Thursday, September 29, 2022

जय भारत देश

    जब सातवीं-आठवीं में था तभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक के बारे में जानने और सुनने लगा था। बंटवारे के बाद किसी तरह से जान बचाकर पहले अमृतसर फिर पानीपत के शरणार्थी शिविर में महीनों रहे पिता और चाचा ने बताया था कि किस तरह से राष्ट्रीय संघ से जुड़े युवकों ने दिन-रात उनकी सहायता की थी। बेसहारों का सहारा बन भूखे-प्यासे स्त्री-पुरूषों, बच्चों, युवकों तथा वृद्धों की तन-मन से सेवा कर उनका दिल जीत लिया था। वो 1947 का काल था। तब आजादी की खुशी भी थी, भारत के विभाजन की पीड़ा भी थी। अपने बसे-बसाये घरों से बेघर कर दिये गए करोड़ों लोगों को नये ठिकाने की तलाश थी। वक्त के पास हर जख्म का इलाज है। धीरे-धीरे उसने जख्मों को भर दिया।
    आजादी के बाद के वर्षों में भी निरंतर हम आरएसएस के कर्मठ, जूनूनी कार्यकर्ताओं की सहायता और सेवाभावना से अवगत होते चले आ रहे हैं। देश में कहीं भी अकाल पड़ा हो, बाढ़ आयी हो या फिर कोई बड़ी आपदा और दुर्घटना ने कहर ढाया हो तो आरएसएस के हिम्मती सैनिक बिना किसी भेदभाव के तन-मन और धन से मानव सेवा कर इंसानियत का धर्म निभाते नजर आते हैं। संघ को कभी भी प्रचार की भूख नहीं रही। चुपचाप मानव सेवा करते हुए इसने अपने कद को बढ़ाया है और विरोधियों को अपनी सुनी-सुनायी राय बदलने के लिए प्रेरित किया है। राष्ट्रीय सेवक संघ की स्थापना वर्ष 1925 में, विजयादशमी के शुभ दिन हुई थी। इस संगठन की नींव रखी थी प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने, जिनका बस यही सपना था कि भारत एक ऐसा मजबूत राष्ट्र बने, जहां सभी बराबर हों। कहीं कोई ऊंच-नीच का भाव न हो। सभी के मन में राष्ट्र की एकता व अखंडता के पवित्र विचार कूट-कूट कर भरे हों। हर कोई भारत माता के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने के लिए हमेशा कमर कस कर तैयार रहे। डॉ. हेडगेवार ने 97 वर्ष पूर्व जो बीज बोया था वह आज वटवृक्ष बन चुका है। यह सच जगजाहिर है कि इस वटवृक्ष के जहां बेशुमार प्रशंसक हैं, वहीं इसके कई आलोचक भी हैं, जिन्हें इसकी बुराई करते रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता। कुछ बुद्धिजीवियों ने तो आरएसएस की आलोचना करते रहने की कसम खा रखी है। मीडिया के कई चेहरों को भी भारतीय जनता पार्टी तथा आरएसएस मुसलमानों को शत्रु प्रतीत होती है। आरएसएस को भाजपा का संरक्षक भी कहा जाता है, लेकिन उसने हमेशा खुद को विशुद्ध सांस्कृतिक संगठन कहलवाना पसंद किया है। किसने किसके कंधे पर बंदूक रख रखी है इसका जवाब आसान भी है और मुश्किल भी।
    आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख इमाम उमर अहमद इलियासी से मुलाकात की तो ऐसा हंगामा और शोर मचा जैसे कोई अकल्पनीय कांड घट गया हो। मोहन भागवत ने इमाम उमर इलियासी के पिता जमील इलियासी की पुण्यतिथि पर उनकी मजार पर जियारत की और एक मदरसे का दौरा भी किया। वहां पर उन्होंने बच्चों से उनकी पढ़ाई के बारे में जानकारी लेते हुए पूछा कि वे अपने जीवन में क्या हासिल करना चाहते हैं। बच्चों ने पढ़-लिखकर डॉक्टर और इंजीनियर बनने की प्रबल इच्छा व्यक्त की। संघ प्रमुख के मस्जिद में कदम रखने से देश में यकीनन एक अच्छा सकारात्मक संदेश गया है। कुछ अमन के शत्रुओं को भागवत की इस पहल से जबर्दस्त धक्का लगा है। हिंदुओं और मुसलमानों में ऐसे कुछ लोग भरे पड़े हैं, जिनकी एकता, आपसी सद्भाव और शांति के मार्ग से कट्टर दुश्मनी है। मार-काट और खून-खराबा पसंद करने वाले इन अमन के दुश्मनों को आपसी मेलमिलाप की कोई भी कोशिश और मुलाकात रास नहीं आती। इस ऐतिहासिक मुलाकात के दौरान इमाम इलियासी का मोहन भागवत को राष्ट्रपिता और राष्ट्रऋषी कहना भी ऐसे विघ्न संतोषियों को शूल की तरह चुभा है। निमंत्रित मेहमान को आदर सूचक शब्दों से नवाजना इस देश की सदियों से चली आ रही पुरातन आदर्श परंपरा है।
यहां पर लिखना और बताना भी जरूरी है कि भारत के अधिकांश हिंदुओं और मुसलमानों में सद्भाव और भाईचारा यथावत बरकरार है। हाल के वर्षों में जो प्रचारित किया जा रहा है उसमें अतिशयोक्ति काफी ज्यादा है। भारत भूमि पर रहने वाले हर सजग हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन यहूदी और पारसी के मन में एक-दूसरे के धर्म के प्रति अपार सम्मान है। एक-दूसरे के पूजा स्थलों पर माथा टेकने में उन्हें खुशी और संतुष्टि मिलती है। मुंबई की हाजी अली दरगाह हो या नागपुर में स्थित ताजुद्दीन बाबा की दरगाह... यहां आपको सभी धर्मों के लोग चादर चढ़ाते और इबादत करते मिल जाएंगे। राजस्थान के अजमेर शरीफ में यह जान पाना मुश्किल होता है कि किसका किस धर्म से वास्ता है। सभी मानवता के रंग और खूशबू में महकते नज़र आते हैं। लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर पटरियों के बीच खम्मन पीर बाबा की दरगाह पर हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई... सभी पूरी आस्था के साथ शीश नवाते हैं। आंध्रप्रदेश के कडप्पी में श्री लक्ष्मी वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में रोज मुस्लिम एवं अन्य धर्मों के लोग एक जैसी पवित्र सोच के साथ आते हैं। अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में भी किसी एक धर्म के नहीं सभी धर्मों के लोग माथा टेकने जाते हैं और छक कर पवित्र लंगर का सात्विक आनंद उठाते हैं। तामिलनाडु के वेलंकनी चर्च में सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा कर पहुंचने वालों में भी हर धर्म के लोगों का समावेश रहता है। यह तो नाम मात्र के उदाहरण हैं। भारतवासियों की एक दूसरे के धर्म के प्रति आदर-सम्मान और आस्था की हकीकतों असंख्य रंग और जीवंत तस्वीरें हैं, जिन्हें देखने के बाद पक्का यकीन होता है कि सभी भारतवासी एक सूत्र में बंधे हैं, भले ही पूजा-पद्धति अलग-अलग है। भारत का हर आम आदमी आपसी प्रेम-प्यार, अटूट सद्भाव और एकता के साथ रहने का प्रबल अभिलाषी रहा है। कुछ स्वार्थी दुष्ट लोगों की तोड़क सोच और अंधी राजनीति देश की फिज़ा को बदरंग करने की साजिशें जरूर रचती रहती है, लेकिन लाख सिर पटकने के बाद यदि वे असफल हैं तो उन आम भारतीयो की वजह से जो किसी दुष्चक्र में कभी भी नहीं फंसते।

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