Thursday, May 22, 2025

लोकतंत्र में लूटतंत्र

यह खबर यकीनन सभी ने तो नहीं पढ़ी होगी, ‘‘महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के नेता नारायण राणे जब महाराष्ट्र सरकार में राजस्व मंत्री थे तब उन्होंने वन विभाग की 300 एकड़ जमीन अपने अत्यंत चहेते बिल्डर को दे दी थी। इस जमीन की कीमत करोड़ों रुपये थी। नारायण राणे ने इस उपकार के बदले यकीनन मोटी रकम ली होगी। नेता यूं ही दरियादिली नहीं दिखाते, लेकिन हां, सरकारी संपति को लुटाने में इन्हें न कोई शर्म आती है और न ही दर्द होता है। विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही सरकारी जमीनों को अपनी खानदानी प्रॉपर्टी मानने वाले नेताओं की फसल बीते कई वर्षों से खूब फल-फूल रही है। चव्हाण नामक जिस जुगाड़ू और धुरंधर ने 1998 में मंत्री नारायण राणे से यह सौगात मिट्टी के मोल पायी थी, उसने इसे रिची रिच कोऑपरेटिव सोसाइटी को दो करोड़ में बेचकर अपनी तिजोरी का वजन बढ़ा लिया। वन विभाग की यह जमीन कृषि भूमि थी, लेकिन घोर आश्चर्य युक्त हकीकत यही है कि कुछ ही दिनों में तत्कालीन पुणे संभागीय आयुक्त राजीव अग्रवाल, कलेक्टर विजय माथनकर और वन संरक्षक अशोक खडसे ने यह प्रमाणित करने में किचिंत भी विलंब नहीं किया कि, यह कीमती तीस एकड़ भूमि गैर कृषि जमीन है। यानी इस पर मनचाही भव्य परियोजना को साकार कर अरबों-खरबों रुपये कमाने की खुली छूट है।

देश के मुख्य न्यायाधीश माननीय भूषण गवई ने पद ग्रहण करने के तुरंत बाद अपने पहले फैसले में इस जमीन को वन विभाग को वापस करने का निर्देश देकर राजनीति को धंधा बनाने वाले नेता नारायण राणे को तीखा झटका दे दिया। इसके साथ ही उनके भ्रष्टतम काले पन्ने पर मुहर लगाकर देशवासियों को सचेत होने का संदेश दे दिया है। नारायण राणे के प्रति मैं लाख चाहकर भी चोर, डाकू, धूर्त, बेईमान, शातिर जैसे तीखे शब्दों का इस्तेमाल करने से बच रहा हूं, क्योंकि वे माननीय सांसद हैं। उन्हें लाखों स्त्री-पुरूषों, युवक, युवतियों ने अपना कीमती वोट देकर सांसद बनाया है। नारायण राणे ने चिकन शॉप से राजनीति का जो सफर तय किया है वह भी किसी दृष्टि से सराहने के लायक तो नहीं है, लेकिन लोकतंत्र में जिसे भी वोटर मालामाल कर देते हैं वही साहूकार हो जाता है। वोटरों की इसी नादानी की वजह से ही नालायक से नालायक चेहरे विधायक और सांसद बनते चले आ रहे हैं। भारत में जो भी शख्स चुनाव में बाजी मार लेता है, उसके लिए सरकारी जमीनें पाना और हथियाना बहुत आसान और जन्मसिद्ध अधिकार हो जाता है। देश की संपत्ति को अपने बाप-दादा की जागीर समझने वाले नेता हर राजनीतिक पार्टी में हैं। किसी में ज्यादा तो किसी में कम। कांग्रेस के शासन में तो अदना-सा बंदा भी विधायक बनते ही स्कूल-कॉलेज के लिए करोड़ों की सरकारी जमीन मुफ्त में पाने का हकदार हो जाता था। महाराष्ट्र में तो शायद ही कोई कांग्रेसी नेता होगा, जिसने सरकारी जमीनें नहीं हथियायी होंगी। जमीनखोर, विधायकों, सांसदों की खोजी निगाहें उन जमीनों पर टिकी रहती है, जो स्कूलों, बाग-बगीचों, अस्पतालों, पुस्तकालयों आदि के लिए निर्धारित होती हैं, लेकिन अपने पद और पहुंच का फायदा उठाकर चुटकी बजाते ही उन्हें अपने नाम करवा लिया जाता है। इस छल-कपट के धूर्त-कर्म में उच्च सरकारी अधिकारी उनका पूरा साथ भी देते हैं और उन जमीनों का अता-पता भी बताते हैं, जिन्हें हथिया कर अपने बाप की जागीर बनाया जा सकता है। कुछ नेता तो लूट और बेशर्मी की सभी हदें पार करने में भी नहीं सकुचाते। उन्हें शहीद सैनिकों की जमीनें हथियाने में न संकोच होता है और न ही तनिक लज्जा आती है। 

महाराष्ट्र सरकार ने युद्ध में शहीद हुए सैनिकों और रक्षा मंत्रालय के कर्मचारियों को सिर ढकने के लिए छत दिलाने के लिए मुंबई के कोलाबा में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी का निर्माण किया था, लेकिन नियमों को ताक में रखकर इस सोसाइटी के अधिकांश फ्लैट नेताओं तथा अफसरों को बेहद कम कीमत में दे दिये गए। जांच में पाया गया कि 25 फ्लैट गैरकानूनी तौर पर आवंटित किये गए। इनमें से 22 फ्लैट फर्जी नाम से खरीदे गये। शहीदों के लिए बनाये गये फ्लैटों को झटकने वालों में प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख, सुनील कुमार शिंदे और शिवाजीराव निलंगेकर के नाम शामिल पाए जाने पर हंगामा मच गया था। लोगों ने ऐसे कपटी, लालची नेताओं की जात पर बार-बार थू...थू की थी। प्रमुख घोटालेबाज प्रदेश के मुखिया अशोक चव्हाण को इस्तीफा देकर अपने घर में बैठना पड़ा था।

सरकारी जमीनों को औने-पौने दाम में हथियाने के लूटकांड में कई बड़े-बड़े अखबार मालिकों की शर्मनाक भूमिका की ज्यादा चर्चा नहीं होती। देश में जितने भी नामी-गिरामी अखबार वाले हैं, उनमें शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने सरकार से करोड़ों की जमीनें कौड़ियों में न पायी हों। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले कई अखबारीलाल ऐसे हैं, जिन्होंने सरकार से बेतहाशा जमीनें तो लीं अपने अखबार की प्रिंटिंग प्रेस और कार्यालय के लिए, लेकिन उन्होंने उनके अधिकांश हिस्से पर दुकानें और फ्लैट बना उन्हें मोटे किराये पर देकर खूब चांदी काटी है। कुछ शातिर मीडिया वालों ने सत्ताधीशों की चापलूसी कर यह दर्शाते हुए हजारों वर्गफुट जमीन की सौगात पाने में सफलता पायी और पाते चले आ रहे हैं कि हम तो बेघर है। हमें सिर ढकने के लिए सरकार मदद नहीं करेगी तो कौन करेगा। ध्यान रहे कि वास्तव में लोकतंत्र के चौथे खम्भे की गाड़ी को चलाने और दौड़ाने में जमीनी श्रमजीवी पत्रकारों का ही प्रमुख योगदान होता है। लेकिन उन्हें सजग और निर्भीक पत्रकारिता के लिए कई तरह के खतरे उठाने और खून-पसीना बहाने के बाद भी किराये के छोटे-मोटे घरों में उम्र बीतानी पड़ती है। 

मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई ने राजनेताओं, बिल्डरों और प्रशासनिक अधिकारियों के आपसी गठजोड़ को लेकर फटकार लगाते हुए कहा है कि, वन विभाग की 30 एकड़ जमीन बिल्डर को देने का निर्णय इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि किस तरह से यह लोग देश के साथ धोखाधड़ी करते चले आ रहे हैं। देशभर में फैली लुटेरों और डकैतों की टोली में रेलवे, सेना और अन्य सरकारी विभागों की जमीनों को हड़पने की प्रतिस्पर्धा चलती चली आ रही है। अपने निजी स्वार्थ के लिए झुग्गी-झोपड़ी की कतारें लगवाने और जगह-जगह अवैध कब्जे करवाने वाले सत्ताधीशों, नेताओं की नकेल हर हाल में कसी जानी जरूरी है। सीजेआई भूषण गवई आम लोगों की समस्याओं से बहुत गहराई से वाकिफ हैं। उनका मानना है कि जजों को समाज की जमीनी सच्चाई समझकर फैसले देने चाहिए। केवल कानून की किताबों के सफेद-काले अक्षरों के आधार पर नहीं। देश के 52वें चीफ जस्टिस भूषण गवई के पिता रामकृष्ण सूर्यभान गवई एक जाने-माने आंबेडकरवादी नेता और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापक थे। उन्हें बिहार, केरल और सिक्किम का राज्यपाल बनने का गौरव भी हासिल हुआ था। वे वकील बनना चाहते थे, लेकिन समाजसेवा में सक्रिय होने के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो पाया। हालांकि उनके सुपुत्र ने उनका हर सपना पूरा कर दिखाया है और अब देशवासियों के सपनों का पूरा करने की जिम्मेदारी है।

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