Thursday, November 2, 2023

अखबार

    हर कोई मोटी-मोटी किताबें नहीं पढ़ सकता। वेद-पुराण और महान ग्रंथ भी सभी के पढ़ने में नहीं आते। जो कम-ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, उनमें से अधिकांश हमेशा या कभी-कभार अखबार तो पढ़ ही लेते हैं। न्यूज चैनलों की खबरें भी अधिकांश लोगों तक तेजी से पहुंच जाती हैं। सजग पाठकों और दर्शकों की यह शिकायत भी है कि, अधिकांश न्यूज चैनल और अखबार राजनीति और अपराध की खबरों से विचलित और भ्रमित करते रहते हैं। फिर भी सोशल मीडिया के इस प्रलयकारी दौर में समाचार पत्रों में कुछ खबरें ऐसी पढ़ने को मिल ही जाती हैं, जो प्रेरणा के दीप जलाते हुए यह भी कह जाती हैं कि अखबार भी किसी ग्रंथ से कम नहीं। इन्हें ध्यान से पढ़ोगे तो बहुत कुछ नया जानने को मिलेगा। यह जरूरी तो नहीं कि नकारात्मक खबरों पर नजरें गढ़ायी जाएं और अपना दिन खराब किया जाए। सभी समाचार पत्रों में हर दिन एकाध ऐसी खबर तो अवश्य होती है, जो हालातों से कभी न घबराने और संघर्ष के पथ पर बढ़ते चले जाने की प्रेरणा देती है। कुछ खबरें तो मन-मस्तिष्क पर जड़े तालों को खोलती हैं। अपने सपनों को साकार करने के लिए जहां चलना और लड़ना बहुत जरूरी है, वहीं साथ, सहयोग और प्रेरणा का होना भी किसी जादूई चिराग से कम नहीं होता। 

    27 साल के महत्वाकांक्षी अरुण ने एमबीबीएस की पढ़ाई पूर्ण कर ली थी। स्नातकोत्तर की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के साथ वह एक निजी संस्थान में मेडिकल ऑफिसर के तौर पर कार्यरत था। इसी दौरान एक सड़क दुर्घटना में उसकी रीढ़ की हड्डियां बुरी तरह से टूट गईं। घर के आर्थिक हालातों के चिंताजनक होने के कारण समय पर समुचित इलाज संभव नहीं हो पाया। कमर के नीचे के हिस्से के निष्क्रिय हो जाने की वजह से दो साल तक बिस्तर पर रहना पड़ा। अपाहिज होने के बावजूद भी अरुण ने हौसले का दामन मजबूती से थामे रखा। कालांतर में अरुण व्हीलचेयर पर बैठने तो लगा, लेकिन चलना-फिरना मुश्किल था। फिर भी उसने स्नातकोत्तर की प्रवेश परीक्षा पास की, जिससे रेडियोलॉजी विशेषज्ञ के लिए उसे प्रवेश मिला। अपने भविष्य को संवारने के जुनून के साथ जब वह व्हीलचेयर पर मेडिकल कॉलेज पहुंचा तो रेडियोलॉजी विभाग प्रमुख समेत सभी वरिष्ठ अधिकारी उसकी स्थिति को देखकर चिंतित हो गए। उनके मन में विचार आया कि आखिर रेडियोलॉजी जैसे चुनौतीपूर्ण पाठ्यक्रम को वह व्हीलचेयर के सहारे कैसे पूरा कर पायेगा? कभी इस विभाग तो कभी उस विभाग जाने में कठिनाई के साथ-साथ इसका काफी समय बरबाद होगा। अरुण के आकाश से धैर्य, उत्साह, लगन और जुनून को देखते हुए विद्यार्थी कल्याण निधि से उसे एक ऑटोमेटिक व्हीलचेयर उपलब्ध करवा दी गई है। मेड-इन-मूव नाम की इस चेयर से अरुण का कहीं भी तीव्रता से जाना-आना आसान हो गया है। हमारी इस दुनिया में साथ और सहायता का हाथ बढ़ाने वालों की कमी नहीं है।

    उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में न्यूरोसर्जन डॉ. प्रकाश खेतान ने जब देखा कि उनकी 18 वर्षीय बिटिया मेडिकल प्रवेश की परीक्षा से घबरा रही है। उसकी हिम्मत जवाब दे रही है, तो उन्होंने अपने पेशे में अति व्यस्त होने के बावजूद अपनी बेटी के साथ न केवल नीट की तैयारी की, बल्कि 2023 में यह परीक्षा भी दी। पिता को 89 प्रतिशत तो बेटी को 90 प्रतिशत अंक मिले। डॉ. खेतान ने बेटी के भय और मायूसी को दूर करने के लिए तीस साल बाद फिर मेडिकल प्रवेश की परीक्षा देकर बेटी के भविष्य को संवारने में योगदान दिया। उस पर कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि यह कौन सा बड़ा काम है! अपनी संतान के लिए तो सभी मां-बाप त्याग करते ही हैं, लेकिन प्रश्न है कि कितने पिता बेटी के लिए ऐसी राह चुनते हैं? डॉ. प्रकाश का इस पहल के लिए वंदन और अभिनंदन। अभिनंदनीय और वंदनीय तो न्यायमूर्ति कुन्हिकृष्णनन भी हैं, जिन्होंने बड़े उदार और खुले मन से कहा है कि कोर्ट न्याय का मंदिर है, लेकिन जज भगवान नहीं हैं। वह बस केवल अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों का पालन कर रहे हैं। इसलिए याचिकाकर्ताओं या वकीलों को उनके सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाना नहीं चाहिए। दरअसल हुआ यूं कि जस्टिस पीवी कुन्हीकृष्णनन एक मामले की सुनवाई कर रहे थे। इसी दौरान एक महिला याचिकाकर्ता हाथ जोड़कर उनके सामने गुहार लगाते हुए फूट-फूट कर रोने लगी। निश्चय ही वह किसी के अन्याय की शिकार थी। कोर्ट के चक्कर और दुखड़ा सुनाते-सुनाते थक चुकी थी। वकीलों की फीस ने भी उसे हैरान और परेशान कर दिया होगा। फिर भी न्याय की आस नहीं जगी होगी। इसलिए उसने बड़ी हिम्मत कर जज साहब के समक्ष मुंह खोला होगा और उन्होंने भी अपनी उदारता की जो तस्वीर पेश की वैसी कम ही देखने को मिलती है। आम आदमी जज के सामने जाने से घबराते हैं। उनके समक्ष अपनी पीड़ा व्यक्त करना आसान नहीं होता। वकील भी आड़े आ जाते हैं। अपने तरीके से डराते हैं। जब इन पंक्तियों को लिखा जा रहा था तभी अखबार में प्रकाशित इस खबर पर मेरी नज़र पड़ी, ‘‘न्यूजीलैंड सरीखे छोटे देश में वहां के न्याय मंत्री को अपने पद से इस्तीफा इसलिए देना पड़ा, चूंकि उन्होंने हद से ज्यादा नशे की हालत में वाहन चलाते हुए एक खड़ी कार को टक्कर मार दी थी। टक्कर के बाद मंत्री को गिरफ्तार कर रात भर पुलिस स्टेशन में बिठाये रखा गया और सुबह घर जाने दिया गया।’’ ज़रा सोचिए, कल्पना तो कीजिए यदि भारत में ऐसा होता तो क्या होता? मंत्री को दबोचने वाला बेचारा पुलिस वाला ही अपनी वर्दी उतरवा बैठता। सज़ा तो बहुत दूर की बात की है...। अपने यहां तो कानून-कायदों का मज़ाक कानून के रखवाले ही उड़ाते देखे जाते हैं। यदि दोषी पहुंचवाला है तो उसे सलाम और आम आदमी की हर जगह बेइज्जती और अंधाधुंध मार-कुटायी और ऐसी की तैसी...।

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