Thursday, May 29, 2025

समझ-नासमझ

चित्र-1 : उसके मां-बाप ने उसे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए आस्ट्रेलिया भेजा था। वहां वह सिजोफ्रेनिया जैसे खतरनाक मानसिक रोग का शिकार हो गया। डॉक्टरी की निर्धारित कोर्स की किताबेें पढ़ने की बजाय उसका दिमाग इधर-उधर छलांगे लगाने लगा। इसी दौरान उसने ‘आत्मा’ के बारे में पढ़ा और सुना तो वह दिन-रात आत्मा के बारे में ही सोचने लगा। आत्मा कैसी दिखती है, हमारा शरीर आत्मा के साथ कैसे काम करता है। मौत होते ही क्या हम आत्मा को देख सकते हैं? उसकी जिज्ञासा बढ़ती चली गई। कई और सवाल परेशान करते हुए उसकी नींद उड़ाने लगे। एक शाम उसने डॉक्टरी की सारी किताबें आग के हवाले कर दीं। आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए उसने अपने मां-बाप और बहन की बेहद कू्ररता से हत्या कर दी। उसके पश्चात वह ‘आत्मा’ को ढूंढता रहा, लेकिन वह नहीं मिली। अलबत्ता सड़-गलकर मरने के लिए उसे जेल जरूर जाना पड़ा।

चित्र-2 : माता-पिता को अपनी औलाद से ज्यादा कुछ भी प्यारा नहीं होता। मां की आत्मा और समस्त चेतना में तो सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों की जान बसती है। वह उनके लिए किसी भी मुसीबत को झेलने को तैयार रहती है। महाराष्ट्र के ठाणे के मुंब्रा इलाके में रहने वाला 17 साल का सुहैल यह कहकर घर से निकला कि आधे घण्टे में लौट आऊंगा, लेकिन देर रात तक जब वह घर वापस नहीं आया तो मां बेचैन हो गयी। उसने आधी रात को ही थाने में जाकर बेटे के गुम होने की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। इतना ही नहीं मां फरीदा ने रात में ही बेटे के दोस्तों के घर का दरवाजा खटखटाया, लेकिन सभी ने अनभिज्ञता दर्शा दी। दिन-पर-दिन बीतते चले गए, लेकिन बेटे का कोई सुराग नहीं मिला। अपने दुलारे की तलाश में भूखी-प्यासी रहकर उसने कई दिन-रात थाने और जेलों के बाहर बैठकर बिताये। अजमेर में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को भी बार-बार फोन कर पता लगाती रही कि उन्होंने सोहेल को दरगाह पर तो नहीं देखा। जब उसकी समझ में आ गया कि पुलिस का उसकी मदद करने का कोई इरादा नहीं है तो उसने एक स्थानीय पत्रकार से मुलाकात की। दोनों और जोर-शोर से सोहेल की तलाश में लग गये। कई जाने-अनजाने लोगों तथा सोहेल के नये-पुराने यार-दोस्तों में मिलने-मिलाने के बाद पता चला कि सोहेल का एक दोस्त भी उसी दिन से लापता है, जिस दिन सुहेल गायब हुआ। पत्रकार कुछ हफ्ते दौड़धूप करने के बाद अपने किसी और काम में लग गया, लेकिन मां ने धैर्य और हिम्मत का दामन थामे रखा। अपने गुमशुदा बेटे का पता निकालने वह जासूस बन गई। उसने खुद ही कड़ी-दर-कड़ी ऐसे सबूत तलाशे जिनसे दो हत्याओं का खुलासा हो गया। एक हत्या उसके बेटे सुहेल की और दूसरी उसके दोस्त की। मां की ममता के खोजी  साहस को देखकर पुलिस भी हतप्रभ रह गई।

कोलकाता के निकट के एक गांव के तेरह साल के बच्चे को जब भूख ने बहुत सताया तो वह दौड़ा-दौड़ा मिठाई की दुकान पर जा पहुंचा। दुकान पर तरह-तरह की चिप्स रखीं थीं, लेकिन दुकानदार नदारद था। बच्चा ने तीन पैकेट हाथ में लेकर इधर-उधर देखने लगा। तभी दुकानदार आ गया। उसने बच्चे को चोर समझ कर पकड़ा और अंधाधुंध पीटने लगा। बच्चे ने गुस्साये दुकानदार को बीस का नोट देते हुए भूल के लिए बार-बार माफी मांगी। बच्चे की मां को जब इस घटना का पता चला तो उसने भी उसे कड़ी फटकार लगाई। भावुक और संवेदनशील बच्चे ने घर लौटने के बाद खुद को कमरे में बंद कर लिया। मां दरवाजा खटखटाती रही, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। कुछ देर के बाद पड़ोसियों की मदद से दरवाजा तोड़ा गया तो बच्चा बेहोश मिला। उसने बंगाली में एक नोट लिख छोड़ा था, ‘‘मां मैं चोर नहीं हूं। मैंने चोरी नहीं की। अंकल (दुकानदार) वहां नहीं थे। मैंने उनके आने की राह देखी। मुझे बहुत भूख लगी थी। वैसे भी कुरकुरे मुझे बहुत पसंद हैं। मेरे उन्हें उठाते ही अंकल आ गए और उन्होंने मेरी एक भी नहीं सुनी...। ये मेरे अंतिम शब्द हैं। कृपया मुझे इस काम के लिए माफ कर देना।’’ अस्पताल ले जाने के कुछ ही समय बाद उसने अंतिम सांस ले ली। मां की आत्मा चीत्कार उठी। वह खुद को कोसती रह गई कि थोड़ा धीरज रख अपने बच्चे की सुन लेती तो वह आहत होकर इस तरह से मौत के मुंह में तो नहीं समाता।

चित्र-3 : इन दिनों कई मां-बाप बच्चों की मनमानी से बहुत आहत और परेशान हैं। मोबाइल फोन तो उनके लिए बहुत बड़ी समस्या बन गया है। अधिकांश बच्चे मोबाइल को आसानी से छोड़ने को तैयार ही नहीं होते। टिकटॉक, इंस्टाग्राम, फेसबुक और ऑनलाइन गेम उनकी लत बन गई हैं। मां-बाप के रात को सो जाने के पश्चात भी बच्चे मोबाइल फोन से चिपके रहते हैं। रात को देरी से सोने के कारण उनकी आंख समय पर नहीं खुलती। मां-बाप उठा-उठाकर थक जाते हैं। 

केरल में स्थित नेदुंवपुरम ग्राम पंचायत ने बच्चों का मोबाइल के नशे से ध्यान हटाने के लिए अनोखी पहल की है। इसके तहत गांव के आठवीं से 12वीं क्लास के छात्रों को बीमार लोगों के साथ-साथ बुज़ुर्गों से मिलने और उनका हालचाल जानने के लिए भेजा जाता है। बच्चे उनका हौसला बढ़ाते हैं कि आप चिंता न करें। ईश्वर आपको शीघ्र ही भला-चंगा करेंगे। जागरूक ग्रामवासियों का मानना है कि मरीजों के साथ अधिक से अधिक वक्त व्यतीत करने से बच्चे ज्यादा संवेदनशील होंगे और बड़े-बुजुर्गों की देखभाल के प्रति जागरूक होंगे। उन्हें बुजुर्गों से बहुत कुछ नया सीखने को मिलेगा, जो किताबों में नहीं है। बच्चों को फर्स्ट एड की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। गांव के डॉक्टर गोयल कहते हैं कि बच्चों को मोबाइल से दूर रखने का लक्ष्य उन्हें दयालू और सामाजिक बनाना है। जब बच्चे बिस्तर पर पड़े किसी रोगी से बात करते हैं, उसका हालचाल पूछते हैं तो उनके व्यवहार में सकारात्मक बदलाव आते हैं। उनमें दूसरों की सहायता करने की भावना में बढ़ोतरी होती है। हम चाहते हैं कि बच्चे मोबाइल से दूरी बनाते हुए अपनी ऊर्जा, ज्ञान और कौशल का इस्तेमाल असहायों की मदद के लिए करें। बचपन और किशोरावस्था में बहुत एनर्जी होती है। यदि इसे सही दिशा दे दी जाए तो वे बड़े होकर बेहतरीन नागरिक बन सकते हैं। ग्राम पंचायत की सकारात्मक कोशिश रंग लाने लगी है। आयुर्वेदिक अस्पताल के डॉक्टर अविनेश गोयल इस बदलाव को लेकर अत्यंत प्रसन्न हैं। वे बताते हैं कि बच्चे पहले गांव के मरीजों का सर्वे करते हैं। इससे उनको गांव की प्राथमिक और जमीनी स्थिति का पता चलता है। उनकी सोच और समझ विकसित होती चली जाती है। इसके बाद वे डेटा का विश्लेषण करते हैं। फिर वे महीने में एक बार कम से कम मरीज से जरूर मिलने जाते हैं। हालांकि वे जितने चाहें उतने मरीजों से मिल सकते हैं। उन्हें एक डायरी भी दी गई है, जिसमें उन्हें सारी सूचनाएं अपनी भावनाएं लिखनी होती हैं। यह डायरी हर महीने चेक की जाती है, जिसकी सेवा सबसे अच्छी होती है। उसे इनाम भी दिया जाता है। यह भी सच है कि मोबाइल के अत्याधिक चक्कर में पड़े रहने की बीमारी सिर्फ बच्चों को ही नहीं है। कई बड़े-बुजुर्ग भी इसके गुलाम हो चुके हैं। जब मौका मिलता है मोबाइल खोलकर बैठ जाते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के वीआइपी रोड पर स्थित है ‘नुक्कड़ कैफें। यहां पर जो ग्राहक खाना खाने के लिए आते हैं उनका मोबाइल पहले ही जमा करवा लिया जाता है। कैफे ने इसे डिजिटल डिटॉक्स का नाम दिया है। कैफे के संचालक चाहते हैं कि अपने परिवार या दोस्तों के साथ कैफे में आने वाले लोग अधिकतम समय एक-दूसरे के साथ बिताएं। मोबाइल में उलझे रहने की बजाय आपस में बातचीत करें। इसके बदले में उनके बिल में दस प्रतिशत विशेष छूट भी दी जाती है।

Thursday, May 22, 2025

लोकतंत्र में लूटतंत्र

यह खबर यकीनन सभी ने तो नहीं पढ़ी होगी, ‘‘महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के नेता नारायण राणे जब महाराष्ट्र सरकार में राजस्व मंत्री थे तब उन्होंने वन विभाग की 300 एकड़ जमीन अपने अत्यंत चहेते बिल्डर को दे दी थी। इस जमीन की कीमत करोड़ों रुपये थी। नारायण राणे ने इस उपकार के बदले यकीनन मोटी रकम ली होगी। नेता यूं ही दरियादिली नहीं दिखाते, लेकिन हां, सरकारी संपति को लुटाने में इन्हें न कोई शर्म आती है और न ही दर्द होता है। विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही सरकारी जमीनों को अपनी खानदानी प्रॉपर्टी मानने वाले नेताओं की फसल बीते कई वर्षों से खूब फल-फूल रही है। चव्हाण नामक जिस जुगाड़ू और धुरंधर ने 1998 में मंत्री नारायण राणे से यह सौगात मिट्टी के मोल पायी थी, उसने इसे रिची रिच कोऑपरेटिव सोसाइटी को दो करोड़ में बेचकर अपनी तिजोरी का वजन बढ़ा लिया। वन विभाग की यह जमीन कृषि भूमि थी, लेकिन घोर आश्चर्य युक्त हकीकत यही है कि कुछ ही दिनों में तत्कालीन पुणे संभागीय आयुक्त राजीव अग्रवाल, कलेक्टर विजय माथनकर और वन संरक्षक अशोक खडसे ने यह प्रमाणित करने में किचिंत भी विलंब नहीं किया कि, यह कीमती तीस एकड़ भूमि गैर कृषि जमीन है। यानी इस पर मनचाही भव्य परियोजना को साकार कर अरबों-खरबों रुपये कमाने की खुली छूट है।

देश के मुख्य न्यायाधीश माननीय भूषण गवई ने पद ग्रहण करने के तुरंत बाद अपने पहले फैसले में इस जमीन को वन विभाग को वापस करने का निर्देश देकर राजनीति को धंधा बनाने वाले नेता नारायण राणे को तीखा झटका दे दिया। इसके साथ ही उनके भ्रष्टतम काले पन्ने पर मुहर लगाकर देशवासियों को सचेत होने का संदेश दे दिया है। नारायण राणे के प्रति मैं लाख चाहकर भी चोर, डाकू, धूर्त, बेईमान, शातिर जैसे तीखे शब्दों का इस्तेमाल करने से बच रहा हूं, क्योंकि वे माननीय सांसद हैं। उन्हें लाखों स्त्री-पुरूषों, युवक, युवतियों ने अपना कीमती वोट देकर सांसद बनाया है। नारायण राणे ने चिकन शॉप से राजनीति का जो सफर तय किया है वह भी किसी दृष्टि से सराहने के लायक तो नहीं है, लेकिन लोकतंत्र में जिसे भी वोटर मालामाल कर देते हैं वही साहूकार हो जाता है। वोटरों की इसी नादानी की वजह से ही नालायक से नालायक चेहरे विधायक और सांसद बनते चले आ रहे हैं। भारत में जो भी शख्स चुनाव में बाजी मार लेता है, उसके लिए सरकारी जमीनें पाना और हथियाना बहुत आसान और जन्मसिद्ध अधिकार हो जाता है। देश की संपत्ति को अपने बाप-दादा की जागीर समझने वाले नेता हर राजनीतिक पार्टी में हैं। किसी में ज्यादा तो किसी में कम। कांग्रेस के शासन में तो अदना-सा बंदा भी विधायक बनते ही स्कूल-कॉलेज के लिए करोड़ों की सरकारी जमीन मुफ्त में पाने का हकदार हो जाता था। महाराष्ट्र में तो शायद ही कोई कांग्रेसी नेता होगा, जिसने सरकारी जमीनें नहीं हथियायी होंगी। जमीनखोर, विधायकों, सांसदों की खोजी निगाहें उन जमीनों पर टिकी रहती है, जो स्कूलों, बाग-बगीचों, अस्पतालों, पुस्तकालयों आदि के लिए निर्धारित होती हैं, लेकिन अपने पद और पहुंच का फायदा उठाकर चुटकी बजाते ही उन्हें अपने नाम करवा लिया जाता है। इस छल-कपट के धूर्त-कर्म में उच्च सरकारी अधिकारी उनका पूरा साथ भी देते हैं और उन जमीनों का अता-पता भी बताते हैं, जिन्हें हथिया कर अपने बाप की जागीर बनाया जा सकता है। कुछ नेता तो लूट और बेशर्मी की सभी हदें पार करने में भी नहीं सकुचाते। उन्हें शहीद सैनिकों की जमीनें हथियाने में न संकोच होता है और न ही तनिक लज्जा आती है। 

महाराष्ट्र सरकार ने युद्ध में शहीद हुए सैनिकों और रक्षा मंत्रालय के कर्मचारियों को सिर ढकने के लिए छत दिलाने के लिए मुंबई के कोलाबा में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी का निर्माण किया था, लेकिन नियमों को ताक में रखकर इस सोसाइटी के अधिकांश फ्लैट नेताओं तथा अफसरों को बेहद कम कीमत में दे दिये गए। जांच में पाया गया कि 25 फ्लैट गैरकानूनी तौर पर आवंटित किये गए। इनमें से 22 फ्लैट फर्जी नाम से खरीदे गये। शहीदों के लिए बनाये गये फ्लैटों को झटकने वालों में प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख, सुनील कुमार शिंदे और शिवाजीराव निलंगेकर के नाम शामिल पाए जाने पर हंगामा मच गया था। लोगों ने ऐसे कपटी, लालची नेताओं की जात पर बार-बार थू...थू की थी। प्रमुख घोटालेबाज प्रदेश के मुखिया अशोक चव्हाण को इस्तीफा देकर अपने घर में बैठना पड़ा था।

सरकारी जमीनों को औने-पौने दाम में हथियाने के लूटकांड में कई बड़े-बड़े अखबार मालिकों की शर्मनाक भूमिका की ज्यादा चर्चा नहीं होती। देश में जितने भी नामी-गिरामी अखबार वाले हैं, उनमें शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने सरकार से करोड़ों की जमीनें कौड़ियों में न पायी हों। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले कई अखबारीलाल ऐसे हैं, जिन्होंने सरकार से बेतहाशा जमीनें तो लीं अपने अखबार की प्रिंटिंग प्रेस और कार्यालय के लिए, लेकिन उन्होंने उनके अधिकांश हिस्से पर दुकानें और फ्लैट बना उन्हें मोटे किराये पर देकर खूब चांदी काटी है। कुछ शातिर मीडिया वालों ने सत्ताधीशों की चापलूसी कर यह दर्शाते हुए हजारों वर्गफुट जमीन की सौगात पाने में सफलता पायी और पाते चले आ रहे हैं कि हम तो बेघर है। हमें सिर ढकने के लिए सरकार मदद नहीं करेगी तो कौन करेगा। ध्यान रहे कि वास्तव में लोकतंत्र के चौथे खम्भे की गाड़ी को चलाने और दौड़ाने में जमीनी श्रमजीवी पत्रकारों का ही प्रमुख योगदान होता है। लेकिन उन्हें सजग और निर्भीक पत्रकारिता के लिए कई तरह के खतरे उठाने और खून-पसीना बहाने के बाद भी किराये के छोटे-मोटे घरों में उम्र बीतानी पड़ती है। 

मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई ने राजनेताओं, बिल्डरों और प्रशासनिक अधिकारियों के आपसी गठजोड़ को लेकर फटकार लगाते हुए कहा है कि, वन विभाग की 30 एकड़ जमीन बिल्डर को देने का निर्णय इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि किस तरह से यह लोग देश के साथ धोखाधड़ी करते चले आ रहे हैं। देशभर में फैली लुटेरों और डकैतों की टोली में रेलवे, सेना और अन्य सरकारी विभागों की जमीनों को हड़पने की प्रतिस्पर्धा चलती चली आ रही है। अपने निजी स्वार्थ के लिए झुग्गी-झोपड़ी की कतारें लगवाने और जगह-जगह अवैध कब्जे करवाने वाले सत्ताधीशों, नेताओं की नकेल हर हाल में कसी जानी जरूरी है। सीजेआई भूषण गवई आम लोगों की समस्याओं से बहुत गहराई से वाकिफ हैं। उनका मानना है कि जजों को समाज की जमीनी सच्चाई समझकर फैसले देने चाहिए। केवल कानून की किताबों के सफेद-काले अक्षरों के आधार पर नहीं। देश के 52वें चीफ जस्टिस भूषण गवई के पिता रामकृष्ण सूर्यभान गवई एक जाने-माने आंबेडकरवादी नेता और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापक थे। उन्हें बिहार, केरल और सिक्किम का राज्यपाल बनने का गौरव भी हासिल हुआ था। वे वकील बनना चाहते थे, लेकिन समाजसेवा में सक्रिय होने के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो पाया। हालांकि उनके सुपुत्र ने उनका हर सपना पूरा कर दिखाया है और अब देशवासियों के सपनों का पूरा करने की जिम्मेदारी है।

Thursday, May 15, 2025

भारत माता की जय

नागपुर से दिल्ली की रेलयात्रा के दौरान उम्रदराज अब्दुल भाई से मेल-मुलाकात हुई। अब्दुल भाई वर्षों से रामनामी दुपट्टा बना कर बेचते चले आ रहे हैं। सनातन आस्था के सबसे बड़े समागम महाकुंभ के मेले में उन्होंने रामनामी दुपट्टे बेचकर लाखों रुपये की कमाई की। अब्दुल भाई के बनाये दुपट्टे देश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में पहुंचने वाले श्रद्धालु निशानी के तौर पर ले जाते हैं। प्रयागराज में भी अनेकों लोगों ने अब्दुल भाई के बनाये दुपट्टे खुशी-खुशी खरीदे और अपने-अपने शहर-गांव में जाकर रिश्तेदारों तथा मित्रों को भेंट स्वरूप दिए। अब्दुल भाई बलिया के निकट स्थित जिस गांव में रहते हैं, वह हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है। इस गांव में एक साथ मंदिर, मस्जिद और मजार बने हुए हैं। हिंदु और मुस्लिम में कोई भेदभाव नहीं है। हिंदू और मुस्लिम एक साथ मिलकर यहां सभी त्योहार मनाते हैं। यहां मुस्लिम के किसी भी कार्यक्रम में हिन्दू और हिंदू के कार्यक्रम में मुसलमान खुशी-खुशी शामिल होकर आपसी प्रेम और सद्भाव को साकार करते हैं। यहां के स्त्री-पुरुषों, बच्चों, बूढ़ों का बस यही मानना है कि मंदिर और मस्जिद में कोई अंतर नहीं। दोनों ही आस्था और विश्वास के केंद्र हैं। किसी का भगवान मंदिर में तो किसी का भगवान मस्जिद में है। पहलगाम में हुई दिल दहला देने वाली घटना से अब्दुल भाई बेहद आहत हुए। उनका यह कहना भी मेरे मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गया कि देश के अस्सी प्रतिशत हिंदू-मुसलमान एकता के सूत्र से बंधे हैं। भारतवर्ष में पाकिस्तान की तुलना में अधिक मुसलमान रहते हैं। उनके लिए देश आपसी सद्भाव के शत्रुओं और इधर-उधर की खबरों के कोई मायने नहीं हैं। उनके लिए भारत के हिन्दू-मुसलमान न कल जुदा थे और न ही आज एक-दूसरे से अलग हैं। अपवाद अपनी जगह हैं। 

22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकवादियों के हमले में जिन 26 निर्दोष भारतीयों को अपनी जान गंवानी पड़ी, उन्हीं में शामिल थे भारतीय नौसेना के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल। शादी के महज छह दिन बाद अपने पति से हमेशा-हमेशा के लिए जुदा कर दी गई हिमांशी की पति के शव के साथ बैठी तस्वीर ने पत्थर दिल इंसान की आंखों को भी नम कर दिया। हिमांशी पर क्या बीती होगी उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इस वीर भारतीय नारी ने अपना सुहाग उजड़ने के चंद दिनों बाद यह कहा कि, ‘हम नहीं चाहते कि लोग भारतीय मुसलमानों या कश्मीरियों के खिलाफ जाएं। हम केवल और केवल शांति चाहते हैं। बेशक, हम न्याय चाहते हैं। जिन्होंने गलत किया है उन्हें अवश्य सजा मिलनी चाहिए।’ लेकिन किसी भी बेकसूर को मुसलमान होने की वजह से सताना और प्रताड़ित करना गलत है। एकाएक विधवा हुई हिमांशी से कल तक तो सभी सहानुभूति दर्शा रहे थे। उसकी तथा उसके पति विनय नरवाल की तस्वीर को सोशल मीडिया पर वायरल करते हुए तुरंत इंसाफ की मांग करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे, लेकिन जैसे ही हिमांशी का एकता और सद्भाव वाला बयान आया तो कुछ लोग नफरती भाषा का इस्तेमाल करते हुए उन्हें गंदी-गंदी गालियां देते हुए उनके देशप्रेम पर ही सवाल उठाने लगे!

आप्रेशन सिंदूर को अंजाम देकर भारत के वीर सैनिकों ने पाकिस्तान और पीओके में स्थित 9 आतंकी ठिकानों को तबाह कर दिया। बहुत सावधानी से विचार विमर्श के बाद भारत की फौलादी सेना ने 100 आतंकी मार गिराए और 40 सैनिकों को ढेर कर पाकिस्तान को आईना दिखा दिया। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध फिलहाल कुछ शर्तों के साथ स्थगित हो गया है। भारतीय सैनिकों को आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान के होश ठिकाने लगा दिये हैं। फिर भी कपटी, अहसान फरामोश पाकिस्तान का कोई भरोसा नहीं। कुत्ते की पूंछ से भी बदतर छवि वाले पाकिस्तान के हुक्मरानों का युद्ध लड़ने का नशा भारतीय सेना ने तीन-चार दिनों में उतार दिया। पहलगाम में घूमने के लिए पहुंचे पर्यटकों पर आतंकी हमले के बाद देश का जन-जन गुस्से की आग में जल रहा था। भारत से टकराव में पाक ने इतना कुछ खोया है कि उसे संभलने में कई साल लगेंगे। गुस्साये भारतवासी तो पाकिस्तान की पूरी तबाही के इंतजार में थे। एक जंग सीमा पर लड़ी जा रही थी और दूसरा महायुद्ध आम नागरिकों के दिलो-दिमाग में चल रहा था। जिस पर अभी तक विराम नहीं लगा है। 

कई भारतीय मानते हैं कि पाकिस्तान को नेस्तनाबूत करने के मौके को गंवा दिया गया है। सोशल मीडिया पर अपने दांव पेंच दिखाने वाले कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने नरेंद्र मोदी को कमजोर प्रधानमंत्री दर्शाने का अभियान चला रखा है। इसी के लिए वे जन्मे और जिन्दा हैं। उन्होंने मोदी की तुलना में इंदिरा गांधी को शक्तिशाली बताते हुए उनकी वो चिट्ठी भी वायरल कर दी, जो 1971 की लड़ाई के समय तब के अमेरिकी राष्ट्रपति को लिखी थी, जिसमें उनके दिए गए युद्ध विराम के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। पाकिस्तान के साथ युद्ध स्थगित होने के बाद कांग्रेस के कुछ नेताओं के तेवर बदलने में किंचित भी देरी नहीं लगी। वो इंदिरा गांधी के तराने गाते हुए याद दिलाने लगे कि, इंदिरा गांधी के दम का ही प्रतिफल था कि 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के 93 हजार से ज्यादा सैनिकों ने भारत के सामने आत्मसमर्पण करने को विवश होना पड़ा था। उस बहादुर नारी ने ही उस समय बांग्लादेश बनवाने का साहस दिखाया था। जवाब में अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने के रोगी कांग्रेसियों को यह भी याद दिलाया जा रहा है कि इंदिरा गांधी के समय सेना ने जो युद्ध में हासिल किया था, उसे शिमला समझौते में गंवा भी तो दिया था। यह हिंदुस्तान है। यहां आरोप-प्रत्यारोप की हवा और आंधी-तूफान तो चलते ही रहते हैं। कुछ लोगों की रोजी-रोटी इसी की बदौलत चलती है। मोदी अमेरिका के दबाव में आए या उसके सुझाव को स्वीकारा, इसका भी उत्तर आने वाला वक्त दे ही देगा, लेकिन एक सच यह भी जान लें कि, यदि युद्ध पर विराम नहीं लगता और बात परमाणु युद्ध तक पहुंच जाती तो दोनों देशों में तबाही मच जाती। कम-अज़-कम दोनों देशों में दस-बारह करोड़ इंसानों की तुरंत मृत्यु हो सकती थी। असंख्य लोगों के अंधे, बहरे और अक्षम होने के साथ-साथ जलवायु इतनी विषैली हो जाती, जिससे जिन्दा बचे इंसानों और जीव-जंतुओं का ढंग से सांस लेना और जीना बेहद मुश्किल हो जाता। ऐसी भयावह स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने तथा देश को बार-बार भ्रमित करने वाले आतंकीस्तान के शुभचिंतक काले कोट धारी, विदेशी फंड से पल रहे बहुरुपियों पत्रकार, संपादक, नेता और तथाकथित समाज सेवक मोदी को ही करोड़ों लोगों का हत्यारा घोषित कर सड़कों पर नंग-धड़ंग नाचते हुए तबला बजाते। कई तो भारत से ज्यादा पाकिस्तान में हुई मौतों और तबाही पर छाती पीटते हुए मातम मनाते नज़र आते। जिसका जो पेशा है, उसे वह कैसे छोड़ सकता है? देश को तोड़ने वाली ताकतें कितना भी जोर लगा लें लेकिन सफल नहीं हो सकतीं। भारतीय सेना का विश्व में कोई सानी नहीं। सभी भारतीय उसके हौसले, समर्पण के प्रति नतमस्तक हैं। प्रदेश के सजग, संवेदनशील कवि, गज़लकार अविनाश बागड़े की लिखी इन पंक्तियों के साथ जय हिंद, वंदेमातरम...

‘‘थे सेना के संग खड़े,

देने को आधार।

जन-जन का है मान रही,

भारत माँ आभार॥

भले अचानक बंद हुआ,

जिस कारण भी युद्ध।

मगर एकता देश की

स्वयं सिद्ध साकार॥

Thursday, May 8, 2025

कुत्ते की पूंछ

कुछ समझ में नहीं आ रहा। अधिक सोचो तो सिरदर्द। गंदी-गंदी गालियां बकने वालों को कल तक दुत्कारा जाता था। उन्हें अपने पास भी नहीं फटकने दिया जाता था, लेकिन आज गालीबाज विधायक और सांसद बन रहे हैं। गली-कूचों और महफिलों में सराहे जा रहे हैं। उनको सुनने के लिए खूब भीड़ जुटती है। टिकटें भी बिकती हैं। व्यंग्य और हास्य की जगह अश्लीलता, फूहड़ता और निर्लज्जता ने मंचों पर अंगद के पांव की तरह कब्जा कर लिया है। लोकगीतों के नाम पर भी कैसी-कैसी करतबबाजी हो रही है! 

कई लुच्चे-लफंगे और लफंगियां पैरोडी करते-करते खुद को निर्वस्त्र करने का मज़ा ले रहे हैं। जिनकी दो टक्के की औकात नहीं वे अपने ही देश के कर्मठ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अपमानजनक शब्दावली का इस्तेमाल कर अपना बौनापन छिपाने की कवायद में तल्लीन हैं। अफसोस तो यह भी है कि इन्हें उत्साहित करने के लिए कुछ ‘महान’ तालियां पीट रहे हैं। खून के रिश्तों का मज़ाक उड़ाने वाले टुच्चों-लुच्चों को लाखों रुपये देकर यू-ट्यूब वाले क्यों उनका मनोबल बड़ा रहे हैं? बीते दिनों स्टैंडअप कॉमेडी शो ‘इंडियाज गॉट लैटेंट’ में बदतमीज़ यू-ट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया ने एक प्रतियोगी से बेहद अश्लील और गंदा सवाल कर डाला, ‘‘क्या आप अपने माता-पिता को अपने जीवन के बाकी हिस्से के लिए हर दिन सेक्स संबंध बनाते हुए देखेंगे या एक बार इसमें शामिल भी हो जाएंगे और हमेशा के लिए इसे रोक देंगे?’’ देश और दुनिया के हर मां-बाप के पवित्र रिश्ते और अंतरंंग संबंधों को कलंकित करने वाली यह गंदी अश्लील सोच जैसे ही लोगों तक पहुंची तो वे आगबबूला हो गए। गुस्सायी भीड़ इस धरती की सबसे निर्लज्ज पैदाइश का जूतों से पीटने के लिए जहां-तहां तलाशने लगी। मुंबई, दिल्ली, इंदौर, कोलकाता और गुवाहाटी समेत कई शहरों में इस लफंगे के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी गई। प्रतिष्ठित हस्तियों का अपने शो में अपमानित करने वाला इलाहाबादिया यू-ट्यूब से हर माह लगभग 60 लाख रुपये पाता है। उसकी नेटवर्थ 60 करोड़ से अधिक है। उसकी नीच सोच और टिप्पणियों को सुनने और जुटने वाले बेशर्मों की अच्छी खासी तादाद है।

लगता है कि वो जमाना अब बीतने के कगार पर है, जब कॉमेडीयन का नाम लेते ही उस कलाकार का चेहरा आंखों के सामने थिरकने लगता था, जो अपनी भिन्न-भिन्न अदाओं और बोलने-बतियाने के तौर तरीकों से उदासी में भी खुशी के रंग भर देता था। रुआंसे चेहरे भी खिलखिलाने लगते थे। लोग उसकी मनोरंजित करने की कला को वर्षों तक याद रखते थे। व्यंग्य एक परिपूर्ण साहित्यिक विधा है, जिसमें उपहास, मजाक और आलोचना का सात्विक मिश्रण होता है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के अनुसार व्यंग्य लेखन एक गंभीर कर्म है। सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है। विश्व विख्यात हास्य कवि काका हाथरसी का मानना था कि हास्य और व्यंग्य एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं। हास्य के बिना व्यंग्य में मजा नहीं और व्यंग्य के बिना हास्य बेमज़ा हो जाता है। दोनों बराबर एक दूसरे का साथ दें, तभी जन-गण-मन के मनोरंजन की गाड़ी प्रभावी तरीके से चलती है, लेकिन इन दिनों कॉमेडी, व्यंग्य और हास्य के मंचों पर अथाह अश्लीलता और तयशुदा हस्तियों को अपमानित करने की प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है। कुछ कॉमेडियन तो बाकायदा उन हस्तियां पर गंदी-गंदी उक्साऊ, भड़काऊ टिप्पणियां करते देखे जा रहे हैं, जिनके कद तक पहुंचना उनकी औकात में ही नहीं। फिर भी बेवजह खुन्नस निकाल कर अपनी खिल्ली उड़वा रहे हैं। धन लेकर कीचड़ उछालने का खेल खेलने वाले कुणाल कामरा नामक स्टैंडअप कामेडियन की दो टक्के की पूछ परख नहीं, लेकिन वह बड़े-बड़े प्रतिष्ठित नेताओं का मज़ाक उड़ाता रहता है। इसी से इसकी रोजी-रोटी चलती है। खरीदे हुए दर्शकों की तालियों से इसकी छाती चौड़ी हो जाती है। इसी बिकाऊ कॉमेडियन ने बीते माह इस पैरोडी के माध्यम से टोपी उछालने की जो दुष्टता की, वही उस पर अंतत: भारी पड़ गई,

‘‘ठाणे की रिक्शा

चेहरे पर दाढ़ी

आंखों पर चश्मा हाय!

एक झलक दिखलाए कभी 

गुवाहाटी में छिप जाए।

मेरी नज़र में तुम देखों गद्दार नजर वो आए

मंत्री नहीं है, वो दल बदलू है 

और कहा क्या जाए।

जिस थाली में खाये

उसमें ही छेद कर जाए।’’

फिल्म ‘दिल तो पागल है’ के गीत की उपरोक्त पैरोडी में कामरा ने भले ही किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन सजग लोगों को कामरा की ओछी नीयत को गहराई तक जानने-समझने में किंचित भी देरी नहीं लगी। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान उपमुख्यमंत्री को निशाना बनाकर की गई इस भद्दी अपमानजनक अक्षरावली से आगबबूला होकर शिवसैनिकों ने उस स्टुडियो में जमकर तोड़फोड़ कर डाली, जहां शो की शूटिंग की गई थी। कला के नाम पर ऐसी अभद्रता, कमीनगी, लुच्चागिरी और बदमाशी यकीनन अक्षम्य है। मंच पर खड़े होकर किसी व्यक्ति विशेष के शरीर से लेकर निजी जीवन पर भड़काऊ प्रहार करना व्यंग्य नहीं भड़वागिरी है। कॉमेडी के नाम पर यही काम और शरारत पर शरारत तो पिछले कई दिनों से नेहा ठाकुर नामक लोकगायिका भी करती चली आ रही है। जब देखो तब प्रधानमंत्री का मज़ाक उड़ाते हुए अपनी पीठ थपथपाने लगती है। दरअसल, इस नचनिया की डोर किसी और के हाथ में है। आसमान पर थूकने वाली यह बदतर गायिका भूल गई है कि वही थूक उसके चेहरे पर गिर रही है। जिसे वह बस चाटे जा रही है। पहलगाम में हुए आतंकी हमले को लेकर तो नेहा सिंह ने ऊल-जलूल पोस्ट की झड़ी लगा दी। राष्ट्रीय अखंडता को नुकसान पहुंचाने, सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने और देश की शांति भंग करने वाली नेहा की पोस्ट की दुश्मन देश पाकिस्तान ने तालियां बजा-बजाकर सराहना की। दुनिया की बहादुर नारी का खिताब तक दे डाला। पाकिस्तानी मीडिया ने भी उसकी खूब वाह-वाही की। देश के मान और सम्मान का हनन और पहलगाम में मारे गये पर्यटकों का अपमान करने वाली पोस्ट से आहत होकर देश के सजग कवि अमर प्रताप सिंह निर्भीक प्रचार की अपार भूखी-प्यासी नेहा सिंह के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया है। आतंकियों ने पर्यटकों को मारने से पहले उनका धर्म पूछा फिर उनके हिंदू होने पर गोलियों से भूना इस सच पर सवाल उठाने वाली हत्यारे, आतंकी पाकिस्तान की लाडली नेहा की तरह महाराष्ट्र के एक बड़बोले कांग्रेसी नेता विजय वडेट्टीवार ने भी अपनी राजनीति की दुकान चमकाने और खुन्नस निकालने के लिए नेहा की तर्ज पर दहाडते हुए कहा कि, आंतकियों के पास इतना वक्त ही कहां था जो पर्यटकों का धर्म पूछ-पूछ कर गोलियां चलाते। यानी पहलगाम में जिन पर्यटकों ने अपनों को गोली का निशाना बनते देखा वो झूठ बोल रहे हैं और ये खोखले बिकाऊ चेहरे सच्चे है? 

कानपुर के शुभम द्विवेदी की 12 फरवरी को शादी हुई थी। शुभम और उनकी पत्नी ऐशान्या बहुत उमंगो-तरंगो के साथ पहलगाम घूमने गये थे। आतंकी ने शुभम की गोली मारकर हत्या कर दी। ऐशान्या ने रोते हुए बताया कि, शुभम अपनी बहन के साथ बैठे थे, इसी दौरान एक शख्स आया और उसने पूछा हिंदू हो या मुसलमान? हम उसका मकसद नहीं समझ पाए और हंसने लगे। तभी मैंने कहा कि भैया हम मुसलमान नहीं है। मेरा इतना भर कहना था कि उसने बंदूक निकाली और शुभम के सिर पर गोली मार दी। महाराष्ट्र के शहर डोंबिवली के निवासी संजय लेले, हेमंत जोशी और अतुल माने को भी आतंकवादियों ने बेरहमी से मार डाला। प्रत्यक्षदर्शी संजय लेले के बेटे हर्षल ने बताया कि, हम सब दोपहर को बैसरन घाटी पहुंचकर हंसते-मुस्कुराते हुए तस्वीरें ले रहे थे। कुछ देर के पश्चात वहां एकाएक गोलियों की आवाज सुनाई दी। हमें लगा कि शायद पर्यटनस्थल में कोई गेम चल रहा होगा, लेकिन अचानक फायरिंग तेज हो गई। तभी दो आतंकवादी चिल्लाने लगे, ‘आप लोगों ने आतंक मचा रखा है, हिंदू और मुसलमान अलग-अलग हो जाओ। फिर तुरंत पापा, चाचा और मामा को गोली मार दी। मेरा हाथ पापा के सिर के पास था। गोली मेरे हाथ को छूकर निकल गई।’ यह समय तो एकता और एकजुटता का है, लेकिन कुछ नीच अपनी नीचता से बाज नहीं आ रहे हैं। खुद को कानूनी शिकंजे में फंसते देख नेहा ठाकुर उन वकीलों के दरवाजों पर माथा टेक रही है, जो आतंकवादियों की पैरवी करने के लिए कुख्यात हैं। यही कांग्रेस के नेता और खरबपति वकील ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे लगाने वाले कन्हैया कुमार की पीठ थपथपाने के लिए दौड़े-दौड़े चले आए थे।

Friday, May 2, 2025

हम सब एक हैं

प्रिय पाठको,

आपके स्नेह, अपनत्व, जुड़ाव और शुभकामनाओं की बदौलत महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय साप्ताहिक ‘राष्ट्र पत्रिका’ ने अपनी निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता की यात्रा के 17वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। जब ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन प्रारंभ किया गया था तब की और वर्तमान की स्थितियों, परिस्थितियों में काफी बदलाव आ चुका है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार और जनप्रियता की वजह से प्रिंट मीडिया के प्रति लोगों की अभिरूचि में कमी आयी है, वैसे इस कमी की शुरुआत तो कोरोना काल में ही हो गई थी, लेकिन फिर भी ‘राष्ट्र पत्रिका’ के पाठकों एवं शुभचिंतकों का काफी हद तक यथावत तक बने रहना हमारे मनोबल को सतत मजबूत बनाये हुए है। हमने सदैव आम जन के पक्षधर बने रहने का जो संकल्प लिया था उस पर आज भी कायम हैं और भविष्य में भी इन पंक्तियों के साथ अडिग रहने का हमारा अटल वादा है,

‘‘उजाला हो न हो

यह और बात है, 

हमारी आवाज तो 

अंधेरों के खिलाफ है।’’

गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, अशिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कभी आज भी देश की प्रमुख समस्या है। नौकरी के अभाव के चलते अपराधी और अपराधों का पनपना देश की चहुंमुखी तरक्की में बाधक बना हुआ है। आम आदमी की खून-पसीने की कमायी महंगाई के समक्ष बौनी होती चली जा रही है। गरीब परिवारों के लिए अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए जो पापड़ बेलने पड़ रहे हैं उसकी पीड़ा वही जानते हैं। स्कूल, कालेजों की फीस आसमान छूने लगी है। धनपति तो बड़ी आसानी से अपने नालायक बच्चों को भी डॉक्टर, इंजीनियर, जज, कलेक्टर, कमिश्नर बनाने में सफल हो रहे है, लेकिन गरीबों के योग्य और परिश्रमी बच्चे छोटी-मोटी नौकरियां के कैदी बनकर रह गये हैं। देश के समक्ष आज और भी कई संकट सीना ताने खड़े हैं। कुछ विघटनकारी ताकतें हिंदुस्तान को तोड़ने के मसूंबो के साथ साजिशें रच रही हैं। उनका भाई से भाई को लड़ाने का इरादा कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इन दिनों भारत माता भीतरी और बाहरी षड़यंत्रकारियों की खूनी साजिशोेंं से आहत है। बीते हफ्ते जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादियों ने 28 निर्दोष भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया। पर्यटक जब खुशगवार मौसम का आनंद ले रहे थे, तभी वहां सेना की वर्दी में नकाब पहने आतंकवादी पहुंचे और उनका नाम और धर्म पूछ-पूछ कर उन्हें गोलियों से उड़ाने लगे। आतंकियों ने बहुत ही सोचे-समझे षडयंत्र के तहत इस कायराना हत्याकांड को अंजाम दिया। सभी देशवासी बहुत गुस्से में हैं। देश के कोने-कोने से पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाने की आवाज बुलंद की जा रही हैं। कश्मीर के आतंकी इतिहास में पहली बार देखा गया कि मस्जिदों से लाउडस्पीकर द्वारा ऐलान करके इस घिनौनी वारदात की निन्दा की गई और इसे इस्लाम के खिलाफ बताया गया। कश्मीर में जो कैंडल मार्च निकाले गए उसमें हजारों कश्मीरियों ने शामिल होकर आतंकवाद के खिलाफ नारे लगाये और पर्यटकों को अपनी रोजी-रोटी और भगवान बताया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी बड़े दु:खी मन से कहा कि पहलगाम में जोशो-खरोश के साथ घूमने आए मेहमानों के नरसंहार से वे आहत और अत्यंत शर्मिंदा है। इस आतंकी हमले पर हुई सर्वदलीय बैठक में भारतीय राजनीति की जो प्रभावी तस्वीर भी दिखी उसने सुखद एहसास करवाते हुए हर किसी को आश्वस्त कर दिया कि भारत के पक्ष और विपक्ष के नेता राजनीति से ज्यादा देश को अहमियत देते हैं। सभी दलों ने एक स्वर में सरकार से कहा कि, आतंक को मुंहतोड़ और निर्णायक जवाब देने के लिए जो भी जरूरी हो, तुरंत किया जाए। 

यह सच भी किसी से छिपा नहीं है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की गहरी खाई को खोदने की साजिशें होती रही हैं। मैंने अपनी पत्रकारिता के पचास वर्ष में अच्छी तरह से देखा और जाना है कि भाषा, धर्म, पहनावे रहन-सहन में अंतर के बावजूद हम सब भारतवासी एक हैं। हमारा ‘अनेकता में एकता’ के वाक्यांश पर जो भरोसा है। उसे तो सारी दुनिया ने समय-समय पर देखा और सराहा है। भारत माता पर जब भी कोई विपदा आती है तो सभी भारतीय तन-मन और धन से एकजुट हो जाते हैं। इसी एकजुटता और सतर्कता की बदौलत ही भारत ने हर जंग में धूर्त, कपटी, फरेबी पाकिस्तान को धूल चटाई है। इस बार भी यदि युद्ध होता है तो पाकिस्तान की हार और बरबादी निश्चित है। जम्मू-कश्मीर के मिनी स्विजरलैंड कहलाने वाले पर्यटन स्थल पहलगाम में खून-खराबा होने के पश्चात जो सन्नाटा छा गया था वह अब धीरे-धीरे दूर होने लगा है। हत्याकांड के सात-आठ दिन के अंतराल के पश्चात पहलगाम में पर्यटकों का वापस लौटना यही दर्शाता है कि हर भारतीय के सीने में सैनिक का दिल धड़कता है। जैसे-जैसे पर्यटकों की भीड़ बढ़ रही है उनके चेहरे पर निखार आ रहा है।

‘राष्ट्र पत्रिका’ के प्रकाशन काल ही मेें हमने यह भी कसम खाई थी कि चाहे कुछ भी हो जाए इसे किसी नेता, मंत्री राजनीतिक पार्टी, उद्योगपति, दल-बल और संकीर्ण सोच और धारणा का हिमायती नहीं बनने देंगे। देश में सर्वत्र अमन चैन, सद्भाव और भाईचारे को सतत बनाये रखने के लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए सदैव तैयार रहेंगे। झूठ और छल-कपट का पत्रकारिता से होने वाले नुकसान को भी हमने बहुत करीब से देखा और समझा है,

‘‘आग की झूठी गवाही जब भी अंगारों ने दी 

मौत की दस्तक हमारे दर पर हत्यारों ने दी’’

इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया भले ही पास और दूर की घटनाओं, वारदातों को पलक झपकते ही लोगों तक पहुंचा देते हैं, लेकिन जिस तरह से खबरों की तह तक पहुंचने के लिए प्रिंट मीडिया मेहनत करता है, वह गंभीरता न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया में बहुत कम नजर आती है। अखबार प्रदेश, देश, शहर और गांव की चेतना का हिस्सा हैं। जब चेतना मर जाती है तो अखबार भी मरने लगता है। सजग पाठक उससे दूरी बनाने लगतेे हैं। ‘राष्ट्र पत्रिका’ ने शहरी और ग्रामीण खबरों को निरंतर प्रकाशित करने के साथ-साथ खोजी रिपोर्टिंग को सदैव प्राथमिकता दी है। शोषित, दबे, कुचले, थके-हारे भारतीयों का बुलंद स्वर बनने की जिद ने ही ‘राष्ट्र पत्रिका’ को दूसरों से एकदम अलग और खास दर्जा दिलवाया है। अखबारी दुनिया की परंपरागत छवि को चुनौती देने वाले इस प्रगतिशील साप्ताहिक में विपरित परिस्थितियों से टकरा कर अपने मनोबल के दम पर बुलंदियों को छूने वाले आम और खास लोगों की खबरें और कहानियां बिना किसी भेदभाव के एक साथ जगह पाती हैं। वर्तमान में अधिकांश मीडिया तरह-तरह के लाछन और आरोपों के घेरे में है। अधिकांश भारतीय उसके पक्षपाती आचरण से अत्यंत चिंतित और दुखी हैं। जब भी कोई पत्रकारों और पत्रकारिता पर कीचड़ उछालता है तो मन आहत होता है, लेकिन सच तो, सच है। युवा कवयित्री भावना ने मीडिया के प्रति अपनी भावना को इन शब्दों में व्यक्त कर करोड़ों लोगों की सोच का चित्र प्रस्तुत किया है, 

‘‘दाने से मछलियों को लुभाता रहा

क्या हकीकत थी, क्या दिखाता रहा

था अजब उसके कहने का अंदाज भी

कुछ बताता रहा, कुछ छिपाता रहा।’’

दबाने और छिपाने की पत्रकारिता की वजह से पत्रकारों और संपादकों की ही नहीं संपूर्ण मीडिया की प्रतिष्ठा दांव पर लग चुकी है। कहावत है, मान-सम्मान नहीं तो कुछ भी नहीं...। इसलिए हम सबके लिए यह जागने और सतर्क होने का वक्त है...। महाराष्ट्र दिवस, श्रमिक दिवस और राष्ट्रपत्रिका की वर्षगांठ पर सभी पाठकों, संवाददाताओं, लेखकों, विज्ञापनदाताओं और एजेंट एवं बंधुओं को हार्दिक बधाई...शुभकामनाएं...अभिनंदन।