एक खबर पढ़ी। दुनिया इन दिनों अकेलेपन से लड़ रही है। सच्चे दोस्त नदारद हैं। इंसान का इस तरह से खुद को अकेला महसूस करना बड़ा खतरनाक है। किसी अमेरिकन संस्था का सर्वे है कि अकेलापन एक दिन में 15 सिगरेट पीने के बराबर नुकसान करता है। यानी अकेलेपन से कैंसर एवं अन्य गंभीर रोगों का खतरा! कोरोना महामारी ने इंसानों को एकांतजीवी बनाने की नींव रखी। अपनों से भी पहले-सा लगाव नहीं रहा। बस एक ही भय कि कौन जाने कब यह दुनिया खत्म हो जाए। अपने हिस्से का जीवन जी लें। भरपूर मौजमस्ती कर ली जाए। सबकुछ समेट लिया जाए। दहशत, मतलबपरस्ती और भागम-भाग के ऩजारों के बीच कुछ खबरें ऐसी भी, जो बता रही हैं कि सुखद बदलाव के लिए कुछ लोग दूसरों की खुशी के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तत्पर हैं। यह लोग अतीत में नहीं, वर्तमान में जीने के पक्षधर हैं। इनका मानना है कि वर्तमान ही भविष्य बदल सकता है। इसलिए वे रूढ़िवादी सोच, कुप्रथाओं और बौद्धिक पिछड़ेपन से समाज को मुक्ति दिलाने की लड़ाई में अकेले ही बेखौफ अग्रसर हैं।
इस आधुनिक दौर में भी कुछ कुरीतियों और विष-सी पुरातन परंपराओं ने भारतीय स्त्रियों का पीछा नहीं छोड़ा है। धर्म, इज्जत, मान-मर्यादा और संस्कारों के नाम पर जुल्म ढाने की प्रवृति आज भी कहर ढा रही है। पति की मौत के पश्चात गमगीन महिला की मांग का सिंदूर और उसकी चूड़ियों को तोड़ने के दृष्य कभी न कभी आपने भी जरूर देखे होंगे। विधवा होते ही अच्छी-खासी नारियों को सफेद लिबास पहनने को विवश करने का चलन कहीं कम तो कहीं ज्यादा आज भी बना हुआ है। उनकी आजादी पर अंकुश लगाने वाले कई परिवार आज भी संस्कारों के गीत गाते नहीं थकते। उनका मानना है कि पति को खोने के बाद पत्नी के लिए कुछ भी नहीं बचता। हंसी-खुशी, बोलना-बतियाना खत्म हो जाता है। परिवार और समाज से दूर सफेद परिधान में गम की काली चादर ओड़े रहना हर विधवा का मुकद्दर है। इसमें कहीं न कहीं ऊपर वाले की मर्जी भी है। इस निर्दयी परिपाटी को देखकर भी अक्सर यह सोच कर अनदेखा कर दिया जाता है कि यह तो सदियों से चली आ रही परंपरा है, जो सुहागन के विधवा होने की पहचान है। महाराष्ट्र के पुणे जिले की हवेली तहसील के मांजरी खुर्द की ग्राम सभा में एक ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है कि उनके गांव में अब पति की मौत के बाद महिला का न तो सिंदूर पोंछा जाएगा और न ही मंगलसूत्र तथा चूड़ियों को तोड़ा जाएगा। दरअसल हुआ यूं कि गांव के एक परिवार के युवक की आकस्मिक मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार के दौरान उसकी पत्नी के शरीर से गहने निकालने के दस्तूर को निभाने की तैयारी चल रही थी, तभी सामाजिक कार्यकर्ता अशोक आव्हाले ने उनके परिवार के सदस्यों से इस प्रथा को बंद करने का आग्रह करते हुए कहा कि अपने जीवनसाथी की मृत्यु से दुखी और निराश महिला का सिंदूर पोंछना, मंगलसूत्र और चूड़ियां तोड़ना, पैर की बिछिया उतारना एक तरह से उसको असहाय-अलग-थलग और नीचा दिखाना-दर्शाना है। वर्षों से चली आ रही इस अमानवीय कुप्रथा को खत्म करने के लिए हम सभी को आज और अभी पहल करनी होगी। उनके इस सुझाव को सभी ग्रामीणों ने तुरंत स्वीकृति दे दी।
जब हर तरफ तरक्की और बदलाव की लहर चल रही है तब अपने देश में तंत्र-मंत्र, अंधविश्वास और भूतप्रेत के शक की बीमारी का सीना ताने रहना चिंतित करने के साथ-साथ शर्मिन्दगी के दंश भी चुभोता है। सामंती सोच और अंधविश्वास की जंजीरों में जकड़े लोगों को दबे-कुचले पुरुषों तथा गरीब, असहाय महिलाओं को प्रताड़ित करने के बहानों की सतत तलाश रहती है। उनके खेतों की फसलें सूख जाएं, उजड़ जाएं, कुंओं का पानी नदारद हो जाए या फिर किसी को कोई जानलेवा बीमारी जकड़ ले तो दबंगों का ध्यान गरीबी, बदहाली से लड़ती अकेली औरत पर सबसे पहले जाता है। अभी हाल ही में झारखंड के एक गांव में कुछ लोगों ने डायन होने के शक में एक महिला को घर से जबरन उठाया और चौराहे पर लाकर मारपीट करने के बाद गांवभर में निर्वस्त्र घुमाया। उनकी मंशा तो उसे मौत के घाट उतार देने की थी, लेकिन कुछ समझदार लोगों के विरोध के चलते उनकी नहीं चल पाई।
वर्षों पहले ऐसा ही कुछ हुआ था बीरबांस गांव की छुटनी महतो के साथ, लेकिन उसने भाग खड़े होने की बजाय तंत्र-मंत्र और अंधश्रद्धा की जंजीरों में जकड़े अंधे-बहरे जुल्मियों का डट कर सामना करने की ठानी थी। छुटनी 12 साल की थी तभी घरवालों ने उसका ब्याह कर दिया था। वो वर्ष 1995 का कोई दिन था, जब उसके पड़ोसी की बेटी बीमार हो गई थी। कुछ लोगों ने तुरंत छुटनी पर शक की उंगलियां ताननी शुरू कर दीं कि इसी ने बच्ची पर कोई टोना-टोटका किया है, जिससे उसने एकाएक बिस्तर पकड़ लिया है। पंचायत ने भी छुटनी को डायन घोषित करने में देरी नहीं लगायी थी। उस पर पांच सौ रुपये का जुर्माना भी लगाया गया था। छुटनी ने जुर्माना भर दिया, लेकिन ग्रामीणों का उसके प्रति संदेह और रोष यथावत बना रहा। इसी दौरान एक सुबह छुटनी के मन में विचार आया कि उसने जब कुछ गलत किया ही नहीं तो सज़ा क्यों भुगती। किस गुनाह के लिए उसने तुरंत जुर्माना भर दिया? उसी दिन छुटनी ने कसम खाई कि अब वह शांत नहीं बैठेगी। बेकसूर औरतों को डायन घोषित कर प्रताड़ित करने वाले लोगों के खिलाफ खुलकर लड़ाई लड़ेगी। भले ही इसके लिए उसे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। तब अपने ही समाज के अंधविश्वासी पुरुषों तथा स्त्रियों के खिलाफ लड़ाई लड़ना कोई आसान काम नहीं था। छुटनी को जैसे ही किसी महिला को डायन करार देने की खबर मिलती तो वह उसके पक्ष में डटकर खड़ी हो जाती और उस महिला को सहारा देकर उसका हौसला बढ़ाती। छुटनी की इस क्रांतिकारी पहल का जहां शुरू-शुरू में कई ग्रामीणों ने विरोध किया, लेकिन आज सभी उसके साथ खड़े नजर आते हैं। अकेली छुटनी अब तक 200 से ज्यादा महिलाओं को दबंगों की प्रताड़ना से बचाकर उनका पुनर्वास कर चुकी है। दुखियारी महिलाओं को जागृत कर उनकी हिम्मत बढ़ाने का कीर्तिमान रच रही छुटनी को 2021 में भारत सरकार के द्वारा ‘पद्मश्री’ सम्मान से नवाजा जा चुका है। आज छुटनी जहां से भी गुजरती है, वहां पर उसे सम्मानित करने वालों की कतार लग जाती है। दूर और आसपास के गांवों के आम और खास लोग भी उसे अपने यहां निमंत्रित कर फूले नहीं समाते। वे भी चाहते हैं कि उनके यहां भी कोई हिम्मती छुटनी सामने आए जो कुप्रथाओं के खिलाफ जंग लड़ने की पहल की मशाल जलाए।
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