेमी भारतीय सैनिकों के अपमान, अवहेलना से चिंतित और दुखी है। कवि पप्पू सोनी की कविता भी देशवासियों की पीड़ा, चिंता और कटु सच से रूबरू कराने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ कह रही है,
‘‘आज दिशाएं मौन यहां,
कलम मेरी थर्राती है।
वाणी भी नि:शब्द हुई,
और बुद्धि भी चकराती है।
क्रूर नियति की दुर्घटना से,
मेरा भारत छला गया।
असाधारण अजेय सेनापति,
मेरे देश का चला गया।
राष्ट्र सुरक्षा और सेना की,
पावन वर्दी उनका ईमान रही।
देश के खातिर हर खतरे से,
टकराना उनकी पहचान रही।
आतंक और चीन की चालाकी को
हर पग से ललकारा है।
जो भी टकराया भारत से,
वो हर शत्रु हारा है।"

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