Thursday, June 5, 2025

परोपकार...तिरस्कार

मानव, महामानव और दानव। इंसान की पहचान उसकी खूबसूरत शक्ल से नहीं, उसके कर्मों से होती है। अमूमन दिखने-दिखाने में तो लगभग सभी स्त्री-पुरुष एक से होते हैं, लेकिन किसी की एक सार्थक पहल और परोपकारी सोच, संवेदनशीलता उसे देवता के समक्ष खड़ा कर देती है। लोगों का हुजूम उसके समक्ष नतमस्तक होने को विवश हो जाता है। बात उन दिनों की है, जब महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में पूरी तरह से शराब पर पाबंदी थी। फिर भी कुछ अपराधी अवैध शराब बेचने से बाज नहीं आ रहे थे। मुफ्तखोरों को दूसरा कोई मेहनत मजदूरी करने वाला काम रास नहीं आता था। बेईमानी और अपराध कर्म से वे दूर ही नहीं होना चाहते थे। इससे उनके बाल-बच्चों पर भी बुरा असर पड़ रहा था, लेकिन उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं थी। शहर के एक आदतन अपराधी, अवैध शराब विक्रेता को तत्कालीन पीएसआई मेघा गोखरे ने गिरफ्तार कर लिया। उसे थाने में लाये अभी दो-तीन घंटे ही बीते थे कि तभी पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला एक बच्चा अपने पिता की जमानत के लिए आ पहुंचा। 

उसके फर्राटे से अंग्रेजी में बात करने के आकर्षक अंदाज से मेघा स्तब्ध रह गईं। उन्होंने उससे कहा कि अभी तुम बच्चे हो। तुम्हारी जमानत पर तुम्हारे पिता को छोड़ना संभव नहीं है, लेकिन बच्चा जिद पर अड़ा रहा। मेघा ने बड़े प्यार से उसे अपने करीब बिठाते हुए पूछा कि, क्या तुम नियमित स्कूल जाते हो? तब उसके पिता ने सिर झुकाकर बताया कि मेरे कहने पर अपने स्कूल बैग में शराब की बोतलें रख कर नियमित ग्राहकों को पहुंचाने जाता है। एक दिन स्कूल वालों ने उसके बैग में जब शराब की बोतल देखी तो उन्होंने उसी दिन से हमेशा-हमेशा के लिए स्कूल से निकाल दिया है। बच्चे ने बड़ी मासूमियत के साथ कहा, पर मैडम जी इसी काम से ही उनके घर का खर्चा चलता है। वैसे भी अपने पिता की सहायता करना उसका पहला फर्ज है। वहीं बच्चे के पिता को यकीन था कि बेटे की उम्र कम होने की वजह से उसे सजा नहीं मिलेगी। पुलिस उस पर दया कर चलता कर देगी। मेघा को बच्चे का अपराधी होना आहत कर गया। उन्होंने तुरंत स्कूल के प्रिंसिपल से मुलाकात की और बच्चे के हित में कदम उठाने का निवेदन किया। प्रिंसिपल बोले, इसमें सुधार आना मुश्किल है। यह पूरी तरह से बिगड़ चुका है। कई बार मना करने के बावजूद बैग में शराब की बोतल लेकर आता था। इसकी वजह से दूसरे बच्चे भी बिगड़ रहे थे। मेघा की मिन्नत का मान रखते हुए अंतत: प्रिंसिपल ने बच्चे को स्कूल में रख लिया। कालांतर में बच्चे के पिता की भी जमानत हो गई। मेघा ने उसे पांच हजार रुपए देते हुए कहा कि यदि बच्चे का भला चाहते हो तो तुम शराब बेचना बंद कर मछली बेचना प्रारंभ कर दो। उसने मेघा की सलाह का पालन करते हुए शराब बेचनी छोड़ दी और बच्चे की पढ़ाई पर ध्यान देने लगा। स्कूल की पढ़ाई के पश्चात बच्चे को चंद्रपुर स्थित राजीव गांधी इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल गया। अंतत: उसकी मेहनत रंग लाई और वह इंजीनियर बन गया। 2023 में हैदराबाद की एक कंपनी में अच्छी खासी पगार पर नौकरी भी मिल गई। वर्तमान में वह दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में लाखों रुपए के वेतन पर काम कर रहा है। बच्चे के इंजीनियर बनते-बनते मेघा भी तरक्की करते हुए पीएसआई से एपीआई बन गईं। उस बच्चे ने कई बार उनसे संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन मोबाइल नंबर बदल जाने के कारण बात नहीं हो सकी। अभी हाल में जब मेघा एक मामले के सिलसिले में मूल गईं तो उस बच्चे के पिता से अचानक मुलाकात हो गई। तब पिता ने उन्हें बताया कि शराब बेचने वाला बच्चा अब इंजीनियर बन चुका है। मेरा मछली का कारोबार भी बहुत बढ़िया चल रहा है। यह आपके प्रयास और उपकार का ही प्रतिफल है। बेटा आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाला है और आपसे मिलने को अत्यंत उत्सुक है...।

भिखारी कौन होते हैं? किसी के लिए भी जवाब देना मुश्किल नहीं। अधिकांश भिखारी अपंग और असहाय होते हैं। कोई काम धाम नहीं कर पाते, इसलिए कटोरा हाथ में लेकर भीख मांगने निकल पड़ते हैं। लोग उनकी हालत पर रहम खाकर चंद सिक्के उसके कटोरे में डाल देते हैं। इसी से जैसे-तैसे उनका जीवन कटता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके हाथ-पैर सलामत हैं, लेकिन निहायत बेशर्मी के साथ भीख मांगते फिरते हैं। उन्हें लोगों के दुत्कारने और फटकारने से कभी कोई लज्जा नहीं आती। उनके लिए भीख आसानी से पैसा कमाने का टिकाऊ धंधा है। ऐसे कुछ धंधेबाज प्रतिदिन हजारों रुपए पीट लेते हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूल कॉलेजों में पड़ते है। भीख की बदौलत फ्लैट, कार और दुकानों के मालिक बने इन भिखारियों को आखिर कहा तो भिखारी ही जाता है और मान-सम्मान भी इन्हें नहीं मिलता।

देश की राजधानी दिल्ली में जीतेश कुमार वर्षों से बसों में भीख मांगते नजर आते हैं, लेकिन लोग उनका अथाह मान-सम्मान करते है और उनका मनोबल बढ़ाते हैं। हर तरह से स्वस्थ और सेहतमंद जीतेश बसों में यात्रा करने वाले स्त्री-पुरुषों, युवकों और बच्चों से भीख में मात्र दस रुपए देने की मांग करते हैं। स्वेच्छा से कुछ सवारियां इससे ज्यादा भी दे देती हैं। जीतेश भीख में मिले एक भी पैसे का अपने लिए इस्तेमाल नहीं करते। मात्र कक्षा दूसरी तक  पढ़े जीतेश मासूम नौनिहालों का भविष्य संवारने के लिए यह काम करते हैं।बदरपुर इलाके में पिछले दस वर्षों से स्कूल चलाते आ रहे जीतेश की नेक नीयत को देखकर एक शिक्षा-प्रेमी, दरियादिल व्यक्ति ने अपने मकान का एक हिस्सा उन्हें स्कूल चलाने के लिए दे दिया है। वह महीने में 12 से 15 दिन विभिन्न बसों में भिक्षाटन करते हैं। हर रोज ढाई से तीन हजार रुपए बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। उनके स्कूल में नर्सरी से कक्षा पांचवीं तक पढ़ाने वाले शिक्षक नाममात्र का वेतन लेते हैं। कुछ स्वेच्छा से बिना वेतन अपनी सेवाएं देते हैं। झुग्गी झोपड़ी में रहनेवाले गरीब परिवारों के बच्चों को मुफ्त में कॉपी-किताब भी उपलब्ध करायी जा रही है। जीतेश अब तक 500 से ज्यादा बच्चों को पांचवी तक पढ़ाने के बाद आगे की शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में दाखिला करा चुके हैं...। पुलिस अधिकारी मेघा गोखरे और शिक्षा की अलख जलाते जीतेश कुमार पर जनहित के लिए किसी ने दबाव नहीं डाला था। परोपकार करने के पीछे उनकी कोई मजबूरी भी नहीं थी। वे भी अपनी राह पर चल सकते थे, जिस पर अन्य लोग चलते हैं। 

अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टरों, नर्सों तथा अन्य कर्मचारियों को मरीजों की देखरेख के लिए मोटी-मोटी तनख्वाहें मिलती हैं। सतर्क रहकर अपनी डयूटी निभाना उनका प्राथमिक कर्तव्य है, लेकिन वे क्या कर रहे हैं! जो सच सामने है वह तो...बेहद दु:ख के साथ गुस्सा भी दिलाता है। मन होता है कि इनकी जीभरकर धुनाई की जाए और नौकरी भी छीन ली जाए। कानपुर के निकट स्थित एक ग्राम में सुनील नायक नामक शख्स की गर्भवती पत्नी सरिता को रात को प्रसव पीड़ा हुई। रात को 1 बजे सुनील ने पत्नी को कानपुर के मेडिकल कॉलेज के महिला अस्पताल में भर्ती करवा दिया। रात 2 बजे प्रसव पीड़ा बढ़ने पर उन्होंने इधर-उधर देखा, लेकिन उन्हें अस्पताल का कोई कर्मचारी नजर नहीं आया। उन्होंने दो कमरों में सो रहे कर्मचारियों को जगाने का प्रयास किया। मगर कोई भी नहीं उठा। इसी दौरान गर्भवती का प्रसव हो गया। शर्मनाक और पीड़ादायी हद तो तब हुई जब प्रसव के तुरंत बाद नवजात बेड के किनारे रखे कचरे के डिब्बे में जा गिरा और देखते ही देखते उसने गंदगी में ही दम तोड़ दिया। बिहार की राजधानी पटना के सरकारी अस्पताल नालंदा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के हड्डी विभाग में भर्ती उम्रदराज अवधेश प्रसाद की उंगलियों को चूहों ने बुरी तरह से कुतर कर लहूलुहान कर दिया। वे रात भर दर्द के मारे तड़पते रहे। अवधेश मधुमेह के मरीज हैं और अपने टूटे हुए दाएं पांव का इलाज कराने आये थे। किसी के भी मन में यह प्रश्न खलबली मचा सकता है कि आखिर जब चूहे ने मरीज का पांव कुतरना प्रारंभ किया तो उन्हें मालूम क्यों नहीं चला? दरअसल अवधेश डायबिटिक न्यूरोपैथी से ग्रसित हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर पांव पर पड़ता है। डायबिटिक न्यूरोपैथी में अलग-अलग स्टेज हैं। इसमें एक स्टेज ऐसी भी आती है, जब मरीज के पांव का सेन्सेशन खत्म हो जाता है। यानी पांव में कुछ भी हो उसे अनुभव नहीं होता। यह तो हुई असहाय बेबस मरीज की हकीकत और मजबूरी लेकिन सरकारी अस्पताल के डॉक्टर, नर्सें एवं अन्य कर्मचारी क्यों अंधे, बहरे और दिमागी तौर पर लकवाग्रस्त हो जाते हैं कि उन्हें अपने कर्तव्य के स्थान पर हरामखोरी रास आती है?

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