Thursday, June 9, 2022

लक्ष्मण रेखा

    अत्यंत दुखद खबर। पिछले महीने ही तो अरविंद से बड़े खुशनुमा माहौल में मुलाकात हुई थी। अरविंद ने अपनी भावी योजनाओं से भी अवगत कराया था। बेटी की शादी को लेकर उसने बहुत कुछ सोच रखा था। बेटे को विदेश में मोटी पगार पर नौकरी मिलने की खुशी में उसने मित्रों को शहर के बड़े होटल में पार्टी दी थी। कहता था कि बेटे की शादी बड़ी धूमधाम से करूंगा। वर्षों से हमारे परिवार में कोई मंगल-उत्सव नहीं हुआ। अचानक उसकी मौत की खबर ने मेरे पैरोंतले की जमीन हिला दी। श्मशान घाट पर ही उसके रिश्तेदारों से पता चला कि वह पिछले कई महीनों से कैंसर से लड़ रहा था। अरविंद अंधाधुंध सिगरेट पीने का लती था। तंबाकू और खैनी चबाते मैंने जब-जब उसे देखा तो जरूर टोका था, लेकिन कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी उसे अपना शिकार बना लेगी इसकी मैंने दूर-दूर तक कल्पना नहीं की थी। देखने में वह स्वस्थ हट्टा-कट्टा लगता था। कुछ वर्ष पूर्व हमारे मित्र दैनिक अखबार, ‘सुबह-सुबह’ के संपादक उत्कर्ष वर्मा की भी इसी कैंसर से मौत हो गई थी। वह सिगरेट और तम्बाकू के बिना रह ही नहीं पाते थे। उनका कहना था कि तंबाकू खाने-चबाने से उन्हें दिमागी शांति मिलती है। कुछ नया सोचने और लिखने का मूड बनता है। तंबाकू नहीं मिलने पर बेचैन हो जाने वाले उत्कर्ष ने अपने जीवनकाल में सिगरेट, तंबाकू, गुटका, खैनी, सुर्ती आदि खाने से होने वाले शारीरिक और मानसिक नुकसान के बारे में न जाने कितने लेख और संपादकीय लिखे होंगे, लेकिन खुद इनके चंगुल से नहीं बच पाया! लोगों को जब पता चला कि विचारक उत्कर्ष वर्मा तंबाकू के अत्याधिक सेवन से हुए मुंह के कैंसर से चल बसे तो उनकी कथनी और करनी को लेकर बातों पर बातें होती रहीं।
देश के विख्यात दैनिक समाचार पत्र ‘पंजाब केसरी’ के जुझारू संपादक अश्विनी कुमार भी गुटके के शौक के चलते कैंसरग्रस्त हुए और विदेश में इलाज करवाने के बावजूद बच नहीं पाये। ऐसे कितने नाम हैं, जिनकी निराली शान थी, लेकिन तंबाकू, गुटका, सिगरेट उनके ऐसे साथी बने कि परलोक जाने से बच नहीं पाये। यह सिलसिला सतत जारी है। कई डॉक्टर... इंजीनियर, उद्योगपति, सी.ए., साहित्यकार, साधु-संत इसके चक्कर में पड़े नज़र आते हैं, जबकि उन्हें हश्र का भी पता है। सिगरेट और तंबाकू के खिलाफ चलाये जाने वाले विभिन्न जागृति अभियानों में प्रभावी लेक्चर देने वाले एक प्रोफेसर की गले के कैंसर से तिल-तिल मरने की हकीकत को यह कलमकार कभी भूल नहीं सकता। इन महाशय को अपने छात्रों के समक्ष भी धुआं उड़ाने में कोई परहेज नहीं था। कुछ लोग ऐसे भी रहे हैं, जिन्होंने वर्षों तंबाकू-गुटके की लत की वजह से कैंसर का जबरदस्त कहर झेला, लेकिन अंतत: कैंसर से जीत कर भी दिखाया। छत्तीसगढ़ के शहर बिलासपुर में रहते हैं द्वारिका प्रसाद अग्रवाल। जाने-माने साहित्यकार हैं, जिनकी लिखी किताबें पाठकों को पसंद आती हैं और उन्हें जीने की प्रेरक ताकत देती हैं। तीन बार उन पर कैंसर की गाज गिरी। दोनों गाल इसके शिकार हुए। सारे दांतों ने साथ छोड़ दिया, पूरे चेहरे का नक्शा बिगड़ गया। स्पष्ट बोलना मुश्किल हो गया। मौत उनके निकट थी, लेकिन वे साहसी मनोबल की मजबूत डोर से बंधे रहे। कैंसर से वर्षों तक लड़ाई लड़ते हुए अंतत: उन्होंने विजय पायी और आज 75 वर्ष की उम्र में किताबें लिखकर और घंटों भाषण देकर लोगों में जागृति लाने के काम में लगे हैं। खुद को महान दार्शनिक... बुद्धिजीवी दिखाने, दर्शाने के लिए कई कवि, कथाकार, उपन्यासकार भी ये रोग पाले हुए हैं। शराब के घूंट-घूंट के साथ मदमस्त सिगरेट के कश लेने में उन्हें अथाह खुशी मिलती है। उन्हें याद ही नहीं रहता कि यही मौज-मज़ा बाद में जीते जी नर्क के दीदार करवाने वाला है।
    कोरोना काल ने भी कई लोगों को सिगरेट, तंबाकू, गुटखा ने अपनी तरफ आकर्षित किया। नये-नये बीड़ी पीने और खैनी खाने वाले पैदा हुए। यूनीसेफ की रिपोर्ट बताती है कि भारत के युवाओं में सिगरेट व अन्य नशीले पदार्थों का सेवन निरंतर बढ़ रहा है। लड़कियों और महिलाओं का इसके चंगुल में गहरे तक फंसते चले जाने और चिंता बढ़ाने वाला है। चिंताजनक सत्य तो यह भी है कि सरकारें तथा लालची उद्योगपति जिस तरह से अपने फायदे के लिए इन नशों को सुलभ करवा रहे हैं उससे ‘विश्व तंबाकू निषेध दिवस’ के नाम पर लोगों में जागृति लाने की कोशिशें महज ढकोसला ही लगती हैं। एक तरफ सिगरेट, गुटका के विज्ञापनों की झड़ी लगी है तो दूसरी तरफ अस्पतालों में कैंसर रोगियों की कतारें लगी हैं। शाहरुख खान, अक्षय कुमार, अमिताभ बच्चन फिल्मी अभिनेता करोड़ों की कमायी कर रहे हैं। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में हिस्ट्री ऑफ साइंस के प्रोफेसर राबर्ट प्रॉक्टर, जिन्होंने तंबाकू-सिगरेट से होने वाले नुकसान को गंभीरता से समझा और जाना है, वर्षों से दुनियाभर के लोगों को सचेत करने में लगे हैं। उन्होंने हैरतअंगेज रहस्योद्घाटन किया है कि तंबाकू को सिगरेट में तब्दील करने की टेक्नोलॉजी से अधिक खतरनाक दुनिया में अब तक कुछ नहीं बना। सिगरेट के जरिए तंबाकू का धुआं गले में नहीं लगता और लोग इसे फेफड़े तक खींचते हैं। विभिन्न कंपनियों में लाइट, फिल्टर्ड और सुगंधित सिगरेट बनाने की होड़ मची है। सिगरेट जितनी लाइट है, उतनी ही ज्यादा फेफड़ों को तबाह करती है। सच तो ये है कि सिगरेट तबाही और भ्रष्टाचार की उपज है। इस जानलेवा खेल में वैज्ञानिकों और विज्ञापनों का भरपूर योगदान है। जब धन कमाने का इतना लालच नहीं था, मशीनों ने भी मानव के श्रम पर सेंध नहीं लगायी थी तब एक व्यक्ति अधिक से अधिक 200 सिगरेट बना पाता था, लेकिन आज एक मशीन ही एक मिनट में बीस हजार सिगरेट बनाती है। इनमें सायनाइड, रेडियोएक्टिव आइसोटोप और अमोनिया जैसे करीब 600 किस्म के ज़हरीले पदार्थ मिलाकर बाजार में धड़ाधड़ खपाया जाता है। यदि सरकारें इस मौत के सामान को बनाने और बेचने का लाइसेंस देना बंद कर दें तो लाखों लोगों की जान बच सकती है। सरकारें अंधी नहीं। उन्हें भी खबर है कि हर वर्ष छह लाख करोड़ सिगरेटों का धुआं करोड़ों लोगों को मौत के हवाले कर रहा है। मात्र सिगरेट निर्माण के लिए ही 60 करोड़ पेड़ों की बलि चढ़ायी जा रही है। तंबाकू की खेती से लेकर सिगरेट बनाने की प्रक्रिया में जो जलवायु में बदलाव हो रहा उससे कितनी जानें जा रही हैं उसका तो कोई हिसाब ही नहीं है। अंतिम सच यही है कि, तंबाकू का सेवन और धूम्रपान एक बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। जिसने भी नशा करने की लक्ष्मण रेखा पार की उसने देर-सबेर मुंह, गले, फेफड़े, गुर्दे के कैंसर एवं अन्य कई बीमारियों की सज़ा भुगती है। ब्रिटेन के एक शहर में प्रशासन ने धूम्रपान पर अंकुश लगाने के लिए घोषणा की है कि जो भी स्मोकिंग से तौबा करेगा उसे बीस हजार रुपये दिए जाएंगे। अपने देश के नागरिकों को इस जानलेवा लत से दूर रखने के लिए करोड़ों का बजट पास किया गया है।

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