Thursday, February 22, 2024

खरीद-फरोख्त की मंडी

    नेता बड़ी तेजी से अपना रंग बदलने लगे हैं। इनका कोई भरोसा नहीं। आज इस दल में तो कल पता नहीं किस दलदल में। जनता को भ्रम में रखने का इन्हें खूब हुनर आता है। झूठ पर झूठ बोलने में भी इनका कोई सानी नहीं। दस-बीस नेता फरेबी होते तो बात आयी गयी हो जाती, लेकिन यहां तो इस मामले में भी प्रतिस्पर्धा चल रही है। लोगों का माथा चकरा रहा है। कल तक जो घोर शत्रु थे, अछूत थे, झूम-झूम कर उन्हें गले लगाया जा रहा है। देश के हुक्मरान भी किधर जा रहे हैं? कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। मेल-मिलाप के इस अजूबे खेल ने वोटरों को असमंजस की जंजीरों में जकड़ कर रख दिया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के किले को खंडहर में तब्दील करने के जो मंजर नज़र आ रहे हैं, उनकी तो कल्पना ही नहीं की गई थी। जो नींव के पत्थर थे, वही खिसकते जा रहे हैं। दूसरे दलों के दिग्गज नेता भी भाजपा के जहाज की सवारी के लोभ में अपनी पुरानी कश्तियों में छेद कर उन्हें बड़ी बेशर्मी से डुबो रहे हैं। 

    कुछ ही हफ्तों के बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी भाजपा की तूफानी जीत का दावा करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति भी किसी पहेली से कम नहीं। देश की आम जनता मान चुकी है कि देश में कोई भी चेहरा मोदी जितना दमदार नहीं। विपक्ष जितना बेबस और बेचारा आज दिख रहा है, वैसा पहले कभी नहीं दिखा। दिखावे के तौर पर वह कुछ भी दावे करता रहे, लेकिन संपूर्ण विपक्ष जानता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी दाल नहीं गलने वाली। फिर भी मैदान में उतरना जरूरी है। नहीं उतरेंगे तो हंसी के पात्र बनेंगे। भविष्य चौपट हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार कहते नहीं थकते कि देश के सजग मतदाता भाजपा को 370 सीटों पर विजयी बनाने के साथ-साथ एनडीए को 400 के पार पहुंचा कर विपक्ष के होश ठिकाने लगायेंगे। ऐसे में प्रश्न यह है कि जब उन्हें इस कदर भरोसा है तो इधर की ईंटों और उधर के रोढ़ों को क्यों अपने साथ जोड़े जा रहे हैं? विपक्षी पार्टियों के नेताओं के काले अतीत को नजरअंदाज करने की पीछे कौन से मजबूरियां हैं? भाजपा तथा मोदी की साम, दाम, दंड और भेद की रणनीति कहीं उनकी अंदर की घबराहट का प्रतिफल तो नहीं? प्रधानमंत्री जीत का कोई भी रास्ता नहीं छोड़ना चाहते। हर बाधा को दूर कर लेना चाहते हैं? इसलिए सभी के लिए दरवाजे खोल दिए गये हैं! जगजाहिर बेइमानों को भी मालाएं पहनाकर तहेदिल से गले लगाया जा रहा है। जिन विधायकों, मंत्रियों, सांसदों के काले कारनामों के विरोध में कभी शोर मचाया करते थे, उनके गले में भाजपा का दुपट्टा पहनाना मोदी के कद को कहीं न कहीं घटा रहा है। यह अलग बात है कि इस तमाशे को राजनीति की रणनीति कहकर पल्ला झाड़ लिया जाए, लेकिन सजग भारतीयों को भाजपा का यह चलन अंदर ही अंदर चुभ रहा है। आहत और निराश तो भाजपा के वो नेता और समर्पित कार्यकर्ता भी हैं, जिन्हें अपनी पार्टी की यह नीति डराने लगी है। उन्हें अपनी वर्षों की मेहनत पर पानी फिरता नजर आने लगा है और भविष्य अंधकारमय लगने लगा है। उनके मन में बार-बार यह विचार भी आता है, जिस तरह से उनकी पार्टी खरीद-फरोख्त की मंडी में तब्दील हो रही है। सत्ता की सुरक्षा के लिए अशोभनीय समझौते करती चली जा रही है, तो ऐसे में उस विचारधारा और सिद्धांतों का क्या होगा, जिनके लिए उसे मान-सम्मान मिलता रहा है। अपनी पुरानी पार्टी को छोड़ नयी पार्टी में शामिल होकर दुपट्टा ओढ़ने वाले अधिकांश नेताओं की तिजोरियां नोटों से लबालब हैं। मतदाताओं को लुभाने और कार्यकर्ताओं को अपने पाले में लाने के हर गुर में यह धुरंधर पारंगत हैं। चुनावो में पानी की तरह धन बहाना इनके बायें हाथ का खेल है। अपने देश भारत में चुनावी लड़ाई अब पैसे वालों का मनोरंजक खेल भी बन चुकी है। कोई भी सरकार चुनावों में पैसों के दानवी खेल को खत्म नहीं करना चाहती। सरकारों को आखिर चलाते तो नेता ही हैं, जिन्हें अपना बहुमूल्य वोट देकर वोटर सांसद और विधायक बनाते हैं। यह सच अपनी जगह है कि बाद में वे उन्हें भूल जाते है और व्यापार की डगर अपनाते हैं। अभी हाल ही में मेरे पढ़ने में आया कि हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओबिन की चुनाव के दौरान जिन रईस दोस्तों ने आर्थिक सहायता की थी, बाद में उन्हीं को धड़ाधड़ सरकारी ठेके हासिल हुए और देखते ही देखते वे देश के सबसे अमीर शख्स बन गए। शातिर चतुर और चालाक लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि शीर्ष नेताओं से दोस्ती कितनी-कितनी फायदेमंद होती है। यह नजारा भारत में भी बड़ा आम है। यह कलमकार ऐसे विधायकों, मंत्रियों को जानता है, जो अपने करीबी रिश्तेदारों, दोस्तों तथा समर्पित कार्यकर्ताओं को सरकारी ठेके दिलवा कर उनकी बदहाली को खुशहाली में बदलने का काम करते हैं। इन चुने हुए जनप्रतिनिधियों के यहां चम्मचों की भीड़ लगी रहती है। उनकी खास कैबिन में शराब, खनिज और तरह-तरह की लूट का धंधा करने वाले खूंटा गाड़ कर जमे रहते हैं। आम जनता से मिलने के लिए ‘साहेब’ के पास वक्त ही नहीं होता।

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