Thursday, March 24, 2022

जंगली सुअर

यह तो सौ फीसदी सच है कि 1990 में कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़कर दर-दर भटकने को मजबूर होना पड़ा। तब लगभग उन सबने भी खामोशी ओढ़े रखी, जो आज कश्मीरी पंडितों के साथ खड़े होने का नाटक कर रहे हैं। मीडिया तो तब भी था। अधिकांश सजग पत्रकार, संपादक, लेखक, प्रोफेसर और समाजसेवी भी जिन्दा थे तब, लेकिन मतलबी सत्ताधीशों और नेताओं की तरह अंधे, गूंगे और बहरे हो गये थे। आज एक फिल्म ने सभी को जुबान, कान और आंखें दे दी हैं। फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के प्रदर्शन और उसे देखने के लिए उमड़ती भीड़ को देखकर अखबारीलाल और न्यूज चैनल वाले जोश में आ गये हैं। 32 वर्षों से अपनी जड़ों में जाकर सांस लेने की राह ताकते ये लाखों लोग अभी भी सशंकित हैं। 1990 से लेकर आज तक कश्मीर से जबरन भगाये गये हिंदुओं के दर्द को बयां करने वाली कई फिल्में बनायी गयीं। उन फिल्मों को भी देखने वालों ने देखा और फिर अपने-अपने काम पर लग गये। किसी को गुस्सा नहीं आया। किसी ने भी अपने ही देश में लुट जाने वालों से मिलने की कोशिश नहीं की। फिल्म ‘द कश्मीर फाइल’ यदि पिट जाती तो कश्मीरी पंडितों की इतनी खोज खबर नहीं होती। न ही शोर शराबा मचता और सोये हुए देशवासी जाग जाते। भारत देश की ही धरा कश्मीर में हिंदुओं के कत्लेआम और विस्थापन पर बनायी गई इस फिल्म को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देखना और फिर अपनी यह प्रतिक्रिया देना कि ‘जो जमात हमेशा फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के झंडे फहराते और लहराते घूमती रहती है, वह इस फिल्म में दिखायी गयी हकीकत से बौखला गयी है।’ तथ्यों और कला के आधार पर फिल्म का मूल्यांकन करने के बजाय फिल्म को ही बदनाम करने का अभियान चलाया जा रहा है। मेरा मुद्दा फिल्म नहीं है, मेरी चिंता यह है कि सत्य जो भी है, उसे देश की भलाई के लिए सही तरीके से पेश किया जाना चाहिए।’ मोदी ने जिन पर निशाना साधा, उन्हें सभी सजग भारतीय जानते-पहचानते हैं। यह वो बेरहम, तमाशबीन चेहरे हैं, जो निर्दोषों के हत्यारे नक्सलियों और आतंकवादियों की मौत पर रोते-बिलखते नज़र आते हैं, लेकिन जवानों की शहादत पर सवाल खड़े करने लगते हैं। भेदभाव करना इनकी जन्मजात नीति है। न्याय की प्रेरक परिभाषा से भी ये हरदम मुंह मोड़े रहते हैं। किसी एक पक्ष के लिए छाती तानकर खड़े हो जाना तथा हमेशा विरोध के स्वर अलापना इनका पेशा है, जिसकी कमायी पर ये जिंदा हैं।
    कश्मीर को खून के सैलाब में डुबोने वाले इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट यानी जेकेएलएफ के नेता बिट्टा कराटे यानी फारुख अहमदडार के विडियो पहले भी आते और संवेदनशील भारतीयों का रक्त खौलाते रहे हैं। इसने 1991 में दिये गये इंटरव्यू में अपनी शान बघारते हुए बताया था कि वह बीस कश्मीरियों को मौत के घाट उतार चुका है। मजहब के नाम पर अंधे हुए इस जंगली सुअर ने यह कहकर अपना असली निर्मम चेहरा दिखा दिया था कि यदि उसे अपनी मां या भाई के कत्ल का आदेश मिलता तो वह उनकी भी हत्या कर देता। इस जंगली जानवर ने यह भी कबूला था कि उसने कश्मीरी पंडितों के सिर और दिल में गोली मारी थी और उसका निशाना कभी भी नहीं चूकता था। इस आतंकी सुअर की ट्रेनिंग भी सीमा पार उस पाकिस्तान के आतंकी कैंप में हुई थी, जहां से ट्रेंड होकर आये हजारों आतंकवादियों ने कश्मीरी हिंदुओं की नृशंस हत्या की थी। कश्मीर से जबरन भगाये गये लाखों लोगों में कश्मीरी पंडितों के साथ-साथ कश्मीर के मुसलमान और सिख समुदाय के लोग भी शामिल थे। बेइंतहा जुल्मों के शिकार बनाये गए लोगों का वक्त पढ़ने पर उनके पड़ोसियों ने भी ज्यादा साथ नहीं दिया। उन्हें अपनी जान बचाने के लिए कहां-कहां नहीं छिपना पड़ा था। अपनी बहन-बेटियों की अस्मत को बचाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी भी देनी पड़ी। फिर भी वहशीपन बेलगाम था। खून से सने चावलों को अकेले पड़ चुके इंसानों को खिलाया गया। रिश्तों की कोई कीमत नहीं रही। दरिंदगी ऐसी कि जब फिल्म देखकर दर्शकों का खून खौल गया, तो सोचें तब उन चश्मदीदों पर क्या गुजरी होगी, जिन्होंने अपनी बहन, बेटी और मां को हैवानी बलात्कार का शिकार होने के बाद आरामशीन से टुकड़ों में कटते देखा होगा। उग्रवादियों की क्रूर हिंसा जब लाखों भारतीयों को कश्मीर से विस्थापित करने में लगी थी, तब मानवता ने भी फांसी लगा ली थी और मानवाधिकार के पैरोकार शराब के प्यालों में डूबकर गीत और गजलें सुन रहे थे। लुटने और मरने वालों की चीत्कार उन तक पहुंच ही नहीं पा रही थी।
    आज देश के जागे हुए लोगों ने एक फिल्म की तारीफ क्या कर डाली, फिल्म ने करोड़ों-अरबों रुपये क्या कमा लिए कि अपने आपको सेक्युलर-लिबरल कहने वाले कई प्रोफेसर, ब्लागर, पत्रकार, संपादक और देश को तोड़ने के सपने देखते आ रहे कन्हैया मार्का जमूरे ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म की तर्ज पर गुजरात फाइल्स बनाने की मांग करने लगे हैं। यह नाटक-नौटंकी सिर्फ इसलिए क्यूंकि मोदी ने जनसंहार का सच दिखाने वाली ऐतिहासिक पहल की प्रशंसा कर दी! विस्थापितों ने तो कभी बदले की बात नहीं की। अरे! तुम भी बना लेते कोई फिल्म, जिसमें गुजरात दंगों का सच होता। तुम्हें किसने रोका था। तुम्ही ही तो हो जो हत्यारे आतंकवादियों को फांसी के फंदे से बचाने के लिए आधी रात को कोर्ट के दरवाजे भी खुलवाते रहते हो। तुम तो क्रिया की प्रतिक्रिया वाली सोच के मारे हो। सिर्फ विरोध करने और खामियां तलाशने के लिए जन्में हो। ऐसे ही मर-खप जाओगे। चुनाव में खड़े होकर अपनी जमानतें जब्त कराने के बाद भी अपनी औकात के असली चेहरे से कब तक बचने का ढोंग करते रहोगे?
    तुम जिस हिंदुस्तान का अन्न खाते हो, वो दुनिया का सबसे महान और बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यहां तुम्हारा पक्षपाती तंत्र नहीं चल सकता। यहां सभी आपस में अमन चैन से रहना चाहते हैं। यहां के देशप्रेमी कभी भी तुम्हारे मंसूबे पूरे नहीं होने देंगे। यह देश एक है, एक रहेगा। तुम लाख इसके टूटने और टुकड़े-टुकड़े होने की मनोकामना के नारे लगाते रहो। कोई नहीं सुननेवाला। जब से ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म देखकर निकला हूं तभी से इसके किरदार मेरे साथ बने हुए हैं। हाथ में धारा 370 हटाओ की तख्ती लिए पुष्करनाथ पंडित के साथ और भी लाखों विस्थापित भारतीय भारत देश के प्रधानमंत्री से विनती कर रहे हैं, पूछ रहे हैं कि आपने कश्मीर से 370 धारा तो हटा दी, लेकिन हमें अब भी कब तक भटकते रहना होगा। हमें हमारी जड़ों तक पहुंचाने, ज़मीन और घर वापस दिलवाने और सुरक्षित रहने का अधिकार दिलवाने का जिम्मा भी आपका ही है। यदि आप यह काम नहीं कर पाए तो इतिहास आपकी सराहना करने में सकुचाएगा। इसलिए भले ही यहां और वहां के कितने ही जंगली सुअरों का खात्मा करना पड़े, लेकिन आप अपना धर्म निभाएं। यदि आप असफल रहे तो यहां दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं दिखता जो हमें न्याय दिलाए और हमारे अंधेरे दूर कर पाए।

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