Thursday, August 24, 2023

उधार के अस्त्र-शस्त्र

    अब तो नेता और अभिनेता खुलकर अपने भाषणों में गीत और ग़ज़लों को सजाने लगे हैं। कालजयी कहानीकार, पत्रकार प्रेमचंद ने कहा भी है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। गुलामी के दौर में लोगों में जागरूकता लाने तथा उनमें अंग्रेजो के खिलाफ आक्रोश की आग जलाने के लिए कवियों तथा शायरों ने अपना भरपूर योगदान दिया। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ जैसे शब्द उनके लिए क्रांति की मशाल थे। प्रेरक साहित्य रचने वालों का इस देश में हमेशा मान-सम्मान होता आया है। उनकी लिखी उम्दा कविताएं और ग़ज़लें आम और खास लोगों के साथ-साथ उच्च शिक्षाविदों के दिलोदिमाग में भी अमिट छाप छोड़ जाती हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी तो स्वयं एक महान कवि थे। आज भी उनकी कविताओं के लाखों प्रशंसक हैं। दूर-दूर तक असर छोड़ने वाली शायरी को बार-बार सुनने और गुनगुनाने का मन करता है। कई धुरंधर वक्ता अपने भाषणों में फैज अहमद फैज, राहत इंदौरी, रामधारी सिंह दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, अशोक अंजुम, कुमार विश्वास आदि-आदि की शायरी और कविताओं को बड़े गर्व के साथ पढ़ते और सुनाते हैं, लेकिन उन्हें उनका नाम बताने में झिझक होती है या फिर बताना जरूरी नहीं समझते। वे ये भ्रम भी फैलाते हैं कि इन्हें तो उन्हीं ने ही रचा है। इन भाषणवीरों को पता ही नहीं होता कि कई रातों की जगायी के बाद किसी बेहतरीन कविता और ग़ज़ल का जन्म होता है। लाखों पाठकों की पसंद बनने वाली हर रचना में रचनाकार की अपार मेहनत छुपी होती है। पचासों ग़ज़ले, कविताएं लिखने के बाद भी हर किसी के हिस्से में ख्याति नहीं आती। कुछ ही रचनाएं कालजयी हो पाती हैं। ऐसी कालजयी रचनाओं को अपना अस्त्र-शस्त्र बनाने वाले ताली वीरों को इस हकीकत का आभास दिलाना भी नितांत आवश्यक है। 

पिछले कई वर्षों से हिंदी के ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार की ग़ज़ले विभिन्न दिग्गजों के भाषणों की रौनक बढ़ाने का माध्यम बनी हुई हैं। कई राजनेताओं का भी शेरो-शायरी और कविताओं की चुनींदा लाइनों से लगाव अक्सर परिलक्षित होता रहता है। जब उन्हें किसी पर निशाना साधना होता है, अन्यथा सारांश में बड़ी बात कहनी होती है, तब वे किसी शायर, ़ग़जलकार की प्रभावी पंक्तियों का इस्तेमाल करने के साथ-साथ यह संदेश भी दे देते हैं कि वे भी प्रेरक साहित्य पढ़ने के लिए समय निकालना नहीं भूलते। देश के प्रधानमंत्री तक श्रोताओं को प्रभावित करने के लिए कविताओं तथा ़ग़जलों की चंद लाइनों का सहारा लेना नहीं भूलते। उनके साहित्य प्रेम पर शंका की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने अपना काफी समय पर्यटन और अध्ययन में व्यतीत किया है। बीते वर्ष जब वे विरोधी सांसदों से मुखातिब थे, तब उन्होंने काका हाथरसी की कविता के इन चंद शब्दों का जो नुकीला तीर छोड़ा था, उससे उन्हें खूब तालियां मिली थीं-

‘‘आगा पीछा देखकर क्यों होते गमगीन

जैसी जिसकी भावना वैसे दिखे सीन।’’

काका हाथरसी शुद्ध हास्य कवि थे। उनके हास्य में व्यंग्य भी रचा-बसा रहता है। मोदी जी को अपने विरोधियों पर व्यंग्यबाण चलाने के लिए उपयुक्त शब्दावली भायी तो उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय देने में देरी नहीं की। 

देश के आम आदमी के दिल-दिमाग तक अपना असर छोड़ने वाली ग़ज़लों से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले दुष्यंत कुमार की विभिन्न ग़ज़लों के अंशों को नेताओं के साथ-साथ बुद्धिजीवियों ने भी खूब भुनाया और वाहवाही लूटी है। उनकी लिखी यह पंक्तियां तो कभी ओझल और पुरानी नहीं हुईं-

‘‘मेरे सीने में नहीं तो

तेरे सीने में सही

हो कहीं भी आग... लेकिन

आग जलनी चाहिए।’’

दुष्यंत कुमार ने जिस बेचैन कर देने वाली दूषित व्यवस्था के खिलाफ लिखा, जिन नेताओं और सत्ताधीशों को जीभरकर कोसा, वे भी उनकी ग़ज़लों को अपना हथियार बनाने से नहीं सकुचाते। दुष्यंत कुमार अपनी तीखी तेज-तर्रार ग़ज़लों के जरिए गरीबों, शोषितों, बदहालों और बेबसों को जगाना चाहते थे और शोषकों को इंसानियत की राह पर चलते देखना चाहते थे। आम आदमी के साथ होते घोर अन्याय और उसके निरंतर पिसने और मिटने को लेकर दुष्यंत कितने आहत थे इसका पता उनकी यह पंक्तियां बताती हैं-

‘‘हो गई है पीर पर्वत सी

पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा

निकलनी चाहिए।’’

इसके साथ ही यह पंक्तियां भी काफी असरदार हैं। इनका उपयोग भी नेताओं तथा अभिनेताओं को धड़ल्ले से करते देखा जाता है। सदाचारियों के साथ-साथ दूसरों का हक मारने वाले भ्रष्टाचारी भी इन लाइनों की बदौलत तालियों का आकर्षक उपहार पाते चले आ रहे हैं-

‘‘कौन कहता है, आसमान में

सुराख नहीं हो सकता, 

एक पत्थर तो तबीयत से 

उछालो यारो...।’’

जिस तरह से प्रेमचंद पूंजीवाद, सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ सशक्त लेखन करते हुए लोगों को जागृत करने की कोशिशें करते रहे, उसी तरह से दुष्यंत कुमार भी जीवनपर्यंत अपने मोर्चे पर डटे रहे। प्रेमचंद का जब निधन हुआ तब वे 56 वर्ष के थे। दुष्यंत तो मात्र 42 वर्ष की उम्र में ही चल बसे, लेकिन दोनों ने ऐसा साहित्य रचा, जिससे उनका नाम अमर हो गया। यह भी सच है कि दोनों ही जिन बुरे लोगों तथा बुराइयों के खिलाफ लड़ते रहे उनका आज तलक अंत नहीं हो पाया है। प्रेमचंद का लेखन आजादी से पूर्व काल का था तो दुष्यंत का देश की स्वतंत्रता के बाद का। यह कहना गलत नहीं है कि दुष्यंत की मशाल-सी ग़ज़लों को प्रचारित प्रसारित करने में उन चेहरों की भी बहुत बड़ी भूमिका है, जो मुखौटे लगाने में अव्वल रहे हैं। जिन नेताओं, राजनेताओं, मंत्रियों, संत्रियों ने देश को लूटा और निचोड़ा वे भी बड़ी होशियारी के साथ दुष्यंत की इन पंक्तियों को गाते, दोहराते नज़र आते हैं- 

‘‘यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां

मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा होगा।’’

यह तस्वीरें ‘मेहनत करे मुर्गी, अंडा खाये फकीर’ की कहावत को भी चरितार्थ करती हैं। जब किसी भ्रष्ट बिकाऊ पत्रकार, संपादक और नेता को रामधारी सिंह दिनकर की कविता की इन पंक्तियों को अपने भाषण में रचा-बसा कर तालियां बटोरते देखा जाता है, तब भी बहुत अचंभा होता है- 

‘‘जला अस्थियां बारी-बारी

चिटकाई जिनमें चिंगारी

जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर 

लिए बिना गर्दन का मोल

कलम, आज उनकी जय बोल।’’

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