Thursday, December 26, 2024

फितरत

    अपनी धूर्तता और संवेदनहीनता से मानवता को शर्मसार करते कपटी लोग कहीं भी हो सकते हैं। मेहनत से मुंह चुराने और मुफ्त का खाने की कुछ लोगों को बीमारी लग गई है। इनमें आम के साथ खास चेहरे भी शामिल हैं, जिनकी चोरी ऊपर से सीनाचोरी की आदत उनके असली रूप को उजागर कर ही देती है। यह कितने अफसोस भरी हकीकत है कि चोरी-डकैती करने में सफेदपोश लोग भी पीछे नहीं हैं। यहां तक कि लाखों लोगों के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि भी अपने दायित्व को भूलकर हेराफेरी करते नज़र आते हैं।

    बीते सप्ताह मायानगरी मुंबई के उपनगर कुर्ला में हुए एक कार हादसे में एक महिला की मौत हो गई। मौके पर मौजूद भीड़ में शामिल दो लोग उसके हाथ से कंगन निकालकर गायब हो गए। वहीं एक शख्स उसका मोबाइल अपनी जेब के हवाले कर वहां से ऐसे चलता बना जैसे उसके बाप का माल हो। वहां पर तमाशबीनों की तरह खड़े किसी भी स्त्री-पुरुष को उस 55 वर्षीय मृत महिला पर रहम नहीं आया। दरअसल, इन बदमाशों, चोरों और लुटेरों का यही पेशा है, कहीं भी रेल, बस, कार दुर्घटनाग्रस्त होती है तो ये शैतान मृतकोें  तथा घायलों की सहायता करने की बजाय उनकी जेबें खाली करने लगते हैं। महिलाओं के गले, कान आदि के जेवर निकालने-नोचने में लग जाते हैं। इन्हें शायद ही कभी अपनी शर्मनाक करतूतों पर शर्म आती हो, यह दूसरों की मौतों का तमाशा देखते हुए आनंदित होते हैं। ये बेशर्म दूसरों की तबाही और मौतों पर जश्न मनाना अपने जीवन का एकमात्र मकसद बना चुके हैं। 

    बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 104 वर्षीय रसिक चंद्र मंडल ने जेल की कोठरी से बाहर कदम रखा। होना तो यह चाहिए था कि तीस साल के बाद खुली हवा में सांस लेने की खुशी से रसिक चंद्र का चेहरा खिल उठता। लेकिन जेल से बाहर कदम रखने में ही उसे झिझक हो रही थी। मानसिक रूप से अभी भी चुस्त-दुरुस्त और तंदुरुस्त रसिक लाल से जब उनकी उदासी की वजह पूछी गयी तो उसने कहा कि मुझे जेल की बहुत याद आएगी। मैंने तीस साल तक अन्य कैदियों के साथ खुशी-खुशी जीवन की यात्रा तय की। मुझे वहां की सुकून वाली दिनचर्या की आदत हो गई थी। कई कैदियों से मेरी प्रगाढ़ मित्रता होने की वजह से मुझे ऐसा लगने लगा था जैसे कि मैं अपने लोगों के सुरक्षा घेरे में हूं। गौरतलब है कि रसिक ने अपने किसी करीबी रिश्तेदार की हत्या की थी। उसने अपना गुनाह भी कुबूल किया था। स्वभाव से भावुक रसिक का हत्या करने का इरादा नहीं था। हालातों ने उससे यह गुनाह करवा दिया। पश्चाताप की भावना के वशीभूत रसिक लाल अपने रिश्तेदारों तथा मित्रों को अपना चेहरा दिखाने से भी कतरा रहा था... 

    मुंबई में रहता है, भरत जैन। करोड़ों की संपत्ति का मालिक है। नाम और हैसियत तो यही दर्शाती है कि ये बंदा कोई बड़ा उद्योगपति या व्यापारी-कारोबारी है, लेकिन जनाब, यह सरासर आपका-हमारा मुगालता है। भीख मांगना इस शख्स का पसंदीदा पेशा है। लोगों ने तो अब उसे यह कहकर दुत्कारना और फटकारना भी बंद कर दिया है कि हट्टे-कट्टे होकर भीख मांगते हो। कोई मेहनत-मजदूरी का काम क्यों नहीं करते। अपने पेशे के साथ वफादारी करने वाला भरत जैन मुंबई जैसे महंगे महानगर में अपने परिवार के साथ बड़े ठाठ-बाट के साथ रहता है। भीख मांगते-मांगते दो फ्लैट्स, तीन दुकानों के मालिक बन चुके भरत की एक स्टेशनरी की दुकान भी है, जिससे अच्छी-खासी कमाई हो जाती है। भरत के परिवारजनों को अब  उसका भीख मांगना पसंद नहीं। वे कहते-कहते थक चुके हैं कि, करोड़ों की जमीन जायदाद से आने वाले किराये के रूप में होने वाली आवक से संतुष्ट हो जाओ और घर में रहकर अब तो आराम और सब्र के साथ जीवनयापन करो। लेकिन भरत कहता है कि मेरा किसी और काम में मन ही नहीं लग सकता। मेरे लिए तो ये दुनिया का सबसे बेहतरीन पेशा है। हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा आ जाए की कहावत को चरितार्थ करता भरत अपनी पीठ थपथपाते हुए यह बताना नहीं भूलता कि, मैं न तो लालची हूं और ना ही मौज-मजे का गुलाम। मुझे उदारता के साथ मंदिरों में दान करना भी बहुत अच्छा लगता है। दिनभर बिना रूके मेहनत कर प्रति दिन ढाई से तीन हजार रुपये की भीख पाने के बाद रात को जो सुकून भरी नींद सोता हूं वो तो अनेकों धनासेठों को भी नसीब नहीं होती। मैं खुदको बहुत नसीब वाला मानता हूं। लोग मेरे बारे में जो सोचते-कहते हैं, उससे मुझे कुछ भी नहीं लेना-देना।

    उत्तरप्रदेश में स्थित संभल शहर का नाम पिछले कुछ महीनों से काफी चर्चा में है। यहां की मुगलकालीन शाही जामा मस्जिद के सर्वेक्षण का विरोध करने पर सुरक्षा कर्मियों के साथ हुई झड़प में चार लोगों की मौत हो गई थी। भीड़ को भड़काने में वहां के सांसद जियाउर रहमान की खासी भूमिका बताई गई थी। शासन और प्रशासन ने समाजवादी सांसद पर शिकंजा कसने का जो सिलसिला चलाया, उसी में उनके बिजली चोर होने की खबरों ने भी देशवासियों को बेहद चौंकाया। बिजली विभाग ने एक अधिकारी की शिकायत पर दर्ज प्राथमिकी में कहा गया कि विद्युत परीक्षण प्रयोगशाला से प्राप्त सांसद के मीटर की जांच करने पर यह पूरी तरह से स्पष्ट हुआ है कि मीटर से छेड़छाड़ करके धड़ल्ले से बिजली चोरी की गई। चोरी का यह सिलसिला बीते कई वर्षों से चला आ रहा है। बिजली चोरी के संगीन आरोप लगने के बाद भी सांसद का सीना तना रहा। वो खुद को ईमानदार बताते हुए शासन-प्रशासन की साजिशी, पक्षपाती नीति के ढोल बजाते रहे। यह भी कम हैरत की बात नहीं कि जिसे एक करोड़, 91 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया, उसी को बिजली चोरी को रोकने का दायित्व सौंपा गया था। ध्यान रहे कि जिले में बिजली परियोजनाओं में गति और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए डिस्ट्रिक्ट/इलेक्ट्रिसिटी कमेटी का गठन किया गया है, सांसद बर्क को उसका चेयरपर्सन नियुक्त किया गया है। चोरी उस पर सीनाचोरी, हां यह भी हुआ, जब बिजली विभाग के अधिकारी, कर्मचारी, सांसद के घर के मीटर और बिजली के उपकरणों की सघन जांच कर रहे थे, तब उनके पिता ने अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए सरकारी काम में बाधा डालते हुए सीना तानकर धमकी दी कि जैसे ही सरकार बदलेगी हम तुम्हें बर्बाद कर नानी याद दिला देंगे...।

Thursday, December 19, 2024

गुनाह-बेगुनाह

    एक चालीस साल के व्यक्ति को बलात्कार के संगीन आरोप के चलते 16 वर्ष तक जेल की काली कोठरी में रहना पड़ा। इस दौरान उसका सब कुछ बर्बाद हो गया। पत्नी ने लोगों के तानों से तंग आकर आत्महत्या कर ली। बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते रहे। जिस महिला के बलात्कार के आरोप में उसे शर्मसार करने वाली पीड़ादायक सजा भोगनी पड़ी उसका अभी हाल में बयान आया है कि उसके साथ किसी अन्य शख्स ने बलात्कार किया था। उसे उस गुंडे का नाम लेने की बजाय इस निर्दोष व्यक्ति का नाम लेने को विवश किया गया। इसके जेल जाने के बाद मेरी रातों की नींद जाती रही थी, लेकिन तब मैं सच नहीं बोल पायी। इसका मुझे अत्यंत दु:ख और पछतावा है। मैं उस बेकसूर व्यक्ति से माफी मांगना चाहती हूं। कृपया वह मुझे माफ कर दे। कुछ इसी ही तर्ज पर खंडवा के अनोखीलाल पर हुए अन्याय और जुल्म की दास्तान तो और भी अनोखी है। साल 2013 की तीस जनवरी की बात है। एक नौ साल की लड़की अचानक गायब हो गई। घरवालों के इधर-उधर तलाशने पर जब उसका कोई पता नहीं चला तो पुलिस में उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवा दी गई। परिवारजनों ने पुलिस को यह भी बताया कि, बच्ची को उन्होंने आखिरी बार अनोखीलाल के साथ देखा था। 21 वर्षीय अनोखीलाल गांव में दूध बेचने वाले हलवाई के यहां काम करता था। दो दिनों के बाद लड़की की लाश एक खेत में मिली। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि लड़की के साथ बलात्कार हुआ है। पुलिस ने ज्यादा दौड़धूप करने और दिमाग खपाने की बजाय तुरंत अनोखीलाल को गिरफ्तार कर लिया। अनोखीलाल बार-बार कहता रहा कि, वह उस दिन गांव में ही नहीं था। यह घटना जब सुर्खियों में आयी उससे करीब एक महीने पहले दिल्ली में बड़े ही जालिम तरीके से अंजाम दिए गए निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड की गूंज थी। देश गुस्से की आग में सुलग रहा था। बलात्कारियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग को लेकर जगह-जगह धरने-प्रदर्शन हो रहे थे। निर्भया पर हुए नृशंस बलात्कार की तपिश अनोखीलाल के केस तक भी आ पहुंची। 

    पुलिस और अदालत को खुद पर बेतहाशा दबाव महसूस होने लगा। गांव के एक व्यक्ति ने भी कोर्ट के सामने लड़की को आखिरी बार अनोखीलाल के साथ देखे जाने की बात दोहरा दी। बड़ी तेजी से अदालत में सुनवाई शुरू हो गई और अदालत ने अनोखीलाल को मात्र 13 दिनों में फांसी की सजा सुनाने का इतिहास रचते हुए कहा कि, यह शख्स समाज के लिए खतरा है। इसका खुलेआम घूमना लड़कियों के लिए ठीक नहीं है। देशभर के अखबारों तथा न्यूज चैनलों ने जोर-शोर से लिखा और कहा कि, देश की तमाम अदालतों को ऐसे ही कम से कम समय में चुस्ती-फूर्ती के साथ अपने फैसले सुनाने चाहिए। इतना ही नहीं इस फैसले के बाद दो और अदालतों में भी अनोखीलाल को मौत की सजा सुनाने में देरी नहीं लगाई। इस मामले में वर्ष 2024 के मार्च महीने में तो जैसे हैरतअंगेज चमत्कार हो गया। खंडवा जिला अदालत ने तीन बार की मौत की सजा पाये अनोखीलाल को इस आधार पर रिहा कर दिया कि, साक्ष्य का विश्लेषण गलत तरीके से किया गया था। 

    अनोखीलाल ने ग्यारह साल बाद जेल से बाहर आने के बाद कहा कि, एकबारगी तो मुझे लगा कि मैं कोई सपना देख रहा हूं। मैंने तो जेल से छूटने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। मैं तो फांसी के फंदे पर लटकने की राह देख रहा था, लेकिन ऊपरवाले ने मेरी सुनी और मुझे अंतत: न्याय मिल ही गया, लेकिन दु:ख यह भी है कि समाज की नजर में अभी भी मैं कसूरवार हूं। मेरी जिंदगी के 11 साल बर्बाद हो गये। उनकी भरपाई होने से तो रही। मेरे सभी दोस्त कहां से कहां पहुंच गए। उनके बाल-बच्चे भी हो गए और मेरी तो अभी तक शादी ही नहीं हो पायी है। मैं तो असंमजस में हूं कि कोई मुझे अपनी लड़की देने को तैयार होगा भी या नहीं। परिवार पहले से आर्थिक तंगी से जूझ रहा था। इस केस ने तो कंगाल करके रख दिया। पिता को वकीलों की फीस देने के लिए पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ी। मानसिक परेशानी से त्रस्त उम्रदराज पिता नींद में भी बड़बड़ाते रहते थे कि मेरे बेटे को चंद दिनों के बाद फांसी निगलने वाली है। इसी चिंता में घुल-घुल कर वे चल बसे।

    दिल्ली विश्व विद्यालय के पूर्व प्रोफेसर गोकरकोंडा नागा साईबाबा अब इस दुनिया में नहीं हैं। 12 अक्टूबर, 2024 को 57 वर्ष की उम्र में किडनियों के फेल हो जाने के कारण हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल में उनका निधन हो गया। नक्सलियों से संबंध रखने की शंका के चलते 2014 में महाराष्ट्र पुलिस ने साईबाबा को गिरफ्तार किया था। 2017 में सत्र अदालत ने दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई थी। साईबाबा ने सेशन कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट की नागपुर पीठ में चुनौती दी थी। नागपुर पीठ में माओवादियों से कथित संबंधों के मामले में वर्षों तक ट्रायल चलने के बाद साईबाबा एवं पांच अन्य को आरोपों से बरी कर दिया गया था। मुंबई पुलिस एवं अन्य जांच एजेंसियां इस मामले में वर्षों तक चली कानूनी जंग के दौरान साईबाबा के खिलाफ मामला साबित करने में विफल रहीं। उसके बाद अदालत ने न केवल उनकी आजीवन कारावास की सजा रद्द की, बल्कि जमानत पर रिहा भी कर दिया था। नागपुर केंद्रीय कारागार से 10 वर्षों बाद बाहर निकलने के बाद साईबाबा के मुंह से यह शब्द निकले थे, ‘मुझे अभी भी ऐसा लग रहा है, जैसे मैं जेल में ही हूं।’ उन्होंने यह दावा भी किया था कि उनकी आवाज दबाने के लिए उनका अपहरण किया गया और महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर तरह-तरह की यातनाएं दीं। गिरफ्तारी के बाद पुलिस के वरिष्ठ जांच अधिकारी उनके घर गए और परिवार के सदस्यों को डराया-धमकाया तथा उन्हें झूठे मामले में फंसाकर जेल में सड़ाने की धमकी दी। व्हीलचेयर से इतनी निर्दयता से घसीटा गया, जिसमें उनके हाथ में गंभीर चोटें लगीं, जिससे उनके तंत्रिका तंत्र पर भी बुरा असर पड़ा। जेल में बंद रहने के दौरान उनके शरीर का बायां हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया, लेकिन उन्हें अस्पताल ले जाने की बजाय केवल दर्द निवारक दवाएं दी जाती रहीं। जेल के दिनों को याद करते हुए साईबाबा ने कहा था कि मैं एक गिलास पानी तक नहीं ले सकता था। आप ही बताएं कोई कब तक ऐसी जिन्दगी जी सकता है।

    गौरतलब है कि साईबाबा जब मात्र पांच वर्ष के थे, तभी पोलियो के शिकार हो गए थे। तभी से व्हीलचेयर ही उनके चलने-फिरने का एकमात्र सहारा थी। नक्सलियों से करीबी संबंध रखने और उन्हें देश में खून-खराबी करने के लिए उत्साहित करने के आरोप में वर्षों तक जेल में बंद रहे साईबाबा को खतरनाक आतंकवादी भी कहा गया था। जेल में रोज मर-मर कर गुजारे पलों को याद करते हुए वे अक्सर भावुक हो जाते। भीगी आंखों से कहते, मैं तो बिना कोई अपराध किये ही दुनिया की निगाह में संगीन अपराधी बन गया। इस कारण मेरे परिवार की भी बदनामी हुई। लोगों ने उन पर भी व्यंग्य बाण चलाये। दिव्यांग साईबाबा को जेल में बंद रहने के दौरान खुद से ज्यादा अपने परिजनों की चिंता सताती थी। विकलांगता भी निरंतर बढ़ती चली जा रही थी। उन्हें बार-बार 22 अगस्त, 2013 का वो दिन याद आता था, जब उन्हें गड़चिरोली के अहेरी बस अड्डे से गिरफ्तार किया था। दूसरे दिन के अखबारों में पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में छपा था, ‘‘खूंखार हत्यारे नक्सलियों का साथी आतंकवादी प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा बड़ी मुश्किल से पुलिस की पकड़ में आया है। यह पढ़ा-लिखा शहरी नक्सली जंगल में रहने वाले देश के दुश्मन नक्सलियों से भी ज्यादा खतरनाक है।’’ न्यूज चैनल वालों ने इस शहरी नक्सली को उम्रभर जेल में सड़ाने की पुरजोर मांग करते हुए देशवासियों से अपील की थी कि, ऐसे हर देशद्रोही से सतर्क और सावधान रहें। तभी साईबाबा ने देखा और जाना था कि लोगों की निगाहों ने उन्हें पूरी तरह से अपराधी मान लिया है। कल तक जो लोग इज्जत से पेश आते थे अब नफरत करने लगे हैं। 

    अभी हाल ही में मैंने पुरानी दिल्ली के रहने वाले मोहम्मद आमिर खान की आपबीती किसी अखबार में पढ़ी। इस युवक को आतंकवादी होने के झूठे आरोप में 14 वर्ष तक जेल में रहना पड़ा। उन्हीं की लिखी ‘आतंकवादी का फर्जी ठप्पा’ नामक किताब में व्यवस्था के अंधेपन को उजागर करने का साहस दिखाया गया है। आमिर तब लगभग 18 वर्ष के थे जब बम विस्फोट और हत्या के लिए दोषी मानते हुए जेल में डाल दिया गया। पुलिस रिमांड में उन्हें अमाननीय यातनाएं दी गयीं। जो अपराध उन्होंने किया ही नहीं था उसे कबूलने के लिए जिस्म की हड्डी-हड्डी तोड़ी गई। किसी से मिलने नहीं दिया गया। पिता के गुजरने पर उन्हें सुपुर्द-ए-खाक भी नहीं कर पाए। यह वही पिता थे, जिन्होंने बेटे के इंसाफ के लिए अपना घर-बार तक बेच डाला था। जेल की काली कोठरी में अपनी जवानी को गला कर आमिर जब 14 साल बाद बाहर निकले तो पूरी दुनिया ही बदल चुकी थी। कई डरी-डरी निगाहें उन्हें ऐसे ताक रही थीं, जैसे कोई जंगली जानवर शहर में जबरन घुस आया हो...।

Thursday, December 12, 2024

संस्कार

    देश के केंद्र में स्थित, संतरों के लिए विख्यात नागपुर को सर्वधर्म समभाव का आदर्श ध्वजवाहक माना जाता है। सभी धर्मों के लोग यहां पर एक-दूसरे का मान-सम्मान करते हुए अमन-शांति के साथ रहना पसंद करते हैं। बाहर से आने वाले लोगों को भी बड़ी आसानी से अपना बना लेने वाले नागपुर में वो तमाम गुण और सुख-सुविधाएं हैं, जिनकी हर कोई आकांक्षा करता है। उद्योग, राजनीति, साहित्य एवं विभिन्न कलाओं में भी संतरानगरी अग्रणी है। देश और प्रदेश को एक से एक लोकप्रिय तथा हर तरह की चुनौतियों से टकराने वाले परिपक्व नेताओं की सौगात देने का श्रेय भी इस बहुआयामी संस्कारित महानगरी को जाता है। तेजी से विकास की ऊंचाइयों को छू रहे नागपुर के लोग खान-पान के भी बहुत शौकीन हैं। एक से एक होटल, रेस्टारेंट लोगों के स्वागत के लिए सीना तान कर खड़े हैं। सावजी भोजनालयों का भी यहां जबरदस्त क्रेज है। शाकाहारी और मांसाहारी भोजनालयों की भरमार है, जहां का भरपूर मिर्च-मसाले वाला चिकन, मटन खाने के लिए दूसरे प्रदेशों के लोग भी आते हैं। तीखे मसालों की वजह से उन लोगों के नाक और आंख से पानी की धारा बहने लगती है, जिनको पहली बार इनका स्वाद चखने को मिलता है। महाराष्ट्र की पाक कला को सात समंदर पार पहचान दिलाने वाले विष्णु मनोहर की रसोई का भी एकदम खास जलवा है। उन्हें अनेकों पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। नागपुर के कुछ खास ठिकानों पर बिकने वाले चटपटे मसालेदार पोहा-चना का मज़ा लेने के लिए सुबह-सुबह जो कतारें लगती हैं वे दोपहर तक बनी रहती हैं। यहां के कुछ मजेदार चाय के अड्डे  भी बड़े लाजवाब हैं। अनेकों चायप्रेमियों को अपने मोहपाश में बांधने वाले डॉली चायवाले की प्रसिद्धि के ढोल-नगाड़े भी विदेशों तक बजने लगे हैं। डॉली जिसका नाम सुनील पाटील है, तब अत्याधिक चर्चा में आया जब उसने हैदराबाद में एक इवेंट के दौरान दुनिया के बड़े रईसों में शामिल बिल गेट्स को चाय बना कर पिलाई। उसके बाद तो जैसे उसकी किस्मत ही पलट गई और वह फर्श से अर्श पर पहुंच गया। माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के सह संस्थापक खरबपति बिल गेट्स को चाय पिलाने की तस्वीरें तथा वीडियो सोशल मीडिया पर धड़ाधड़ वायरल होने से डॉली रातोंरात सिलेब्रिटी बन गया। पहले जहां उसकी टपरी पर दिनभर में ढाई-तीन हजार की चाय बिकती थी, अब पंद्रह-बीस हजार तक जा पहुंची है। डॉली को तो बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि, वह किसे चाय पिला रहा है। वह तो यही सोच रहा था कि विदेश से आए कोई महानुभाव हैं, जो उसकी टपरी पर चाय का स्वाद लेने आए हैं। बिल गेट्स ने खुद सोशल मीडिया पर वीडियो शेयर करते हुए कहा कि, मैं अनोखे अंदाज की कलाकारी में माहिर इस चायवाले के साथ चाय पर चर्चा करने से खुद को नहीं रोक पाया। इस दुबले-पतले फुर्तीले अदभुत चायवाले से हुई मुलाकात को मैं हमेशा याद रखूंगा। जब किसी बड़ी हस्ती का हाथ और साथ आम आदमी को मिलता है, तो एकाएक उसकी पूछ-परख बढ़ जाती है। डॉली के साथ ऐसा ही हुआ। उसे विदेशों दुबई, यूएसए, श्रीलंका तथा कुछ अन्य देशों के निमंत्रण के साथ-साथ महंगे तोहफे भी मिलने लगे। किसी शेख ने करोड़ों की कार भी थमा दी और जाने-अनजाने प्रशंसक उसके साथ ऐसे फोटो खिंचवाने लगे जैसे वो कोई फिल्मी सितारा हो, जिसकी फिल्में हिट पर हिट हो रही हों।

    नागपुर के रामनगर चौक पर वर्षों से चाय की टपरी लगाने वाले गोपाल बावनकुले की खुशियों का तब कोई ठिकाना नहीं रहा, जब उसके देवाभाऊ यानी देवेंद्र फडणवीस के कार्यालय से उसे मुख्यमंत्री के शपथग्रहण समारोह में उपस्थित होने का निमंत्रण मिला। एकबारगी तो उसे लगा कि कहीं यह उसका भ्रम और सपना तो नहीं, लेकिन यह एकदम सच था। गोपाल देवाभाऊ को उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत से जानता है। जब वे विधायक बनने के बाद उसकी टपरी पर चाय पीने आये थे, तब भी वह अचंभित हो उन्हें ताकता रह गया था। देवेंद्र फडणवीस ने जिस सहजता के साथ उससे बातचीत करते हुए हालचाल पूछा था, उससे तो वह खुद को भावुक होने से नहीं रोक पाया था। तभी उसने उनसे कहा था कि जब आप मुख्यमंत्री बनेंगे तब भी क्या आप मेरी टपरी पर ऐसे ही चाय पीने आएंगे? जिस तरह से कई लोग अपने मनपसंद फिल्मी सितारों की फोटो अपने यहां लगाकर रखते हैं वैसे ही गोपाल ने अपने आदर्श प्रिय नेता देवाभाऊ की बड़ी सी तस्वीर अपनी टपरी के साथ-साथ दिल में भी बिठा रखी है। नागपुर में गोपाल जैसे हजारों आम चेहरे हैं, जिनको देवेंद्र फडणवीस का सरल, सहज व्यवहार बहुत भाता है। 2024 के विधानसभा चुनाव में विजयी होने के पश्चात उनका जो विजय जुलूस निकला, उसमें जाने-अनजाने चेहरों की अथाह भीड़ थी। फूल-मालाओं से लदे, विजय रथ पर सवार देवेंद्र की निगाह एकाएक उस समोसे बेचने वाले पर जा पड़ी, जिसके बनाये समोसे उन्हें अत्यंत प्रिय हैं। उन्होंने विजयरथ से ही उस समोसे वाले को इशारे से अपने पास बुलाया और कहा कि क्या दोस्त, हार, गुलदस्ता तो ले आए, लेकिन समोसे लाना भूल गए। आज तो तुम्हारे यहां के समोसे खाने का मेरा बड़ा मन हो रहा है। अभी हाल ही में तीसरी बार शपथ लेने के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस अहिल्यानगर में एक शादी समारोह में शामिल हुए। उन्होंने 2016 के कोपर्डी बलात्कार और हत्या मामले की पीड़िता से वादा किया था कि, उनकी बहन की शादी उनकी जिम्मेदारी होगी और वे अवश्य शादी में शामिल होंगे। फडणवीस ने आठ वर्ष पूर्व किये गए वादे को याद रखा। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं। कुर्सी की चकाचौंध नेताओं को भटका देती है। चुनाव जीतते ही वे मतदाताओं को भूल जाते हैं, लेकिन देवेंद्र उनसे एकदम अलग और एकदम खास हैं। किसी को यूं ही बैठे-बिठाये सफलता के शिखरों तक पहुंचने का अवसर नहीं मिल जाता। इसके लिए अत्यंत संयम, धैर्य, जुनून और मर्यादा का पालन करते हुए लोगों के दिलों में स्थायी जगह बनानी पड़ती है। राजनीति की डगर न कल आसान थी और ना ही आज फूलों की सेज है। तमाम विरोधी ताकतों तथा अवरोधों को मात देते हुए महाराष्ट्र के तीसरी बार मुख्यमंत्री बने देवेंद्र फडणवीस की राजनीतिक यात्रा उन युवाओं को आइना दिखाती है, जो महज सपने देखते हैं, करते-धरते कुछ भी नहीं। 

    देवेंद्र ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के माध्यम से करते हुए अपने बलबूते पर खुद की पहचान बनाई। हालांकि उनके पिताजी  स्वर्गीय गंगाधरराव फडणवीस अटल-अडवाणी काल के नेता और विधान परिषद के सदस्य थे। जिस 22 वर्ष की उम्र में अधिकांश युवा अनिश्चय के भंवर मेें गोते खा रहे होते हैं, तब देवेंद्र ने नागपुर महानगर पालिका के पार्षद और 27 वर्ष की आयु में महापौर बनने का उल्लेखनीय गौरव पाया। मुझे आज भी वो दिन याद है जब देवेंद्र शहर के महापौर थे और महानगर पालिका के प्रांगण में आयोजित सम्मान कार्यक्रम के भव्य मंच पर सुप्रसिद्ध वकील और जाने-माने राजनीतिज्ञ राम जेठमलानी ने बड़े गर्व से भविष्यवाणी की थी कि, देवेंद्र फडणवीस ने जिस तरह से कम उम्र में जो राजनीतिक मुकाम हासिल किया है, उससे मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि ये जुनूनी युवक एक न एक दिन प्रधानमंत्री...राष्ट्रपति अवश्य बनकर दिखायेगा। विधानसभा के हर चुनाव में भारी मतों से विजयी होते चले आ रहे देवेंद्र को उनकी योग्यता और क्षमता को देखते हुए 2013 में प्रदेश भाजपा का मुखिया बनाया गया। 31 अक्टूबर, 2014 को जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने तब उनकी उम्र मात्र 44 वर्ष थी। शरद पवार के बाद वे महाराष्ट्र के दूसरे सबसे युवा सीएम थे। अब तो देवेंद्र को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की श्रेणी का नेता माना जाने लगा है। भारतीय जनता पार्टी का बहुत बड़ा वर्ग उन्हें उसी तरह से देखता है जैसा कि नरेंद्र मोदी को तब देखता और मानता था, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे और बहुत धैर्य और संयम के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर कदम बढ़ा रहे थे। सर्व गुण सम्पन्न देवेंद्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अत्यंत प्रिय भी हैं और अपार विश्वास पात्र भी। अपने सहयोगी दलों को जोड़े रखने की कला में पारंगत देवेंद्र विपक्षी नेताओं से भी दोस्ताना व्यवहार के लिए विख्यात हैं। लगभग 32 वर्ष की सक्रिय राजनीति में होने के बावजूद देवेंद्र पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है...।

Thursday, December 5, 2024

क्या-क्या होने का दौर

     कैसा समय दस्तक दे चुका है। सब अपने में मस्त-व्यस्त हैं। दूर तो दूर आसपास से भी बेखबर! महानगर की एक विख्यात कॉलोनी में स्थित शानदार फ्लैट में अकेले रहने वाले 80 वर्षीय अमन खन्ना की सड़ी-गली लाश मिलने की खबर अखबारों में जिसने भी पढ़ी, स्तब्ध रह गया। उनकी मौत दस-बारह दिन पूर्व हो चुकी थी। बदबू के फैलने पर आसपास के निवासियों का माथा ठनका तो पुलिस कोे सूचित किया गया। मृतक खन्ना के दोनों बेटे वर्षों से सात समंदर पार अमेरिका में रह रहे हैं। खन्ना अच्छी खासी शिक्षक की नौकरी से रिटायर होकर अपनी जिंदगी अपने अंदाज से जी रहे थे। उनकी धर्मपत्नी का दस वर्ष पूर्व निधन हो चुका था। बच्चों के लाख अनुरोध के बावजूद उन्होंने अकेले अपने शहर में रहना ही पसंद किया। जवानी के दिनों में अपने कुछ एकदम करीबी दोस्तों के साथ महफिले सजाने वाले खन्ना तब नितांत अकेले पड़ गए, जब कोरोना काल में उनके तीन लंगोटिया यार चल बसे और एक ने सिंगापुर में रह रही अपनी इकलौती बेटी के यहां जाकर रहना प्रारंभ कर दिया। नये रिश्ते बनाने से परहेज करने और अपने आप में सिमटे रहने वाले खन्ना को साल भर पहले तक अक्सर नियमित मॉर्निंग वॉक पर जाते देखा जाता था। गार्डन में भी उनकी किसी से ज्यादा बातचीत नहीं थी। आज के जमाने में जब लगभग हर हाथ में मोबाइल है, खन्ना लैंड लाइन के ही भरोसे थे, जिसकी घंटी न के बराबर बजती थी। किराना वाले, दूध वाले, डॉक्टर और धोबी से काम पड़ने पर ही खन्ना लैंड लाइन फोन को हाथ लगाते थे। उन्हें मोबाइल से हरदम चिपके रहने वाले लोगों पर रह-रह कर बड़ा गुस्सा आता था। बाइक चलाते समय मोबाइल कान पर लगाकर बाइक दौड़ाने वाले कॉलोनी के दो-तीन लड़कों को जब उन्होंने फटकार लगाई थी, तो उन्हें गंदी गालियों के साथ-साथ उनके घूसे और मुक्के भी खाने पड़े थे। बुरी तरह से आहत खन्ना ने जब लड़कों के मां-बाप से उनकी औलाद की गुंडागर्दी की शिकायत की, तो उन्होंने उलटे उन्हें ही खरी-खोटी सुनाते हुए अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पुलिस को उनके कमरे से मिली डायरी में और भी बहुत कुछ दर्ज मिला। लगभग तीस साल तक महानगर के नामी-गिरामी हाईस्कूल में एक आदर्श शिक्षक के तौर पर अपना दायित्व निभाने वाले खन्ना के पढ़ाये अनेकों छात्र आज एक से एक ऊंचे सरकारी पद पर आसीन हैं। कुछ ने उद्योग और राजनीति में भी बेहतर पैठ बनाई है। रिटायरमेंट से पहले खन्ना मास्टर जी के यहां रौनक लगी रहती थी। उनका मन भी प्रफुल्लित रहता था, लेकिन बाद में धीरे-धीरे ऐसा सन्नाटा छाता चला गया, जिसने उन्हें उदास और निराश कर दिया। उन्होंने बाहर निकलना लगभग बंद कर दिया और लोगों ने भी उनकी सुध-बुध लेनी छोड़ दी।

    पहले घर-घर पहुंचे टेलीविजन ने संबंधों में सेंध लगाई, फिर रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी। रिश्तेदार, यार-दोस्त एक-दूसरे से कैसे दूर होते चले गए, लिखने-बताने की जरूरत नहीं है। इस सच से इंकार नहीं कि, मोबाइल ने हमारे रोजमर्रा के कई कामों को बहुत आसान कर दिया है, लेकिन इसके कारण करीबी रिश्ते बुरी तरह से तार-तार हो रहे हैं। मां-बाप, चाचा-चाची, बहन-भाई, बच्चे और यहां तक कि दादा, दादी, नाना, नानी भी अपने-अपने मोबाइल के गुलाम हो चुके हैं। अब तो मोबाइल के कारण पति-पत्नी में लड़ाई, मारपीट और तलाक की खबरें सुर्खियां पाने लगी हैं। बच्चों की मोबाइल की लत ने मां-बाप की नींदें छीन ली हैं। यदि माता-पिता मोबाइल का अंधाधुंध इस्तेमाल करने पर अपने बच्चों को डांटते-फटकारते हैं, तो वे तिलमिला जाते हैं। पुरी तरह से गुस्सा जाते हैं और घर से भाग खड़े होने तथा आत्महत्या तक करने की धमकी देने पर उतर आते हैं। अभी हाल ही में इंदौर के एक माता-पिता ने जब अपनी 21 वर्षीय बेटी और आठ साल के बेटे को ज्यादा टीवी और मोबाइल देखने पर जबरदस्त फटकार लगाई तो वे दोनों तुरंत थाने जा पहुंचे। दोनों ने मां-बाप के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई कि मोबाइल, टीवी देखने के कारण उन्हें कई बार बुरी तरह से मारा-पीटा गया। ताज्जुब तो यह है कि, पुलिस ने भी मां-बाप का पक्ष सुने बिना उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर ली। आजकल की अधिकांश संतानें मनमानी और आजादी को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने लगी हैं। मोबाइल ने भी आपसी बातचीत और संवाद के अवसर छीन लिए हैं। एक जमाना था, जब बच्चों के लिए मां-बाप का सम्मान ही सर्वोपरि होता था। बच्चे अपने जन्मदाताओं के समर्पण और त्याग के प्रति नतमस्तक और एहसानमंद रहते थे, लेकिन अब तो वे यह कहने में किंचित भी संकोच नहीं करते कि मां-बाप हमारी परवरिश कर हम पर कोई अहसान नहीं करते। हमें अपने मन-मुताबिक जीने, खाने और कहीं भी जाने का पूरा हक है। हम पर किसी तरह की रोक-टोक और बंदिश लगाने वाले मां-बाप जान लें कि हम उनकी कोई निर्जीव संपत्ति नहीं हैं। हाड़ मांस के जीते जागते इंसान हैं। भरे-पूरे चमकते-दमकते परिवारों के भीतर सन्नाटा और बिखराव अब खुलकर सामने आने लगा है। एक ही छत के नीचे रहने के बावजूद एक-दूसरे की अनदेखी और संवाद हीनता ने आपसी रिश्तों को इस हद तक कटु और खराब कर दिया है कि, जानी-मानी प्रतिष्ठित हस्तियों को भी संबंधों में सुधार लाने के विभिन्न रास्तों को तलाशने को विवश होना पड़ रहा है। लोकप्रिय फिल्म अभिनेता आमिर खान ने हाल ही में एक साक्षात्कार में बताया कि, आपसी रिश्ते में सुधार और नई ऊर्जा लाने के लिए वे अपनी बेटी के साथ जॉइंट थेरेपी ले रहे हैं। गौरतलब है कि आपसी मेलजोल और संवाद के मधुर तार टूटने की वजह से आई कटुता को खत्म करने के लिए फैमिली थेरेपी या जॉइंट थेरेपी अत्यंत कारगर साबित हो रही है। इसमें विशेषज्ञ एक परिवार या परिवार के कुछ सदस्यों को एक-दूसरे को समझने और उनकी समस्याओं को हल करने में भरपूर मदद करते हैं। पारिवारिक रिश्ते बिगड़ने की वजह का भी पता लगाया जाता है। हमारे यहां अक्सर ज़रा सी बात पर भी मनमुटाव इस कदर बढ़ जाता है कि बातचीत पर विराम लग जाता है और गुस्सा खत्म होने का नाम नहीं लेता। गढ़े मुर्दे उखाड़ने के साथ-साथ आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लग जाती है। एक दूसरे के प्रति नफरत भी बढ़ती चली जाती है। ऐसे मामलों में उन्हें समझाया जाता है कि, जो हो गया, उसे भूलें और आगे से सकारात्मक सोचने और बेहतर करने का संकल्प लें। वर्षों पूर्व जब मैं छत्तीसगढ़ के कटघोरा में रहता था तब वहां एक उम्रदराज सज्जन अकेले घूमते-दौड़ते नज़र आते थे। उन्हें बड़बड़ाते तथा खुद से सवाल-जवाब करते देख बच्चे पागल कहकर छेड़ा करते थे और वे बच्चों को ईंट-पत्थर से डराया करते थे, लेकिन कुछ दिन पूर्व मेरे पढ़ने में आया कि  यदि आप परेशान हैं, फैसले नहीं ले पाते हैं, अपनी भावनाएं व्यक्त करने में सकुचाते हैं तो बेफिक्र होकर खुद से जोरों से बाते करें, अत्यधिक तनाव और चुनौतियों से जूझ रहे हैं, तब भी खुद से जोरों से बतियानें पर अकल्पनीय चमत्कार हो सकता है। आत्मविश्वासी, ऊर्जावान बनने तथा आसानी से अपना लक्ष्य पाने के लिए विदेशों में अपनाई जा रही इस विधि के बारे में पढ़ते ही मुझे जिगर मुरादाबादी की लिखी इन पंक्तियों की याद हो आई...‘मायूस हो के पलटीं जब हर तरफ से नज़रें, दिल ही को बुत बनाया, दिल ही से गुफ्तगू की।’

Thursday, November 28, 2024

मानो या न मानो

    कई लोग मानते हैं कि यह धनयुग है। हर समस्या के समाधान के लिए इफरात पैसा चाहिए। जिनके पास धन का अभाव  रहता है, उनका जीवन निरर्थक है। दुनियाभर की बीमारियों, पीड़ाओं, चिंताओं और तनावों से उन्हें जूझते रहना पड़ता है। धनवान बड़े से बड़े अस्पताल में किसी भी जानलेवा बीमारी से मुक्ति पा सकते हैं। धनहीन के लिए घुट-घुट कर मरने के सिवाय और कोई चारा नहीं बचता। ऐसा सोचने वाले लोगों को जरा इन ताजा खबरों पर भी गौर कर लेना चाहिए...

    भारत की विख्यात शख्सियत हरफनमौला नवजोत सिंह सिद्धू के नाम और काम से अधिकांश लोग वाकिफ हैं। कुछ दिन पूर्व सिद्धू ने अमृतसर स्थित अपने आवास पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में खुलासा किया कि, उनकी पत्नी, पूर्व विधायक नवजोत कौर ने स्टेज 4 के कैंसर को किस तरह से मात्र 40 दिन में नींबू पानी, कच्ची हल्दी, तुलसी और नीम के पत्तों आदि से मात देने में सफलता पायी। पूर्व क्रिकेटर और सांसद नवजोत सिंह सिद्धू यह कहते हुए अत्यंत भावुक हो गए कि, तमाम डॉक्टरों ने कह दिया था कि नवजोत कौर चंद दिनों की मेहमान हैं। उनके बचने की उम्मीद करना व्यर्थ है। खुद नवजोत कौर भी अत्यंत चिंतित और घबराई-घबराई रहती थीं, लेकिन फिर भी उन्होंने मनोबल का दामन थामे रखा और बड़ी बहादुरी के साथ कैंसर से संघर्ष करती रहीं। 

    सिद्धू ने इस बात पर बार-बार जोर दिया कि उन्होंने कैंसर को इसलिए नहीं हराया, क्योंकि वे साधन संपन्न थे। दरअसल, एकमात्र वास्तविक सच यही है कि अनुशासित जीवनशैली को अपनाने से ही यह चमत्कार संभव हो पाया। उनका साथ देने के लिए मैंने भी अपने खान-पान की दिनचर्या को उन्हीं के अनुरूप खुशी-खुशी ढाल लिया था। नींबू पानी, कच्ची हल्दी, नीम के पत्ते, तुलसी व सेब के साथ-साथ कद्दू, अनार, आंवला, चुकंदर तथा अखरोट जैसे खट्टे फल और जूस उनकी डाइट और इलाज का प्रबल हिस्सा रहे। उन्होंने एंटी-इन्फ्लेमेटरी और एंटीक कैंसर फूड्स भी खाये, जिसमें खाना पकाने के लिए नारियल तेल या बादाम के तेल का इस्तेमाल किया जाता था। कैंसर से बचाव और सदैव स्वस्थ रहने के लिए अपने खान-पान में बदलाव लाने का संदेश देनेवाले सिद्धू ने बताया कि, उन्होंने जब सुबह की चाय की जगह दालचीनी, लौंग, काली मिर्च, छोटी इलायची उबालकर थोड़ा सा गुड़ मिलाकर पीना शुरू किया, तो उनके जिस्म में पहले की तुलना में काफी अधिक चुस्ती-फुर्ती के साथ-साथ वास्तविक प्रसन्नता और संतुष्टि का संचार होता चला गया। मात्र कुछ हफ्तों में ही पच्चीस किलो वजन कम होने तथा फैटी लीवर को मात देने से वे खुद को पच्चीस-तीस वर्ष का युवा महसूस करने लगे हैं।

    उनके चेहरे पर चमक आ गई है। जिस किसी को भी खुद को चुस्त-दुरूस्त करना है तथा अपना मोटापा खत्म करना है, उसके लिए यह नाममात्र की कीमत वाला नुस्खा अत्यंत उपयोगी है। यह भी ध्यान रहे कि कैंसर एसिडिक चीजों से पनपता है। पैक फूड अत्यंत हानिकारक हैं। बाजार में बिकने वाला अधिकतर पनीर और दूध नकली है।

    अपनी अर्धांगिनी को कैंसर के  घातक जबड़ों से बाहर  खींचकर लाने वाले सच्चे पत्नी प्रेमी नवजोत सिंह सिद्धू के बताए इलाज के प्रति अधिकांश डॉक्टरों ने असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि, कैंसर जैसी भयावह बीमारी पर कीमोथेरेपी, सर्जरी या रेडिएशन  के अलावा और कोई जादुई  फार्मूला काम नहीं कर सकता। कैंसर के विशेषज्ञों ने तो उन पर सनसनी फैलाने तथा लोगों को गुमराह करने के आरोप जड़ने में भी देरी नहीं की। इलाज की कौन सी विधि सही है, कौन सी गलत इस चक्कर में न पड़ते हुए इस कलमकार का तो यही मानना है कि नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने अनुभवों को उजागर कर कोई  अपराध नहीं किया है। जिन्हें उनके आजमाए नुस्खे का अनुसरण करना है, वे जरूर  करें, जिन्हें नहीं करना उनके लिए आलीशान अस्पतालों और लाखों रुपयों की फीस लेने वाले डॉक्टरों की कहीं कोई कमी नहीं है। सहज, सरल उपलब्ध इन नुस्खों  से न तो किसी की जेब कटने वाली है और ना ही किसी तरह का शारीरिक नुकसान होने वाला है। 

    आज के समय में असंख्य लोग तनाव, उत्तेजना, उदासी, हताशा और निराशा की गिरफ्त में हैं। इन लक्षणों को भी रोग ही माना जाता है, जिसके इलाज के लिए ‘फाइव स्टार’ तथा ‘सेवन स्टार’ हॉस्पिटल तथा डॉक्टर हैं, जिनकी मुंह मांगी फीस को चुकाने में अच्छे-अच्छों का पसीना छूट जाता है। कुछ दिन पूर्व अखबारों में खबर पढ़ने में आयी कि ब्रिटेन में उदासी, अकेलापन, हताशा, निराशा जैसी बीमारियों का  इलाज दवाओं से नहीं, कविताओं से हो रहा है। इसके लिए  बाकायदा पोएम फार्मेसी खुल चुकी हैं। जहां पर अकेलापन और तनाव जैसी बीमारियों से जूझ रहे लोग आकर कविताओं की किताबें पढ़ते हैं, एक-दूसरे को सुनाते हैं। कई युवा कविताएं लिखते और एक-दूसरे को सुनाकर रिश्ते बनाते हैं। अपनी तकलीफों और परेशानियों को कविताओं के जरिए एक-दूसरे को साझा करने से उनके चेहरे खिल जाते हैं और तनाव, अकेलापन धीरे-धीरे फुर्र होने लगता है। पोएम फार्मेसी के संस्थापकों का कहना है, कविता एक ऐसी कला है, जो मन की सर्वोच्च अवस्था में विकसित होती है, फिर चाहे वह अवस्था खुशी की हो या दुख-उदासी-दर्द की। कविताएं ट्रामा से बाहर निकाल सकती हैं। पोएम फार्मेसी में कविताओं के अलावा दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान की पुस्तकें भी रखी रहती हैं। वहां टेबलों पर रखी बोतलों पर भी ऐसी कविताएं  अंकित हैं, जो सोये...खोये मनोबल को तेजी से जगाती हैं। यह भी गौरतलब है कि, समय-समय पर वहां अनुभवी, जिंदादिल बुजुर्ग कवि, लेखक आते हैं, जो निराशा और तनाव से छुटकारा पाने के विभिन्न मार्ग सुझाने वाली कविताओं का पाठ करते हैं। उन्हें सुनने वालों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है...।

Thursday, November 21, 2024

रिश्वत...सौगात...सत्ता

    सन 2024 के नवंबर माह में संपन्न हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों को अनेक कारणों से याद रखा जाएगा। मतदाताओं को असंमजस में डालने वाला ऐसा जटिल चुनाव पहले कभी देखने में नहीं आया। वैसे तो हर चुनाव प्रत्याशियों की धड़कन बढ़ाने वाला होता है, लेकिन इस बार के चुनाव ने उनकी रातों की नींद ही उड़ा दी। लगातार चुनाव जीतते चले आ रहे नेताओं के विश्वास को भी डगमगाने वाले इस बार के विधानसभा चुनाव में भाषा, मर्यादा, शिष्टाचार और उसूलों को पूरी तरह से ताक पर रख दिया गया। महंगाई और बेरोजगारी का खात्मा करने की गारंटी देने की बजाय मतदाताओं को खरीदने के लिए ऊंची से ऊंची कीमत, सौगात और प्रलोभनों की झड़ी लगा दी गई। छाती तानकर मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की घोषणाएं करते सभी राजनीतिक दलों तथा नेताओं ने अपनी अक्ल को तो जैसे किसी घने जंगल में चरने के लिए भेज दिया। किसी ने बटेंगे तो कटेंगे का भय दिखाया तो किसी ने कुत्ता बनाने के शर्मनाक बोलवचन उगलकर अपनी भड़ास निकाली। जिन्हें अमन-शांति का पैगाम देना चाहिए था, वो झूम-झूम कर नफरती ढोल बजाते नजर आए, मोहब्बत की दुकान वालों ने भी खूब विष उगला और एकतरफा सोच के साथ सिर्फ और सिर्फ तुष्टिकरण का राग अलापा।

    प्रदेश की महिलाओं के वोटों के लिए  पहले भारतीय जनता पार्टी ने लाडली बहन योजना का जाल फेंकते हुए हर महीने 1500 रुपए देने की घोषणा कर उसे अमली जामा भी पहनाया। मध्यप्रदेश में लाडली बहनों की बदौलत भाजपा ने विधानसभा चुनाव में विजय का सेहरा पहना था। इसी सफलता ने भाजपा को महाराष्ट्र में भी लाडली योजना को लाने के लिए प्रेरित किया। उत्साही तथा आशान्वित भाजपा ने चुनाव जीतने के पश्चात दिसम्बर माह से महाराष्ट्र की बहनों को 2100 रुपए प्रतिमाह देने का ऐलान  कर दिया है, वहीं कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रदेश में सत्ता पर काबिज होने पर महिलाओं को 3000 रुपए हर माह देने का वादा कर जीत की उम्मीद पाल ली। महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों तथा युवकों को तरह-तरह की सौगातें देने के वादे किये गए। वोट खरीदने की यह अंधी दौड़ पता नहीं कहां जाकर थमेगी? कितनी हैरानी की बात है कि कुछ वर्ष पहले तक विपक्षी दल मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का पुरजोर विरोध किया करते थे, लेकिन अब वे भी प्रतिस्पर्धा पर उतर आए हैं। उन्हें यह फायदे का सौदा दिख रहा है। वोटों के लिए  गिरगिट की तरह रंग बदलने का जो खेल चल रहा है, उसे मतदाता भलीभांति जान समझ रहे हैं। कल तक जिन दलों में छत्तीस का आंकड़ा था, अब वे एक होने का दावा कर रहे हैं। इनकी एकता में कितना दम है, वक्त आने पर उसका भी पता चल जाएगा। सच कहें तो जागरूक जनता का दिमाग ही काम नहीं कर रहा है। मेहनतकश भारतीयों द्वारा विभिन्न प्रकार के टैक्स के रूप में दी जाने वाली रकम को अंधाधुंध लुटाने की जिद पाले नेतागणों ने भविष्य की चिंता करनी छोड़ दी है! 

    मध्यप्रदेश और बाकी राज्यों में जहां ऐसी योजनाएं चल रही हैं वहां की सरकारों को इसके लिए बार-बार कर्ज लेना पड़ रहा है। जो धन विभिन्न विकास कार्योें में खर्च होना चाहिए वो इन खैरातों की भेंट चढ़ रहा है। महाराष्ट्र के नेता भी अच्छी तरह से जानते हैं कि आने वाले दिनों में सभी वादों को निभाने में नानी याद आ सकती है। राजनीति और राजनेताओं के गर्त में समाते चले जाने की कोई सीमा है भी या नहीं? महाराष्ट्र से भाजपा के राज्यसभा सांसद धनंजय महाडिक ने एक चुनावी सभा में दहाड़ते और ललकारते हुए कहा कि, जो महिलाएं वर्तमान सरकार से 1500 रुपए ले रही हैं, वे यदि कांग्रेस की रैलियों में भाग लेंगी तो यह ठीक नहीं होगा। यानी सभी लाडली बहनों को एक स्वर में भारतीय जनता पार्टी की ही जय-जयकार करनी चाहिए। किसी दूसरी पार्टी को वोट देना तो दूर उनकी परछाई से भी दूर रहना चाहिए। नागपुर के निकट स्थित सावनेर विधानसभा क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के बदनाम, बदजुबान नेता सुनील केदार ने मतदाताओं को भरे मंच पर धमकाया और चमकाया कि यदि किसी ने भी भारतीय जनता पार्टी  का झंडा लहराया तो उसे गांव से बाहर खदेड़ दिया जाएगा। वर्षों पूर्व सुनील केदार जिस सहकारी बैंक के अध्यक्ष यानी सर्वेसर्वा थे, उसी बैंक के सैकड़ों करोड़ रुपए इधर-उधर करने के अपराधी हैं। अदालत ने उनके चुनाव लड़ने पर बंदिश लगा रखी है। ऐसे में उन्होंने अपनी पत्नी को कांग्रेस का टिकट दिलवा कर चुनाव लड़वाया है। दागी की पत्नी को चुनावी टिकट देने वाली कांग्रेस ने भी विवेक से निर्णय लेना जरूरी नहीं समझा। भारत के राजनीतिक दलों के मुखियाओं  की इसी शर्मनाक नीति की वजह से राजनीति अपराधियों की सुरक्षित शरणस्थली बन चुकी है। हैरत और अफसोस यह भी कि अधिकांश गुंडे बदमाश येन-केन प्रकारेण चुनाव जीत भी जाते हैं। इसके लिए यकीनन वो मतदाता भी कम दोषी नहीं जो ईमानदार और जमीन से जुड़े प्रत्याशी को नजरअंदाज कर कुख्यात और निकम्मे चेहरों का साथ देकर अपने कीमती वोट का अवमूल्यन तथा अपमान करते हैं। हम मतदाता जब तक नहीं सुधरेंगे तब तक वोटों के खरीदार नोट, शराब और तमाम प्रलोभनों की बरसात के दम पर विजयी होते रहेेंगे। विधानसभा चुनाव से ऐन  एक दिन पूर्व विभिन्न अखबारों तथा न्यूज चैनलों पर यह खबर छायी रही कि, महाराष्ट्र के 74 वर्षीय पूर्व गृहमंत्री अनिल देशमुख रात को जब अपने पुत्र सलील देशमुख का चुनाव प्रचार कर लौट रहे थे, तब अचानक चार युवकों ने उन पर हमला कर लहूलुहान कर दिया। अनिल देशमुख वही महापुरुष हैं, जिन पर मुंबई के शराब  कारोबारियों तथा बियर बार  मालिकों से 100 करोड़ लेने के संगीन आरोप लगे थे और उन्होंने कई महीनों तक जेल की कोठरी में रहकर रोटी-दाल-चावल का मन मारकर स्वाद चखा था...।

Thursday, November 14, 2024

राजनीति की रिश्तेदारी

    अपनी संतानों के भविष्य को लेकर माता-पिता का चिंतित, परेशान और प्रयत्नशील रहना स्वाभाविक है। दूसरे क्षेत्रों की तरह राजनीति के चतुर खिलाड़ी भी अपने बेटा-बेटी को येन-केन प्रकारेण अपनी विरासत सौंपने की जोड़-तोड़ में लगे देखे जाते हैं। हमने ये भी खूब देखा है कि वंशवाद... परिवारवाद के खिलाफ ढोल-नगाड़े पीटने वाले बड़े-बड़े राजनीति के सूरमा भी वक्त आने पर अपनी औलादों के लिए मोह-जाल में फंस जाते हैं। इस खेले में गैरों के साथ-साथ अपने एकदम करीबियों को नाराज तथा दुश्मन  बनाने से भी नहीं सकुचाते। बालासाहब ठाकरे तथा शरद पवार भारत की राजनीति के ऐसे अद्भुत सितारे हैं, जिनकी चमक-धमक कल भी थी, आज भी है और आनेवाले समय में भी बरकरार रहेगी। अपने जीवनकाल में हमेशा किसी न किसी वजह से सुर्खियों में रहने वाले बालासाहब ठाकरे ऐसी शख्सियत थे, जिन्हें सभी देशवासी पढ़ने-सुनने को उत्सुक रहते थे। उनके मित्र भी बहुत थे, दुश्मन भी कम नहीं थे, लेकिन वे भी बालासाहब का सम्मान करते थे। शिवसेना की संस्थापक इस आक्रामक हस्ती के मुंह से निकले आदेश या ऐलान को कानून बनने में देरी नहीं लगती थी। अधिकांश मुंबई के लोग डर से या आदर से उस मुखर कानून का पालन करते देखे जाते थे। 

    दूसरे प्रदेशों से नौकरी और रोजगार के लिए धड़ाधड़ मुंबई आनेवाले लोगों का विरोध करने की वजह से आलोचना तथा विरोध झेलने वाले बालासाहब को कई बार हिंदी भाषी राजनीतिज्ञों की नाराजगी का भी शिकार होना पड़ता था। ठाकरे कहते, चाहते और मानते थे कि, मैं उत्तर भारतीयों का विरोधी नहीं। मेरा सिर्फ इतना कहना है कि प्रांतीय, रचना भाषा के आधार पर हुई है। संसाधनों का विकेंद्रित उपयोग होना चाहिए। कोई एक प्रदेश दूसरे सभी प्रदेशों के लोगों का बोझ वहन नहीं कर सकता। संसाधनों का विकेंद्रित होना अत्यंत जरूरी है, ताकि सभी राज्य के लोगों को उनके ही राज्य में रोजगार के अवसर  मिल सकें। बाघ की विभिन्न छवियों युक्त सिंहासन पर विराजने वाले ठाकरे ने 19 जून, 1966 को शिवसेना की स्थापना की थी। मराठियों की विभिन्न समस्याओं का हल करना उनका प्रमुख लक्ष्य था। उन्हें स्वयं को हिटलर का अनुयायी तथा प्रशंसक कहलाने में कोई संकोच नहीं था। उन्होंने अपने जीवन काल में कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन शिवसेना को एक प्रभावी राजनीतिक दल के रूप में स्थापित कर दिखाया और अपना लोहा मनवाया। 1995 के चुनाव के बाद महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा गठबंधन की सरकार बनी। ठाकरे ने इस दौरान (1995-1999) जिस तरह से सरकार पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखा, उससे यह आरोप लगे कि वही सर्वेसर्वा हैं, बाकी सब तो नाम के हैं, उन्हीं के सशक्त रिमोट  कंट्रोल से सरकार चल रही है। ठाकरे ने भी छाती तानकर हर आरोप को स्वीकारा। बिल्कुल वैसे ही जैसे बाबरी मस्जिद को ढहाने की जिम्मेदारी ली। उनकी दिलेरी और स्पष्टवादिता ने उन्हें जिस शीर्ष स्थान पर पहुंचाया, उसने उनके राजनीतिक विरोधियों को बार-बार चौंकाया।

    मुंबई के गॉडफादर बाल ठाकरे यदि चाहते तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन वे तो अपने समर्पित शिवसैनिक को ही सत्ता सौंपने के प्रबल हिमायती रहे। उनके संघर्ष और प्रगतिकाल में लोगों को उनके पुत्र उद्धव ठाकरे से ज्यादा भतीजे राज ठाकरे में उनकी छवि दिखाई देती थी। राज ठाकरे के सोचने और बोलने का आक्रामक अंदाज शिवसैनिकों को प्रेरित और आकर्षित करता था। अधिकांश शिवसैनिकों को यही लगता था कि राज ही बाला साहब ठाकरे के उत्तराधिकारी होंगे, लेकिन हिंदू ह्रदय सम्राट ने बेटे उद्धव ठाकरे को प्राथमिकता देकर भतीजे के साथ-साथ अनेकों समर्पित शिवसैनिकों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बुरी तरह से आहत और नाराज राज ठाकरे ने 2006 में अपनी राजनीतिक पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाकर अपने चाचा को जो झटका दिया, उसकी कल्पना कम अज़ कम उन्होंने तो नहीं की थी। हालांकि वे इस सच से खूब वाकिफ थे कि, राजनीति और निष्ठुरता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इससे पहले भी वे छगन भुजबल और नारायण राणे जैसे उन शिवसैनिकों के पार्टी छोड़कर चल देने के तीव्र झटके को झेल चुके थे, जिन्हें उन्होंने सत्ता,धन और प्रतिष्ठा की आकाशी ऊंचाइयों का भरपूर स्वाद चखाया था, लेकिन यह दोनों गैर थे, राज ठाकरे तो अपने थे, जिसने उन्हीं से उठने, बैठने, चलने, बोलने के साथ-साथ राजनीति के सभी  दांव-पेंच सीखे थे। बालासाहब ने तो यही सोचा और माना हुआ था कि राजनीति के सफर में उद्धव की राह में आनेवाले संकटों और अवरोधों का खात्मा करने में उनका प्रिय भतीजा पूरा साथ देते हुए अपनी जान तक लगा देगा, लेकिन इसने तो सभी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए शिवसेना को टक्कर देने के लिए अपनी अलग पार्टी ही खड़ी कर ली। 

    उम्र के 84 वर्ष के करीब पहुंच चुके शरद पवार अभी भी पूरे दमखम के साथ राजनीति के ऊबड़-खाबड मैदान में दंड पेल रहे हैं। देश के प्रमुख नेताओं में गिने जाने वाले शरद पवार महाराष्ट्र के तीन बार मुख्यमंत्री रहने के साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल में रक्षामंत्री  तथा कृषिमंत्री भी रह चुके हैं। हर दर्जे के सत्ता लोलुप माने जानेवाले पवार की लाख हाथ-पांव मारने के बावजूद प्रधानमंत्री बनने की चाह धरी की धरी रह गई। यह मलाल उनके दिल-दिमाग को अभी भी कचोटता रहता है। उनमें ऐसी कई खासियतें हैं, जो उनकी पहचान हैं। सजगता से निर्णय लेनेवाले पवार को पलटी खाने में देरी नहीं लगती। रिश्ते बनाने व उन्हें भुनाने की जो कलाकारी उनमें है, वह भारत के अन्य नेताओं में नहीं के बराबर है। 26 वर्ष की उम्र में विधायक और 32 की उम्र में महाराष्ट्र सरकार में राज्यमंत्री बनने का गौरव पाने वाले पवार के भतीजे अजित पवार ने भी अपने चाचा शरद पवार की छत्रछाया में महाराष्ट्र की राजनीति में खासी पहचान और दबदबा बनाने में कामयाबी हासिल की। दोनों के चोली-दामन  के साथ को देखते हुए यही लगता था की चाचा अपने भतीजे को अपनी विरासत सौंपेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अपनी बेटी सुप्रिया सुले को आगे कर चाचा ने भतीजे को जब आहत किया तो उसने भी ऐसी बगावत की, कि चाचा की पार्टी का नाम, झंडा विधायक, सांसद और चुनाव चिन्ह तक छीन कर दिन में तारे दिखा दिए, परन्तु यह भी सच है कि दिलेर और हिम्मती शरद पवार ने संभलने में देरी नहीं लगाई। यही असली योद्धाओं की वास्तविक पहचान है। अपनों तथा बेगानों के खंजरों के वार पर वार से जख्मी होने के बाद भी सीना तान कर सतत युद्धरत रहते हैं।

Thursday, November 7, 2024

नायक और खलनायक

    अपार धन-दौलत वालों के बारे में अक्सर तरह-तरह की खबरें और एक से बढ़कर एक अच्छी-बुरी जानकारियां पढ़ने, सुनने में आती रहती हैं। देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने तथा सिर्फ और सिर्फ स्वहित में डूबे रहने वालों का भी पता चलता रहता है। धीरूभाई अंबानी की औलादों की तरह आर्थिक जगत के आकाश में छाने वाले अनेकों नवधनाढ्य  हैं, जिन्हें अपने अकूत धन की नुमाईश करने में आनंद आता है। लोग उनके बारे में क्या सोचते, बोलते हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इस दुनिया में जहां अच्छे की अच्छाई  जगजाहिर हो जाती है, वहीं कपटी और स्वार्थी धनपशु के चेहरे का नकाब भी देर-सबेर उतर ही जाता है।

    पिछले दिनों भारत के विख्यात  उद्योगपति रतन टाटा का निधन हो गया। अमूमन किसी बड़े उद्योगपति के गुजर जाने पर लोगों को कोई  फर्क नहीं पड़ता, लेकिन रतन टाटा  के चल बसने की दुखद खबर ने असंख्य भारतवासियों को गमगीन कर दिया। सभी को रह-रह कर एक ईमानदार, शांत सेवाभावी, चरित्रवान, उसूलों के पक्के निश्छल  कारोबारी की याद आती रही। जीवनभर दिखावे से कोसों दूर  रहकर हमेशा सादगी का दामन थामे रहे इस कर्मवीर में किंचित भी प्रचार  की भूख नहीं देखी गई। उनसे जो  भी मिला प्रभावित ही हुआ। उनके निधन के बाद सभी ने उनके गुणगान की झड़ी लगा दी। संघर्ष को अपनी ताकत बनाने की सीख देने वाले रतन टाटा के अनेकों किस्सों और संस्मरणों ने देश-विदेश के लोगों को प्रेरित तथा चकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। करीब  10 हजार करोड़ की संपत्ति के मालिक रतन टाटा ने अपनी वसीयत में संपत्ति का जिस तरह से बंटवारा किया, उससे उनके निहायत ही नेकदिल होने का प्रमाण मिला है। करीबियों के साथ-साथ वे अपने सहयोगियों तथा घर में रोजमर्रा के काम करने वालों को भी नहीं भूले।  अपने पेट टीटो (जर्मन शेफर्ड कुत्ता) के लिए भी भरपूर धन-राशि छोड़ने तथा उसकी देखभाल की जिम्मेदारी अपने वफादार कुक को सौंप कर गए। उनके जानवरों के प्रति संवेदनशील होने का ही परिणाम था कि उन्होंने अपने मुंबई  के अत्यंत  प्रतिष्ठित आलीशान ‘ताज होटल’ के दरवाजे हमेशा आवारा कुत्तों तक के लिए खुले रखे। इंसानों के साथ-साथ अपने प्रिय पालतू कुत्ते के प्रति अपार स्नेह और आत्मीयता की रतनटाटा यकीनन अद्वितीय व अनोखी मिसाल थे...। अपने परिश्रम और समर्पण के प्रतिफल स्वरूप पुरस्कार, सम्मान से नवाजा जाना सभी को अत्यंत सुहाता है। इसके लिए लोग अपने सब काम-धाम छोड़कर कहीं भी चले जाते हैं। टाटा को साल 2018 में बकिंघम पैलेस के तत्कालीन प्रिंस चार्ल्स ने उनके परोपकारी सेवा कार्यों के लिए आजीवन उपलब्धि पुरस्कार से सम्मानित करने के लिए विशेष तौर पर आमंत्रित किया था। टाटा ने भी जाने का मन बना लिया था, लेकिन अंतिम समय  में उनके दो कुत्ते एकाएक बहुत बीमार पड़ गए, तो उन्होंने अपनी यात्रा रद्द कर दी। प्रिंस चार्ल्स उन्हें फोन करते रहे, लेकिन टाटा ने अपने प्रिय टैंगो तथा टीटो की तीमारदारी में व्यस्त रहने के कारण फोन ही नहीं उठाया। उनके इस व्यवहार से प्रिंस को बहुत बुरा लगा, लेकिन जब उन्हें असलियत का पता चला तो वे उनके समक्ष नतमस्तक  होकर उनकी तारीफ पर तारीफ करते रह गए। भारत के इस रत्न को जब लोग खुद कार चलाकर दूर-दूर तक सफर तय करते देखते तो हतप्रभ रह जाते। विश्व का जाना-माना अरबपति-कारोबारी बिना ड्राइवर के भीड़-भाड़ वाले रास्तों पर बड़े इत्मीनान से कार दौड़ाये चले जा रहा है। उन्हें विमान तथा हेलिकॉप्टर भी बहुत कुशलता से उड़ाते देखा जाता था। एक पत्रकार ने बताया कि, जब मैं उनके निवास स्थान पर गया तो मुझे लगा ही नहीं कि यह देश के शीर्ष उद्योगपति का आशियाना है, मात्र दो-तीन निजी सेवकों और तीन-चार कुत्तों के साथ बड़े आराम से उन्हें गुज़र बसर करते देख, मैं तो मंत्रमुग्ध होकर रह गया। मैंने कभी भी किसी साधु-संत के पांव नहीं छुए, लेकिन बरबस मैं उनके चरणों में झुक गया। 

    देश के कर्मठ नेता, केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने उनकी विशाल उदारता का एक उदाहरण कुछ यूं बयां किया, ‘‘टाटा उद्योग समूह की एम्प्रेस मिल यूनियनबाजी के चलते बंद हो चुकी थी। सरकार ने उसे अपने कब्जे में ले लिया था, लेकिन उसके लिए भी इस कपड़े की पुरानी और विख्यात मिल को चलाना संभव नहीं हो पाया। मिल पर हमेशा-हमेशा के लिए ताले लगने से गरीब मजदूर सड़क पर आ गए थे। दो वक्त की रोटी के लिए उन्हें तरसना पड़ रहा था। मेहनतकश मजदूरों की दर्दनाक हालत के बारे में जब मैंने रतन टाटा को अवगत कराया, तो उन्होंने तुरंत लगभग पांच सौ श्रमिकों को अत्यंत मान-सम्मान के साथ उनका बकाया भुगतान देकर मानवता का जो धर्म निभाया, उससे मेरे मन में उनके प्रति सम्मान कई गुना और बढ़ गया।’’ 

    इस सच से अधिकांश देशवासी अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि अपने देश में जो भी उद्योगपति, राजनेताओं और सताधीशों के करीब होते हैं उनकी चांदी ही चांदी होती है। रतन टाटा ने आम आदमी के लिए जब नैनो कार बनाने की सोची तो सर्वप्रथम उन्होंने कोलकाता से तीस किलोमीटर दूर सिंगुर का चुनाव किया था, लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कारखाने को बनने ही नहीं दिया। रतन टाटा यदि सत्ता के समक्ष झुक जाते और वैसी ही आदान-प्रदान वाली दोस्ती और समझौता कर लेते जैसा दूसरे कारोबारी करते हैं तो उनका काम बन जाता। अपनी तरह-तरह की तिकड़मों की बदौलत खाकपति से खरबपति बने धीरूभाई अंबानी की औलादों ने धूर्त कपटी, बिकाऊ सत्ताधीशों तथा अफसरों को खरीदकर अपार धन-दौलत  जुटाई। इसी अथाह धन को उड़ाने की कलाकारी के उनके खेल-तमाशे वर्षों से देशवासी देखते चले आ रहे हैं। धीरूभाई के बड़े बेटे मुकेश अंबानी ने बीते दिनों अपने बेटे की सगाई और शादी में हजारों करोड़ फूंकने की जो दिलेरी दिखाई उसका तो क्या कहना! हजारों मेहमानों को महंगी-महंगी घड़ियां, सोने के हार तथा अन्य करोड़ों के उपहार देकर खुश किया गया। इस दिखावटी तामझाम से ऐन पहले धन्नासेठ ने हजारों पुराने कर्मचारियों की यह कहते हुए छुट्टी कर दी कि उनकी कंपनी की अब पहले जैसी कमाई नहीं रही। इसलिए वे उन्हें नौकरी से निकालने को विवश हैं। सोलह हजार करोड़ की 27 मंजिला एंटीलिया नामक बिल्डिंग में राजा-महाराजा की तरह मौजमजे करने वाले एशिया के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी भी किसी महारानी से कम नहीं। देश-दुनिया के तमाम मीडिया की खबरें चीख-चीख कर लानत की बौछार करते हुए अक्सर बताती रहती हैं कि नीता की सुबह की चाय लाखों की होती है। वह हीरे जड़े जिस विदेशी कप में चाय पीती हैं, उसकी कीमत ही डेढ़ करोड़ है। यह शौकीन नारी करीब 3 करोड़ का हैंडबैग लेकर चलती है। उसकी अलमारी में ऐसे आकर्षक, महंगे से महंगे हैंडबैग भरे पड़े हैं। 240 करोड़ के जेट प्लेन पर उड़ान भरने वाली नीता के पास कई सुपर लग्जरी कारों के साथ-साथ महंगे मोबाइल फोन का जखीरा है। करोड़ों का मेकअप का रंगारंग सामान भी उसकी रंगशाला में भरा पड़ा है...।

Thursday, October 31, 2024

प्राप्त...पर्याप्त

    संतोषी, त्यागी, सहज और सरल  चेहरे आजकल बहुत कम देखने में आते हैं। यहां लगभग सबको अधिक से अधिक धन दौलत, मान-सम्मान और भौतिक सुख-सुविधाओं बटोरने की प्रबल चाहत तथा लालच ने पूरी तरह से कैद कर रखा है। जो भी एकबार धन और सत्ता का स्वाद  चख लेता, वो इनका सदा-सदा के लिए गुलाम होकर रह जाता है। जहां सतत और-और पाने की अंधी प्रतिस्पर्धा और मार-काट मची है, वहीं पर ऐसे परम संतोषियों का होना झुलसाती-तपतपाती धूप में  ठंडक भरी बरसात का अत्यंत सुखद  अहसास दिलाता है। 

    फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन द्वारा वर्षों से प्रस्तुत किए जा रहे, ‘‘कौन बनेगा करोड़पति (केबीसी)’’ को करोड़ों लोग बड़ी उत्सुकता और उत्साह के साथ देखते हैं। इस खेल में अधिक से अधिक रकम पाने की हर प्रतिभागी की चाह होती है। केबीसी में रकम जीतने वालों का कभी मन नहीं भरता। जितना भी मिल जाए कम और पाने की लालसा बनी ही रहती है।

    कुछ दिन पूर्व इस शो में एक ऐसे प्रतिभागी ने भाग लिया, जिन्होंने देश और दुनिया को स्तब्ध करते हुए नया इतिहास ही रच डाला। डॉक्टर नीरज सक्सेना बहुत अच्छा खेलते हुए छह लाख चालीस हजार रुपए जीत चुके थे और उनके और जीतने के प्रबल आसार थे, लेकिन शो का दूसरा पड़ाव पार करते ही उन्होंने अमिताभ बच्चन से कहा, ‘‘सर एक निवेदन है, मैं इस पायदान पर क्विट करना चाहूंगा। मैं चाहता हूं बाकी जो लोग बचे हैं, उनको भी मौका मिले। यहां सब  हमसे छोटे हैं। अभी तक मुझे जो प्राप्त है, वो पर्याप्त है।’’ उनके इस अभूतपूर्व फैसले से सदी के महानायक हतप्रभ रह गए। उनके मुख से तुरंत यह शब्द निकले, सर हमने पहले कभी ये उदाहरण देखा नहीं। यह आपकी महानता और बड़ा दिल है और हमने आपसे बहुत कुछ सीखा है।

    डॉक्टर नीरज सक्सेना जेएसआई यूनिवर्सिटी  में प्रो-चांसलर  हैं। वे भारतवर्ष के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ काम कर चुके हैं तथा उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। बहुआयामी व्यक्तित्व  के धनी कलाम का संपूर्ण जीवन ही हर भारतीय के लिए किसी प्रकाश स्तंभ से कम नहीं। अपने व्यक्तिगत जीवन में कुरान और भगवद् गीता दोनों का अध्ययन करने वाले कलाम सभी के साथ एक समान व्यवहार करते थे। उनकी निगाह में राजा और रंक में कोई भेद नहीं था। उनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई  संबंध नहीं था। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में दिए गए उत्कृष्ट योगदान की वजह से उन्हें सभी राजनीतिक दलों की रजामंदी से विशाल देश भारत का राष्ट्रपति बनने का महागौरव हासिल हुआ। इनका बचपन बहुत गरीबी तथा संघर्षभरा रहा। पिता लगभग अनपढ़, लेकिन अत्यंत मेहनती नाविक थे। कलाम जब आठवीं कक्षा में थे, तब नियमित सुबह चार बजे उठकर गणित की ट्यूशन के लिए जाते और उसके तुरंत बाद पिता के साथ कुरान शरीफ का अध्ययन करते और फिर अखबार बांटने के लिए निकल जाते थे। बचपन में ही उन्होंने ठान लिया था कि विज्ञान तथा तकनीक के क्षेत्र में तरक्की का परचम लहराना है। इसलिए उन्होंने कॉलेज में भौतिक विज्ञान का चुनाव किया। इसके पश्चात मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलाजी से एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कठोर  मेहनत करने वाले कलाम शादी के बंधन में नहीं बंधे। उन्हें भारतरत्न का सम्मान राष्ट्रपति बनने से पूर्व  हासिल हो गया था। उन्हें लगभग 40 विश्वविद्यालयों ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा। वर्ष  2002 में वे राष्ट्रपति बनाए गए। अपने पांच साल के कार्यकाल  को पूरा करने के तुरंत बाद वे लेखन, शिक्षा और सार्वजनिक सेवा में व्यस्त हो गए। उनका मानना था कि शिक्षण एक बहुत महान पेशा है, जो किसी व्यक्ति के चरित्र, क्षमता और भविष्य को आकार देता है। अगर लोग मुझे एक अच्छे  शिक्षक के रूप में याद रखते हैं तो मेरे लिए ये बहुत बड़ा सम्मान होगा। 

    कलाम कई एकड़ में फैले सर्व सुविधापूर्ण  राष्ट्रपति भवन में ऐसे रहे जैसे कोई मुसाफिर सराय और धर्मशाला में रहता है। उन्होंने आम जनता के लिए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खुलवा दिए थे। उनमें प्रारंभ में जो सादगी, सरलता, सहजता और समर्पण भाव था, वह अंत तक बना रहा। जब उनका निधन हुआ तब भी वे शिक्षक, लेक्चर और प्रेरक की जीवंत भूमिका में थे। इस सदी के महान विचारक, मिसाइल मैन तथा आम लोगों के राष्ट्रपति ने इन शब्दों के साथ इस धरा से अंतिम विदाई  ली, आपके जीवन में चाहे जैसी भी परिस्थिति क्यों न हो पर जब आप अपने सपने पूरे करने की ठान लेते हैं, तो उन्हें पूरा करके ही रहते हैं। उनकी जीवनभर की संपत्ति थी, छह पैंट, चार शर्ट, तीन सूट और 2500 किताबें। पिछले दिनों मैने एक वीडियो देखा तो माननीय कलाम साहब का चेहरा मेरे मन-मस्तिष्क में घण्टों तरंगित होता रहा। यूरोप के एक देश नीदरलैंड (डच) के 14 साल तक प्रधानमंत्री रहे मार्क रुट का जब कार्यकाल पूर्ण  हुआ तो उन्होंने मधुर मुस्कान के साथ अगले प्रधानमंत्री को सत्ता सौंपी और शुभकामनाएं दीं। उसके बाद  कार्यालय से बाहर निकलकर   अपनी साइकिल उठाई और उसे चलाते हुए बड़ी शान से अपने घर की ओर चल दिए। उनके स्टाफ के सदस्यों और साथियों ने हाथ हिलाकर उनका तहेदिल से अभिवादन किया। यह वही साइकिल थी, जिसे मार्क रुट प्रधानमंत्री बनने से पूर्व चलाया करते थे। नीदरलैंड की जनता उनकी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी की जबर्दस्त कायल है। क्या भारत में ऐसे नेता का होना मुमकिन हो सकता है?

Thursday, October 24, 2024

कैसे-कैसे बेवकूफ

    पिछले दिनों फिर कुछ ऐसी  खबरें अखबारों में छपीं जिनसे  समझदारों की बेवकूफी,  अंधश्रद्धा तथा नालायकी का पता चला। धूर्तों, ठगों, चोर-उचक्कों का तो पेशा ही है, बेवकूफ  बना कर लूट-पाट करना। उनको कसूरवार ठहराना अपनी जगह है। लेकिन उनकी जालसाजियों के बारे में विभिन्न अखबार और न्यूज चैनल बार-बार छापते और बताते ही इसलिए हैं कि लोग सतर्क रहें। लेकिन फिर भी जो लोग अंधे -बहरे बने रहते हैं, क्या  वे दया और सहानुभूति के पात्र हैं?

    कानपुर में एक ठग दम्पति  को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। राजीव दुबे और उसकी पत्नी रश्मि  दुबे  ने  धड़ल्ले से प्रचार-प्रसार किया कि उन्होंने  इजराइल  से करोड़ों रुपए की एक ऐसी चमत्कारी अद्भुत मशीन मंगवाई   है जिससे बूढ़ों को जवान किया जा सकता है। उनके इस दावे की विज्ञापनबाजी से आकर्षित  होकर जवानी फिर से पाने के इच्छुकों की भीड़ लग गई। दम्पति ने  लोगों को अपने मायावी जाल में फंसाने के लिए वैसे ही कई तरह की मायावी स्कीमें लांच कीं जैसे अधिकांश कपटी नेटवर्क मार्केटिंग वाले करते हैं। टार्गेट पूरा करने पर युवक-युवतियों को हजारों-लाखों की कमाई के आश्वासन के साथ-साथ आकर्षक, महंगी गिफ्ट का भी लालच दिया। लगभग पांच सौ लोगों को  बेवकूफ बना कर 35 करोड़ रुपए विभिन्न शौकीनों से ऐंठ चुकी इस पति-पत्नी की शातिर जोड़ी का भांडा तब फूटा जब एक 64 साल के बुजुर्ग ने पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज  करवाई। उसने बताया कि मुझे इजराइली मशीन की ऑक्सीजन थेरेपी के जरिए 25 साल का  हट्टा-कट्टा जवान बनाने की गारंटी दी गई  थी। मैंने दम्पति  की मीठी-मीठी बातों पर भरोसा कर मुंह  मांगी रकम  देने में देरी नहीं की। मुझे यह भी बताया गया था की अपने देश  के प्रधानमंत्री भी इसी चमत्कारी मशीन की बदौलत सत्तर पार के होने के बावजूद एकदम चुस्त-दुरुस्त हालत में देश की बागडोर अच्छी तरह संभाले हुए  हैं। उनके विरोधी लाख सिर पटकने पर भी महाबली अंगद की तरह पांव जमाये माननीय  नरेंद्र मोदी को मात नहीं दे पा रहे हैं। बूढ़ों  को टकाटक जवान बनाने के नाम  पर करोड़ों  की ठगी करने  वाली बंटी-बबली की यह जोड़ी जिस मशीन को इजराइल  से मंगाये जाने का दावा कर  रही थी, दरअसल वह किसी कबाड़ी से खरीदी मशीन ही थी जिसे मोडिफाइड करने आकर्षक ढंग से चमकाया-बनाया गया था। बुढ़ापे में जवान बनने की लालसा रखने वाले पचासों लोगों ने पुलिस थाने में अपना दुखड़ा रोया है कि हमें जवानी तो नहीं मिली, कम अज कम हमारी खून-पसीने की कमाई तो वापस दिलवा दो।

    महानगर की एक आधुनिक विचारों वाली युवती की फेसबुक  पर किसी अजनबी लड़के से दोस्ती हो गई। लड़का कुछ ज्यादा ही हैंडसम था। युवती खूबसूरत तो नहीं थी लेकिन दिखने में ठीक-ठाक थी। सरकारी नौकरी में होने के कारण धन की भी कोई कमी नहीं थी। एक-दूसरे के मोबाइल नंबर के आदान-प्रदान के बाद उनमें पहले  प्यार- मोहब्बत की गुफ्तगू का अच्छा-खासा सिलसिला चला, फिर एकांत  में दोनों मिलने-मिलाने लगे। इस दौरान शारीरिक जुड़ाव भी हो गया। मौज-मस्ती के नशीले पलों में लड़के ने किसी न किसी बहाने पैसों की मांग करनी प्रारम्भ कर दी। उसके मोहजाल में पूरी तरह से कैद युवती उसकी हर मांग खुशी-खुशी पूर्ण करती रही। इस दौरान वह गर्भवती हो गई। उम्र में युवती से आठ साल छोटा लड़का तब तक शादी करने का झांसा देकर सात  लाख रुपए ऐंठ चुका था। जिस दिन युवती ने अपने प्रेमी को बताया कि उनका अबाध मिलन रंग ला चुका है, वह मां बनने वाली है तो अगले दिन से लड़का ऐसे गायब हुआ  जैसे गधे के सिर से सींग। धन और तन से लूट-पुटी गर्भवती युवती वकीलों तथा थानों के चक्कर लगाते हुए बलात्कारी को (?) किसी भी तरह से दबोच कर हथकड़ियां लगाने की गुहार लगा रही है। अखबार वाले भी उसे पीड़िता, दुखियारी दर्शाते हुए उस पर सहानुभूति की बरसात  करते नहीं थक रहे हैं। 

    मुंबई निवासी शारदा के नागपुर में रहने वाले छोटे भाई की किडनी खराब हो गई थी। बीमार भाई ने बिस्तर पकड़ लिया। भाई की आर्थिक स्थिति भी कमजोर थी। ऐसे में हर तरह से सक्षम बहन ने भाई की सहायता और देखभाल करनी प्रारम्भ कर दी। बहन की बस यही तमन्ना थी कि भाई किसी भी तरह से फिर से पूरी तरह से भला चंगा हो जाए। एक शाम उदास-उदास  चेहरे के साथ अस्पताल  में बिस्तर  पर पड़े भाई को वह निहार रही थी तभी एक शख्स ने उसके करीब आकर कहा कि, वह तुरंत किडनी का इंतजाम कर सकता है, इसके लिए पांच लाख रुपए देने होंगे। शारदा को वह अजनबी किसी देवदूत सा लगा। उसने बिना कुछ सोचे हां कर दी और कुछ ही घंटों में पांच लाख उसे थमा भी दिए। उस शख्स ने तीन-चार  दिन के भीतर किडनी उपलब्ध करवाने के आश्वासन के साथ अपना कार्ड  दिया और चल दिया। कुछ दिन तक वह अस्पताल में मिलने के लिए  आता रहा। फिर उसने आना बंद कर दिया। इस बीच अचानक भाई की ऐसी तबीयत  बिगड़ी कि डॉक्टर उसे बचा नहीं पाए। गमगीन बहन अपने पांच लाख पाने के लिए थाने के चक्कर काट रही है। ठग का कोई अता-पता नहीं चल पा रहा है। पुलिस एक पढ़ी-लिखी महिला की बेवकूफी पर हैरान है...।

Thursday, October 17, 2024

दृष्टिकोण

     हर किसी की खुशी और  संतुष्टि का पैमाना  एक सा नहीं। इस धरा पर सबके पास सबकुछ  नहीं। कुछ लोगों के पास अपार धन-दौलत है। बंगले और बड़ी-बड़ी कोठियां हैं, एक  से बढ़कर एक आलीशान कारें हैं। 

    हमारे देश में कुछ के हिस्से में बेहिसाब खुशहाली है, भरपूर  सुविधाजनक जीवन जीने के अवसर हैं, लेकिन  कई  भारतवासी गरीबी से बदहाल हैं। दो वक्त  का जैसा-तैसा भोजन भी उनके लिए दूर-दूर का सपना है। यह कष्टदायक असमानता पता नहीं कब ख़त्म  होगी? देश के हुक्मरान बीते कई वर्षों से गरीबी हटाने के झूठे वादे करते हुए वोट ऐंठते चले आ रहे हैं। उन्होंने तो कोठियों पर कोठियां तान लीं, लेकिन झोपड़ियों की संख्या कम नहीं हुई। आसमान के नीचे जीवन यापन करने वालों की तादाद में लगातार इजाफा होता रहा। जिन लोगों ने अपनी-अपनी तरकीबों से अकूत धन-दौलत  जमा कर ली है उनमें अधिकतर स्वार्थी, बेरहम और लालची हैं। नव धनाढ्य तो गरीबों और असहायों की परछाई से ही दूर  रहते हैं। अपने बेटी- बेटों की सगाई तथा शादी में अरबों-खरबों रुपए  उड़ाने वालों की तमाशे बाजी किसी से छिपी नहीं है। पच्चीस-पचास गरीबों को खाना और चंद कन्याओं का सामूहिक विवाह रचाकर अपनी पीठ थपथपाने वालों की भीड़ में जब चुपचाप इंसानियत का धर्म निभाने वालों पर नज़र जाती है, उनके बारे में पढ़ने-सुनने में आता है तो उनकी वंदना करने को जी चाहता है। बीते दिनों सोशल मीडिया में लगातार वायरल होते एक वीडियो को देखा तो बस देखता और सोचता ही रह गया कि मानवता की इससे बेहतर और दूसरी कौन  सी जीवंत मिसाल और परिभाषा हो सकती है?

    एक मेहनतकश आम भारतीय अपने छोटे से बच्चे को गोद में लिए गुब्बारे बेचता फिर रहा है। इसी दौरान उसकी एक चमचमाती कार पर नज़र पड़ती है और वह अपने मोबाइल फोन से कार के साथ सेल्फी लेने लगता है, तभी कार का मालिक वहां आ जाता है तो वह यह सोच कर घबरा जाता कि मालिक उसे डांटेगा-फटकारेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। कार वाला करोड़पति उससे बड़ी अदब के साथ पेश आते हुए अपने साथ खड़े कर कई फोटो खींचकर उसे अपार खुशी के झूले में झुला देता है। इतना ही नहीं वह बड़े दिल  वाला उसे अपने साथ  कार  में  भी  बैठाता और घुमाता है, गुब्बारे वाले शख्स की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। उसके चेहरे पर स्पष्ट लिखा नज़र आता कि इस खास दिन को वह कभी नहीं भूल पायेगा। 

    हिंदुस्तान की बहादुर परोपकारी बेटी मंजूषा सिंह ने मतिमंद बच्चे-बच्चियों की देखभाल करने तथा उन्हें मातृत्व  सुख-सुविधा और  आत्मीयता देने के लिए शादी नहीं की। ब्याह  बंधन में बंधतीं तो अपने बच्चों में उलझ कर रह जातीं। वह तीस साल से मतिमंद बच्चों को अपनी संतान मान कर उनकी सेवा और देखभाल कर रही हैं। 54 साल पुरानी सेरेब्रल पॉल्सी एसोसिएशन ऑफ इंडिया की प्रभारी और विशेष शिक्षिका मंजूषा ने बताया कि जब  मैं मात्र 13 साल  की थी तब मेरी मां का देहावसान हो गया था, इसलिए मैं मां की अहमियत को अच्छी तरह से जानती-समझती हूं। मां के गुजरने के गम ने मुझे पूरी तरह  से निराश कर दिया था। काउंसलिंग तक करानी पड़ी। काउंसलिंग टीचर ने तब कहा था कि जरूरी नहीं कि आप हमेशा स्वयं के बारे में ही सोच कर परेशान होते रहें। अपना जीवन दूसरों को समर्पित करने से हमारे सभी दु:ख  उड़न छू  हो जाते हैं और अभूतपूर्व शांति और खुशी की प्राप्ति होती है। टीचर की बात ने मेरी सोच बदल  दी और मैं इन विकलांग बच्चों की मां बन गई। ये बच्चे मानसिक रूप  से कमजोर होते हैं। इनका शरीर भले ही किसी भी उम्र का हो, लेकिन दिमाग एक जैसा होता है। हमारे पास 9 महीने से लेकर 74 साल  तक के बच्चे  आते हैं। इन बुजुर्गों  को भी हम बच्चा मानते हैं, क्योंकि दिमाग  से वे भी बच्चे ही होते हैं। इन सबको  इलाज  के साथ-साथ  ऐसी खास तरह की ट्रेनिंग दी जाती है, जिससे वे दिलेरी के साथ जीवन व्यतीत कर सकें और अकेले  संघर्षरत रहते हुए वह सब  हासिल करें जो दूसरों के हिस्से में आता है।

    भारत के अत्यंत संवेदनशील और  परोपकारी उद्योगपति रतन टाटा का हाल ही में 86 वर्ष  की उम्र  में निधन  हो गया। वे ऐसे कारोबारी थे, जिन्होंने नितांत  ईमानदारी और परिश्रम से हजारों अरबों-खरबों रुपए के उद्योग और संपत्ति का विशाल साम्राज्य  खड़ा किया, लेकिन अहंकार और दिखावे से जीवन पर्यंत  दूर रहे। उन्हें दूसरों की सहायता करने में अपार आनंद आता था। दूसरे उद्योगपतियों की तरह धन को खुद पर तथा अपने परिवार  जनों  पर लुटाने की बजाय  गरीबों, असहायों तथा जरूरतमंदों पर खुले हाथ  खर्च  करना उन्हें बहुत सुहाता था। उन्हें बच्चों से भी अत्यधिक  स्नेह  था। उनके बीच पहुंचते ही वे बच्चे हो जाते थे। वैसे भी उनके चेहरे की मासूमियत और भोलापन आम भारतीयों  जैसा ही था। छल-कपट और ऊंच -नीच की संकुचित विचार-भावना से कोसों दूर...। जब किसी के भले और सहायता की बात आती तो तुरंत पहुंच जाते। एक बार रतन टाटा ने 200 व्हील चेयर विकलांग बच्चों को भेंट में देने की सोची। जब वे बच्चों के बीच पहुंचे तो वे खुद को बच्चा महसूस  करने लगे। बच्चों को व्हील चेयर सौंपते हुए उनका चेहरा खुशी से चमक रहा था। बच्चे भी बेहद प्रसन्न थे। उन्हें व्हील चेयर पर बैठकर घूमते और मस्ती करते देख रतन टाटा का मन मयूर नाच उठा। जब रतन टाटा वापस जाने को हुए तभी एक बच्चे ने कसकर उनकी टांग  पकड़ ली। उन्होंने धीरे अपने पैर को छुड़ाने का भरसक प्रयास किया, लेकिन तब भी बच्चा टस से मस नहीं हुआ। तब उन्होंने बच्चे को बड़ी आत्मीयता से पुचकारा और बड़े स्नेह से पूछा, बेटे तुम्हें कुछ और भी चाहिए? बच्चे  ने कहा कि, मैं जीभरकर आपका चेहरा देखना चाहता हूं ताकि हमेशा-हमेशा याद रहे। जब मुझे स्वर्ग में आपके दर्शन  हों तो आपको तुरंत पहचान लूं। मासूम बच्चे के इस  कथन ने रतन टाटा को इस कदर झकझोरा कि उसी क्षण जीवन के प्रति  उनका नजरिया ही बदल गया। इस सदी के प्रेरक महामानव रतन टाटा को इंसानों के साथ-साथ जानवरों से भी अत्यधिक स्नेह था। उनके निधन पर करोड़ों देशवासी ही नहीं गमगीन हुए, उनके लाडले पाले-पोसे कुत्ते  ने भी आंसू बहाये। इस कुत्ते को वे पर्यटन स्थल गोवा से लाये थे इसलिए उन्होंने उसका नाम ‘गोवा’ रखा था। महादयालू रतन टाटा के अंतिम संस्कार में उनका कुत्ता ‘गोवा’ अंतिम सम्मान देने आया था.....

Thursday, October 10, 2024

ज़मीन-आसमान

     हम कल होंगे या नहीं, कोई  नही जानता। यहां कुछ भी तय नहीं। हर शख्स यहां इम्तिहान से रुबरू  होने की राह पर है। यह सच अपनी जगह है कि वह पास होता या फेल। जिन्दगी में उतार-चढ़ाव आना भी लाज़मी है यही इन्सान का परीक्षा काल होता है। यह भी हम पर निर्भर है कि समस्याओं की निदान किस तरह से करते हैं। दुनिया में हर  समस्या का हल है। बस उसे तलाशना होता है। भागने से समस्या और विकराल शक्ल अख्तियार कर लेती है। संकोच और भय अच्छे-अच्छे शरीरधारियों को कुछ अलग और बड़ा करने से रोकता ही नहीं, चुनौतियां से जूझने और मुंह चुराने के तरह-तरह के बहानों का गुलाम बना कर रख देता है। हमारी इस धरा पर कई लोगों के साथ कुदरत अन्याय कर देती है। उनसे बहुत कुछ छीन लेती है। इनमें से अधिकांश लोग हताशा और निराशा के गर्त में गर्क होकर रह जाते हैं। लेकिन कुछ लोग अपनी शारीरिक अक्षमता को ऊपर वाले का घोर अन्याय और अपना मुकद्दर मानने की बजाय ऐसा करिश्मा और चमत्कार कर दिखाते हैं कि दुनिया उनकी जय-जयकार करते नहीं थकती। जहां प्रेरणा उत्प्रेरक का काम करती है, वहीं किसी भी अन्याय और शारीरिक कमी के शिकार लोगों की सहायता तथा मार्गदर्शन बहुत मायने रखता है। जिस तरह से डूबते को तिनके का सहारा होता है वैसे ही दिव्यांगों के कंधे पर हाथ रखना कैसे चमत्कारी साबित होता है इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। जिन्होंने ज़मीन पर परिश्रम और संघर्ष कर ऊंचे आसमान को छूने का कीर्तिमान रच कर दिखाया है। हिमाचल प्रदेश में स्थित धर्मशाला शहर में एक लड़की कभी अपनी मां के साथ हाथ में कटोरा पकड़े भीख मांगा करती थी, लेकिन आज वह एमबीबीएस डॉक्टर बन चुकी है। कल तक चुप-चुप और सहमी-सहमी रहने वाली पिंकी हरयान अब फर्राटेदार इंग्लिश बोलती है। पिंकी की जिन्दगी को पूरी तरह से बदलने का करिश्मा किया है, परोपकारी तिब्बती शरणार्थी भिक्षु जामयांग ने। मैक्लोडगंज  की टोंग-लेन चैरिटेबल ट्रस्ट के संस्थापक और निदेशक जामयांग ने एक बच्ची को भीख के लिए भटकते देखा तो उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर दुलारते हुए पूछा, बिटिया क्या तुम्हारा स्कूल जाने का मन नहीं होता? तो बच्ची तुरंत बोली, बहुत होता है अंकल...मैं तो बड़ी होकर डॉक्टर बनना चाहती हूं लेकिन...। भिक्षु जामयांग ने पिंकी के गरीब  माता-पिता से अनुमति लेकर फौरन उसका स्कूल में दाखिला कराया। खान पान  और रहने की संस्था के सर्व सुविधायुक्त होस्टल में पूरी व्यवस्था भी करवा दी। वह पढ़ाई में बहुत होशियार थी। 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही उसने नीट की परीक्षा भी चुटकीयां बजाते हुए  पास कर ली। साल 2018 में पिंकी का चीन के एक प्रमुख मेडिकल कॉलेज में एडमिशन करवा दिया गया। यहां से छह साल तक एमबीबीएस की पढ़ाई करने के बाद वह अभी कुछ दिन पूर्व ही धरमशाला लौटी हैं। उसके पिता बूट पॉलिश का काम छोड़कर  चादर और दरियों के व्यापार में अच्छी-खासी कमाई कर रहे हैं। मां भी इज्जत भरी जिन्दगी जी रही हैं। पिंकी का छोटा भाई और बहन अत्यंत सुविधाजनक टोंग-लेन स्कूल में पढ़ाई-लिखाई कर रहे हैं। 

    अपनी कमजोरी को ही ताकत बना लेने वाली मुस्कान सिर्फ नाम भर की मुस्कान नहीं। मुस्कराहट और  उत्साह से उसका चेहरा हरदम चमकता रहता है। उसकी बेफिक्री, चुस्ती-फुर्ती यह पता लगने ही नहीं देती कि वह पूर्णतया दृष्टिहीन है। शिमला की रहने वाली मुस्कान ने अपनी स्कूली शिक्षा कुल्लू के ब्लांइड स्कूल सुल्तानपुर और शिमला के पोर्टमोर स्कूल से पूरी की। इसके बाद राजकीय कन्या महाविद्यालय शिमला से म्यूजिक में ग्रेजुएशन और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से मास्टर की पढ़ाई पूरी की। नेट और सेट की परीक्षा भी अच्छे नंबरों से पास करने वाली जूनूनी ऊर्जावान मुस्कान की आवाज का सुरीलापन हर किसी का मन मोह  लेता है। ऑनलाइन रेडियो उड़ान की प्रतियोगिता में शामिल होकर अव्वल स्थान प्राप्त करने वाली मुस्कान को  बेंगलुरु के समर्थनम ट्रस्ट फॉर डिसेबल ने स्पांसर कर अमेरिका भेजा। ढाई महीने वहां रहकर उसने लाजवाब प्रस्तुतिकरण कर अमेरिका वासियों का भी दिल जीता। मुस्कान कहती हैं कि अपनी कमी की वजह से निराश होने की बजाय उसे अपनी ताकत बना लेने पर दुनिया की कोई ताकत आपको डरा और हरा नहीं सकती। निधि चित्रकार बनना चाहती थीं। लेकिन नियति कुछ और ठान चुकी थी। तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी निधि की पंद्रह साल की आंख की रोशनी छिन गई। उसका बड़ा भाई पहले से ही दृष्टिबाधित था। निधि को समझ में आ गया कि यह अंधेरा उम्र भर उसका साथी बने रहने वाला है। उसने अपने मन को पक्का कर सफेद छड़ी के सहारे चलना सीखते हुए सॉफ्टवेयर से पढ़ना शुरु कर दिया। संकल्प और संघर्ष की यात्रा कभी निष्फल नहीं होती। उसने मॉस मीडिया की पढ़ाई में टॉप करने के बाद मास्टर्स किया। 2011 से सतत विकलांग महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत निधि ने 2017 में एनजीओ राइजिंग फ्लेम की स्थापना की। उनकी यह संस्था दिव्यांग महिलाओं तथा युवाओं के हित में निरंतर सक्रिय है। निधि ने दिव्यांग महिलाओं की आपबीती अनुभवों की किताब का भी प्रकाशन किया है। इस प्रभावी किताब में उजागर दिव्यांग महिलाओं का भोगा हुआ सच वाकई आंखें और मन-मस्तिष्क के बंद दरवाजे खोल कर रख देता है...।

Thursday, October 3, 2024

अपनी-अपनी सोच-समझ

    बीते दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) पार्टी के नेता एम एम लारेंस का 95 वर्ष की आयु में निधन हो गया। लारेंस ने अपने जीवित रहते देहदान का संकल्प लिया था। उनकी दिली इच्छा थी कि मरणोपरांत उनकी देह का शैक्षिक उद्देश्यों के लिए उपयोग हो। उनकी इच्छानुसार जब पार्थिव शरीर को सरकारी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल को दान देने की तैयारी चल रही थी तभी दिवंगत नेता की बेटी ने विरोध के स्वर बुलंद कर दिए। लारेंस के दोनों बेटों ने तो शव को मेडिकल को सौंपने की सहमति दे दी थी, लेकिन जिद्दी बेटी ने तरह-तरह के तर्कों तथा कारणों की झड़ी लगाकार मेडिकल प्रशासन को दुविधा में डालकर अच्छा-खासा हंगामा खड़ा कर दिया। एम एम लारेंस देहदान का महत्व अच्छी तरह से समझते थे। चिकित्सा जगत में मृत देह को अमूल्य माना जाता है। सिर्फ मेडिकल के सघन अध्ययन के लिए ही नहीं, सभी प्रकार के शोध एवं जटिल आपरेशन के लिए भी मार्गदर्शक साबित होती है। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि महान संत, महात्यागी ऋषि दधीचि ने जब देखा कि दानवों का आतंक सतत बढ़ता ही चला जा रहा है। लोगों का जीना मुहाल हो गया है तो उन्होेंने अपना शरीर ही त्याग दिया ताकि उनकी हड्डियों से ऐसा मजबूत धनुष बनाया जा सके, जिससे राक्षसों का पूरी तरह से संहार संभव हो। हमारे एक परिचित थे, जो लोगों को अंगदान और देहदान के लिए प्रेरित करते रहते थे। अखबार में जब भी किसी के अंगदान की मिसाल कायम करने की खबर पढ़ते तो उसकी कटिंग फेसबुक पर डालने के साथ फ्रेम करके अपनी दुकान पर टांग देते थे। इसके लिए उन्होंने एलबम भी बना रखी थी। उन्होंने अपने परिवार को भी कह रखा था कि उनकी मौत के बाद उनके पार्थिव शरीर को अस्पताल को सौंप दिया जाए। शहर के सभी समाचार-पत्रों में भी मरणोपरांत देहदान की सूचनानुमा खबर उन्होंने प्रकाशित करवाई थी। अभी हाल में अचानक वे चल बसे। उनकी पत्नी ने मृत देह को दान करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनका कहना था कि अपने पति परमेश्वर की देह की चीर-फाड़ की कल्पना से उनका बदन कांपने लगता है। यह महिला शहर के प्रमुख अखबार में सह-संपादक के पद पर आसीन हैं। रक्तदान, अंगदान और देहदान के लिए पाठकों को प्रोत्साहित करने के लिए धड़ाधड़ लेख लिखती और प्रकाशित करवाती रहती हैं। अपने पति के देहदान के संकल्प में अटल बाधा बनी यह महिला पत्रकार खुद को सही ठहराने के लिए लोगों को यह बताना और याद दिलाना नहीं भूलीं कि दस वर्ष पूर्व नगर के विख्यात साहित्यकार, प्रवचनकार, समाज सेवक स्वतंत्र कुमार की मृत देह मेडिकल कॉलेज को सुपुर्द की गई थी, तब प्रबंधन की लापरवाही के फलस्वरूप शरीर बुरी तरह से सड़-गल गया था और उसमें कीड़े रेंगने लगे थे। मैं अपने पति के शरीर की ऐसी दुर्गति होते न देख सकती हूं और न ही कभी सोच सकती हूं। इसलिए मैंने पापा के घोषित देहदान के संकल्प को पूर्ण नहीं होने दिया। जब इस महान पत्नी को जानकारों ने बताया कि तब और अब में जमीन आसमान का फर्क है। तब की तुलना में आज का मीडिया बहुत सतर्क है। इस सोशल मीडिया के प्रबल दौर में किसी धांधली पर पर्दा डालना पहले की तरह सहज और सरल नहीं रहा। इस सच से लापरवाह, कामचोर और मुफ़्तखोर अनजान नहीं। वैसे भी आपका कर्तव्य है कि अपने पति के संकल्प को किसी भी हालत में पूर्ण करें। अपनी पत्रकारिता पर भी सवालिया दाग न लगाएं।

    देहदान के क्षेत्र में कार्यरत समाजसेवी बताते हैं कि अपने जीवित रहते लोग जब देहदान का संकल्प और घोषणा  कर देते हैं, तो उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार का पहला दायित्व और काम यह होना चाहिए कि मृतक की इच्छा का खुशी-खुशी पालन करें। इसमें किसी प्रकार की बहानेबाजी और ना-नुकुर दुनिया को छोड़कर चल देने वाले इंसान का अपमान तथा उसके साथ किया गया घोर विश्वासघात है। मेरे प्रिय पाठक मित्रो... हो सकता है आपको कम यकीन हो फिर भी देहदान और अंगदान को करने और  लोगों को प्रोत्साहित करने में महिलाएं पुरुषों से आगे हैं। इसमें भी दो राय नहीं कि देहदान और अंगदान जबरन नहीं करवाया जा सकता। मृत्यु के बाद देहदान और अंगदान का फैसला कठिन तो होता है, लेकिन इससे जो संतुष्टि और खुशी मिलती है उसका पता उन परिवारों की सामने आने वाली प्रतिक्रियाओं और मनोभावनाओं से चलता रहता है...। पिछले दिनों विक्रम नामक युवक की दुर्घटना में दर्दनाक मौत हो गई। गमगीन घर परिवार के प्रमुख सदस्यों ने बेटे के अंगदान करने का तुरंत निर्णय लिया। अंगदाता विक्रम के पिता कहते हैं कि मुझे बहुत खुशी है कि मेरे पुत्र की आंख से कोई दृष्टिहीन देख पा रहा है। किसी के शरीर में उसका दिल धड़क रहा है। किसी को उसकी किडनी तो किसी के शरीर में उसका लिवर है। वह मरकर भी दूसरों के काम आया इससे बढ़कर हमारे लिए क्या खुशी हो सकती है। घर के जो सदस्य पहले राजी नहीं थे वे भी परम संतुष्ट हैं। अंगदाता अनीता के शब्द हैं, बेशक मेरी पत्नी सशरीर मेरे साथ नहीं, लेकिन वो अब भी इस दुनिया में जिंदा है। मैं यह नहीं जानना चाहता कि मेरी पत्नी के अंग किसे लगाये गए, लेकिन मुझे तो इस बात की प्रसन्नता सदैव रहेगी कि मेरी प्रिय पत्नी मौत के बाद भी चार अनजान लोगों को जीवन दे गई। तरुण की अस्सी वर्षीया मां अचानक चल बसीं। शव उसके सामने पड़ा था। अपनी ममतामयी मां के साथ बिताए असंख्य सुखद लम्हों को याद करते-करते उसके दिमाग में कभी मां के कहे शब्द कौंधे, अगर मुझे कुछ हो जाए तो बेटा आंसू मत बहाना। मेरे नाखून भी किसी के काम आएं तो उन्हें भी दान कर देना। रिश्तेदारों के विरोध की चिंता और परवाह न करना। तरुण ने उसी पल अंगदान के लिए तुरंत स्वीकृति दे दी। उनका कथन है कि मां के अंगदान के बाद उनके नहीं होने का एहसास मुझे बिल्कुल नहीं होता...।

    संतान हर मां के लिए सबसे अनमोल होती है। कोख में आने से लेकर उसके बढ़ने तक कितने ही सपने हर मां संजोए रखती है। ऐसे में जब जवान संतान किसी हादसे की शिकार हो जाए तो मां की दुनिया ही सूनी हो जाती है, लेकिन अपने इस दुख से उबरकर एक मां ने ऐसा फैसला किया कि चौबीस वर्ष की उम्र में जिंदगी से जंग हारनेवाला उसका लाल अब किसी की आंखों की रोशनी तो किसी का दिल बन चुका है। इस मां के फैसले से अपनी जिंदगी बचाने अंगदान की प्रतीक्षा कर रहे पांच लोगों को नई जिंदगी मिली है। 

    2023 में 16,542 अंगदान हुए, जिसमें अधिक महिलाएं जीवित दाता थीं। केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के डेटा के अनुसार, पिछले साल 5651 पुरुषों और 9784 महिलाओं नें अंगदान किए। साथ ही कुल 18,378 अंग प्रत्यारोपण किए गए। इसमें 13,426 किडनी ट्रांसप्लांट सबसे अधिक थे। डेटा से पता चलता है कि 10 साल में अंगदान में लगभग चार गुना की बढ़ोतरी हुई है। सामने आए आंकड़ों से यह भी पता चला है कि मृत पुरुष दानवीरों की संख्या अधिक है, जिसमें 844 पुरुषों ने अंगदान किया, जबकि 255 महिलाओं ने। 2013 में जहां कुल अंगदानकर्ता 4990 थे, वहीं 2023 में यह बढ़कर 17168 हो गए। इसके बावजूद हमारे देश में अंगदान दर अभी भी प्रति दस लाख की आबादी में एक से नीचे है। गौरतलब है कि एक जीवित अंगदाता उसे कहते हैं जब वह प्रत्यारोपण के लिए किसी व्यक्ति को अन्य व्यक्ति को अंग या अंग का हिस्सा दान करता हैं। यह भी अत्यंत गौरतलब है कि सबसे आम जीवित अंगदान किडनी है। लिवर का एक हिस्सा भी दान किया जा सकता है। अधिकांश लोगों को इसकी जानकारी नहीं कि कौन सा अंग कब तक ट्रांसप्लांट कर सकते हैं। दिल-4-6 घंटे में, लिवर 12 घंटे तक, किडनी-30 घंटे तक, आंख 6 घंटे तक, त्वचा 6 घंटे तक, आंतें व पैक्रियाज 4-6 घंटे में ट्रांसप्लांट किये जा सकते हैं।

Thursday, September 26, 2024

संस्कार

    खुश और सेहतमंद रहना तो सभी चाहते है। मिलने-मिलाने वाले इज्जत से पेश आएं, कहीं अनादर न हो, अपने नाम, काम और पहचान का डंका बजता रहे यह भी हर कोई चाहता है। सब को खबर है कि स्वास्थ्य से बढ़कर कुछ भी नहीं। यदि शरीर रोगमुक्त, चुस्त-दुरुस्त है तो ही दुनियाभर की सुख-सुविधाएं अपनी हैं। सार्थक हैं। तनाव मुक्त होकर जीना भी तभी संभव है जब बुरी संगत और बुरे कर्मों से दूरी बना ली जाए। कोई अगर हितकारी सुझाव देता है तो उसकी अवहेलना, तिरस्कार, अपमान न किया जाए। यूं तो देश में तमाशबीनों की भरमार है, लेकिन कुछ लोग अपने आसपास गलत होता नहीं देख सकते। पहले अखबार में छपी इस खबर पर गौर करें...।

    ‘‘शहर के एक मोहल्ले में शाम होते ही तीन युवकों का शराब पी कर आती-जाती महिलाओं से बदतमीजी करना रोजमर्रा की बात थी। उनके बेलगाम अश्लील इशारों की वजह सभी आहत और परेशान रहते। खासकर युवतियां, जिन्हें घर में दुबक कर रह जाना पड़ता था। अधिकांश लोग व्यापारी थे, जिन्हें नोट छापने से फुर्सत नहीं थी। अपने काम से ही मतलब रखते थे। एक अंधेरी रात शराबियों की अति बेहयायी वहां रहने वाले स्कूल के शिक्षक से देखी नहीं गई। वे गुस्से से तमतमा गए। उन्होंने तीनों को जोरदार फटकार लगाते हुए वहां से तुरंत चले जाने को कहा। उस वक्त तो वे बड़बड़ाते हुए वहां से निकल लिए, लेकिन आधी रात को आठ-दस गुंडों के झुंड ने उम्रदराज शिक्षक और उनकी पत्नी को निर्वस्त्र कर बड़ी बेरहमी से पटक-पटक कर पीटा। जाते-जाते पेट्रोल छिड़क कर घर भी फूंक दिया। पड़ोसियों ने अपनी जान जोखिम में डालकर बड़ी मुश्क़िल से उन्हें आग से बाहर निकालने में सफलता पाई, लेकिन एक दुःखद, चिंतित करने वाला शर्मनाक सच यह भी है की जब शराबी एक साथ असहाय शिक्षक और उनकी पत्नी का खून बहा रहे थे और वे संघर्षरत रहकर जोर-जोर से चीख-चिला कर बचाने की गुहार लगा रहे तब सुनने के बाद भी किसी ने सामने आने की हिम्मत नहीं की। वहां पर कब्रिस्तान-सा सन्नाटा बना रहा।

    अखबार में छपी उपरोक्त खबर के नीचे यह खबर भी छपी थी... 

    ‘‘थाईलैंड के बैकांक में एक महिला को किचन में बर्तन धोने के दौरान अजगर ने जकड़ लिया। 64 वर्षीय महिला लगभग दो घंटे तक 16 फीट के अजगर से बचने के लिए जूझती रही। उसका जोर-शोर से संघर्ष जारी था तभी उसी दौरान घर के सामने से गुजर रहे एक शख्स ने महिला की चीख़-पुकार की आवाज़ सुनी। उस जागरूक इंसान के द्वारा पुलिस को तुरंत सूचित करने से महिला को बचा लिया गया।’’ 

    मेरे मन-मस्तिष्क में यह प्रश्न भी अभी तक कब्जा जमाये है कि शराबी, बदमाश, मदहोश युवकों को सुधरने की सीख देकर शिक्षक ने कोई बहुत बड़ी भूल कर दी? उन्हे भी मोहल्ले के अन्य लोगों की तरह चुपचाप रहने का दस्तूर निभाते हुए इस सोच से बंधे रहना चाहिए था कि, जो हो रहा है, होता रहे। मेरे घर में कौन सी बहू-बेटियां हैं। ऐसे में दूसरों की बहन-बेटियों की चिंता मैं क्यों करूं? यह गली भी कौन सी मेरे बाप-दादा की है, जो इस पर अपना अधिकार जताते हुए गुंडों को गुण्डागर्दी करने से रोकूं। शिक्षक महोदय की यदि यही संकुचित, स्वार्थी और विकृत सोच होती तो वे अपने में मस्त रहते। अपने रास्ते आते और निकल जाते, लेकिन उनसे यही तो नहीं हो पाया। कई वर्षों तक हाईस्कूल में अध्यापन कर चुके गुरूजी को लगा था कि लड़के उनके साथ अदब से पेश आते हुए चुपचाप गिलास, बोतल, चखना समेट कर गली से चले जाएंगे। जो हुआ उसकी तो उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी। 

    कितना अच्छा होता यदि वे पुलिस स्टेशन जाकर बदमाशों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाते। वहां पर ढिलाई बेपरवाही दिखने पर सभी मोहल्लेवासी एकजुट होकर उन्हें वहां से खदेड़ने का एक सूत्रीय अभियान चलाते तो अंततः वे चले जाने को मजबूर हो जाते, लेकिन एक-दूसरे से कटे रहने की शहरी संस्कृति ने ऐसी कोई पहल होने ही नहीं दी। मेल-मिलाप, एकता और अटूट संकल्प में कितनी ताकत होती है, इसकी वास्तविक तस्वीर पिछले दिनों हमने उत्तरप्रदेश के एक गांव में देखी। मिरगपुर नामक इस गांव को भारत देश का सबसे पवित्र और अनुशासित गांव का दर्जा मिला हुआ है। दस हजार की आबादी वाले इस आदर्श गांव में पांच सौ साल से किसी ने कोई नशा नहीं किया। कई लोगों ने शराब और बीयर का नाम तक नहीं सुना। न ही कभी दुष्कर्म और छेड़छाड़ की कोई घटना घटी। गांववासी कई पीढ़ियों से शुद्ध शाकाहारी हैं। खाने में प्याज-लहसून तक का इस्तेमाल नहीं करते। तनाव मुक्त रहने वाले यहां के नागरिकों को डॉक्टरों की बहुत कम शरण लेनी पड़ती है। सभी एक-दूसरे का मान-सम्मान करते हैं। युवा, बड़ों की बातों को बड़े ध्यान से सुनकर अनुसरण करते है। गांव की बेटियां जब शादी करके किसी अन्य स्थान यानी ससुराल जाती हैं तो वे मिरगपुर गांव की प्रतिज्ञा से मुक्त हो जाती हैं, लेकिन फिर भी अपने जन्मस्थल के संस्कार उनके दिल दिमाग में इतनी मजबूत जड़ें जमा चुके होते हैं, जिससे वे ससुराल के सदस्यों को नशे-पानी से दूर रखने के भरपूर प्रयास में लगी रहती हैं। और हां, मिरगपुर में ब्याह कर आने वाली बहुएं इस प्रतिज्ञा से सदा-सदा के लिए बंध जाती हैं। मिरगपुर का नाम इंडिया बुक के बाद एशिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भी दर्ज हो चुका है। जिला प्रशासन ने भी इसे बड़े गर्व के साथ नशा मुक्त गांव घोषित कर रखा है। इस सात्विक गांव में जो भी जाता है आश्चर्य में पड़ जाता है। उसका वहीं बस जाने का मन करता है। दो वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के शहर सहारनपुर की यात्रा के दौरान किसी पर्यटन प्रेमी ने हमें मिरगपुर को करीब से देखने की सलाह दी थी। उत्तरप्रदेश के भ्रमण पर निकले हमारे दल में चार पत्रकार और तीन कॉलेज के प्रोफेसर थे। दो उम्रदराज पत्रकारों और एक प्रोफेसर महोदय को तो मिरगपुर इस कदर भाया कि उन्होंने कुछ महीने बाद अपने शहर को छोड़-छाड़ कर मिरगपुर में हमेशा-हमेशा के लिए बसने की घोषणा को साकार भी कर दिया।

Friday, September 20, 2024

सत्ता की लाठी

    धनपतियों की अंकुशहीन, बिगड़ैल  औलादों की अंधाधुंध शराब गटक कर राहगीरों को रौंदनें की खबरें अब बिल्कुल नहीं चौंकातीं। देश का प्रदेश महाराष्ट्र तो इन दिनों बिल्डर्स राजनेताओं, भू-माफियाओं, शराब माफियाओं, शिक्षा माफियाओं और तथाकथित महान समाज सेवकों की नशेड़ी संतानों के नशीले तांडव से लगातार आहत और बदनाम होने को विवश है। कई लोग तो यह भी कहने और मानने लगे हैं कि महाराष्ट्र और शराब का जो चोली दामन का साथ बन चुका है, उसका पूरा श्रेय यहां की कुटिल राजनीति तथा घाघ राजनेताओं को जाता है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली की तर्ज पर अब महाराष्ट्र भी चरस, अफीम, गांजा, एमडी के नशे में बुरी तरह से लड़खड़ाता और डगमगाता नज़र आ रहा है। उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, साहित्य की हर विधा में पारंगत लेखकों, पत्रकारों, संपादकों, कलाकारों तथा देश-विदेश में विख्यात राजनीतिक हस्तियों, उद्योगपतियों के प्रतिष्ठित शहर पुणे तथा नागपुर में तो ऐसे-ऐसे अपराधों का तांता लगा है, जिनकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। स्कूल, कॉलेज के लड़के-लड़कियां एमडी तथा शराब के नशे के शौक को पूरा करने के लिए स्कूटर, मोटरसाइकिल की चोरी-चक्कारी के साथ-साथ चेन स्नैचिंग करने लगे हैं। होटलों, फार्महाउसों, ब्यूटी पार्लरों तथा विभिन्न अय्याशी के ठिकानों पर कम उम्र की कॉलेज कन्याओं का रोज-रोज जिस्मफरोशी करते पकड़े  जाना आखिर क्या दर्शाता है? 

    2024 के मई महीने की 19 तारीख को पुणे में तड़के शराब के नशे में मदहोश एक नाबालिग ने अंधाधुंध रफ्तार से करोड़ों की लग्जरी कार दौड़ाते हुए युवक और युवती की जान ले ली। दोनों मृतक होनहार इंजीनियर थे और मध्यप्रदेश के मूल निवासी थे। इनकी हत्या करने वाले नाबालिग के पास कार चलाने का लाइसेंस नहीं था। फिर भी उसके बिल्डर पिता ने करोड़ों रुपए की कार की चाबी अपने नशेड़ी बेटे को थमा दी थी। साथ ही दोस्तों के साथ शानो-शौकत के साथ गुलछर्रे उड़ाने के लिए क्रेडिट कार्ड भी दे दिया था। बिगड़ैल नाबालिग रोज की तरह उस रात भी मां-बाप तथा दादा के आशीर्वाद से अपने अय्याश यारों के संग नई-नई पोर्श कार में सवार होकर शहर के आलीशान शराबखाने गया। वहां पर सबने लगभग अस्सी हजार रुपए की मनपसंद शराब गटकी। कबाब भी खूब चखा। तृप्त होने के बाद रात का शहजादा और उसके साथी लगभग एक घंटे तक यहां-वहां कार को हवाई रफ्तार से अंधाधुंध दौड़ाते रहे। इस बीच पियक्कड़ों की फिर और पीने की तलब जागी तो किसी दूसरे रंगारंग मयखाने में बैठकर शराब पीते रहे। यहां भी नशे में टुन्न नाबालिग ने अपने बाप की काली कमायी के तीस हजार रुपये की खुशी-खुशी आहूति दे दी। दो हत्याएं करने के बाद भी धनपशु की औलाद के चेहरे पर किंचित भी मलाल, चिंता, खौफ का नामोनिशान नहीं था। जल्लाद को पूरा-पूरा यकीन था कि देश का कानून उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता। हुआ भी वही। उसके बाप, दादा तथा मां ने  लाड-प्यार में पले बेटे को कानून के फंदे से बचाने के लिए पुलिस, विधायक, मंत्री, संत्री सबको खरीदने के लिए एड़ी-चोटी की ताकत लगा दी। नृशंस हत्यारे को बचाने के लिए अस्पताल के डॉक्टर बिकने से नहीं सकुचाये। जांच में बेटा शराबी साबित न हो इसके लिए मां ने अपने ब्लड सैंपल को बेटे के ब्लड सैंपल में बदलकर कानून की आंखों में धूल झोंकने की चाल चली, लेकिन अंतत: पर्दाफाश हो ही गया। इसी चालबाजी में उनके काले अतीत के पन्ने भी खुलते गए। बाप तो बाप, दादा भी दस नंबरी निकला और उसके अंडर वर्ल्ड से पुराने जुड़ाव का भी पर्दाफाश हो गया।

    पुणे के इस हत्याकांड के कुछ दिन बाद मुंबई के वरली में सत्ता पक्ष के एक नेता के दुलारे की बीएमडब्ल्यू कार ने एक स्कूटर को जोरदार टक्कर मारी, जिससे किसी गरीब मां-बाप की इकलौती लाड़ली बिटिया की वहीं मौत हो गई। यह हत्यारा नेता-पुत्र भी शराब के नशे में टुन्न था। पुलिस उसके पीछे-पीछे भागती रही और वह हत्याकांड को अंजाम देने के बाद बेफिक्र होकर अपनी प्रेमिका की गोद में जाकर सो गया। इसी सितंबर के महीने में ही नागपुर में भाजपा के मालदार प्रदेश अध्यक्ष के बेटे ने मित्रों के साथ जाम पर जाम टकराने के बाद आधी रात को आसमान छूती अपनी ऑडी कार से चार मोपेड सहित एक कार को जोरदार टक्कर मारी। दो लोग बुरी तरह से घायल हो गये। शराबी मंडली ने वहां रुकने की बजाय भाग जाना बेहतर समझा। इसी  भागमभाग में उनकी कार का टायर भी फट गया, जिससे ऑडी पोलो कार से जा टकरायी। इस नशीले अपराध की वजह से भीड़ ने नेता पुत्र और उसके साथी की जमकर मरम्मत की और नुकसान की भरपाई के बाद बड़ी मुश्क़िल से तब जाने दिया जब उन्हें पता चला कि इस कांड का हीरो प्रदेश के दमदार नेता की बिगड़ैल औलाद है। ऑडी कार को पुलिस ने जब अपने कब्जे में लिया तब उसकी नंबर प्लेट नदारद थी। सुबह के सभी अखबारों की यही प्रमुख खबर थी। बड़े अनमने मन से पुलिस ने तब शिकायत दर्ज की जब उस पर चारों और से दबाव पड़ने लगा। पुत्र मोह के कैदी पिताश्री यानी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष का बयान आया कि घटना अत्यंत दुःखद है। कार उनके पुत्र के नाम पर रजिस्टर्ड है। वे चाहते हैं कि पूरी तरह से निष्पक्ष जांच  हो। उन्होंने पुलिस को कोई फोन नहीं किया है और न ही किसी भी तरह से जांच को प्रभावित करने की कोशिश करेंगे। मामले को लेकर राजनीति करना उचित नहीं। यह नेताओं की कौम आखिर किसको बेवकूफ बनाने पर तुली रहती है? सत्ताधीशों को बोलना ही कहां पड़ता है। सत्ता की लाठी बिना चले अपना काम कर गुजरती है। प्रशासन के चाटूकार लाठी के इशारे पर नाचना अच्छी तरह से जानते हैं। वैसे भी खाकी वर्दी को सत्ता की खामोश जुबान बहुत जल्दी समझ में आ जाती है। उनकी पार्टी की केंद्र तथा प्रदेश में सरकार है। पूरा तंत्र उनकी मुट्ठी में है। उनका बाल भी बांका करने का किसमें दम है? पुलिस तो हिम्मत कर ही नहीं सकती। उसका नेताओं से हमेशा वास्ता पड़ता रहता है। कभी यदि काला-पीला करने के बाद फंस गए तो बचने-बचाने के लिए उन्हें सत्ता के दरवाजे पर जाकर नाक रगड़नी होती है। आधुनिक शिष्टाचार और आदान-प्रदान कर यह मायावी दस्तूर वर्षों से चला आ रहा है। खुशी-खुशी या मजबूरी में इसे निभाना ही पड़ता है। हां यह भी न भूलें कि, नाम मात्र के ही बाप ही ऐसे होते हैं जो अपनी संतान के हिमायती न हों। सत्ताधीशों के संतान मोह का तो इतिहास साक्षी है, जो अपने खोटे सिक्कों तक को राजनीति के बाजार में बखूबी खपाने और चलाने की हर कला में सिद्धहस्त हैं। महाराष्ट्र  में तो ऐसे नेताओं की भरमार है जो कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद एक तरफ मेडिकल तथा इंजीनियरिंग कॉलेज उद्योग धंधों को चला रहे हैं, दूसरी तरफ बीयर बार, पब, शराब की फैक्ट्रियां तथा दूकानें खोल कर अरबों-खरबों की माया जुटा रहे हैं। पब्लिक अंधी नहीं है। उसे अच्छी तरह से दिखायी दे रहा है कि शहरों के साथ-साथ ग्रामों में भी मंत्रियों, नेताओं की प्रबल भागीदारी में नशे के विभिन्न कारोबार फलफूल रहे हैं...।

Thursday, September 12, 2024

अगर-मगर के बीच

     पूरे विश्व में उम्रदराज स्त्री-पुरुषों का सुख-चैन से जीना दूभर होता चला जा रहा है। बड़े ही जोर-शोर से कहा जा रहा है कि अधिकांश औलादें मतलबी हो गई हैं। उन्हें अपने जन्मदाताओं की खास चिन्ता नहीं रहती। वे तो बस अपने में मग्न हैं। यह किसी एक देश का संकट होता तो नजरअंदाज किया जा सकता था। जहां-तहां बुजुर्गों में निराशा और हताशा है। जीने की उमंग छिन सी गई है। जिन पर भरोसा किया, वही विश्वासघाती निकले। ऐसी एक से बढ़कर एक दिल दहला देने वाली खबरेें पढ़ और सुन-सुन कर माथा चकराने लगता है। अच्छे भले इंसान को भविष्य की चिंता और घबराहट कस कर जकड़ लेती है। पहले इस हकीकत से रूबरू होते हैं, जिससे हिन्दुस्तान भी पूरी तरह से अछूता नहीं है...। 

    जापान में लाखों लोग अकेलेपन से जूझ रहे हैं। उनका जीवन नर्क बन चुका है। जिन औलादों को पाल-पोस कर उन्होंने हर तरह से काबिल बनाया, वही गद्दार साबित हुईं। बुजुर्गों के साथ कुछ पल बैठने, उनका हाल-चाल जानने का उनके पास वक्त ही नहीं। जन्मदाताओं को उनके हाल  पर छोड़ दिया गया है। मृत्यु के वक्त भी कोई परिजन, रिश्तेदार, केयरटेकर या मित्र उनके आसपास नहीं होता। अंतिम काल में अपनों का साथ और चेहरा देखने के लिए वे तड़पते, तरसते रह जाते हैं। तेजी से तरक्की करते जापान में बीते छह महीनों में 37,227 बुजुर्ग अपने घरों के एकांत में मृत पाये गए। उनके पड़ोसी तथा रिश्तेदार कई दिनों तक उनकी मौत से अनभिज्ञ रहे। लगभग चार हजार शवों को मृत्यु के  एक-डेढ़ माह बाद तो 130 शवों को  असहनीय बदबू आने पर एक वर्ष बाद घरों से बाहर निकाला जा सका। मृतकों में जहां 85 वर्ष या उससे ज्यादा उम्र के बुजुर्ग थे, वहीं 65-70 आयु के लोग भी शामिल थे, जो चल फिर सकते थे, लेकिन निराशा और अकेलेपन ने उनकी जान ले ली।’’ 

    हमारे देश में उम्रदराज स्त्री-पुरुषों की औलादों की अनदेखी की वजह से होने वाली मौतों की तादाद इतनी ज्यादा और भयावह तो नहीं, लेकिन चिंतित करने वाली तो जरूर है। वो मां-बाप यकीनन अत्यंत भाग्यशाली हैं, जिनकी संतानें उनके प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं। उनकी देखभाल और मान-सम्मान में कहीं कोई कसर नहीं छोड़तीं। इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि, आपाधापी और प्रतिस्पर्धा के इस दौर में अनेकों बेटे-बेटियों को मजबूरन अपने अभिभावकों से दूर जाने, रहने कमाने को विवश होना पड़ता है। फिर भी अधिकांश जागरूक बेटे-बेटियां अपने जन्मदाताओं से दूरियां नहीं बनाते। भारतीय उत्सव, संस्कार, परंपराएं और बुजुर्गों की सीख उन्हे घर-परिवार से जोड़े रखती हैं।

    हमारे यहां वर्ष भर त्यौहारों का जो सिलसिला बना रहता वह रिश्तों की डोर को कमजोर नहीं होने देता। दिवाली, ईद, दशहरा, होली, गुरुनानक जयंती, क्रिसमस आदि सभी त्यौहार मेलजोल, सकारात्मक ऊर्जा तथा अपार खुशियां प्रदान करते हैं। बहुत ही कम ऐसे घर-परिवार होंगे, जहां रामायण और गीता जैसे ग्रंथ नहीं होते होंगे तथा बच्चों को भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र के बारे में बताया-समझाया नहीं जाता होगा। कितनी संतानें इनसे प्रेरित  होकर इसे आत्मसात करती हैं, यह तथ्य और सच अपनी जगह है।

    यह भी सच है कि, पिछले कुछ वर्षों में भारत में भी रिश्तों की मान-सम्मान करने की परिपाटी में बदलाव और कमी देखी जा रही है। कोरोना काल में मनुष्य के मजबूरन स्वार्थी बनने की हकीकत को याद कर आज भी कंपकंपी सी छूटने लगती है। इस दुष्ट काल में कुछ संतानों ने अपना रंग बदला और अच्छी औलाद का फर्ज नहीं निभा पाए। कैसी भी विपदाएं आई हों, लेकिन भारतीय मां-बाप अपने दायित्व से कभी भी विचलित नहीं हुए। हिंदुस्तानी अभिभावकों का यही गुण उन्हें बार-बार नमन का अधिकारी बनाता है। वे अपने बच्चों के पालन-पोषण में कोई कमी नहीं छोड़ते। उन्हें सतत यही उम्मीद रहती है कि उनके बच्चे कभी भी उनकी अनदेखी नहीं करेंगे। कैसा भी वक्त होगा, अपना फर्ज निभाने से नहीं चूकेंगे, लेकिन अपवाद की श्रेणी में आने वाली औलादें जब मां-बाप की आशाओं के तराजू पर खरी नहीं उतरतीं तो वे खुद को लुटा-पिटा मानकर निराशा का कफन ओढ़ लेते हैं। उन्हें बार-बार खुद की गलती का अहसास होता है, लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग कर फुर्र हो चुकी होती है। मैंने अपने आसपास कुछ ऐसे पालकों को देखा है, जो अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए उम्र भर खून-पसीना बहाते रहते हैं। उन्हें यह खौफ खाये रहता है कि हमारे बाद बच्चे कैसे रहेंगे। उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं होगी। वे किसी की साजिश का शिकार तो नहीं हो जाएंगे। इस चक्कर में वे अपने साथ न्याय नहीं कर पाते। जबकि होता यह है कि पालकों ने स्वर्गवास के पश्चात कई बच्चों को पहले से बेहतर नई राह मिल जाती है। वे अपने में ही मस्त हो सब कुछ भूल-भाल जाते हैं। उन्हें मां-बाप के त्याग की भी याद नहीं आती। जीने की परिभाषा यदि सीखनी हो तो ओशो से बड़ा और कोई शिक्षक नहीं है। वे मात्र 58 साल तक इस धरा पर रहे, लेकिन आज भी जिन्दा हैं। उन्होंने इतने कम समय में इतना कुछ कर डाला जितना सौ साल में भी संभव नहीं। उनकी हजारों प्रेरक किताबें उनके देव पुरुष होने का जीवंत प्रमाण हैं। उनकी समाधि पर लिखा हुआ है। ‘‘ओशो, जो न कभी पैदा हुए, न कभी मरे।’’ उन्होंने 11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच इस धरती की यात्रा की। 

ओशो कहते हैं,

सब पड़ा रह जाएगा, दीये जलते रहेंगे

फूल खिलते रहेंगे, तुम झड़ जाओगे

संसार ऐसे ही चलता रहेगा

शहनाइयां ऐसे ही बजती रहेंगी, 

तुम न होओगे

वसंत भी आएंगे, फूल भी खिलेंगे,

आकाश तारों से भी भरेगा

सुबह भी होगी, सांझ भी होगी

सब ऐसा ही होता रहेगा,

एक तुम न होओगे...।

Friday, September 6, 2024

खबरदार करती खबरें

     प्रतिदिन की तरह पति-पत्नी  सुबह  की सैर पर निकले। रास्ते में पड़ने वाली गहरी नदी में दोनों ने एक साथ छलांग लगा दी। किसी राह चलते साहसी व्यक्ति ने नदी में डुबकी  लगाकर महिला को तो बचा लिया, लेकिन पुरुष पानी के बहाव के साथ बह गया। यह खबर जिसने पड़ी वह हतप्रभ रह गया। दोनों को मार्निंग वॉक का शौक था। अपने स्वस्थ के प्रति सतर्क थे। लंबा जीवन जीने की तमन्ना भी रही होगी, तो फिर ऐसे में दोनों ने यह हैरतअंगेज कदम क्यों उठाया? कई खबरें अपने साथ प्रश्न भी जोड़े रहती हैं। सभी के जवाब नहीं मिल पाते। संतान सुख से वंचित शंकालू पति ने पीट-पीट कर पत्नी की हत्या कर दी। हत्या के बाद वह उस के शव के पास घंटों गुमसुम बैठा रहा। मृतका के सिर के पास नारियल भी रखा था। ...कोलकाता में मेडिकल कॉलेज में हुए बलात्कार-हत्या के संगीन मामले को लेकर राष्ट्रपति द्रौपदी  मुर्मू ने कहा, देश में गुस्से का माहौल है। मैं स्वयं निराश और भयभीत  हूं। महिलाओं  के खिलाफ  होने वाले अपराधों के लिए कुछ लोगों द्वारा महिलाओं को वस्तु के रूप में देखने की मानसिकता जिम्मेदार  है। अपनी बेटियों के प्रति यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके भय से मुक्ति पाने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करें। अब समय आ गया है कि न केवल इतिहास का सीधे सामना किया जाए बल्कि अपनी आत्मा के भीतर झांका जाए और महिलाओं के खिलाफ अपराध की इस बीमारी की जड़ तक पहुंचा जाए।

    महाराष्ट्र के छत्रपति संभाली  नगर में महिला डॉक्टर ने अपने पति के आतंक और जुल्म की इंतिहा से उकता और घबरा कर खुदकुशी कर ली। उसने अपने सुसाइड नोट  में लिखा कि मेरी हार्दिक इच्छा है की मेरे पति मुझे चिता पर रखने से पहले कसकर गले लगाएं। जिस शैतान पति ने कभी चैन से जीने नहीं दिया। अच्छे-खासे जीवन को नर्क बना कर रख दिया उससे यह कैसी मांग? दुर्जन पति के प्रति मरते दम तक सहानुभूति रखने वाली यह नारी मेडिकल अधिकारी थी यानी आर्थिक रूप में सक्षम थी। दिन-रात गाली-गलौच और शंका करने वाले पति को उसके हाल पर छोड़कर नयी स्वतंत्र राह भी तो पकड़ी जा सकती थी। फांसी के फंदे पर झूल कर इसी पढ़ी-लिखी भारतीय नारी ने खुद को किसी सहानुभूति के लायक भी नहीं छोड़ा। 

    ‘‘महाराष्ट्र में  चौथी क्लास  की छात्रा से शिक्षक ने, तो सगी  बेटी से बाप ने किया बलात्कार।’’ कल्याण  तहसील  में स्थित  एक गांव  में पुलिस ने 37 वर्षीय दरिंदे को दो साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म के संगीन आरोप में गिरफ्तार किया है। मासूम का अस्पताल में इलाज चल रहा है। बच्ची के माता-पिता तीन माह पूर्व मेहनत-मजदूरी करने आए थे। बच्ची घर के पास की दुकान से चाकलेट खरीदने गई थी। शैतान उसे उठाकर ले गया और निर्जन स्थान पर बलात्कार की कोशिश की। पीड़ा से कराहती बच्ची रोते हुए घर पहुंची तो नराधम की हैवानियत का पता चला।

    ‘‘यूपी में छात्रा से बलात्कार के आरोपियों के जेल से बाहर आने पर फूल, गुलदस्ते और हार पहनाकर किया गया स्वागत’’... जी हां, एकदम सही पढ़ा आपने। उत्तरप्रदेश के आईआईटी बीएचयू में बीटेक छात्रा की लगभग आठ माह पूर्व दो बदमाशों ने अस्मत पर डाका डाला था। इन दरिंदों के खिलाफ हजारों लोग सड़कों पर उतरे थे। अभी हाल में अदालत ने दोनों को सशर्त जमानत दे दी। साथ में यह भी कहा कि इन पेशेवर अपराधियों को जनता के बीच जाने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन जनता तो जनता है, सब कुछ जानती, समझती है, फिर भी अंधी-बहरी बनी रहना चाहती है। जिन्हें  अपना मानती है, उनके सौ खून माफ करने की हिमायती होने में नहीं सकुचाती। यह हमारे समाज की बेहद  शर्मनाक  हकीकत है।

    कई हृदयहीन भारतीय दूसरों की बहन, बेटियों का आदर करना नहीं जानते। उनका संरक्षण करना तो बहुत दूर की बात  है। पिछले कुछ सालों में हमारे भारत को बलात्कारियों का देश भी कहा जाने लगा है। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब देश के किसी हिस्से में बहन-बेटी की आबरू लूटने का खबर पढ़ने-सुनने में न आती हो। घर की सुरक्षित चार दिवारी में भी बेटियां, बहुएं और मासूम बच्चियां रौंद दी जाती हैं। उनके विरोध के स्वर और चीखों को बड़ी चालाकी से दबा-छिपा दिया जाता है। शर्मनाक तथ्य यह भी है कि संपूर्ण भारत में व्याभिचार और बलात्कार को लेकर अत्यंत शर्मनाक राजनीति होती देखी जाती है। पीड़िताओं के साथ बड़ी निर्लज्जता से भेदभाव कर आहत करने वाली बयानबाजी रूकने का नाम नहीं लेती। समाज को विषैला और असंवेदनशील बनाने में उन राजनेताओं की बहुत बड़ी भूमिका  है, जो इस मामले में घोर पक्षपाती हैं। जिन प्रदेशों में उनकी सरकार है वहां पर महिलाओं के साथ बर्बरता होने पर खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं और जहां पर उनकी सत्ता नहीं वहां कुत्तों की तरह भौंकने में कोई कमी नहीं करते। देश की बेटियों पर हो रहे दुराचारों के मामले में भेदभाव करने वाले नेताओं की वजह से ही राक्षसी कृत्य करने वाले चुन-चुन कर नारियों की इज्जत पर डाका डालते हैं और बाद में अपने आकाओं की गोद में जाकर बैठ जाते हैं। उनके आका उन्हें बचाने के लिए ओछी से ओछी चालें चलने लगते हैं। देश का कानून भी इनके कुचक्र का शिकार हो जाता है। सबूतों के अभाव में भरे चौराहे पर बलात्कार करने वाले दुराचारी  बाइज्जत बरी हो जाते हैं। उनको अपना आदर्श मानने वाले उनका आन-बान और शान के साथ गुलदस्तों तथा फूलों के हारों से अभिनंदन-स्वागत कर पीड़िता और उनके माता-पिता के सीने में खंजर घोंपकर बार-बार लहुलूहान और करते रहते हैं।

Thursday, August 29, 2024

इन मासूमों का क्या दोष?

    कुछ दिन पूर्व दो ऐसी महिलाओं से मुलाकात हुई, जिनकी प्रतिभाशाली बेटियों की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी। अपनी लाड़ली पुत्रियों को सदा-सदा के लिए खो चुकी इन माताओं के साथ हमारा समाज कैसी बेअदबी और निष्ठुरता के साथ पेश आता है, इस सच को जान कर बहुत पीड़ा हुई। उनकी आपबीती सुनकर जब सुनने और जानने वालों का मन आहत हो जाता है तो सोचें, कि इन मांओं पर क्या बीती होगी। होना तो यह चाहिए था कि इनके प्रति आदर और सहानुभूति दर्शायी जाती। इनके धैर्य और हौसले को सराहा जाता। आप ही बतायें कि इन्हें कसूरवार ठहराना कहां तक जायज है? शहर के नामी स्कूल की सम्मानित शिक्षिका रहीं रजनी वर्मा की इक्कीस वर्षीय पुत्री एक रात अपने मित्र के साथ थियेटर में पिक्चर देख कर लौट रही थी। दोनों किसी मॉल में काम करते थे। उस दिन छुट्टी के बाद उनका बहुत दिनों के बाद फिल्म देखने का मन हुआ था। रजनी वर्मा की बेटी अलका अत्यंत ही खुले विचारों की होने के बावजूद अनुशासन और मर्यादा के साथ जीने में यकीन रखती थी। वह जहां भी जाती, मां को खबर करना नहीं भूलती। उस रात भी उसने मां को बता दिया था कि घर आने में देरी हो सकती है। चिन्ता मत करना। रात को रजनी वर्मा की कब आंख लगी, पता ही नहीं चला। सुबह तक रजनी की पूरी दुनिया लुट चुकी थी। तीन-चार नकाबपोशों ने अलका का रेप करने के पश्चात उसे रेल की पटरियों पर मरने के लिए फेंक दिया था। उनका दोस्त किसी तरह से बच-बचाकर पुलिस तक पहुंचा था। पुलिस ने तुरंत अलका को अस्पताल पहुंचाया था, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद वह बच नहीं पाई थी। बेटी की क्षत-विक्षत लाश रजनी ने कैसे देखी और उन पर क्या गुजरी इस बारे में उन्होंने कभी किसी को कुछ नहीं बताया। आंखों में आंसू अटके के अटके रह गये। पति के गुजर जाने के बाद इकलौती बेटी की परवरिश में कोई कमी नहीं करने वाली रजनी के जीवन में आया भूचाल अभी तक नहीं थमा है। कोर्ट-कचहरी और वकीलों की फीस ने अधमरा कर दिया है। पुश्तैनी घर तक बेचना पड़ा। चारों बलात्कारी कॉलेज के छात्र थे। रजनी उन्हें पहचानती थी। बदमाशों को अलका की दिनचर्या का पूरा पता था। उन्हीं में से एक बदमाश अलका पर शादी का दबाव बनाता चला आ रहा था। बारह साल तक कोर्ट में मामला चलता रहा। आखिरकार पुख्ता सबूतों के अभाव में सभी बदमाश बरी हो गये। लस्त-पस्त हो चुकी रजनी बताती हैं कि तब उनकी आंखों से चिंगारियां निकलने लगती थीं जब कोर्टरूम के आसपास कुछ लोग उनका मज़ाक उड़ाते हुए ताने कसा करते थे कि ये बुढ़िया भी अपनी बेटी की तरह अपने कर्मों की सज़ा भुगत रही है। यदि इसने अपनी आवारा बेटी पर अंकुश लगाया होता तो आज दोनों शान से जी रही होतीं। आधी-आधी रात को अपनी बेटी को उसके यार के साथ घूमने की  छूट देने वाली मां को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। 

    ऐसी ही जली-कटी अर्चना खुराना को सुनना पड़ी थीं, जिनकी प्रतिभाशाली अभिनेत्री बेटी की चलती ट्रेन में अस्मत लूट ली गई थी। अर्चना की बिटिया रानी मुंबई में अभिनय एवं मॉडलिंग के क्षेत्र में सक्रिय थी। कुछ टीवी सीरीयल में उसके काम को काफी सराहा गया था। नागपुर से मुंबई जाते समय रात के समय रेलगाड़ी में दो शराबी मुस्तंडे उस पर टूट पड़े थे। यात्रियों के सामने युवा अभिनेत्री को निर्वस्त्र कर अपनी अंधी वासना को शिकार बनाने वाले गुंडे बड़े आराम से चलती रेलगाड़ी का चेन खींचकर चलते बने थे। रानी ने फांसी के फंदे पर झूल कर खुदकुशी कर ली थी। इस सदमें ने अर्चना को निचोड़ कर रख दिया था, लेकिन तब तो वह पूरी तरह से खत्म ही हो गई थीं जब उन पर तैजाबी तंज कसे गये कि उनकी बेटी अपने खुले विचारों और अंग प्रदर्शन करने वाले परिधानों के कारण बलात्कार का शिकार हुई। अनजान पुरुषों से हंस-हंसकर बोलना बतियाना उसी को भारी पड़ गया। सफर के दौरान यदि वह अपने में सिमट कर रही होती तो गुंडे बदमाशों की नज़र उस पर नहीं जाती। टीवी सीरियल में भी उसने जिन किरदारों को जीवंत किया वे कामुकता और शारीरिक आकर्षण में रचे बसे थे। अपने देश में पीड़िता को दोषी ठहराने के बहाने और तर्क गढ़ने का जो सिलसिला चलाया जाता है उसकी कोई सीमा नहीं होती। अभी हाल ही में महाराष्ट्र के शहर बदलापुर में नर्सरी में पढ़ रही चार साल की दो मासूम बच्चियों से 24 वर्षीय सफाई कर्मी ने दुष्कर्म और यौन शोषण किया। अस्पताल में इसकी पुष्टि भी हो गई। पुलिस वाले रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करते रहे। लोगों का विरोध और दबाव बढ़ने के पश्चात प्राथमिक रिपोर्ट लिखी गई। यह हमारे देश की अधिकांश खाकी की शर्मनाक सच्चाई है, जिसकी वजह से अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं। बदलापुर के आदर्श स्कूल में जहां मासूम बेटियों का यौन शोषण होता रहा, वहां के सीसीटीवी काम नहीं कर रहे थे। ऐसा कहा और माना जाता है कि यदि बच्चे घर से बाहर कहीं सुरक्षित हो सकते हैं तो वह जगह है स्कूल, लेकिन महाराष्ट्र, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, दिल्ली...कहीं भी बच्चे आज सुरक्षित नहीं। बहन-बेटियों की अस्मत के लुटेरे शिक्षा के मंदिरों में भी अपना तांडव मचाए हैं। हैरतअंगेज सच तो यह है कि जब तक जनता सड़कों पर नहीं उतरती तब तक शासन और प्रशासन की नींद ही नहीं टूटती। बदलापुर के बाद महाराष्ट्र के अकोला में स्थित जिला परिषद स्कूल के शिक्षक को पुलिस ने गिरफ्तार किया। यह नराधम आठवीं कक्षा की छह छात्राओं को अश्लील वीडियो दिखाकर उनके साथ घोर अश्लील हरकतें करता चला आ रहा था। अब सवाल उन ज्ञानी लोगों से जो युवतियों के पहनावे और खुलेपन को बलात्कार का कारण मानते हैं। मासूम बच्चियों ने तो अपने स्कूल की ड्रेस पहन रखी थी। उन्हें तो दुनियादारी की कोई समझ ही नहीं थी। अपने काम से काम रखती थीं। आपस में ही खुश रहती थी। उनकी भोली-भाली सूरत में दरिंदों को क्या नजर नजर आया जिसने उन्हें हैवान बना दिया।

Thursday, August 22, 2024

‘बेटी बचाओ’ क्या महज सरकारी नारा है?

    बहन, बेटियों की प्रगति, सुरक्षा, शिक्षा, रोजगार और बराबरी के तमाम दावे और नारे तब एकदम खोखले, निरर्थक लगते हैं, जब बार-बार उन पर घोर अत्याचार की खबरें दिल चीर जाती हैं। स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, सड़क, चौक-चौराहे, अस्पताल में बलात्कार। भरे पूरे परिवारों में भी बहन-बेटियों का निर्लज्ज चीर-हरण उस देश के माथे का कलंक और असहनीय जख्म है, जहां सदियों से नारी-पूजन होता चला आ रहा है। अब तो लेखक बेहिचक कहने तथा लिखने को स्वतंत्र है कि यह सब नाटक-नौटंकी, निर्लज्जता और अखंड पाखंड है। कभी भी माफ नहीं किये जाने वाला पाप और अपराध है। अपने देश भारत में अब जब भी कहीं बलात्कार-हत्याकांड होता है, तब दिल्ली में वर्षों पूर्व हुए निर्भया रेप हत्याकांड की याद ताजा की जाने लगती है। सारे अखबार और न्यूज चैनल धड़ाधड़ बताने लगते हैं कि तब किस तरह से पूरे देश का खून खौल उठा था। बलात्कारियों को भरे चौराहे पर नंगा कर फांसी के फंदे पर लटकाने, गोलियों से भूनने की मांग लिए जगह-जगह स्त्री, पुरुष, बच्चों का हुजूम सड़कों पर उतर आया था। कुछ भारतीयों ने हर बलात्कारी के गुप्तांग को काट देने की मांग भी की थी। सरकार ने बलात्कारियों को सबक सिखाने के लिए कठोरतम दंड का प्रावधान भी किया था, लेकिन नतीजा सबके सामने है। दुराचारियों को नया कानून भी डरा नहीं पाया। बेटियों की आबरू तार-तार करने के सिलसिले में कोई कमी नहीं आई।

    अभी हाल ही में कोलकता के अरजी कर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में 31 साल की ट्रेनी डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की बेहद चौंकाने और दिल दहलाने वाली घटना ने फिर से लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए विवश कर दिया। फिर से पुलिस की नालायकी, घोर लापरवाही और असंवेदनशीलता ने जन-जन को गुस्सा दिलाया। लेडी डॉक्टर के मृतक शरीर को देखने से ही उसके साथ हुई बर्बरता का पता चल रहा था, लेकिन पुलिस आत्महत्या घोषित कर मामले को रफा-दफा करने की चालें चलती रही। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बताया गया कि पीड़िता के शरीर में करीब 151 ग्राम सीमन यानि लिक्विड मिला, उससे इस शंका को बल मिलता है कि उससे एक से ज्यादा दरिंदों ने रेप किया है। लिक्विड की इतनी ज्यादा मात्रा किसी एक दरिंदे की नहीं हो सकती।

    मृतका के माता-पिता को भी अस्पताल प्रबंधन द्वारा यही बताया गया था कि उनकी लड़की ने खुदकुशी कर ली है। अस्पताल पहुंचने पर उनकी धड़कनें बेकाबू होती चली गईं। वे बार-बार हाथ जोड़कर बच्ची को तुरंत दिखाने की विनती करते रहे, लेकिन उन्हें तीन घंटे तक इंतजार करवाया गया। अपनी लाड़ली की दुर्दशा देख मां तो चक्कर खाकर गिर पड़ी। बेटी की आंखों, मुंह और गुप्तांग में खून ही खून तथा शरीर  पर कोई कपड़ा नहीं था। दोनों पैर राइट एंगल में थे। एक पांव बेड के एक तरफ और दूसरा पांव बेड के दूसरी तरफ था। चश्मे को बड़ी निर्दयता के साथ कूचे जाने के कारण आँखों में रक्त जमा था। हर तरह की जंगली बर्बरता से रेप और उसके बाद गला घोंट असहाय बेटी की हत्या की गईं थी। अस्पताल प्रशासन की लीपापोती धरी की धरी रह गई। अस्पताल के सीसीटीवी कैमरे के आधार पर गिरफ्तार किए गए अय्याश संशय राय ने पुलिस की पूछताछ में अपना अपराध स्वीकार करने में देरी नहीं की। उसे इस दरिंदगी को लेकर कोई पछतावा नहीं था। उसने सीना तानते हुए कहा कि, अगर चाहो तो मुझे फांसी पर लटका दो। उसका मोबाइल फोन भी अश्लील सामग्री से भरा मिला। पीड़िता के शव के पास उसका ब्लूटूथ हैंडसेट भी बरामद किया गया, जो उसके मोबाइल से जुड़ा हुआ था। 

    यह कितनी स्तब्ध करने वाली बात है कि इतने बड़े अस्पताल में जब प्रशिक्षु डॉक्टर पर बलात्कार हो रहा था तब वहां पर और कोई नहीं था, जो उसकी चीख-पुकार सुन कर दौड़ा चला आता? भारत में डॉक्टर्स के असुरक्षित होने की खबर विदेशों तक भी जा पहुंची। न्यूयार्क के टाइम्स स्कवायर पर धरना प्रदर्शन कर भारतीय छात्रों और डॉक्टर्स के प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित किया गया। प्रदर्शनकारियों ने एक महिला डॉक्टर की मेडिकल कॉलेज में ड्यूटी के दौरान दुष्कर्म और हत्या को सिस्टम की असफलता करार दिया और सख्त कार्रवाई की मांग की। जर्मनी, लंदन और कनाडा में भी लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। डॉक्टर बेटी से दरिंदगी के विरोध में रक्षाबंधन पर पूरे हिंदुस्तान की बेटियों ने सड़कों पर उतर कर नारियों की सुरक्षा की गुहार लगाई और सरकारी नारे ‘बेटी बचाओ’ को कटघरे में खड़ा किया। यह कैसी विडंबना है कि एक महिला मुख्यमंत्री के राज में ही महिलाएं असुरक्षित हैं। यह भी सच है की सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही दुराचारियों के हौसले बुलंद नहीं हैं, अन्य प्रदेशों में भी बलात्कारी कानून से खौफ नहीं खाते। कोलकता में हुए इस नृशंस बलात्कार, हत्या के तीन दिन बाद बिहार के शहर मुजफ्फरपुर में एक महादलित परिवार की 14 वर्षीय छात्रा की सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गई। मुख्य आरोपी छात्रा पर शादी का दबाव बना रहा था। जब वह नहीं मानी तो वह चार साथियों के साथ रात को उसके घर जा पहुंचा। मां-बाप के सामने हथियारों का भय दिखाकर लड़की को बाहर खींच कर ले गया। अगले दिन झील में छात्रा का हाथ-पैर बंधा शव मिला। इतना बड़ा कांड हो गया लेकिन कहीं कोई आवाज और शोर शराबा नहीं हुआ। अखबार और न्यूज चैनल भी खामोश रहे। एक तरफ पूरे देश में डॉक्टर और सजग जन सड़कों पर उतर कर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर मृतक लेडी डॉक्टर के क्षत-विक्षत शरीर की तस्वीरों के साथ उसके नाम को धड़ाधड़ उजागर करने का गंदा और शर्मनाक खेल चल रहा था। अपनी जान से प्यारी प्रतिभावान पुत्री को हमेशा के लिए खो चुके दुःखी मां-बाप को बार-बार अपील और विनती करनी पड़ी कि, प्लीज  हमारी बेटी की तस्वीरें और नाम  शेयर मत करें। गौरतलब है कि, पीड़ित की तस्वीर और नाम को गोपनीय रखने का नियम बना हुआ है, लेकिन सोशल मीडिया के इस अजीबोगरीब दौर में कुछ लोग अति उत्साह में किसी कानून-कायदे का पालन करना जरूरी नहीं समझते। अपने नाम का परचम लहराने के साथ-साथ अपना तथाकथित गुस्सा व्यक्त करने के लिए सोशल मीडिया को हथियार बना चुके फुर्सतियों की अपने यहां अच्छी-खासी तादाद है। साफ सुथरे लोगों पर कीचड़ उछालने की शर्मनाक कला में यह चेहरे बहुत माहिर हैं...।