Thursday, July 3, 2025

संत-असंत की माया

हम सबके देश भारत और भारतवासियों की यह खुशकिस्मती है कि हमें समय-समय पर प्रेरणा के दीप जलाकर अंधेरों को दूर करने वाले सच्चे साधु-संतों, उपदेशकों, कथावाचकों का आशीर्वाद और सुखद सानिध्य मिलता रहा है। इस काल में भी कुछ ऐसे महामानव हैं, जिनकी मधुर प्रभावी वाणी नतमस्तक होने को विवश कर देती है। देवी नंदन ठाकुर, पंडित प्रेमानंद जी महाराज, पंडित प्रदीप मिश्रा, अनिरुद्धाचार्य और महिला कथावाचक जया किशोरी, देवी चित्रलेखा,  पलक किशोरी आदि के कथा वाचन को जितना भी सुनें...जी नहीं भरता। आज के इस दौर में जब यह कहने वाले ढेरों हैं कि कथावाचकों तथा प्रवचनकारों का जमाना लद गया है। आज किसके पास फुर्सत है जो इनके रटे-रटाये प्रवचनों को सुनने के लिए अपना कीमती समय खराब करे। लेकिन फिर भी प्रभावी वाचकों के यूट्यूब और सोशल मीडिया पर लाखों-करोड़ोंफॉलोअर्स प्रशसंक हैं। यहां से इनकी झोली में लाखों रुपये बरसते हैं। इनके कथावाचन को रूबरू सुनने के लिए भी आयोजक लाखों रुपए सहर्ष देने को तैयार रहते हैं। यह उपलब्धि असंख्य जागरुक भक्तों, प्रशंसकों और श्रोताओं की बदौलत ही संभव है। यह सच अपनी जगह है कि पिछले कुछ वर्षों से कुछ प्रवचनकारों, बाबाओं के संदिग्ध आचरण के कारण लाखों लोगों ने संत समाज से ही दूरी बना ली है। उन्हें सभी संत-महात्मा एक जैसे लगते हैं। इसलिए वे उनके निकट जाना भी पसंद नहीं करते। लेकिन यह अधूरा सच है। अपने देश में ऐसे संतों की कमी नहीं जो वास्तव में निष्कंलक हैं।

बीते सप्ताह उत्तरप्रदेश के इटावा से जुड़े दांदरपुर गांव में एक कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहायक के साथ बदसलूकी की गई। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो को भी लाखों लोगों ने देखा। जिसमें गांव के ब्राह्मणों ने उनकी जाति पूछी तो उन्होंने कहा कि पहले तो उनकी कोई जाति नहीं है। वे 14 साल से भागवत कर रहे हैं। उनको सुनने के लिए लाखों की भीड़ उमड़ती है। लेकिन ग्रामीण उनकी जाति के बारे में जानने के लिए अड़े रहे। वे यह बताने से कतराते रहे कि वे यादव जाति से हैं। उन्होंने वहां पर उपस्थित साधुओं को भी समझाने का बहुतेरा प्रयास किया। गांव के कुछ युवा उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे। उन्हें बार-बार मुकुट मणि यादव पर गुस्सा आ रहा था। उसके पश्चात गुस्साये युवक उन्हें खींचकर गांव के बाहर ले गए। वहां पर उनसे मारपीट कर उनका मुंडन कर दिया। उनके साथी की भी चोटी काटी गई। इस अमानवीय, अपमानजनक घटना का भी वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद पक्ष और विपक्ष के बीच शाब्दिक युद्ध चल पड़ा।

लगभग हर विद्वान, बुद्धिजीवी का यही मानना है कि भागवत कथा करने का अधिकार सभी को है। किसी को रोका नहीं जा सकता। हमारी सनातन परंपरा में ऐसे तमाम गैर ब्राह्मण हैं, जिनकी गणना ऋषि के रूप में की गई है। इसमें चाहे महर्षि वाल्मीकि हों, वेद व्यास हों या रविदास हों। सनातन परंपरा में सभी को सम्मान और आदर प्राप्त है। सच तो यह है कि, जो शास्त्रों को जानते हैं, भक्तिभाव, सत्यनिष्ठ, ज्ञानवान और जानकार है, उन्हें कथा कहने का अधिकार है। किसी भी विद्वान और ज्ञानी को अपना धर्म और जाति छिपाने की कोई जरूरत नहीं। किसी को उसकी जाति के कारण अपमानित करने का भी कोई अधिकार नहीं है। मुकुट मणि यादव और उसके साथी पर जाति छुपाने और दो आधार कार्ड रखने के आरोप हैं। उन्होंने ऐसा क्यों किया, क्यों करना पड़ा, यह भी चिंतन और खोज का विषय है। हालांकि, मुकुट मणि बार-बार कहते रहे कि मुकुट मणि अग्निहोत्री नाम का जो आधार कार्ड वीडियो पर वायरल हुआ उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। यह तो उनके खिलाफ उन अपराधियों की साजिश है, जिन्होंने उन्हें अपमान कर सिर के बाल काटे, नाक रगड़वाई, पैर छूने को विवश कर मूत्र छिड़कने का आतंकी कृत्य किया। अपने देश में ऐसे मामलों में राजनीति न हो, नेताओं की बिरादरी चुप रहे, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। नेताओं को तो ऐसे अवसरोेंं का बेसब्री से इंतजार रहता है। ऐसे समय में स्वार्थी नेता आग में घी डालने की अपनी शर्मनाक आदत से बाज नहीं आते। 

यदि कथावाचक की कथा में कोई खोट था, या कोई भारी कमी थी तो एक बार उसका विरोध समझ में आता और इतना शोर-शराबा भी नहीं होता। लेकिन उनके गैर ब्राह्मण होने के कारण उन्हें अपमानित करना यकीनन अक्षम्य है। हां, खुद की जाति छुपाने की उनकी कोशिश कहीं न कहीं संशय खड़ा करती है और उनका आतंरिक बौनापन भी उजागर करती है। विद्वान तो डंके की चोट पर अपनी बात कहने के लिए जाने जाते हैं। झूठ और छल-कपट तो धूर्तों के बनावटी सुरक्षा कवच हैं। जिनके तहस-नहस होने में अंतत: देरी नहीं लगती। एक सच यह भी कि कुछ चतुर चालाक और अति होशियार लोगों ने राजनीति और समाज सेवा की तर्ज पर प्रवचन और कथावाचन को भी धंधा बना लिया है। उन्हें वे लाखों रुपये प्रलोभित करते हैं, जो स्थापित कथावाचकों को उनकी साख की बदौलत बड़ी आसानी से मिलते हैं। लेकिन उनके द्वारा किये जाने परोपकारी, जनहितकारी कार्य किसी को दिखायी नहीं देते। जिस तरह से कई लुच्चे-लफंगे नेता, जाति-धर्म के नाम पर चुनाव जीत कर विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं, वैसे ही कुछ कपटी बाबा भीड़ की आंखों में धूल झोंक कर माया बटोर रहे हैं। काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। सच की राह पर चलने के उपदेश देनेवाले झूठे, मक्कार प्रवचनियों की जब पोल खुलती है, जैसे-जैसे उनका घिनौना और शर्मनाक सच बाहर आता है, तो उनका हश्र भी कलंकित आसाराम, राम रहीम आदि-आदि जैसों जैसा हो ही जाता है।

 संतई के क्षेत्र में नाम और दाम कमाने को आतुर शैतानों को यही लगता है कि वे उन जेल यात्रियों से बहुत ज्यादा चालाक और चौकन्ने हैं, जो अपने कर्मों की सजा भुगत रहे हैं। कोई लाख कोशिशें करता रहे लेकिन उनका तो बाल भी बांका नहीं हो सकता। बनावटी और नकली बाबाओं को अपना परचम लहराने के लिए यदि असली-नकली भक्तों-अंधभक्तों का साथ न मिले तो उनका एक कदम भी आगे बढ़ पाना असंभव है। लेकिन एक-दूसरे की देखा-देखी भेड़चाल चलने वालों ने दुष्टों का हौसला बढ़ाने और देश का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ने की जैसे कसम ही खा रखी है।

Thursday, June 26, 2025

दहशत

यह हमारे युग का कटु सच है। दिन-ब-दिन और भयावह होते इस सच ने दहशत का माहौल बना दिया है। अभी-अभी यह खबर मेरे पढ़ने में आयी है : ‘‘भारत के शहर उन्नाव में अंडे-आमलेट की दुकान लगाने वाले रोहित नामक शख्स ने घर में मनपसंद खाना न मिलने पर अपनी पत्नी और दो मासूम बच्चों को ज़हर देकर मार डाला। यह शराबी रोज शराब पीकर घर आता था और पत्नी से मारपीट कर अपनी मर्दानगी का शर्मनाक प्रदर्शन करता था। उसके घर में पैर रखते ही डरे-सहमे बच्चे  छुप जाते थे।’’ कुछ लोग इस धारणा के साथ जीते हैं कि सब कुछ उनकी इच्छा के अनुसार हो। विपरीत हालातों से लड़ने की बजाय मरने-मारने पर उतारू होने वाले लोगों की संख्या इन दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं। उन्हें अपनों की जान लेने में जरा भी देरी नहीं लगती। यह लोग आत्महत्या करने से भी नहीं घबराते। बीते हफ्ते मेरठ में बारहवीं कक्षा के एक छात्र ने अपने घर में खिड़की से रस्सी बांधकर फांसी लगा ली। आत्महत्या करने से पहले उसने बाकायदा एक पत्र लिखा, ‘अब मेरी जीने की इच्छा नहीं रही। इसलिए मौत का दामन थाम रहा हूं।’ आदित्य नाम के इस लड़के की खुदकुशी ने उसके माता-पिता को जो सदमा दिया है, उससे वे शायद ही उबर पाएंगे। आदित्य के मन में दसवीं के बाद भी फांसी के फंदे पर झूलने का विचार आया था, लेकिन तब परिजनों ने उसे संभाल लिया था। लेकिन फिर भी उसके मन-मस्तिष्क में अपनी जान लेने के विचार नहीं थमे। माता-पिता तथा अन्य करीबियों को उम्रभर का गम देकर इस दुनिया से चल बसे आदित्य ने अपने सुसाइड नोट में सभी से माफी मांगी है।

राजस्थान में दौसा जिले के लालपोट की रहने वाली डॉक्टर अर्चना शर्मा की आत्महत्या ने अपनों तथा बेगानों को चकित कर दिया। डॉक्टर तो दूसरों की जान बचाने के लिए होते हैं। अर्चना शर्मा ने भी अपने निजी अस्पताल में आशा की जान बचाने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी थी, लेकिन प्रसव के बाद उनकी मौत हो गई। देश और दुनिया के बड़े से बड़े अस्पतालों में इलाज के दौरान ऐसी मौतें होती रहती हैं, लेकिन डॉक्टरों को हत्यारा तो नहीं मान लिया जाता। जिस औरत की इलाज के दौरान मौत हुई उसके परिजनों ने इसे ईश्वर की मर्जी माना और अस्पताल की एंबुलेंस से शव को घर ले आए थे। अंत्येष्टि की तैयारी की जा रही थी कि तीन-चार छुटभैया किस्म के नेता वहां आ धमके। उन्होंने मृतका के परिजनों को अस्पताल से मोटा मुआवजा लेने के लिए उकसाया। परिवारजनों की असहमति के बावजूद वे जबरन शव को फिर से अस्पताल ले आए। उनके साथ तमाशबीनों की अच्छी-खासी भीड़ भी थी। उन लोगों ने शव को अस्पताल के बाहर रखकर नारे लगाने प्रारंभ कर दिये, ‘डॉक्टर को गिरफ्तार करो। हत्या का मामला दर्ज करो। अस्पताल पर हमेशा-हमेशा के लिए ताले लगवा दो।’ नारेबाजी के साथ-साथ डॉक्टर अर्चना शर्मा और उनके पति को गंदी-गंदी गालियां भी दी जाती रहीं। पुलिस वाले मूकदर्शक बन सड़क छाप नेताओं का सुनियोजित खेल देखते रहे। तीन-चार घंटे तक ब्लैकमेलरों की दादागिरी चलती रही। आजू-बाजू का कोई भी कुछ नहीं बोला। हैरानी की बात तो यह थी कि जिस महिला मरीज की मौत हुई उसके पति ने किसी भी तरह की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज नहीं करवायी। वह तो अदना-सा श्रमिक है। जो ठीक तरह से लिखना और पढ़ना तक नहीं जानता। उससे जबरन कागजों पर हस्ताक्षर करवाए गए। अंतत: धूर्त नेता और उनके कपटी चेले-चपाटे पुलिस पर दबाव बनाने में सफल रहे, जिससे पुलिस ने भी सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन की अनदेखी कर गायकोलॉजिस्ट डॉ. अर्चना शर्मा के खिलाफ धारा 302 (हत्या) के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया। बिकाऊ खाकी वर्दी, लुंजपुंज कानून व्यवस्था तथा बद और बदमाश नेताओं ने एक होनहार डॉक्टर को प्रताड़ित कर इस कदर भयभीत कर दिया कि वह डिप्रेशन में चली गई। उन्होंने कभी भी ऐसे अपमान और तमाशे की कल्पना नहीं की थी। उनके मन में बस यही विचार आते रहे कि अब तो उनकी डॉक्टरी पर कलंक लग गया है। वर्षों की मेहनत पर पानी फेर दिया गया है। उनके कारण पति और बच्चों को भी अपराधी समझा जा रहा है। वह हत्यारिन घोषित की ही जा चुकी हैं। बुरी तरह आहत डॉक्टर अर्चना शर्मा ने मौत का दामन थामने से पहले एक पत्र लिखा, ‘मैं अपने पति और बच्चों से बहुत प्यार करती हूँ। प्लीज मेरे मरने के बाद इन्हें परेशान न किया जाए। मैंने कोई गलती नहीं की, किसी को नहीं मारा। मैंने इलाज में भी कोई कमी नहीं की। कृपया डॉक्टरों को इतना प्रताड़ित करना बंद करो। मेरी मौत शायद मेरी बेगुनाही साबित कर दे।’’ यह कितनी शर्मनाक और कायराना हकीकत है कि जब नेता, ब्लैकमेलर पत्रकार, डॉक्टर अर्चना शर्मा के अस्पताल की घेराबंदी कर नारेबाजी कर रहे थे तब किसी ने अर्चना की साथ नहीं दिया। कोई खबर नहीं ली। लेकिन जब वह चल बसीं तो सभी उनके हमदर्द बन गये।

डॉक्टर अर्चना की खुदकुशी के कुछ दिन बाद महानगर के स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा आर्या ने फांसी लगा ली। मात्र 13 साल की इस बच्ची की जब नोटबुक खंगाली गई तो उसमें जगह-जगह लिखा था ‘आई लव यू डेथ’, मुझे मौत से प्यार है, मुझे मरना अच्छा लगता है। सुसाइड नोट में ‘आई लव यू डेथ’ लिखकर दुनिया को सदा-सदा के लिए छोड़कर चल देने वाली लड़की के मां-बाप और भाई उसकी आत्महत्या की वजह से अनजान और हतप्रभ हैं! लेकिन, हतप्रभ कर देने वाली बात यह भी है कि लड़की लगातार अपनी नोट बुक्स में ‘आई लव यू डेथ’ लिखकर इशारा करती रही और मां-बाप अनजान रहे! इसी तरह से आदित्य पहले भी खुदकुशी की राह पकड़ने के संकेत दे चुका था, लेकिन माता-पिता ने भी उसका मानसिक उपचार नहीं कराया। 

जब जिन्दगी अच्छी नहीं चल रही होती है तो इंसान का विचलित और परेशान होना स्वाभाविक है। यह भी सच है कि इंसान चुभने वाली बातों और तानों से अक्सर निराश और हताश हो जाता है, लेकिन वह यह क्यों भूल जाता है कि लोगों का तो काम ही है मीन-मेख निकालना। अच्छाइयों को नजरअंदाज कर कमियों और बुराइयों के ढोल पीटना। मरना तो एक न एक दिन सभी को है, लेकिन किन्हीं भी हालातों में तथा किसी भी उम्र में की गयी खुदकुशी उन्हें अथाह पीड़ा और बदनामी की सौगात दे देती हैं, जिन्हें उम्र भर के लिए रोने-बिलखने के लिए छोड़ दिया जाता है...।

Thursday, June 19, 2025

छपरी

ऐसा लग रहा है, न जाने कब से नाराज और गुस्सायी महिलाओं ने इस दौर में पुरुषों से बदला लेने का भरपूर साहस जुटा लिया है। महिलाओं के गुस्से के प्रकटीकरण के तौर-तरीकों पर आम और खास लोग हैरान हैं। यह अनियंत्रित रोष, आक्रोश कहां पर जाकर थमेगा, कुछ भी लिखना-बताना मुश्किल है। यह भी सच है कि विद्रोही औरतें पुरुषों को ज्यादा पसंद नहीं आतीं। इक्कीसवीं सदी में भी अधिकांश पुरुष चुपचाप समझौता करने तथा कम बोलने वाली नारियों को पसंद करते हैं। उनका अत्याधिक मुखर होना पुरुषों को किसी चुनौती से कम नहीं लगता। अब वो वक्त नहीं रहा जब महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की खबरें ही पढ़ने-सुनने में आती थीं। अब तो महिलाओं के हिंसक और बेकाबू होने की खबरें भी सुर्खियां बटोर रही हैं। महिलाएं जहां अपनी सुरक्षा के लिए भी किसी भी हद तक जा रही हैं। वहीं, अपना आतंकी चेहरा भी दिखा रही हैं, ‘बिहार में मुजफ्फरपुर में साहूकार युवक ने एक महिला को कुछ रुपये ब्याज पर दिए थे। निर्धारित समय पर जब भुगतान नहीं हुआ तो युवक महिला के घर जा पहुंचा। महिला को घर में अकेली देख उसकी नीयत बिगड़ गई और वह उससे जबरदस्ती करने लगा। महिला के पुरजोर विरोध करने पर भी जब वह नहीं माना तो महिला ने युवक के प्राइवेट पार्ट को चाकू से काट डाला। महिला यदि कमजोर पड़ जाती तो युवक उस पर आसानी से बलात्कार कर गुजरता, लेकिन नारी का यह भयावह अपराध कर्म! उत्तर प्रदेश के एक हाईवे पर स्थित फ्यूल सेंटर पर पति, पत्नी और उनकी बेटी अपनी कार में सीएनजी भरवाने के लिए पहुंचे। सीएनजी डलवाते समय सुरक्षा की दृष्टि से गाड़ी से उतरना बहुत जरूरी होता है। इसीलिए सीएनजी भरवाने के दौरान सेल्समैन ने उनसे गाड़ी से उतरने को कहा, लेकिन गाड़ी में बैठे तीनों ने इसे अपना अपमान मानते हुए उतरने से मना कर दिया। उन्हें अंदर बैठे रहकर गैस डलवाने के खतरे के बारे में बताया गया। फिर भी वे गाड़ी से नहीं उतरे। ऐसे में उनकी जान की फिक्र करते हुए सेल्समैन ने सीएनजी डालने से साफ-साफ मना कर दिया। सेल्समैन का नियम-कायदे का पक्का होना उन्हें रास नहीं आया। वे उससे भिड़ गये और गाली-गलौज करने लगे। सेल्समैन के विरोध करने पर युवा बेटी का खून खौल उठा और उसने सेल्समैन के सीने पर रिवॉल्वर तानते हुए वहीं के वहीं मौत के घाट उतारने की धमकी दे दी। पुलिस ने वहां पहुंचकर किसी तरह से युवती को शांत किया।

हम सबको वो जमाना भी अच्छी तरह से याद है, जब मां-बाप अपनी बेटियों की शादी अपने मनपसंद लड़कों से कर खुश हो लेते थे। बेटियां भी चुपचाप विदा हो जाती थीं, लेकिन अब अधिकांश शादी-ब्याह के रिश्ते बेटियों की मर्जी और स्वीकृति से होने लगे हैं। स्त्रियों पर अपना सर्वोपरि अधिकार जमाने और उन्हें अपनी सम्पति मानने की मां-बाप तथा पतियों की सोच की बड़ी तेजी से हत्या के साथ-साथ महिलाओं के द्वारा अपने पैरों पर भी कुल्हाड़ी मारी जाने लगी है। मध्यप्रदेश के शहर इंदौर की सोनम आत्मनिर्भर थी। पिता के प्लायवुड के कारोबार में साथ देती थी। माता-पिता ने बहुत सोच-समझकर उसकी शादी इंदौर के ही युवा ट्रांसपोर्ट कारोबारी से करवा दी। शादी से पहले सोनम ने कोई विरोध नहीं किया। चुपचाप सात फेरे ले लिये। सोनम के संदिग्ध आचरण के बारे में उसकी मां को पूरी खबर थी। उसे यह भी पता था कि वह उन्हीं के यहां काम करने वाले युवक राज कुशवाह को चाहती है, लेकिन राज दूसरी जाति का था, इसलिए मां के साथ-साथ पिता को भी वह शादी के लिए उपयुक्त नहीं लगा। शादी के बाद षडयंत्रकारी सोनम ने हनीमून के लिए अपने पति पर मेघालय जाने का दबाव बनाया, जबकि पति राजा रघुवंशी का वहां जाने का बिल्कुल मन नहीं था। 11 मई को दोनों की धूमधाम से शादी हुई थी और 23 मई को हनीमून के लिए मेघालय रवाना हो गए। अगले दिन झरने के पास एक खाई में राजा का शव मिला। सोनम ने परिवारजनों को गुमराह करने की हजारों कोशिशें की। कई दिनों तक कई-कई झूठ बोले। अंतत: हनीमून के दौरान पति-पत्नी के रिश्ते की नृशंस हत्या का सच बाहर आ ही गया। इस हत्याकांड में सोनम के प्रेमी राज की प्रमुख भूमिका रही। सोनम के परिवार ने बार-बार कहा कि, दोनों में भाई-बहन जैसा रिश्ता है। सोनम राज को राखी बांधती थी। राज सोनम से पांच साल छोटा है। इससे कुछ हफ्ते पहले मेरठ में सौरभ राजपूत हत्याकांड में पत्नी मुस्कान और उसके प्रेमी साहिल का खूनी हाथ सामने आया। इन दोनों हत्याकांडों की अंदरूनी सच्चाई ने 2006 के मुन्नार केस की याद दिला दी। चेन्नई के रहने वाले 30 वर्षीय अनंतरमन और विद्यालक्ष्मी बड़े तामझाम के साथ परिणय सूत्र में बंधे थे। शादी के 9 दिन बाद दोनों हनीमून मनाने के लिए मुन्नार गये। अगले दिन अनंतरमन को मौत के घाट उतार दिया गया। विद्या ने पुलिस को भटकाने के बहुतेरे प्रयास किये। अज्ञात लोगों के द्वारा जेवर लूटने और पति की हत्या की जो कहानी उसने सुनायी वह किसी को भी हजम नहीं हुई। जांच में स्पष्ट हो गया कि विद्या स्कूल के दिनों में जिस युवक को दिलोजान से चाहती थी उसी से शादी करना चाहती थी, लेकिन परिवार वाले नहीं माने। विद्या के प्रेमी का गरीब तथा अनंतरामन का अमीर होना शादी में बाधक बना। विद्या के प्रेमी ने अपने किसी मित्र के साथ मिलकर अनंतरामन का काम तमाम कर दिया। अपने पति का कत्ल करने और करवाने वाली नारियों का यह सच भी अत्यंत हैरान करनेवाला है कि अधिकांश के कातिल प्रेमी उनके पतियों के समकक्ष कहीं भी नहीं ठहरते। न धन में, न तन में। आड़ी-तिरछी शक्ल सूरत और संदिग्ध व्यवहार। ऐसे युवकों को ‘छपरी’ कहा जाता है, जो दिखावा पसंद होने के साथ-साथ चालबाज तथा घोर नशेड़ी भी होते हैं। इनके चरित्र में कही कोई गरिमा और गहराई नहीं होती। समाज की चिंता और परवाह नहीं करने वाले ये ‘छपरी’ इन दिनों विद्रोही लड़कियों की पसंद बन रहे हैं। मेरठ के हत्यारे मुस्कान और साहिल नशे के आदी हैं। जेल में भी शराब, गांजा और चरस की मांग करते रहते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले वीडियो में पति की हत्यारिन मुस्कान बार-बार फरियाद करती दिखी कि बिना नशा किये उसे नींद नहीं आती। मुस्कान साहिल पर इसलिए मर मिटी थी, क्यूंकि वह सौरभ से ज्यादा उसकी चिंता करता था। सौरभ के पास उतना समय ही नहीं होता था जो मुस्कान के चेहरे पर हर वक्त मुस्कान ला सके। साहिल के पास मुस्कान को खुश करने के अलावा और कोई काम नहीं था। देश के एक जाने-माने मनोरोग विश्लेषक का कहना है कि कई लड़कियां खुलकर जीना चाहती हैं पर विभिन्न बंदिशों की वजह से जी नहीं पातीं। ये लड़कियां उन लड़कों पर तुरंत फिदा हो जाती हैं, जो बेबाक और बिंदास होते हैं। मरने-मारने पर तुरंत उतारू हो जाते हैं। कल की चिंता छोड़ आज में खुलकर जीते हैं। अपने नये नवेले पति को नशे का हाई डोज देकर पहाड़ी से नीचे फेंकने वाली सोनम के साथी राज के बारे में बार-बार कहा गया कि वह तो उससे राखी बंधवाता था। राखी बंधवाने वाला किसी पर गलत नज़र कैसे डाल सकता है? आज से लगभग 45 वर्ष पूर्व की आंखों देखी हकीकत को मैं कभी भी नहीं भूल सकता। उन दिनों मैं छत्तीसगढ़ के कटघोरा में था। वहां श्रीवास्तव नामक एक शिक्षक थे। उन्हीं के साथ हाईस्कूल में एक बंगाली खूबसूरत युवा टीचर भी थीं। शिक्षक श्रीवास्तव शादीशुदा थे और शिक्षिका कुंआरी। एक साथ पढ़ाते-पढ़ाते दोनों एक दूसरे के जिस्म को पढ़ने लगे। उनके इश्क के चर्चे भी बस्ती में होने लगे। शिक्षक ने इसे दुश्मनों का षडयंत्र कहकर अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की, लेकिन पत्नी की शंका में कोई कमी नहीं आयी। मामला बढ़ता देख एक दिन शिक्षक महोदय ने शिक्षिका को अपने घर बुलवाया और पत्नी के समक्ष कलाई पर राखी बंधवा ली। अब तो पत्नी बेफिक्र हो गई। वक्त बीतता गया लोगों ने भी दोनों पर ध्यान देना बंद कर दिया। कुछ महीने के बाद बहुत जबरदस्त धमाका हो गया। शिक्षिका के गर्भवती होने से श्रीमती श्रीवास्तव माथा पिटती रह गईं। राखी को ढाल बनाकर अपनी प्रेमिका से सतत जिस्मानी रिश्ते बनाये रखने वाले शिक्षक ने यह ऐलान कर सभी को चौंका दिया कि हम दोनों तो बहुत पहले से विवाह बंधन में बंध चुके हैं। अब जिसको जो सोचना हो... सोचता रहे।

Thursday, June 12, 2025

दीवानों की जान

अभी तक तो यही पढ़ने-सुनने में आ रहा था कि किसी प्रवचनकर्ता के यहां उमड़ी भीड़ में भगदड़ मचने के कारण पच्चीस-पचास श्रद्धालु चल बसे। मंदिर में पूजा करने के लिए इस कदर लोग जमा हो गए कि, उन्हें संभलना मुश्किल हो गया और फिर लोग एक दूसरे को कुचलते चले गए और बहुत भयावह हादसा हो गया। विभिन्न मेले-ठेलों में भी भीड़ के बेकाबू होने के कारण मौते होने की खबरों से हम और आप अक्सर रूबरू होते रहते हैं। कुंभ मेले में हुई भगदड़ के कारण हुई मौतों को तो कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस ऐतिहासिक आयोजन में तीस से अधिक श्रद्धालुओं की भीड़ में दब-कुचलकर मौत हो गई। यह सरकारी आंकड़ा था। सरकारी आंकड़े अक्सर विश्वसनीय नहीं होते। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मृतकों की संख्या 100 से ज्यादा थी। क्रिकेट की वजह से इस तरह से जानें जाने की खबर हमने तो पहली बार सुनी। रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (आरसीबी) की जीत के जश्न ने 11 क्रिकेट प्रेमियों की जान ले ली और लगभग 40 लोगों को घायल होकर अस्पताल की शरण लेनी पड़ी। अधिकांश भारतीयों की क्रिकेट के प्रति दीवानगी से सभी वाकिफ हैं, लेकिन आईपीएल चैंपियन बेंगलुरुरॉयल चैलेंजर्स की विजय परेड के दौरान चिन्नास्वामी स्टेडियम के पास मची भगदड़ में हुए हादसे ने सभी के दिल को दहला और रूला दिया। अनियंत्रित भीड़ की अफरातफरी में अपनी सदा-सदा के लिए जान खोने वाली देवी नामक युवती क्रिकेट और विराट कोहली की जबरदस्त प्रशंसक थी। शहर में होने वाला कोई भी क्रिकेट मैच मिस नहीं करती थी, लेकिन बेंगलुरु रॉयल चैलेंजर्स की विक्ट्री परेड वाले दिन वह टिकट से वंचित रह गई थी। फिर भी अपने दफ्तर के बॉस से मिन्नतें कर उसने छुट्टी ली और अपना लैपटॉप लावारिस हालत में टेबल पर छोड़ फौरन स्टेडियम की तरफ दौड़ पड़ी। खुशी के समंदर में गोते लगाती देवी को उम्मीद थी कि क्रिकेट के नये भगवान विराट कोहली से करीब से मिलने का अवसर उसे जरूर मिलेगा। उसने ऑटोग्राफ बुक भी संभाल कर रख ली थी। देवी ने ऑफिस से निकलते ही अपने दोस्त को मैसेज कर दिया था कि वह स्टेडियम जाने के लिए निकल पड़ी है। यदि उसे भी आना हो तो तुरंत आ जाए। ये देवी की आखिरी आवाज थी, जो उसके दोस्त ने सुनी। उसके बाद तो गमगीन होने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था। स्टेडियम के बाहर अथाह भीड़ थी। देवी ने टिकट पाने के लिए भी भरपूर हाथ-पैर मारे, लेकिन असफल रही। 40 हजार लोगों की क्षमता वाले स्टेडियम में दो लाख से अधिक भीड़ का जमावड़ा था। फिर भी अति उत्साहित देवी जोखिम लेने पर तुल गई। देवी की तरह हर किसी को स्टेडियम के अंदर जाने की जल्दी थी। इसी बेतहशा भागम-भाग ने ऐसी भगदड़ मचायी कि देखते ही देखते लोग एक-दूसरे पर गिरने और दबने लगे। कुछ लोग ऐसे गिरे कि दम घुटने के कारण उठ ही नहीं पाये। उन्हीं में देवी भी शामिल थी। 

जिन 11 लोगों की जान गई, उनमें सभी की उम्र 33 साल से कम थी। इन्हीं में एकमात्र 13 साल का लड़का भी था। इस क्रिकेट के दीवाने बेटे की मौत की खबर सुनकर उसकी मां बार-बार बेहोश होती रही। अब तो उसकी सारी उम्र रो-रोकर बीतने वाली है। इसी तरह से पानीपूरी बेचने वाले एक उम्रदराज पिता ने भी अपने 18 वर्षीय बेटे को क्रिकेट की आंधी में खो दिया। यह संस्कारित बेटा अपने पिता के काम में नियमित हाथ बंटाता था। कई बार जब पिता बीमार होते या शहर से दूर होते तो वह खुद पानीपूरी का ठेला लगाता था। सरकार ने जब अन्य मृतकों के साथ-साथ इस बेटे के लिए भी 10 लाख रुपए का मुआवजा देने की घोषणा की तो दुखी और निराश पिता के इस कथन ने सभी संवेदनशील भारतीयों के दिल को झकझोर दिया, ‘मैं 1 करोड़ रुपये देने को तैयार हूं, लेकिन क्या इससे मेरा बेटा वापस आ जाएगा?’ इस पिता के उन सपनों की ही हत्या हो गई हैं जो उसने अपने परिश्रमी आज्ञाकारी बेटे के लिए देखे थे। बेटा, पिता के सपनों को साकार करने की राह पर बढ़ रहा था कि अंधी और जुआरी क्रिकेट ने उसकी जान ले ली। स्टेडियम के बाहर धक्का-मुक्की और अफरातफरी होने से जब लाशें बिछ रही थीं, लोग घायल हो रहे थे तब अंदर नाचते-गाते हुए जश्न मनाया जा रहा था। खिलाड़ियों से ज्यादा तो क्रिकेट के दीवानों को मौज-मस्ती सूझ रही थी। जीत की ट्राफी हाथ में लेते ही कप्तान विराट कोहली के फफक-फफक रोने पर कई लोग खुद को आंसू बहाने से नहीं रोक पाये। कोहली और उनकी पत्नी अभिनेत्री अनुष्का शर्मा का अत्यंत भावुक होकर गले लगना उनके प्रशंसकों के लिए यादगार बन गया। सच तो यह है कि करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों का क्रिकेटरों से लगाव कोई नई बात नहीं है। नई बात तो हादसे में हुई 11 लोगों की मौत है। ये मौतें पुलिस के निकम्मेपन और भीड़ प्रबंधन में हुई चूक का नतीजा हैं। इन मौतों ने पूरे देश को गमगीन कर दिया। यदि सुरक्षा इंतजामों में खामियां नहीं होतीं तो दिल दहलाने वाली यह दुर्घटना नहीं होती। क्रिकेट के पहले भगवान सचिन तेंदुलकर के तो होश ही उड़ गए। उन्होंने सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट शेयर करते हुए लिखा, ‘बेंगलुरु के स्टेडियम में जो कुछ हुआ, वह दुखद से भी अधिक है। मेरी संवेदनाएं हर पीड़ित परिवार के साथ हैं।’ हरभजन सिंह ने अपना दर्द इन शब्दों में बयां किया, ‘इस घटना ने खेल की भावना पर एक काली चादर डाल दी है।’ फिल्म अभिनेता सुनील शेट्टी ने इन शब्दों में अपनी संवेदना व्यक्त की, ‘खुशी का एक पल...अकल्पनीय घटना में बदल गया। जान गंवाने वालों के बारे में सुनकर मेरा तो दिल ही टूट गया।’ क्रिकेट किंग विराट कोहली को आईपीएल ट्रॉफी हाथ में थामे सारी दुनिया ने रोते हुए तो देखा, लेकिन उन्होंने मृतकों के परिजनों से मिलकर संवेदना और अपनत्व के दो शब्द बोलना जरूरी नहीं समझा! घटना के अगले दिन ही बीवी बच्चों के साथ लंदन के लिए उड़ गए। यह तो निष्ठुरता की इंतिहा और घोर मतलब परस्ती है। क्रिकेट की बदौलत अरबों-खरबों कमाने वाले विराट का दिल अब भारत में नहीं लगता। उन्होंने लंदन में अपना आलीशान आशियाना बना लिया है। वहीं उन्हें सुकून और शांति मिलती है। भारत में तो क्रिकेट के पागल-दीवाने प्रशंसक उन्हें मौका पाते ही घेर लेते हैं। इससे उनका दम घुटने लगता है। हमारे देश के शासक भी बहुत बेरहम, बदतमीज और बेलगाम हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इस हादसे को महाकुंभ में मची भगदड़ में जोड़ते हुए यह कहने में देरी नहीं लगायी कि कुंभ मेले में भी तो भगदड़ मचने से 50-60 लोग मारे गए थे...। यह कौन सी बड़ी बात है। जिनकी जवाबदेही बनती है, वही जब अपने बचाव के लिए ऐसे घटिया चौंकाने वाले बयान देने लगें तो आप ही सोचिए कि हादसों और दुर्घटनाओं पर लगाम लगेगी या बेकसूर बस यूं ही कीड़े-मकोड़ों की तरह मरते ही रहेंगे?

Thursday, June 5, 2025

परोपकार...तिरस्कार

मानव, महामानव और दानव। इंसान की पहचान उसकी खूबसूरत शक्ल से नहीं, उसके कर्मों से होती है। अमूमन दिखने-दिखाने में तो लगभग सभी स्त्री-पुरुष एक से होते हैं, लेकिन किसी की एक सार्थक पहल और परोपकारी सोच, संवेदनशीलता उसे देवता के समक्ष खड़ा कर देती है। लोगों का हुजूम उसके समक्ष नतमस्तक होने को विवश हो जाता है। बात उन दिनों की है, जब महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में पूरी तरह से शराब पर पाबंदी थी। फिर भी कुछ अपराधी अवैध शराब बेचने से बाज नहीं आ रहे थे। मुफ्तखोरों को दूसरा कोई मेहनत मजदूरी करने वाला काम रास नहीं आता था। बेईमानी और अपराध कर्म से वे दूर ही नहीं होना चाहते थे। इससे उनके बाल-बच्चों पर भी बुरा असर पड़ रहा था, लेकिन उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं थी। शहर के एक आदतन अपराधी, अवैध शराब विक्रेता को तत्कालीन पीएसआई मेघा गोखरे ने गिरफ्तार कर लिया। उसे थाने में लाये अभी दो-तीन घंटे ही बीते थे कि तभी पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला एक बच्चा अपने पिता की जमानत के लिए आ पहुंचा। 

उसके फर्राटे से अंग्रेजी में बात करने के आकर्षक अंदाज से मेघा स्तब्ध रह गईं। उन्होंने उससे कहा कि अभी तुम बच्चे हो। तुम्हारी जमानत पर तुम्हारे पिता को छोड़ना संभव नहीं है, लेकिन बच्चा जिद पर अड़ा रहा। मेघा ने बड़े प्यार से उसे अपने करीब बिठाते हुए पूछा कि, क्या तुम नियमित स्कूल जाते हो? तब उसके पिता ने सिर झुकाकर बताया कि मेरे कहने पर अपने स्कूल बैग में शराब की बोतलें रख कर नियमित ग्राहकों को पहुंचाने जाता है। एक दिन स्कूल वालों ने उसके बैग में जब शराब की बोतल देखी तो उन्होंने उसी दिन से हमेशा-हमेशा के लिए स्कूल से निकाल दिया है। बच्चे ने बड़ी मासूमियत के साथ कहा, पर मैडम जी इसी काम से ही उनके घर का खर्चा चलता है। वैसे भी अपने पिता की सहायता करना उसका पहला फर्ज है। वहीं बच्चे के पिता को यकीन था कि बेटे की उम्र कम होने की वजह से उसे सजा नहीं मिलेगी। पुलिस उस पर दया कर चलता कर देगी। मेघा को बच्चे का अपराधी होना आहत कर गया। उन्होंने तुरंत स्कूल के प्रिंसिपल से मुलाकात की और बच्चे के हित में कदम उठाने का निवेदन किया। प्रिंसिपल बोले, इसमें सुधार आना मुश्किल है। यह पूरी तरह से बिगड़ चुका है। कई बार मना करने के बावजूद बैग में शराब की बोतल लेकर आता था। इसकी वजह से दूसरे बच्चे भी बिगड़ रहे थे। मेघा की मिन्नत का मान रखते हुए अंतत: प्रिंसिपल ने बच्चे को स्कूल में रख लिया। कालांतर में बच्चे के पिता की भी जमानत हो गई। मेघा ने उसे पांच हजार रुपए देते हुए कहा कि यदि बच्चे का भला चाहते हो तो तुम शराब बेचना बंद कर मछली बेचना प्रारंभ कर दो। उसने मेघा की सलाह का पालन करते हुए शराब बेचनी छोड़ दी और बच्चे की पढ़ाई पर ध्यान देने लगा। स्कूल की पढ़ाई के पश्चात बच्चे को चंद्रपुर स्थित राजीव गांधी इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल गया। अंतत: उसकी मेहनत रंग लाई और वह इंजीनियर बन गया। 2023 में हैदराबाद की एक कंपनी में अच्छी खासी पगार पर नौकरी भी मिल गई। वर्तमान में वह दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में लाखों रुपए के वेतन पर काम कर रहा है। बच्चे के इंजीनियर बनते-बनते मेघा भी तरक्की करते हुए पीएसआई से एपीआई बन गईं। उस बच्चे ने कई बार उनसे संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन मोबाइल नंबर बदल जाने के कारण बात नहीं हो सकी। अभी हाल में जब मेघा एक मामले के सिलसिले में मूल गईं तो उस बच्चे के पिता से अचानक मुलाकात हो गई। तब पिता ने उन्हें बताया कि शराब बेचने वाला बच्चा अब इंजीनियर बन चुका है। मेरा मछली का कारोबार भी बहुत बढ़िया चल रहा है। यह आपके प्रयास और उपकार का ही प्रतिफल है। बेटा आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाला है और आपसे मिलने को अत्यंत उत्सुक है...।

भिखारी कौन होते हैं? किसी के लिए भी जवाब देना मुश्किल नहीं। अधिकांश भिखारी अपंग और असहाय होते हैं। कोई काम धाम नहीं कर पाते, इसलिए कटोरा हाथ में लेकर भीख मांगने निकल पड़ते हैं। लोग उनकी हालत पर रहम खाकर चंद सिक्के उसके कटोरे में डाल देते हैं। इसी से जैसे-तैसे उनका जीवन कटता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके हाथ-पैर सलामत हैं, लेकिन निहायत बेशर्मी के साथ भीख मांगते फिरते हैं। उन्हें लोगों के दुत्कारने और फटकारने से कभी कोई लज्जा नहीं आती। उनके लिए भीख आसानी से पैसा कमाने का टिकाऊ धंधा है। ऐसे कुछ धंधेबाज प्रतिदिन हजारों रुपए पीट लेते हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूल कॉलेजों में पड़ते है। भीख की बदौलत फ्लैट, कार और दुकानों के मालिक बने इन भिखारियों को आखिर कहा तो भिखारी ही जाता है और मान-सम्मान भी इन्हें नहीं मिलता।

देश की राजधानी दिल्ली में जीतेश कुमार वर्षों से बसों में भीख मांगते नजर आते हैं, लेकिन लोग उनका अथाह मान-सम्मान करते है और उनका मनोबल बढ़ाते हैं। हर तरह से स्वस्थ और सेहतमंद जीतेश बसों में यात्रा करने वाले स्त्री-पुरुषों, युवकों और बच्चों से भीख में मात्र दस रुपए देने की मांग करते हैं। स्वेच्छा से कुछ सवारियां इससे ज्यादा भी दे देती हैं। जीतेश भीख में मिले एक भी पैसे का अपने लिए इस्तेमाल नहीं करते। मात्र कक्षा दूसरी तक  पढ़े जीतेश मासूम नौनिहालों का भविष्य संवारने के लिए यह काम करते हैं।बदरपुर इलाके में पिछले दस वर्षों से स्कूल चलाते आ रहे जीतेश की नेक नीयत को देखकर एक शिक्षा-प्रेमी, दरियादिल व्यक्ति ने अपने मकान का एक हिस्सा उन्हें स्कूल चलाने के लिए दे दिया है। वह महीने में 12 से 15 दिन विभिन्न बसों में भिक्षाटन करते हैं। हर रोज ढाई से तीन हजार रुपए बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। उनके स्कूल में नर्सरी से कक्षा पांचवीं तक पढ़ाने वाले शिक्षक नाममात्र का वेतन लेते हैं। कुछ स्वेच्छा से बिना वेतन अपनी सेवाएं देते हैं। झुग्गी झोपड़ी में रहनेवाले गरीब परिवारों के बच्चों को मुफ्त में कॉपी-किताब भी उपलब्ध करायी जा रही है। जीतेश अब तक 500 से ज्यादा बच्चों को पांचवी तक पढ़ाने के बाद आगे की शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में दाखिला करा चुके हैं...। पुलिस अधिकारी मेघा गोखरे और शिक्षा की अलख जलाते जीतेश कुमार पर जनहित के लिए किसी ने दबाव नहीं डाला था। परोपकार करने के पीछे उनकी कोई मजबूरी भी नहीं थी। वे भी अपनी राह पर चल सकते थे, जिस पर अन्य लोग चलते हैं। 

अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टरों, नर्सों तथा अन्य कर्मचारियों को मरीजों की देखरेख के लिए मोटी-मोटी तनख्वाहें मिलती हैं। सतर्क रहकर अपनी डयूटी निभाना उनका प्राथमिक कर्तव्य है, लेकिन वे क्या कर रहे हैं! जो सच सामने है वह तो...बेहद दु:ख के साथ गुस्सा भी दिलाता है। मन होता है कि इनकी जीभरकर धुनाई की जाए और नौकरी भी छीन ली जाए। कानपुर के निकट स्थित एक ग्राम में सुनील नायक नामक शख्स की गर्भवती पत्नी सरिता को रात को प्रसव पीड़ा हुई। रात को 1 बजे सुनील ने पत्नी को कानपुर के मेडिकल कॉलेज के महिला अस्पताल में भर्ती करवा दिया। रात 2 बजे प्रसव पीड़ा बढ़ने पर उन्होंने इधर-उधर देखा, लेकिन उन्हें अस्पताल का कोई कर्मचारी नजर नहीं आया। उन्होंने दो कमरों में सो रहे कर्मचारियों को जगाने का प्रयास किया। मगर कोई भी नहीं उठा। इसी दौरान गर्भवती का प्रसव हो गया। शर्मनाक और पीड़ादायी हद तो तब हुई जब प्रसव के तुरंत बाद नवजात बेड के किनारे रखे कचरे के डिब्बे में जा गिरा और देखते ही देखते उसने गंदगी में ही दम तोड़ दिया। बिहार की राजधानी पटना के सरकारी अस्पताल नालंदा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के हड्डी विभाग में भर्ती उम्रदराज अवधेश प्रसाद की उंगलियों को चूहों ने बुरी तरह से कुतर कर लहूलुहान कर दिया। वे रात भर दर्द के मारे तड़पते रहे। अवधेश मधुमेह के मरीज हैं और अपने टूटे हुए दाएं पांव का इलाज कराने आये थे। किसी के भी मन में यह प्रश्न खलबली मचा सकता है कि आखिर जब चूहे ने मरीज का पांव कुतरना प्रारंभ किया तो उन्हें मालूम क्यों नहीं चला? दरअसल अवधेश डायबिटिक न्यूरोपैथी से ग्रसित हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर पांव पर पड़ता है। डायबिटिक न्यूरोपैथी में अलग-अलग स्टेज हैं। इसमें एक स्टेज ऐसी भी आती है, जब मरीज के पांव का सेन्सेशन खत्म हो जाता है। यानी पांव में कुछ भी हो उसे अनुभव नहीं होता। यह तो हुई असहाय बेबस मरीज की हकीकत और मजबूरी लेकिन सरकारी अस्पताल के डॉक्टर, नर्सें एवं अन्य कर्मचारी क्यों अंधे, बहरे और दिमागी तौर पर लकवाग्रस्त हो जाते हैं कि उन्हें अपने कर्तव्य के स्थान पर हरामखोरी रास आती है?

Thursday, May 29, 2025

समझ-नासमझ

चित्र-1 : उसके मां-बाप ने उसे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए आस्ट्रेलिया भेजा था। वहां वह सिजोफ्रेनिया जैसे खतरनाक मानसिक रोग का शिकार हो गया। डॉक्टरी की निर्धारित कोर्स की किताबेें पढ़ने की बजाय उसका दिमाग इधर-उधर छलांगे लगाने लगा। इसी दौरान उसने ‘आत्मा’ के बारे में पढ़ा और सुना तो वह दिन-रात आत्मा के बारे में ही सोचने लगा। आत्मा कैसी दिखती है, हमारा शरीर आत्मा के साथ कैसे काम करता है। मौत होते ही क्या हम आत्मा को देख सकते हैं? उसकी जिज्ञासा बढ़ती चली गई। कई और सवाल परेशान करते हुए उसकी नींद उड़ाने लगे। एक शाम उसने डॉक्टरी की सारी किताबें आग के हवाले कर दीं। आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए उसने अपने मां-बाप और बहन की बेहद कू्ररता से हत्या कर दी। उसके पश्चात वह ‘आत्मा’ को ढूंढता रहा, लेकिन वह नहीं मिली। अलबत्ता सड़-गलकर मरने के लिए उसे जेल जरूर जाना पड़ा।

चित्र-2 : माता-पिता को अपनी औलाद से ज्यादा कुछ भी प्यारा नहीं होता। मां की आत्मा और समस्त चेतना में तो सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों की जान बसती है। वह उनके लिए किसी भी मुसीबत को झेलने को तैयार रहती है। महाराष्ट्र के ठाणे के मुंब्रा इलाके में रहने वाला 17 साल का सुहैल यह कहकर घर से निकला कि आधे घण्टे में लौट आऊंगा, लेकिन देर रात तक जब वह घर वापस नहीं आया तो मां बेचैन हो गयी। उसने आधी रात को ही थाने में जाकर बेटे के गुम होने की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। इतना ही नहीं मां फरीदा ने रात में ही बेटे के दोस्तों के घर का दरवाजा खटखटाया, लेकिन सभी ने अनभिज्ञता दर्शा दी। दिन-पर-दिन बीतते चले गए, लेकिन बेटे का कोई सुराग नहीं मिला। अपने दुलारे की तलाश में भूखी-प्यासी रहकर उसने कई दिन-रात थाने और जेलों के बाहर बैठकर बिताये। अजमेर में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को भी बार-बार फोन कर पता लगाती रही कि उन्होंने सोहेल को दरगाह पर तो नहीं देखा। जब उसकी समझ में आ गया कि पुलिस का उसकी मदद करने का कोई इरादा नहीं है तो उसने एक स्थानीय पत्रकार से मुलाकात की। दोनों और जोर-शोर से सोहेल की तलाश में लग गये। कई जाने-अनजाने लोगों तथा सोहेल के नये-पुराने यार-दोस्तों में मिलने-मिलाने के बाद पता चला कि सोहेल का एक दोस्त भी उसी दिन से लापता है, जिस दिन सुहेल गायब हुआ। पत्रकार कुछ हफ्ते दौड़धूप करने के बाद अपने किसी और काम में लग गया, लेकिन मां ने धैर्य और हिम्मत का दामन थामे रखा। अपने गुमशुदा बेटे का पता निकालने वह जासूस बन गई। उसने खुद ही कड़ी-दर-कड़ी ऐसे सबूत तलाशे जिनसे दो हत्याओं का खुलासा हो गया। एक हत्या उसके बेटे सुहेल की और दूसरी उसके दोस्त की। मां की ममता के खोजी  साहस को देखकर पुलिस भी हतप्रभ रह गई।

कोलकाता के निकट के एक गांव के तेरह साल के बच्चे को जब भूख ने बहुत सताया तो वह दौड़ा-दौड़ा मिठाई की दुकान पर जा पहुंचा। दुकान पर तरह-तरह की चिप्स रखीं थीं, लेकिन दुकानदार नदारद था। बच्चा ने तीन पैकेट हाथ में लेकर इधर-उधर देखने लगा। तभी दुकानदार आ गया। उसने बच्चे को चोर समझ कर पकड़ा और अंधाधुंध पीटने लगा। बच्चे ने गुस्साये दुकानदार को बीस का नोट देते हुए भूल के लिए बार-बार माफी मांगी। बच्चे की मां को जब इस घटना का पता चला तो उसने भी उसे कड़ी फटकार लगाई। भावुक और संवेदनशील बच्चे ने घर लौटने के बाद खुद को कमरे में बंद कर लिया। मां दरवाजा खटखटाती रही, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। कुछ देर के बाद पड़ोसियों की मदद से दरवाजा तोड़ा गया तो बच्चा बेहोश मिला। उसने बंगाली में एक नोट लिख छोड़ा था, ‘‘मां मैं चोर नहीं हूं। मैंने चोरी नहीं की। अंकल (दुकानदार) वहां नहीं थे। मैंने उनके आने की राह देखी। मुझे बहुत भूख लगी थी। वैसे भी कुरकुरे मुझे बहुत पसंद हैं। मेरे उन्हें उठाते ही अंकल आ गए और उन्होंने मेरी एक भी नहीं सुनी...। ये मेरे अंतिम शब्द हैं। कृपया मुझे इस काम के लिए माफ कर देना।’’ अस्पताल ले जाने के कुछ ही समय बाद उसने अंतिम सांस ले ली। मां की आत्मा चीत्कार उठी। वह खुद को कोसती रह गई कि थोड़ा धीरज रख अपने बच्चे की सुन लेती तो वह आहत होकर इस तरह से मौत के मुंह में तो नहीं समाता।

चित्र-3 : इन दिनों कई मां-बाप बच्चों की मनमानी से बहुत आहत और परेशान हैं। मोबाइल फोन तो उनके लिए बहुत बड़ी समस्या बन गया है। अधिकांश बच्चे मोबाइल को आसानी से छोड़ने को तैयार ही नहीं होते। टिकटॉक, इंस्टाग्राम, फेसबुक और ऑनलाइन गेम उनकी लत बन गई हैं। मां-बाप के रात को सो जाने के पश्चात भी बच्चे मोबाइल फोन से चिपके रहते हैं। रात को देरी से सोने के कारण उनकी आंख समय पर नहीं खुलती। मां-बाप उठा-उठाकर थक जाते हैं। 

केरल में स्थित नेदुंवपुरम ग्राम पंचायत ने बच्चों का मोबाइल के नशे से ध्यान हटाने के लिए अनोखी पहल की है। इसके तहत गांव के आठवीं से 12वीं क्लास के छात्रों को बीमार लोगों के साथ-साथ बुज़ुर्गों से मिलने और उनका हालचाल जानने के लिए भेजा जाता है। बच्चे उनका हौसला बढ़ाते हैं कि आप चिंता न करें। ईश्वर आपको शीघ्र ही भला-चंगा करेंगे। जागरूक ग्रामवासियों का मानना है कि मरीजों के साथ अधिक से अधिक वक्त व्यतीत करने से बच्चे ज्यादा संवेदनशील होंगे और बड़े-बुजुर्गों की देखभाल के प्रति जागरूक होंगे। उन्हें बुजुर्गों से बहुत कुछ नया सीखने को मिलेगा, जो किताबों में नहीं है। बच्चों को फर्स्ट एड की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। गांव के डॉक्टर गोयल कहते हैं कि बच्चों को मोबाइल से दूर रखने का लक्ष्य उन्हें दयालू और सामाजिक बनाना है। जब बच्चे बिस्तर पर पड़े किसी रोगी से बात करते हैं, उसका हालचाल पूछते हैं तो उनके व्यवहार में सकारात्मक बदलाव आते हैं। उनमें दूसरों की सहायता करने की भावना में बढ़ोतरी होती है। हम चाहते हैं कि बच्चे मोबाइल से दूरी बनाते हुए अपनी ऊर्जा, ज्ञान और कौशल का इस्तेमाल असहायों की मदद के लिए करें। बचपन और किशोरावस्था में बहुत एनर्जी होती है। यदि इसे सही दिशा दे दी जाए तो वे बड़े होकर बेहतरीन नागरिक बन सकते हैं। ग्राम पंचायत की सकारात्मक कोशिश रंग लाने लगी है। आयुर्वेदिक अस्पताल के डॉक्टर अविनेश गोयल इस बदलाव को लेकर अत्यंत प्रसन्न हैं। वे बताते हैं कि बच्चे पहले गांव के मरीजों का सर्वे करते हैं। इससे उनको गांव की प्राथमिक और जमीनी स्थिति का पता चलता है। उनकी सोच और समझ विकसित होती चली जाती है। इसके बाद वे डेटा का विश्लेषण करते हैं। फिर वे महीने में एक बार कम से कम मरीज से जरूर मिलने जाते हैं। हालांकि वे जितने चाहें उतने मरीजों से मिल सकते हैं। उन्हें एक डायरी भी दी गई है, जिसमें उन्हें सारी सूचनाएं अपनी भावनाएं लिखनी होती हैं। यह डायरी हर महीने चेक की जाती है, जिसकी सेवा सबसे अच्छी होती है। उसे इनाम भी दिया जाता है। यह भी सच है कि मोबाइल के अत्याधिक चक्कर में पड़े रहने की बीमारी सिर्फ बच्चों को ही नहीं है। कई बड़े-बुजुर्ग भी इसके गुलाम हो चुके हैं। जब मौका मिलता है मोबाइल खोलकर बैठ जाते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के वीआइपी रोड पर स्थित है ‘नुक्कड़ कैफें। यहां पर जो ग्राहक खाना खाने के लिए आते हैं उनका मोबाइल पहले ही जमा करवा लिया जाता है। कैफे ने इसे डिजिटल डिटॉक्स का नाम दिया है। कैफे के संचालक चाहते हैं कि अपने परिवार या दोस्तों के साथ कैफे में आने वाले लोग अधिकतम समय एक-दूसरे के साथ बिताएं। मोबाइल में उलझे रहने की बजाय आपस में बातचीत करें। इसके बदले में उनके बिल में दस प्रतिशत विशेष छूट भी दी जाती है।

Thursday, May 22, 2025

लोकतंत्र में लूटतंत्र

यह खबर यकीनन सभी ने तो नहीं पढ़ी होगी, ‘‘महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के नेता नारायण राणे जब महाराष्ट्र सरकार में राजस्व मंत्री थे तब उन्होंने वन विभाग की 300 एकड़ जमीन अपने अत्यंत चहेते बिल्डर को दे दी थी। इस जमीन की कीमत करोड़ों रुपये थी। नारायण राणे ने इस उपकार के बदले यकीनन मोटी रकम ली होगी। नेता यूं ही दरियादिली नहीं दिखाते, लेकिन हां, सरकारी संपति को लुटाने में इन्हें न कोई शर्म आती है और न ही दर्द होता है। विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही सरकारी जमीनों को अपनी खानदानी प्रॉपर्टी मानने वाले नेताओं की फसल बीते कई वर्षों से खूब फल-फूल रही है। चव्हाण नामक जिस जुगाड़ू और धुरंधर ने 1998 में मंत्री नारायण राणे से यह सौगात मिट्टी के मोल पायी थी, उसने इसे रिची रिच कोऑपरेटिव सोसाइटी को दो करोड़ में बेचकर अपनी तिजोरी का वजन बढ़ा लिया। वन विभाग की यह जमीन कृषि भूमि थी, लेकिन घोर आश्चर्य युक्त हकीकत यही है कि कुछ ही दिनों में तत्कालीन पुणे संभागीय आयुक्त राजीव अग्रवाल, कलेक्टर विजय माथनकर और वन संरक्षक अशोक खडसे ने यह प्रमाणित करने में किचिंत भी विलंब नहीं किया कि, यह कीमती तीस एकड़ भूमि गैर कृषि जमीन है। यानी इस पर मनचाही भव्य परियोजना को साकार कर अरबों-खरबों रुपये कमाने की खुली छूट है।

देश के मुख्य न्यायाधीश माननीय भूषण गवई ने पद ग्रहण करने के तुरंत बाद अपने पहले फैसले में इस जमीन को वन विभाग को वापस करने का निर्देश देकर राजनीति को धंधा बनाने वाले नेता नारायण राणे को तीखा झटका दे दिया। इसके साथ ही उनके भ्रष्टतम काले पन्ने पर मुहर लगाकर देशवासियों को सचेत होने का संदेश दे दिया है। नारायण राणे के प्रति मैं लाख चाहकर भी चोर, डाकू, धूर्त, बेईमान, शातिर जैसे तीखे शब्दों का इस्तेमाल करने से बच रहा हूं, क्योंकि वे माननीय सांसद हैं। उन्हें लाखों स्त्री-पुरूषों, युवक, युवतियों ने अपना कीमती वोट देकर सांसद बनाया है। नारायण राणे ने चिकन शॉप से राजनीति का जो सफर तय किया है वह भी किसी दृष्टि से सराहने के लायक तो नहीं है, लेकिन लोकतंत्र में जिसे भी वोटर मालामाल कर देते हैं वही साहूकार हो जाता है। वोटरों की इसी नादानी की वजह से ही नालायक से नालायक चेहरे विधायक और सांसद बनते चले आ रहे हैं। भारत में जो भी शख्स चुनाव में बाजी मार लेता है, उसके लिए सरकारी जमीनें पाना और हथियाना बहुत आसान और जन्मसिद्ध अधिकार हो जाता है। देश की संपत्ति को अपने बाप-दादा की जागीर समझने वाले नेता हर राजनीतिक पार्टी में हैं। किसी में ज्यादा तो किसी में कम। कांग्रेस के शासन में तो अदना-सा बंदा भी विधायक बनते ही स्कूल-कॉलेज के लिए करोड़ों की सरकारी जमीन मुफ्त में पाने का हकदार हो जाता था। महाराष्ट्र में तो शायद ही कोई कांग्रेसी नेता होगा, जिसने सरकारी जमीनें नहीं हथियायी होंगी। जमीनखोर, विधायकों, सांसदों की खोजी निगाहें उन जमीनों पर टिकी रहती है, जो स्कूलों, बाग-बगीचों, अस्पतालों, पुस्तकालयों आदि के लिए निर्धारित होती हैं, लेकिन अपने पद और पहुंच का फायदा उठाकर चुटकी बजाते ही उन्हें अपने नाम करवा लिया जाता है। इस छल-कपट के धूर्त-कर्म में उच्च सरकारी अधिकारी उनका पूरा साथ भी देते हैं और उन जमीनों का अता-पता भी बताते हैं, जिन्हें हथिया कर अपने बाप की जागीर बनाया जा सकता है। कुछ नेता तो लूट और बेशर्मी की सभी हदें पार करने में भी नहीं सकुचाते। उन्हें शहीद सैनिकों की जमीनें हथियाने में न संकोच होता है और न ही तनिक लज्जा आती है। 

महाराष्ट्र सरकार ने युद्ध में शहीद हुए सैनिकों और रक्षा मंत्रालय के कर्मचारियों को सिर ढकने के लिए छत दिलाने के लिए मुंबई के कोलाबा में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी का निर्माण किया था, लेकिन नियमों को ताक में रखकर इस सोसाइटी के अधिकांश फ्लैट नेताओं तथा अफसरों को बेहद कम कीमत में दे दिये गए। जांच में पाया गया कि 25 फ्लैट गैरकानूनी तौर पर आवंटित किये गए। इनमें से 22 फ्लैट फर्जी नाम से खरीदे गये। शहीदों के लिए बनाये गये फ्लैटों को झटकने वालों में प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख, सुनील कुमार शिंदे और शिवाजीराव निलंगेकर के नाम शामिल पाए जाने पर हंगामा मच गया था। लोगों ने ऐसे कपटी, लालची नेताओं की जात पर बार-बार थू...थू की थी। प्रमुख घोटालेबाज प्रदेश के मुखिया अशोक चव्हाण को इस्तीफा देकर अपने घर में बैठना पड़ा था।

सरकारी जमीनों को औने-पौने दाम में हथियाने के लूटकांड में कई बड़े-बड़े अखबार मालिकों की शर्मनाक भूमिका की ज्यादा चर्चा नहीं होती। देश में जितने भी नामी-गिरामी अखबार वाले हैं, उनमें शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने सरकार से करोड़ों की जमीनें कौड़ियों में न पायी हों। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले कई अखबारीलाल ऐसे हैं, जिन्होंने सरकार से बेतहाशा जमीनें तो लीं अपने अखबार की प्रिंटिंग प्रेस और कार्यालय के लिए, लेकिन उन्होंने उनके अधिकांश हिस्से पर दुकानें और फ्लैट बना उन्हें मोटे किराये पर देकर खूब चांदी काटी है। कुछ शातिर मीडिया वालों ने सत्ताधीशों की चापलूसी कर यह दर्शाते हुए हजारों वर्गफुट जमीन की सौगात पाने में सफलता पायी और पाते चले आ रहे हैं कि हम तो बेघर है। हमें सिर ढकने के लिए सरकार मदद नहीं करेगी तो कौन करेगा। ध्यान रहे कि वास्तव में लोकतंत्र के चौथे खम्भे की गाड़ी को चलाने और दौड़ाने में जमीनी श्रमजीवी पत्रकारों का ही प्रमुख योगदान होता है। लेकिन उन्हें सजग और निर्भीक पत्रकारिता के लिए कई तरह के खतरे उठाने और खून-पसीना बहाने के बाद भी किराये के छोटे-मोटे घरों में उम्र बीतानी पड़ती है। 

मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई ने राजनेताओं, बिल्डरों और प्रशासनिक अधिकारियों के आपसी गठजोड़ को लेकर फटकार लगाते हुए कहा है कि, वन विभाग की 30 एकड़ जमीन बिल्डर को देने का निर्णय इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि किस तरह से यह लोग देश के साथ धोखाधड़ी करते चले आ रहे हैं। देशभर में फैली लुटेरों और डकैतों की टोली में रेलवे, सेना और अन्य सरकारी विभागों की जमीनों को हड़पने की प्रतिस्पर्धा चलती चली आ रही है। अपने निजी स्वार्थ के लिए झुग्गी-झोपड़ी की कतारें लगवाने और जगह-जगह अवैध कब्जे करवाने वाले सत्ताधीशों, नेताओं की नकेल हर हाल में कसी जानी जरूरी है। सीजेआई भूषण गवई आम लोगों की समस्याओं से बहुत गहराई से वाकिफ हैं। उनका मानना है कि जजों को समाज की जमीनी सच्चाई समझकर फैसले देने चाहिए। केवल कानून की किताबों के सफेद-काले अक्षरों के आधार पर नहीं। देश के 52वें चीफ जस्टिस भूषण गवई के पिता रामकृष्ण सूर्यभान गवई एक जाने-माने आंबेडकरवादी नेता और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापक थे। उन्हें बिहार, केरल और सिक्किम का राज्यपाल बनने का गौरव भी हासिल हुआ था। वे वकील बनना चाहते थे, लेकिन समाजसेवा में सक्रिय होने के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो पाया। हालांकि उनके सुपुत्र ने उनका हर सपना पूरा कर दिखाया है और अब देशवासियों के सपनों का पूरा करने की जिम्मेदारी है।

Thursday, May 15, 2025

भारत माता की जय

नागपुर से दिल्ली की रेलयात्रा के दौरान उम्रदराज अब्दुल भाई से मेल-मुलाकात हुई। अब्दुल भाई वर्षों से रामनामी दुपट्टा बना कर बेचते चले आ रहे हैं। सनातन आस्था के सबसे बड़े समागम महाकुंभ के मेले में उन्होंने रामनामी दुपट्टे बेचकर लाखों रुपये की कमाई की। अब्दुल भाई के बनाये दुपट्टे देश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में पहुंचने वाले श्रद्धालु निशानी के तौर पर ले जाते हैं। प्रयागराज में भी अनेकों लोगों ने अब्दुल भाई के बनाये दुपट्टे खुशी-खुशी खरीदे और अपने-अपने शहर-गांव में जाकर रिश्तेदारों तथा मित्रों को भेंट स्वरूप दिए। अब्दुल भाई बलिया के निकट स्थित जिस गांव में रहते हैं, वह हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है। इस गांव में एक साथ मंदिर, मस्जिद और मजार बने हुए हैं। हिंदु और मुस्लिम में कोई भेदभाव नहीं है। हिंदू और मुस्लिम एक साथ मिलकर यहां सभी त्योहार मनाते हैं। यहां मुस्लिम के किसी भी कार्यक्रम में हिन्दू और हिंदू के कार्यक्रम में मुसलमान खुशी-खुशी शामिल होकर आपसी प्रेम और सद्भाव को साकार करते हैं। यहां के स्त्री-पुरुषों, बच्चों, बूढ़ों का बस यही मानना है कि मंदिर और मस्जिद में कोई अंतर नहीं। दोनों ही आस्था और विश्वास के केंद्र हैं। किसी का भगवान मंदिर में तो किसी का भगवान मस्जिद में है। पहलगाम में हुई दिल दहला देने वाली घटना से अब्दुल भाई बेहद आहत हुए। उनका यह कहना भी मेरे मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गया कि देश के अस्सी प्रतिशत हिंदू-मुसलमान एकता के सूत्र से बंधे हैं। भारतवर्ष में पाकिस्तान की तुलना में अधिक मुसलमान रहते हैं। उनके लिए देश आपसी सद्भाव के शत्रुओं और इधर-उधर की खबरों के कोई मायने नहीं हैं। उनके लिए भारत के हिन्दू-मुसलमान न कल जुदा थे और न ही आज एक-दूसरे से अलग हैं। अपवाद अपनी जगह हैं। 

22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकवादियों के हमले में जिन 26 निर्दोष भारतीयों को अपनी जान गंवानी पड़ी, उन्हीं में शामिल थे भारतीय नौसेना के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल। शादी के महज छह दिन बाद अपने पति से हमेशा-हमेशा के लिए जुदा कर दी गई हिमांशी की पति के शव के साथ बैठी तस्वीर ने पत्थर दिल इंसान की आंखों को भी नम कर दिया। हिमांशी पर क्या बीती होगी उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इस वीर भारतीय नारी ने अपना सुहाग उजड़ने के चंद दिनों बाद यह कहा कि, ‘हम नहीं चाहते कि लोग भारतीय मुसलमानों या कश्मीरियों के खिलाफ जाएं। हम केवल और केवल शांति चाहते हैं। बेशक, हम न्याय चाहते हैं। जिन्होंने गलत किया है उन्हें अवश्य सजा मिलनी चाहिए।’ लेकिन किसी भी बेकसूर को मुसलमान होने की वजह से सताना और प्रताड़ित करना गलत है। एकाएक विधवा हुई हिमांशी से कल तक तो सभी सहानुभूति दर्शा रहे थे। उसकी तथा उसके पति विनय नरवाल की तस्वीर को सोशल मीडिया पर वायरल करते हुए तुरंत इंसाफ की मांग करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे, लेकिन जैसे ही हिमांशी का एकता और सद्भाव वाला बयान आया तो कुछ लोग नफरती भाषा का इस्तेमाल करते हुए उन्हें गंदी-गंदी गालियां देते हुए उनके देशप्रेम पर ही सवाल उठाने लगे!

आप्रेशन सिंदूर को अंजाम देकर भारत के वीर सैनिकों ने पाकिस्तान और पीओके में स्थित 9 आतंकी ठिकानों को तबाह कर दिया। बहुत सावधानी से विचार विमर्श के बाद भारत की फौलादी सेना ने 100 आतंकी मार गिराए और 40 सैनिकों को ढेर कर पाकिस्तान को आईना दिखा दिया। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध फिलहाल कुछ शर्तों के साथ स्थगित हो गया है। भारतीय सैनिकों को आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान के होश ठिकाने लगा दिये हैं। फिर भी कपटी, अहसान फरामोश पाकिस्तान का कोई भरोसा नहीं। कुत्ते की पूंछ से भी बदतर छवि वाले पाकिस्तान के हुक्मरानों का युद्ध लड़ने का नशा भारतीय सेना ने तीन-चार दिनों में उतार दिया। पहलगाम में घूमने के लिए पहुंचे पर्यटकों पर आतंकी हमले के बाद देश का जन-जन गुस्से की आग में जल रहा था। भारत से टकराव में पाक ने इतना कुछ खोया है कि उसे संभलने में कई साल लगेंगे। गुस्साये भारतवासी तो पाकिस्तान की पूरी तबाही के इंतजार में थे। एक जंग सीमा पर लड़ी जा रही थी और दूसरा महायुद्ध आम नागरिकों के दिलो-दिमाग में चल रहा था। जिस पर अभी तक विराम नहीं लगा है। 

कई भारतीय मानते हैं कि पाकिस्तान को नेस्तनाबूत करने के मौके को गंवा दिया गया है। सोशल मीडिया पर अपने दांव पेंच दिखाने वाले कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने नरेंद्र मोदी को कमजोर प्रधानमंत्री दर्शाने का अभियान चला रखा है। इसी के लिए वे जन्मे और जिन्दा हैं। उन्होंने मोदी की तुलना में इंदिरा गांधी को शक्तिशाली बताते हुए उनकी वो चिट्ठी भी वायरल कर दी, जो 1971 की लड़ाई के समय तब के अमेरिकी राष्ट्रपति को लिखी थी, जिसमें उनके दिए गए युद्ध विराम के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। पाकिस्तान के साथ युद्ध स्थगित होने के बाद कांग्रेस के कुछ नेताओं के तेवर बदलने में किंचित भी देरी नहीं लगी। वो इंदिरा गांधी के तराने गाते हुए याद दिलाने लगे कि, इंदिरा गांधी के दम का ही प्रतिफल था कि 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के 93 हजार से ज्यादा सैनिकों ने भारत के सामने आत्मसमर्पण करने को विवश होना पड़ा था। उस बहादुर नारी ने ही उस समय बांग्लादेश बनवाने का साहस दिखाया था। जवाब में अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने के रोगी कांग्रेसियों को यह भी याद दिलाया जा रहा है कि इंदिरा गांधी के समय सेना ने जो युद्ध में हासिल किया था, उसे शिमला समझौते में गंवा भी तो दिया था। यह हिंदुस्तान है। यहां आरोप-प्रत्यारोप की हवा और आंधी-तूफान तो चलते ही रहते हैं। कुछ लोगों की रोजी-रोटी इसी की बदौलत चलती है। मोदी अमेरिका के दबाव में आए या उसके सुझाव को स्वीकारा, इसका भी उत्तर आने वाला वक्त दे ही देगा, लेकिन एक सच यह भी जान लें कि, यदि युद्ध पर विराम नहीं लगता और बात परमाणु युद्ध तक पहुंच जाती तो दोनों देशों में तबाही मच जाती। कम-अज़-कम दोनों देशों में दस-बारह करोड़ इंसानों की तुरंत मृत्यु हो सकती थी। असंख्य लोगों के अंधे, बहरे और अक्षम होने के साथ-साथ जलवायु इतनी विषैली हो जाती, जिससे जिन्दा बचे इंसानों और जीव-जंतुओं का ढंग से सांस लेना और जीना बेहद मुश्किल हो जाता। ऐसी भयावह स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने तथा देश को बार-बार भ्रमित करने वाले आतंकीस्तान के शुभचिंतक काले कोट धारी, विदेशी फंड से पल रहे बहुरुपियों पत्रकार, संपादक, नेता और तथाकथित समाज सेवक मोदी को ही करोड़ों लोगों का हत्यारा घोषित कर सड़कों पर नंग-धड़ंग नाचते हुए तबला बजाते। कई तो भारत से ज्यादा पाकिस्तान में हुई मौतों और तबाही पर छाती पीटते हुए मातम मनाते नज़र आते। जिसका जो पेशा है, उसे वह कैसे छोड़ सकता है? देश को तोड़ने वाली ताकतें कितना भी जोर लगा लें लेकिन सफल नहीं हो सकतीं। भारतीय सेना का विश्व में कोई सानी नहीं। सभी भारतीय उसके हौसले, समर्पण के प्रति नतमस्तक हैं। प्रदेश के सजग, संवेदनशील कवि, गज़लकार अविनाश बागड़े की लिखी इन पंक्तियों के साथ जय हिंद, वंदेमातरम...

‘‘थे सेना के संग खड़े,

देने को आधार।

जन-जन का है मान रही,

भारत माँ आभार॥

भले अचानक बंद हुआ,

जिस कारण भी युद्ध।

मगर एकता देश की

स्वयं सिद्ध साकार॥

Thursday, May 8, 2025

कुत्ते की पूंछ

कुछ समझ में नहीं आ रहा। अधिक सोचो तो सिरदर्द। गंदी-गंदी गालियां बकने वालों को कल तक दुत्कारा जाता था। उन्हें अपने पास भी नहीं फटकने दिया जाता था, लेकिन आज गालीबाज विधायक और सांसद बन रहे हैं। गली-कूचों और महफिलों में सराहे जा रहे हैं। उनको सुनने के लिए खूब भीड़ जुटती है। टिकटें भी बिकती हैं। व्यंग्य और हास्य की जगह अश्लीलता, फूहड़ता और निर्लज्जता ने मंचों पर अंगद के पांव की तरह कब्जा कर लिया है। लोकगीतों के नाम पर भी कैसी-कैसी करतबबाजी हो रही है! 

कई लुच्चे-लफंगे और लफंगियां पैरोडी करते-करते खुद को निर्वस्त्र करने का मज़ा ले रहे हैं। जिनकी दो टक्के की औकात नहीं वे अपने ही देश के कर्मठ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अपमानजनक शब्दावली का इस्तेमाल कर अपना बौनापन छिपाने की कवायद में तल्लीन हैं। अफसोस तो यह भी है कि इन्हें उत्साहित करने के लिए कुछ ‘महान’ तालियां पीट रहे हैं। खून के रिश्तों का मज़ाक उड़ाने वाले टुच्चों-लुच्चों को लाखों रुपये देकर यू-ट्यूब वाले क्यों उनका मनोबल बड़ा रहे हैं? बीते दिनों स्टैंडअप कॉमेडी शो ‘इंडियाज गॉट लैटेंट’ में बदतमीज़ यू-ट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया ने एक प्रतियोगी से बेहद अश्लील और गंदा सवाल कर डाला, ‘‘क्या आप अपने माता-पिता को अपने जीवन के बाकी हिस्से के लिए हर दिन सेक्स संबंध बनाते हुए देखेंगे या एक बार इसमें शामिल भी हो जाएंगे और हमेशा के लिए इसे रोक देंगे?’’ देश और दुनिया के हर मां-बाप के पवित्र रिश्ते और अंतरंंग संबंधों को कलंकित करने वाली यह गंदी अश्लील सोच जैसे ही लोगों तक पहुंची तो वे आगबबूला हो गए। गुस्सायी भीड़ इस धरती की सबसे निर्लज्ज पैदाइश का जूतों से पीटने के लिए जहां-तहां तलाशने लगी। मुंबई, दिल्ली, इंदौर, कोलकाता और गुवाहाटी समेत कई शहरों में इस लफंगे के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी गई। प्रतिष्ठित हस्तियों का अपने शो में अपमानित करने वाला इलाहाबादिया यू-ट्यूब से हर माह लगभग 60 लाख रुपये पाता है। उसकी नेटवर्थ 60 करोड़ से अधिक है। उसकी नीच सोच और टिप्पणियों को सुनने और जुटने वाले बेशर्मों की अच्छी खासी तादाद है।

लगता है कि वो जमाना अब बीतने के कगार पर है, जब कॉमेडीयन का नाम लेते ही उस कलाकार का चेहरा आंखों के सामने थिरकने लगता था, जो अपनी भिन्न-भिन्न अदाओं और बोलने-बतियाने के तौर तरीकों से उदासी में भी खुशी के रंग भर देता था। रुआंसे चेहरे भी खिलखिलाने लगते थे। लोग उसकी मनोरंजित करने की कला को वर्षों तक याद रखते थे। व्यंग्य एक परिपूर्ण साहित्यिक विधा है, जिसमें उपहास, मजाक और आलोचना का सात्विक मिश्रण होता है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के अनुसार व्यंग्य लेखन एक गंभीर कर्म है। सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है। विश्व विख्यात हास्य कवि काका हाथरसी का मानना था कि हास्य और व्यंग्य एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं। हास्य के बिना व्यंग्य में मजा नहीं और व्यंग्य के बिना हास्य बेमज़ा हो जाता है। दोनों बराबर एक दूसरे का साथ दें, तभी जन-गण-मन के मनोरंजन की गाड़ी प्रभावी तरीके से चलती है, लेकिन इन दिनों कॉमेडी, व्यंग्य और हास्य के मंचों पर अथाह अश्लीलता और तयशुदा हस्तियों को अपमानित करने की प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है। कुछ कॉमेडियन तो बाकायदा उन हस्तियां पर गंदी-गंदी उक्साऊ, भड़काऊ टिप्पणियां करते देखे जा रहे हैं, जिनके कद तक पहुंचना उनकी औकात में ही नहीं। फिर भी बेवजह खुन्नस निकाल कर अपनी खिल्ली उड़वा रहे हैं। धन लेकर कीचड़ उछालने का खेल खेलने वाले कुणाल कामरा नामक स्टैंडअप कामेडियन की दो टक्के की पूछ परख नहीं, लेकिन वह बड़े-बड़े प्रतिष्ठित नेताओं का मज़ाक उड़ाता रहता है। इसी से इसकी रोजी-रोटी चलती है। खरीदे हुए दर्शकों की तालियों से इसकी छाती चौड़ी हो जाती है। इसी बिकाऊ कॉमेडियन ने बीते माह इस पैरोडी के माध्यम से टोपी उछालने की जो दुष्टता की, वही उस पर अंतत: भारी पड़ गई,

‘‘ठाणे की रिक्शा

चेहरे पर दाढ़ी

आंखों पर चश्मा हाय!

एक झलक दिखलाए कभी 

गुवाहाटी में छिप जाए।

मेरी नज़र में तुम देखों गद्दार नजर वो आए

मंत्री नहीं है, वो दल बदलू है 

और कहा क्या जाए।

जिस थाली में खाये

उसमें ही छेद कर जाए।’’

फिल्म ‘दिल तो पागल है’ के गीत की उपरोक्त पैरोडी में कामरा ने भले ही किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन सजग लोगों को कामरा की ओछी नीयत को गहराई तक जानने-समझने में किंचित भी देरी नहीं लगी। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान उपमुख्यमंत्री को निशाना बनाकर की गई इस भद्दी अपमानजनक अक्षरावली से आगबबूला होकर शिवसैनिकों ने उस स्टुडियो में जमकर तोड़फोड़ कर डाली, जहां शो की शूटिंग की गई थी। कला के नाम पर ऐसी अभद्रता, कमीनगी, लुच्चागिरी और बदमाशी यकीनन अक्षम्य है। मंच पर खड़े होकर किसी व्यक्ति विशेष के शरीर से लेकर निजी जीवन पर भड़काऊ प्रहार करना व्यंग्य नहीं भड़वागिरी है। कॉमेडी के नाम पर यही काम और शरारत पर शरारत तो पिछले कई दिनों से नेहा ठाकुर नामक लोकगायिका भी करती चली आ रही है। जब देखो तब प्रधानमंत्री का मज़ाक उड़ाते हुए अपनी पीठ थपथपाने लगती है। दरअसल, इस नचनिया की डोर किसी और के हाथ में है। आसमान पर थूकने वाली यह बदतर गायिका भूल गई है कि वही थूक उसके चेहरे पर गिर रही है। जिसे वह बस चाटे जा रही है। पहलगाम में हुए आतंकी हमले को लेकर तो नेहा सिंह ने ऊल-जलूल पोस्ट की झड़ी लगा दी। राष्ट्रीय अखंडता को नुकसान पहुंचाने, सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने और देश की शांति भंग करने वाली नेहा की पोस्ट की दुश्मन देश पाकिस्तान ने तालियां बजा-बजाकर सराहना की। दुनिया की बहादुर नारी का खिताब तक दे डाला। पाकिस्तानी मीडिया ने भी उसकी खूब वाह-वाही की। देश के मान और सम्मान का हनन और पहलगाम में मारे गये पर्यटकों का अपमान करने वाली पोस्ट से आहत होकर देश के सजग कवि अमर प्रताप सिंह निर्भीक प्रचार की अपार भूखी-प्यासी नेहा सिंह के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया है। आतंकियों ने पर्यटकों को मारने से पहले उनका धर्म पूछा फिर उनके हिंदू होने पर गोलियों से भूना इस सच पर सवाल उठाने वाली हत्यारे, आतंकी पाकिस्तान की लाडली नेहा की तरह महाराष्ट्र के एक बड़बोले कांग्रेसी नेता विजय वडेट्टीवार ने भी अपनी राजनीति की दुकान चमकाने और खुन्नस निकालने के लिए नेहा की तर्ज पर दहाडते हुए कहा कि, आंतकियों के पास इतना वक्त ही कहां था जो पर्यटकों का धर्म पूछ-पूछ कर गोलियां चलाते। यानी पहलगाम में जिन पर्यटकों ने अपनों को गोली का निशाना बनते देखा वो झूठ बोल रहे हैं और ये खोखले बिकाऊ चेहरे सच्चे है? 

कानपुर के शुभम द्विवेदी की 12 फरवरी को शादी हुई थी। शुभम और उनकी पत्नी ऐशान्या बहुत उमंगो-तरंगो के साथ पहलगाम घूमने गये थे। आतंकी ने शुभम की गोली मारकर हत्या कर दी। ऐशान्या ने रोते हुए बताया कि, शुभम अपनी बहन के साथ बैठे थे, इसी दौरान एक शख्स आया और उसने पूछा हिंदू हो या मुसलमान? हम उसका मकसद नहीं समझ पाए और हंसने लगे। तभी मैंने कहा कि भैया हम मुसलमान नहीं है। मेरा इतना भर कहना था कि उसने बंदूक निकाली और शुभम के सिर पर गोली मार दी। महाराष्ट्र के शहर डोंबिवली के निवासी संजय लेले, हेमंत जोशी और अतुल माने को भी आतंकवादियों ने बेरहमी से मार डाला। प्रत्यक्षदर्शी संजय लेले के बेटे हर्षल ने बताया कि, हम सब दोपहर को बैसरन घाटी पहुंचकर हंसते-मुस्कुराते हुए तस्वीरें ले रहे थे। कुछ देर के पश्चात वहां एकाएक गोलियों की आवाज सुनाई दी। हमें लगा कि शायद पर्यटनस्थल में कोई गेम चल रहा होगा, लेकिन अचानक फायरिंग तेज हो गई। तभी दो आतंकवादी चिल्लाने लगे, ‘आप लोगों ने आतंक मचा रखा है, हिंदू और मुसलमान अलग-अलग हो जाओ। फिर तुरंत पापा, चाचा और मामा को गोली मार दी। मेरा हाथ पापा के सिर के पास था। गोली मेरे हाथ को छूकर निकल गई।’ यह समय तो एकता और एकजुटता का है, लेकिन कुछ नीच अपनी नीचता से बाज नहीं आ रहे हैं। खुद को कानूनी शिकंजे में फंसते देख नेहा ठाकुर उन वकीलों के दरवाजों पर माथा टेक रही है, जो आतंकवादियों की पैरवी करने के लिए कुख्यात हैं। यही कांग्रेस के नेता और खरबपति वकील ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे लगाने वाले कन्हैया कुमार की पीठ थपथपाने के लिए दौड़े-दौड़े चले आए थे।

Friday, May 2, 2025

हम सब एक हैं

प्रिय पाठको,

आपके स्नेह, अपनत्व, जुड़ाव और शुभकामनाओं की बदौलत महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय साप्ताहिक ‘राष्ट्र पत्रिका’ ने अपनी निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता की यात्रा के 17वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। जब ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन प्रारंभ किया गया था तब की और वर्तमान की स्थितियों, परिस्थितियों में काफी बदलाव आ चुका है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार और जनप्रियता की वजह से प्रिंट मीडिया के प्रति लोगों की अभिरूचि में कमी आयी है, वैसे इस कमी की शुरुआत तो कोरोना काल में ही हो गई थी, लेकिन फिर भी ‘राष्ट्र पत्रिका’ के पाठकों एवं शुभचिंतकों का काफी हद तक यथावत तक बने रहना हमारे मनोबल को सतत मजबूत बनाये हुए है। हमने सदैव आम जन के पक्षधर बने रहने का जो संकल्प लिया था उस पर आज भी कायम हैं और भविष्य में भी इन पंक्तियों के साथ अडिग रहने का हमारा अटल वादा है,

‘‘उजाला हो न हो

यह और बात है, 

हमारी आवाज तो 

अंधेरों के खिलाफ है।’’

गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, अशिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कभी आज भी देश की प्रमुख समस्या है। नौकरी के अभाव के चलते अपराधी और अपराधों का पनपना देश की चहुंमुखी तरक्की में बाधक बना हुआ है। आम आदमी की खून-पसीने की कमायी महंगाई के समक्ष बौनी होती चली जा रही है। गरीब परिवारों के लिए अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए जो पापड़ बेलने पड़ रहे हैं उसकी पीड़ा वही जानते हैं। स्कूल, कालेजों की फीस आसमान छूने लगी है। धनपति तो बड़ी आसानी से अपने नालायक बच्चों को भी डॉक्टर, इंजीनियर, जज, कलेक्टर, कमिश्नर बनाने में सफल हो रहे है, लेकिन गरीबों के योग्य और परिश्रमी बच्चे छोटी-मोटी नौकरियां के कैदी बनकर रह गये हैं। देश के समक्ष आज और भी कई संकट सीना ताने खड़े हैं। कुछ विघटनकारी ताकतें हिंदुस्तान को तोड़ने के मसूंबो के साथ साजिशें रच रही हैं। उनका भाई से भाई को लड़ाने का इरादा कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इन दिनों भारत माता भीतरी और बाहरी षड़यंत्रकारियों की खूनी साजिशोेंं से आहत है। बीते हफ्ते जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादियों ने 28 निर्दोष भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया। पर्यटक जब खुशगवार मौसम का आनंद ले रहे थे, तभी वहां सेना की वर्दी में नकाब पहने आतंकवादी पहुंचे और उनका नाम और धर्म पूछ-पूछ कर उन्हें गोलियों से उड़ाने लगे। आतंकियों ने बहुत ही सोचे-समझे षडयंत्र के तहत इस कायराना हत्याकांड को अंजाम दिया। सभी देशवासी बहुत गुस्से में हैं। देश के कोने-कोने से पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाने की आवाज बुलंद की जा रही हैं। कश्मीर के आतंकी इतिहास में पहली बार देखा गया कि मस्जिदों से लाउडस्पीकर द्वारा ऐलान करके इस घिनौनी वारदात की निन्दा की गई और इसे इस्लाम के खिलाफ बताया गया। कश्मीर में जो कैंडल मार्च निकाले गए उसमें हजारों कश्मीरियों ने शामिल होकर आतंकवाद के खिलाफ नारे लगाये और पर्यटकों को अपनी रोजी-रोटी और भगवान बताया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी बड़े दु:खी मन से कहा कि पहलगाम में जोशो-खरोश के साथ घूमने आए मेहमानों के नरसंहार से वे आहत और अत्यंत शर्मिंदा है। इस आतंकी हमले पर हुई सर्वदलीय बैठक में भारतीय राजनीति की जो प्रभावी तस्वीर भी दिखी उसने सुखद एहसास करवाते हुए हर किसी को आश्वस्त कर दिया कि भारत के पक्ष और विपक्ष के नेता राजनीति से ज्यादा देश को अहमियत देते हैं। सभी दलों ने एक स्वर में सरकार से कहा कि, आतंक को मुंहतोड़ और निर्णायक जवाब देने के लिए जो भी जरूरी हो, तुरंत किया जाए। 

यह सच भी किसी से छिपा नहीं है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की गहरी खाई को खोदने की साजिशें होती रही हैं। मैंने अपनी पत्रकारिता के पचास वर्ष में अच्छी तरह से देखा और जाना है कि भाषा, धर्म, पहनावे रहन-सहन में अंतर के बावजूद हम सब भारतवासी एक हैं। हमारा ‘अनेकता में एकता’ के वाक्यांश पर जो भरोसा है। उसे तो सारी दुनिया ने समय-समय पर देखा और सराहा है। भारत माता पर जब भी कोई विपदा आती है तो सभी भारतीय तन-मन और धन से एकजुट हो जाते हैं। इसी एकजुटता और सतर्कता की बदौलत ही भारत ने हर जंग में धूर्त, कपटी, फरेबी पाकिस्तान को धूल चटाई है। इस बार भी यदि युद्ध होता है तो पाकिस्तान की हार और बरबादी निश्चित है। जम्मू-कश्मीर के मिनी स्विजरलैंड कहलाने वाले पर्यटन स्थल पहलगाम में खून-खराबा होने के पश्चात जो सन्नाटा छा गया था वह अब धीरे-धीरे दूर होने लगा है। हत्याकांड के सात-आठ दिन के अंतराल के पश्चात पहलगाम में पर्यटकों का वापस लौटना यही दर्शाता है कि हर भारतीय के सीने में सैनिक का दिल धड़कता है। जैसे-जैसे पर्यटकों की भीड़ बढ़ रही है उनके चेहरे पर निखार आ रहा है।

‘राष्ट्र पत्रिका’ के प्रकाशन काल ही मेें हमने यह भी कसम खाई थी कि चाहे कुछ भी हो जाए इसे किसी नेता, मंत्री राजनीतिक पार्टी, उद्योगपति, दल-बल और संकीर्ण सोच और धारणा का हिमायती नहीं बनने देंगे। देश में सर्वत्र अमन चैन, सद्भाव और भाईचारे को सतत बनाये रखने के लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए सदैव तैयार रहेंगे। झूठ और छल-कपट का पत्रकारिता से होने वाले नुकसान को भी हमने बहुत करीब से देखा और समझा है,

‘‘आग की झूठी गवाही जब भी अंगारों ने दी 

मौत की दस्तक हमारे दर पर हत्यारों ने दी’’

इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया भले ही पास और दूर की घटनाओं, वारदातों को पलक झपकते ही लोगों तक पहुंचा देते हैं, लेकिन जिस तरह से खबरों की तह तक पहुंचने के लिए प्रिंट मीडिया मेहनत करता है, वह गंभीरता न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया में बहुत कम नजर आती है। अखबार प्रदेश, देश, शहर और गांव की चेतना का हिस्सा हैं। जब चेतना मर जाती है तो अखबार भी मरने लगता है। सजग पाठक उससे दूरी बनाने लगतेे हैं। ‘राष्ट्र पत्रिका’ ने शहरी और ग्रामीण खबरों को निरंतर प्रकाशित करने के साथ-साथ खोजी रिपोर्टिंग को सदैव प्राथमिकता दी है। शोषित, दबे, कुचले, थके-हारे भारतीयों का बुलंद स्वर बनने की जिद ने ही ‘राष्ट्र पत्रिका’ को दूसरों से एकदम अलग और खास दर्जा दिलवाया है। अखबारी दुनिया की परंपरागत छवि को चुनौती देने वाले इस प्रगतिशील साप्ताहिक में विपरित परिस्थितियों से टकरा कर अपने मनोबल के दम पर बुलंदियों को छूने वाले आम और खास लोगों की खबरें और कहानियां बिना किसी भेदभाव के एक साथ जगह पाती हैं। वर्तमान में अधिकांश मीडिया तरह-तरह के लाछन और आरोपों के घेरे में है। अधिकांश भारतीय उसके पक्षपाती आचरण से अत्यंत चिंतित और दुखी हैं। जब भी कोई पत्रकारों और पत्रकारिता पर कीचड़ उछालता है तो मन आहत होता है, लेकिन सच तो, सच है। युवा कवयित्री भावना ने मीडिया के प्रति अपनी भावना को इन शब्दों में व्यक्त कर करोड़ों लोगों की सोच का चित्र प्रस्तुत किया है, 

‘‘दाने से मछलियों को लुभाता रहा

क्या हकीकत थी, क्या दिखाता रहा

था अजब उसके कहने का अंदाज भी

कुछ बताता रहा, कुछ छिपाता रहा।’’

दबाने और छिपाने की पत्रकारिता की वजह से पत्रकारों और संपादकों की ही नहीं संपूर्ण मीडिया की प्रतिष्ठा दांव पर लग चुकी है। कहावत है, मान-सम्मान नहीं तो कुछ भी नहीं...। इसलिए हम सबके लिए यह जागने और सतर्क होने का वक्त है...। महाराष्ट्र दिवस, श्रमिक दिवस और राष्ट्रपत्रिका की वर्षगांठ पर सभी पाठकों, संवाददाताओं, लेखकों, विज्ञापनदाताओं और एजेंट एवं बंधुओं को हार्दिक बधाई...शुभकामनाएं...अभिनंदन।

Thursday, April 24, 2025

काला-गोरा

 कुछ दिन पूर्व मैं अपने एक डॉक्टर मित्र के यहां बैठा था। तभी एक गोरी-चिट्टी महिला लगभग साल सवा साल के बच्चे को गोद में लेकर वहां पहुंची। वह काफी घबराई-घबराई-सी लग रही थी। मुझे लगा कि मासूम बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होगी, इसलिए मां चितिंत और परेशान है, लेकिन उसने जो समस्या बयां की, उससे हतप्रभ मैं उसे देखता रह गया। ‘‘डॉक्टर साहब, मेरे इस बच्चे का रंग बहुत काला है, प्लीज़ कोई ऐसी दवा या इंजेक्शन दीजिए, जिससे यह एकदम गोरा हो जाए। इसके लिए मैं कोई भी कीमत देने को तैयार हूं। देखिए न... मैं कितनी खूबसूरत हूं और इसके पिता भी गोरे-चिट्टे, हैंडसम हैं, लेकिन यह पता नहीं किस पर गया है। रिश्तेदार तथा यार-दोस्त भी इसके रंग पर जिस तरह से हैरत जताते हैं, उससे मुझे बहुत ठेस पहुंचती है। दु:खी और आहत मन को काबू में लाना मुश्किल हो जाता है।’’ बेचैन महिला की पीड़ा जानने के बाद डॉक्टर हल्के से मुस्कराए, फिर बोले, ‘‘काले को गोरा बनाने का अभी तक तो कहीं भी कोई इलाज ईजाद नहीं हो पाया है। वैसे भी यह कोई गंभीर समस्या नहीं है। इसलिए आप अपने बच्चे के रंग को लेकर चिंतित और परेशान होना छोड़ उसकी बेहतर परवरिश पर ध्यान देंगी तो यही बच्चा भविष्य में आपके परिवार का नाम ऐसा रोशन करेगा कि आप सबकुछ भूल जाएंगी। आपको पता होना चाहिए कि सांवले या काले रंग वाले बच्चों ने बड़े होकर कई क्षेत्रों में सफलता के नये-नये आयाम रचे हैं। आपने फिल्म अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की कोई न कोई फिल्म तो जरूर देखी होगी। दोनों को काले रंग का होने के कारण फिल्म निर्माता शुरू-शुरू में अपने पास फटकने ही नहीं देते थे, लेकिन इन्होंने जिद और जुनून का कसकर दामन थामे रखा। ऐसे में जब फिल्म मिली तो अपने अभिनय कौशल का ऐसा झंडा गाड़ दिखाया कि दुत्कारने वालों को भी शर्मसार होना पड़ा। मिठुन चक्रवर्ती ने तो अपनी पहली फिल्म ‘मृगया’ में प्रभावी अभिनय कर राष्ट्रीय पुरस्कार अपने नाम किया तो वहीं नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने भी देश और दुनिया में भरपूर नाम कमाया और पुरस्कार जीते। दोनों फिल्मी सितारे वर्षों से फिल्मी दुनिया में अपनी चमक-दमक बनाये हुए हैं। यह अलग बात है कि बॉलीवुड ने आज भी पूरी तरह से अपनी मानसिकता नहीं बदली है।’’ महिला डॉक्टर की बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद मुस्कराते हुए उठ कर चल दी। 

महिला के जाने के बाद मैंने अपने मित्र से प्रश्न किया कि उसे महिला को इतना सारा ज्ञान का डोज पिलाने की आखिर क्या जरूरत थी? सिर्फ यह कहकर उसे चलता किया जा सकता था कि, काले को गोरा बनाना किसी भी हालत में संभव नहीं। मित्र ने जो जवाब दिया उससे मैं चौंका। मेरी आंखें भी खोल दीं, 

‘‘अपने यहां ऐसे डॉक्टर भी भरे पड़े है, जो रईसों की जेबें काटने के लिए ही डॉक्टर बने हैं। यह सौदागर किस्म के चेहरे काले को गोरा बनाने के लिए तरह-तरह के कैप्सूल और इजेक्शन लगाकर मोटी फीस वसूल करते रहते हैं। मैं नहीं चाहता था कि यह महिला किसी ऐसे डॉक्टर के जाल में फंस कर लाखों रुपए लुटाए और अंतत: माथा पीटती रह जाए। मैं यह भी जानता हूं कि यह महिला इतनी जल्दी हार नहीं मानेंगी और पांच-सात डॉक्टरों के यहां जरूर जाएगी। मेरे यहां सांवली और काली त्वचा वाली बेटियों के मां-बाप भी अक्सर आते रहते हैं। उनकी बेचैनी तो और भी देखते ही बनती है। बेटी के काले रंग को गोरे रंग में तब्दील करवाने के लिए वे कोई भी कीमत देने को तत्पर नजर आते हैं। जिस बच्ची ने अभी चलना भी नहीं शुरू किया उसके वैवाहिक संबंधों को लेकर उनकी नींद उड़ी रहती है। अपने देश में काले या सांवले रंग की बेटियों के रिश्ते आसानी से तय नहीं होते। काले रंग के युवा भी गोरी युवती की ही चाहत रखते हैं। कई मां-बाप तो यह भी मानते हैं कि काले लड़के या लड़की की संतान भी गोरी जन्मने से रही। वे इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि गोरे मां-बाप को यदि तीन संताने हैं, तो सभी का रंग एक सा नहीं होता। किसी बच्चे का रंग काला या सांवला भी होता है। कुछ हफ्ते पूर्व केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन ने अपनी त्वचा को लेकर की जाने वाली टिप्पणियों और तानों को लेकर बहुत कुछ कहा और बताया। देश के सबसे शिक्षित राज्य केरल में रंग को लेकर ऐसा भेदभाव है तो दूसरे प्रदेशों के लोगों की सोच की बड़ी आसानी से कल्पना की जा सकती है। शारदा मुरलीधरन कहती हैं कि मैं अक्सर सोचती रह जाती हूं कि लोगों को काले रंग से इतनी चिढ़ क्यों है? काला, तो इस ब्रह्मांड की सर्वव्यापी सच्चाई है। यह काला रंग ही है, जो सब कुछ अपने भीतर समा लेता है। शारदा बताती हैं कि जब मैं चार साल की थी तो मां से बार-बार पूछा करती थी कि क्या मुझे अपनी कोख में दोबारा डाल सकती हैं और झक गोरा तथा सुंदर बनाकर निकाल सकती है? शारदा की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, अपने रंग की चिंता से मुक्त होती चली गईं। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई पर अपना संपूर्ण ध्यान केंद्रित रख उच्च शिक्षा प्राप्त की। उनकी योग्यता ने ही उन्हें वी.वेणु जैसे खूबसूरत शासकीय अधिकारी की जीवनसाथी बनने का सौभाग्य प्रदान किया। यह भी काबिलेगौर है कि अपने पति वी.वेणु के रिटायर होने के पश्चात शारदा केरल की मुख्य सचिव बनीं हैं। 

फिल्म अभिनेत्री नीना गुप्ता की पुत्री हैं, मसाबा गुप्ता। नीना गुप्ता ने विदेशी क्रिकेटर विवियन रिचर्ड से शादी किए बिना शारीरिक रिश्ता बनाते हुए मसाबा को जन्म दिया था, क्रिकेटर का रंग काला है। मोसाबा भी उसी पर गयी हैं। अब 35 वर्ष की हो चुकी हैं। अपना अच्छा खासा व्यवसाय है, लेकिन लोग अब भी काली कहकर नीचा दिखाने से बाज नहीं आते, लेकिन वह अपनी मस्ती में जीवन जीती हैं। फिल्म अभिनेत्री और निर्देशक नंदिता दास कहती हैं लोग उनकी त्वचा के रंग पर कटाक्ष क्यों करते हैं। मैंने फिल्मों में अभिनय करने के साथ-साथ निर्देशन भी किया है। मेरी प्रतिभा पर बोलने और लिखने की बजाय मेरे रंग पर जाने वालों पर अब तो मुझे दया आने लगी है। एक महत्वकांक्षी मॉडल-अभिनेत्री जो कभी विख्यात स्किन-व्हाइटनिंग क्रीम ब्रांड, दास ग्लो एंड लवली के विज्ञापनों में छायी रहती थी, उसी को हाल ही में एक टेलीविजन शो में मुख्य भूमिका से वंचित कर दिया गया, क्योंकि उसकी त्वचा का रंग काफी सांवला है, लेकिन उसे इसका कोई गम नहीं। वह अपने तरीके से जीने में यकीन रखती है। उसके लिए हर दिन जश्न है। जब कोई कटाक्ष करता है तो वह मुस्कुराते हुए इतना भर कह देती है, ये रंग मुझे अपने मां-बाप से मिला है, जिनकी तो मैं पूजा करती हूं...।

Thursday, April 17, 2025

रघु का सपना

चित्र - 1 : नेताजी दूसरी बार लोकसभा चुनाव में विजयी हुए। इस बार जीत का हार पहनने के लिए उन्हें ऐसे-ऐसे पापड़ बेलने पड़े, जिसकी उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी। उन्हें धूल चटाने के लिए सभी विरोधी दल एकजुट हो गये थे। उनका एक ही मकसद था कि नेताजी किसी भी हालत में सांसद न बन पाएं, लेकिन पिछले चुनाव की तरह इस बार भी धनबल ने अंतत: अपना चमत्कार दिखा ही दिया। उनके हजारों कार्यकर्ताओं की भीड़ ने भी कम दम नहीं लगाया। नेताजी ने अपने सभी कार्यकर्ताओं को उनकी हैसियत के अनुसार थैलियां थमाने में भरपूर दरियादिली दिखायी। इन कार्यकर्ताओं में विधायक और पार्षद भी शामिल थे, जिन्हें आगामी महानगर पालिका और विधानसभा के चुनाव में टिकट देने का आश्वासन देकर अपने खूंटे से ऐसे बांधा गया था, जैसे बैल और बकरी के सामने चारा डालकर उन्हें इधर-उधर न ताकने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। नेताजी की चुनावी जीत का जश्न चार दिन पहले मनाया जा चुका था। आज उनके केंद्रीय मंत्री बनने पर गुलदस्तों और मिठाई के डिब्बों के साथ कार्यकर्ताओं और तरह-तरह के लोगों का हुजूम कोठी को खचाखच कर चुका था। कुछ अतिउत्साही कार्यकर्ता कोठी की बाउंड्रीवॉल पर चढ़कर नेताजी के नाम का जयकारा लगा रहे थे। नेताजी के सुरक्षाकर्मी भीड़ को नियंत्रित और संयमित होने का अनुरोध कर रहे थे, लेकिन जीत का जोश उन्हें बेकाबू और बेचैन किये था। भीड़ को बार-बार यह भी बताया जा रहा था कि नेता जी आज सुबह ही मंत्री पद की शपथ लेकर दिल्ली से लौटे हैं। उन्हें तैयार होकर आने में कम अज़ कम दो घण्टे लग सकते हैं। जोश में मस्तायी भीड़ के लिए दो घण्टे दो मिनट समान थे। उसे इन्तजार करने और नारे लगाने की जन्मजात आदत थी। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, भीड़ को संभालना मुश्किल होता चला जा रहा था। शहर के जाने-माने-उद्योगपति, व्यापारी, ठेकेदार और अखबारों और न्यूज चैनलों के वो संपादक और मालिक, जिन्होंने नेता जी के आरती गान की सभी सीमाओं को लांघ कर पत्रकारिता और चापलूसी के अंतर की निर्ममता से हत्या कर दी थी, गुलदस्तों और हारों के साथ पहुंच चुके थे। कुछ तो पांच सौ और दो हजार के नोटों के हार भी लाये थे। उन्हें नेताजी के निजी कमरे में शोभायमान कर दिया गया था। उनके लिए किशमिश, काजू-बादाम के साथ-साथ तरह-तरह के पेय पदार्थों की भी व्यवस्था थी। 

नेताजी की एक झलक पाने को लालायित भीड़ का साम्राज्य कोठी के सामने की मुख्य सड़क पर भी अपना कब्जा जमाने लगा था। इस भीड़ में पसीने से तरबतर रघु भी खड़ा था। उसके हाथ में एक बड़ा गुलदस्ता था। चार दिन पहले नेताजी के जीतने की खुशी में मनाये गये जश्न की भीड़ में भी रघु शमिल हुआ था, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी उसका नेताजी के निकट जाना संभव नहीं हो पाया था। रिक्शा चालक रघु उस दिन तो खुशी से फूला नहीं समाया था, जब उसकी जर्जर झोपड़ी में नेताजी के चरण पड़े थे। उनके साथ क्षेत्र के पार्षद तथा कई और पार्टी कार्यकर्ता थे, जिन्हें रघु अच्छी तरह से पहचानता था। पार्षद ने रघु की तारीफ करते हुए नेताजी को बताया था कि यह बंदा बड़े काम का है। झोपड़पट्टी के सभी लोग इसी के इशारे पर चलते हैं। यह जिसे वोट देने को कहेगा उसी को उनके वोट मिलेंगे। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई थी। उन्होंने झट से रघु से हाथ मिलाया था। पीठ भी थपथपायी थी। उनके साथ आये एक कार्यकर्ता ने चुपके से पांच-पांच सौ के दस नोट उसकी तरफ बढ़ाये थे, जिन्हें रघु ने यह कहते हुए लेने से इन्कार कर दिया था कि मैंने कभी भी अपना वोट नहीं बेचा। वोट बेचने वालों से मैं नफरत करता हूं। नेताजी उसका चेहरा देखते रह गये थे। उन्होंने जाते-जाते कहा था कि तुम्हारे जैसे ईमानदार वोटरों की बदौलत ही मैंने पिछला चुनाव जीता था। इस बार भी कोई माई का लाल मुझे हरा नहीं सकता। पिछली बार की तरह इस बार भी मेरा मंत्री बनना तय है। चुनाव का परिणाम आने के पश्चात तुम मुझसे जरूर मिलना। तुम सभी झोपड़पट्टी के निवासियों के लिए शीघ्र ही पक्के घरों की व्यवस्था करवा दूंगा।

गर्मी की तपन बढ़ती जा रही थी। रघु का दम घुटने लगा था। उसके कपड़े पसीने से गीले होकर उसके बदन से चिपक गये थे। एकाएक रघु पर उसी की झोपड़पट्टी में रहने वाले विद्रोही नामक पत्रकार की नजर पड़ी तो उसने रघु पर सवाल दागा कि क्या तुम भी नेताजी को उनका वादा याद दिलाने आये हो? रघु हैरान होकर पत्रकार को देखता रह गया। फिर पत्रकार ने बताया कि वोट हथियाने के लिए मतदाताओं से तरह-तरह के वादे करना और मनमोहक प्रलोभनों के जाल फेंकना तो नेताजी का पुराना पेशा है। वोटरों को बेवकूफ बनाने की इसी कला की बदौलत ही तो आज वे सत्ता की बुलंदियों पर हैं। इस भीड़ में तुम जैसे हजारों लोग शामिल हैं, जो नेताजी से मिलने की आस में पहुंचे हैं। चुनाव जीतने के बाद नेताजी को अपने खास लोगों के काम करवाने और उन्हें मालामाल करने से कभी फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में वे तुम जैसे आम लोगों से क्या खाक मिलेंगे! रघु पत्रकार का चेहरा देख रहा था और पत्रकार खिलखिला रहा था। उनकी बातचीत चल ही रही थी कि वहां पर पुलिस वाले भीड़ को खदेड़ने लगे। नेताजी अपने खास लोगों से मेल-मुलाकात करने के बाद सुरक्षाकर्मियों के घेरे में कोठी से निकले और अपनी चमचमाती कार में बैठकर फुर्र हो गये। रघु को बड़ा गुस्सा आया। उसने गुलदस्ते को तोड़ा-मरोड़ा और वहीं सड़क पर फेंक दिया। यह देश के नब्बे प्रतिशत से अधिक नगरों, महानगरों और वहां के जनप्रतिनिधियों की कड़वी हकीकत है इसलिए किसी एक शहर और नेता का नाम लिखना बेमानी है।

चित्र - 2 : अपने देश में विधायक और सांसद का चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं। अथाह धन लुटाने के बाद भी जीत हासिल हो, ऐसा कोई दावा नहीं किया जा सकता। रघु ने कई जमीनी नेताओं को विधायक और सांसद बनते देखा है। चुनाव जीतने के पश्चात जमीन की बजाय आकाश में उड़ने वाले अधिकांश नेताओं की असली फितरत से रघु खूब वाकिफ है। उसने कई नेताओं को अपने रिक्शे पर बैठाकर यहां-वहां घुमाया है। उसने फटेहाल नेताओं को विधायक, सांसद बनने के बाद करोड़ों में खेलते देखा है। उसे यह जानकर हैरानी होती है कि प्रदेश के कुछ नेता हजारों करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं। यह सारी धन-दौलत उन्होंने विधायक, सांसद और मंत्री बनने के बाद जुटायी है। शहर के कुछ नेता भी उनका अच्छी तरह से अनुसरण कर रहे हैं। किसी अनपढ़ विधायक को मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज चलाते देख अब उसे कोई हैरानी नहीं होती। हां, पहले जरूर होती थी। शहर में कुछ नेता ऐसे भी हैं, जिन्होंने चुनाव जीतने के बाद धड़ाधड़ सरकारी जमीनें अपने नाम करायीं और स्कूल, कॉलेज और शराब के कारखाने तान दिए। करोड़ों की जमीने कौड़ी के मोल हथियाने वाले नेताओं में कुछ तो ऐसे हैं, जिनके विभिन्न शहरों में पचासों स्कूल कॉलेज हैं। इन कॉलेजों में गरीब आदमी के बच्चों को प्रवेश ही नहीं मिलता। खुद रघु इसका भुग्तभोगी है। उसके बेटे को योग्य होने के बावजूद मंत्री जी के मेडिकल कॉलेज में दाखिला इसलिए नहीं मिला था, क्योंकि उसकी पचास लाख रुपए डोनेशन देने की औकात नहीं थी। रघु ने मंत्री महोदय की उन दिनों की याद भी दिलायी थी जब वे फटेहाल उसके रिक्शे की सवारी किया करते थे! आज कई कारों और कोठियों के मालिक बन चुके नेताजी बस मुस्कराते रह गए थे। अपने इकलौते बेटे को डॉक्टर बनाने का रघु का सपना धरा का धरा रह गया। कुछ महीने पहले ओडिशा के बालासोर लोकसभा क्षेत्र से सांसद बने प्रताप चंद्र सारंगी शहर में आये हुए थे। रघु ने ही उन्हें शहर घुमाया था। उनका लिबास और व्यवहार देखने के बाद रघु सोचता रह गया था कि कोई सांसद इतना सहज और सरल भी हो सकता है। उसे यह जानकर हैरत हुई थी कि सारंगी ने चुनाव में एक पैसा भी खर्च नहीं किया और करोड़पति को मात दे दी। सारंगी दो बार विधायक भी रह चुके हैं। अपना एक साप्ताहिक अखबार निकालते है, जिसमें आम आदमी की समस्याओं को निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ उठाया जाता है। गांव और शहर की गलियों में पैदल घूमते हैं। चुनाव लड़ने से पहले जिस मिट्टी और बांस के कच्चे घर में रहते थे। वह आज भी जस का तस है। उनके घर के दरवाजे चौबीसों घण्टे सभी के लिए खुले रहते है। उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में कई स्कूल और अस्पताल बनवाये हैं, जहां मुफ्त शिक्षा और इलाज की सुविधा उपलब्ध है। लोकसभा चुनाव जीतकर जब सारंगी संसद भवन पहुंचे थे तब हर कोई इन्हे देखने और मिलने को आतुर था। उनकी ईमानदारी और सादगी को देखते हुए पहली बार सांसद बनने पर भी उन्हें मंत्रिमंडल में जगह दी गई। जब उन्होंने मंत्रीपद की शपथ ली तब तालियां थमने का नाम नहीं ले रही थीं। रघु कहता है कि शहर के अधिकांश नेताओं ने भले ही कितनी-कितनी काली माया बटोर ली हो, लेकिन सारंगी जैसा मान-सम्मान उनके नसीब में नहीं। बेइमानों का लोग भले ही ऊपर-ऊपर से सजदा करते हैं, लेकिन पीठ पीछे भद्दी-भद्दी गालियों से नवाजते हैं। रघु वर्षों से सपना देखता आ रहा है कि, उसके शहर में भी सारंगी जैसा कोई शख्स विधायक और सांसद बने जो हर आम आदमी के सुख-दु:ख का सच्चा साथी हो...।

Thursday, April 10, 2025

अपना-अपना सफरनामा

चित्र-1 : उसने एमए किया था। मां-बाप को यकीन था कि बेटा शीघ्र अच्छी नौकरी हासिल करेगा। सभी तकलीफें दूर हो जाएंगी। उनकी तपस्या रंग लाएगी। उसे शिक्षित करने के लिए उन्होंने साहूकार से अच्छा-खासा लोन लिया था। कर्जे की वसूली के लिए उसने बार-बार घर में दस्तक देनी शुरू कर दी थी। उन्होंने जवान बेटे की किसी अच्छी गुणवान लड़की से शीघ्र शादी करने की पुख्ता योजना भी बना ली थी, लेकिन काफी प्रयास के बाद भी बेटे को मनचाही नौकरी नहीं मिल पायी। उसके चचेरे भाई को बीए पास करने के बाद ज्यादा हाथ पैर नहीं मारने पड़े थे। उसे शहर की विख्यात रेडिमेड कपड़े की दुकान पर हाथों-हाथों सेल्समैन की नौकरी मिलने से उसके परिजन खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। फर्स्ट डिविजन से एमए करने वाले युवक को लगातार मानसिक तनाव में रहना पड़ रहा था। वह ऐसी-वैसी जगह पर नौकरी नहीं करना चाहता था। उसकी तो बस सरकारी नौकरी कर मज़े से दिन काटने की चाह थी। एक दिन की सुबह जब वह काफी देर तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकला तो मां-बाप ने दरवाजा खटखटाया, काफी हो-हल्ला भी मचाया, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। आखिरकार पड़ोसियों के सहयोग से दरवाजे को तोड़ा गया। अंदर युवक का शव फांसी पर लटका मिला। बिस्तर पर जो सुसाइड नोट मिला, उसमें लिखा था, कई महीनों तक चप्पलें घिसने के बाद भी सरकारी नौकरी नहीं मिली। उस पर परिजनों के असफल और नकारा होने के तानों ने मेरा जीना दूभर कर दिया है। इसलिए मैंने मर जाना ही उचित समझा। युवक ने खुदकुशी करने के दौरान अपने मोबाइल में तीन घंटे का वीडियो भी बनाया, जिसमें उसकी अपनी ही हत्या करने की हकीकत रिकार्ड हो गई। अच्छे खासे हट्टे-कट्टे युवक की खुदकुशी से घर में कोहराम मच गया। माता-पिता रो-रोकर कर बेहाल हैं।

चित्र-2 : प्रशांत हरिदास, राजधानी दिल्ली का निवासी है। सरकारी, अर्ध सरकारी और प्राइवेट कार्यालयों के चक्कर काटते-काटते थक गया, लेकिन नौकरी नदारद। निराशा और हताशा ने जब लस्त-पस्त कर दिया उसने खुद के लिए एक शोक संदेश पोस्ट कर दिया। इसमें उसने अपनी तस्वीर पर ‘रेस्ट इन पीस’ लिखते हुए नौकरी की तलाश में मिली हताशा और निराशा का खुलकर वर्णन करते हुए स्पष्ट किया कि, भले ही उसकी नौकरी पाने की कोशिशें रंग नहीं लाईं, लेकिन फिर भी उसने किसी भी तरह से खुद को चोट पहुंचाने की कभी नहीं सोची। मैं खुद को उन लोगों में शामिल कर भगौड़ा और कायर नहीं कहलाना चाहता, जो विपरीत परिस्थिति से घबराकर खुदकुशी कर लेते हैं। अभी मेरी उम्र ही क्या है। मुझे कई वर्षों तक जीते हुए तरह-तरह के खाने का स्वाद चखना है। देश और दुनिया में घूमने फिरने की कई जगहें हैं, जहां की मुझे यात्राएं करनी हैं। करीब तीन साल तक बेरोजगार और अलग-थलग रहने के बाद जो अनुभव मेरे हिस्से में आये हैं, वो भी मेरे लिए बहुत कीमती हैं। इन्होंने ही मुझे बिगड़ी चीज़ों को दुरुस्त करने, नौकरी पाने की और...और कोशिशें करने और जीवन से प्यार करने की प्रेरक ऊर्जा और शक्ति दी हैं।’

चित्र-3 : राजस्थान के बांसवाड़ा में जन्मे बालक कृष्णा के जन्म से ही हाथ- पांव नहीं हैं। दिव्यांगता के बावजूद जन्म से ही कृष्णा की मुस्कान इतनी मनमोहक थी, जिसकी वजह से माता-पिता ने सभी गमों को भुलाते हुए उसका नाम कृष्णा रख दिया। डॉक्टरों ने कृष्णा के बचने की बहुत कम संभावना बतायी थी, लेकिन कृष्णा ने उनके अनुमान पर पानी फेर दिया। कृष्णा जैसे-जैसे बढ़ा होता गया, अपनी अपंगता के अटल सच को समझते हुए हिम्मती और आत्मविश्वासी बनता चला गया। उसके मनोबल को दिव्यांगता कहीं भी शिथिल नहीं कर सकी। चार साल का होने पर वह खुद ही नहा-धोकर घुटनों से चलते हुए स्कूल जाने लगा। अभी वह पांच साल का ही था कि मां का देहांत हो गया। घुटनों में चप्पल और कोहनियों के सहारे लिखने वाले होनहार छात्र कृष्णा की बड़ा होकर एक अच्छा शिक्षक बनने की तमन्ना है। वह जब कोहनियों से क्रिकेट खेलता है तो लोग तालियां बजाते नहीं थकते। कृष्णा के पिता मजदूरी करते हैं। उसके दादा उसे घर से दो किमी दूर स्थित स्कूल छोड़ने जाते हैं। दादा कभी-कभार चलते-चलते थक जाते हैं, लेकिन कृष्णा बिलकुल नहीं थकता-रूकता। स्कूल की छुट्टी होने पर वह पैदल-पैदल अकेला ही घर पहुंच जाता है। जिन शिक्षकों को शुरू-शुरू में लगता था कि वह भविष्य में कुछ नहीं कर पायेगा, अब वही क्लास के सबसे होनहार छात्र के बारे में यह कहते हैं कि, परम पिता परमेश्वर ने इसे कोई नया इतिहास रचने के लिए भेजा है। वह बीमार होने पर भी कभी स्कूल मिस नहीं करता। कहता है, स्कूल तो मेरा मंदिर है...।

चित्र-4 : संघर्ष के बिना मनचाही सफलता नहीं मिलती। कुछ लोगों का संघर्ष हतप्रभ कर देता है। आंखें नम हो जाती हैं। उनके कभी हार नहीं मानने के जज्बे को बार-बार सलाम करने को जी चाहता है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो तमाम सुख-सुविधाओं के होने के बावजूद नाकामयाब होने पर तरह-तरह की शिकायतों और बहानों की झड़ी लगा देते हैं। वहीं भुखमरी, गरीबी और लाचारी के शिकार कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपने लक्ष्य को पाने के लिए कोई शोर-शराबा नहीं करते। उन्हीं में शामिल हैं आईएएस बी अब्दुल नासर। कम उम्र में पिता की मौत हो जाने की वजह से बी अब्दुल नासर को अनाथालय में रहना पड़ा। स्कूल की फीस भरने के लिए घर-घर अखबार बांटे, ट्यूशन पढ़ाई, होटल में खाना परोसा, फोन आपरेटर की नौकरी की और अनेकों अवरोधों का डट कर सामना किया, लेकिन फिर भी अपनी पढ़ाई पर अपना सारा ध्यान केंद्रित रखा। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद भी अब्दुल नासर ने केरल स्वास्थ्य विभाग में सरकारी नौकरी की। उसके पश्चात केरल की राज्य सिविल सेवा परीक्षा पास करके डिप्टी कलेक्टर बने। उन्हें सर्वश्रेष्ठ डिप्टी कलेक्टर के रूप में सम्मानित भी किया गया। उनकी शानदार परफॉर्मेंस और प्रशासनिक कुशलता को देखते हुए कलांतर में केरल सरकार ने उन्हें आईएएस अधिकारी के तौर पर प्रमोट किया। इसके बाद वह कोल्लम के जिला कलेक्टर और केरल सरकार के हाउसिंग कमिश्नर जैसे उच्च पदों पर विराजमान रहे। अनाथालय से आईएएस अफसर बनने तक के उनके सफरनामे से हजारों युवक-युवतियों को प्रेरणा मिल रही है और वे भी उन्हीं की तरह शिखर पर पहुंचने के लिए सतत संघर्ष करने को तैयार हैं...।

Thursday, April 3, 2025

चरित्र के चित्र...

 आज सुबह अखबार को हाथ में लेते ही सबसे पहले इन दो खबरों पर नज़र गढ़ी की गढ़ी रह गई। पहली खबर का शीर्षक है, ‘‘टुकड़े कर ड्रम में भर दूंगी, बिगड़े पति को पत्नी की धमकी’’ 

‘‘उत्तरप्रदेश के शहर मेरठ में एक युवक ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी है कि उसकी बीवी ने उसे ईंट मारकर बुरी तरह घायल कर दिया। युवक के सिर पर पट्टी बंधी थी। रात को वह शराब पीकर घर पहुंचा था। हमेशा की तरह दोनों में कहा-सुनी हुई। खाना खाने के बाद वह चारपाई पर लेट गया। पत्नी का बड़बड़ाना कम नहीं हुआ, जिससे विवाद और बढ़ता चला गया। पहले भी वह विरोध जताती थी, लेकिन इस बार तो उसने ईंट उठाकर सिर पर दे मारी और उसे लहूलुहान कर दिया। इतने से भी शायद उसका मन नहीं भरा। उसने चीखते हुए धमकी दे दी कि इस बार तो उसने सिर फोड़ा है, अगली बार यदि वह अपनी पीने की आदत से बाज नहीं आया तो जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर ड्रम में भर देगी। किसी को उसकी लाश का भी अता-पता नहीं चल पायेगा।’’

दूसरी खबर का शीर्षक है, ‘‘महिलाएं भी रिश्वतखोरी में कम नहीं, खेल अधिकारी डेढ़ लाख लेते पकड़ाई’’ 

‘‘एंटी करप्शन ब्यूरो ने जिला महिला खेल अधिकारी कविता को डेढ़ लाख रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगेहाथ गिरफ्तार किया है। एक ठेकेदार के बिल को मंजूर करने की ऐवज में यह वसूली की जा रही थी। आरोपी कविता के परभणी स्थित घर की तलाशी के दौरान एसीबी ने एक लाख पांच हजार रुपए नकद जब्त किए। उसके छत्रपति संभाजी नगर और पुणे स्थित घरों की तलाशी का अभियान चल रहा है...।’’ इन दोनों खबरों को पढ़ते ही मेरे दिमाग की घड़ी की सुई दो हफ्ते पहले की उन दो खबरों पर जाकर रुक गई, जो लगातार देशभर के न्यूज चैनलों तथा अखबारों की सुर्खियां बनी रहीं। उत्तरप्रदेश के मेरठ में वासना की आंधी में उड़ती मुस्कान नामक युवती ने प्रेमी के साथ मिलकर मर्चेंट नेवी अधिकारी अपने पति सौरभ के 15 टुकड़े किए फिर उन्हें एक ड्रम में भरकर सीमेंट और रेत के साथ ड्रम में बंद कर दिया। मुस्कान और उसके प्रेमी साहिल ने पुलिसिया पूछताछ में बताया कि उन्होंने सौरभ का गला काटा और सिर धड़ से अलग करने के साथ-साथ उसकी उंगलियों को भी काट डाला। इस नृशंस हत्याकांड को बड़ी चालाकी से अंजाम देने के बाद सिर को धड़ से अलग किया। कलाइयां भी काटीं। फिर सिर और धड़ को अलग-अलग रख दिया, ताकि लाश पहचान में ही न आए। शराब, गांजा और चरस की लत में डूबी मुस्कान लंबे समय से कर्मठ सौरभ को रास्ते से हटाने की योजना बना रही थी। सौरभ मुस्कान से बहुत प्यार करता था। वह उसे दुनिया की सभी खुशियां देना चाहता था, लेकिन मुस्कान का वफा और समर्पण से कोई वास्ता नहीं था। देह की भूख ही उसके लिए सबकुछ थी। इसलिए उसने जिस शख्स के साथ कभी जीने-मरने की कसमें खाई थीं, उसी के टुकड़े-टुकड़े कर ड्रम में दफन कर दिया। 

अपने साथी को फ्रिज, कूकर, बैग, दीवार, फर्श, बोरे, बिस्तर और ड्रम में दफन करने वाले प्रेमी, प्रेमिका, पति, पत्नी बाद में चैन से कैसे जी पाते होंगे? संवेदनशील लोग तो सोच-सोचकर बेचैन हो जाते हैं। उनकी रातों की नींद उड़ जाती है। मेरठ के लोगों ने तो अब ड्रम भी सोच-समझकर खरीदने का निर्णय कर लिया है। हत्यारी मुस्कान ने जिस ड्रम मेें पति की लाश के टुकड़ों को पैक किया था उसका रंग नीला था। लोगों ने नीले रंग के ड्रमों से ही दूरी बनानी प्रारंभ कर दी है। बेचारे दुकानदार ग्राहकों को समझा-समझा कर थक गए हैं कि इन नीले ड्रमों का कोई कसूर नहीं है। कसूरवार तो वो इंसानी हरकतें हैं, जिनके चलते इंसान शैतान, हैवान और पत्थरदिल  बन जाता है और रिश्तों की अहमियत और मान-मर्यादा को सूली पर लटका देता है। लेकिन लोग हैं कि अब नीले रंग के ड्रम को छूने को तैयार नहीं। आखिरकार दुकानदारों ने भी अपनी दुकानों से नीले रंग के ड्रमों को हटा कर नए-नए रंगों के ड्रम रखने प्रारंभ कर दिए हैं...। 

जिस देश में न्याय पालिका भ्रष्टाचार के छींटों से दागदार हो रही हो, कुछ वकीलों और जजों की मिलीभगत से न्याय के बिकने-बिकाने की खबरों का अंबार लगा हो, वहां पर यदि कोई नारी रिश्वत लेते पकड़ी जाए तो आश्चर्य कैसा? शासकीय कार्यालयों में रिश्वत लेकर जायज काम करने की नाजायज परंपरा से तो देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। मेहनतकश आम आदमी को हजार पांच सौ रुपए कमाने के लिए कई-कई तिकड़मे और कसरतें करनी पड़ती हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारी, कर्मचारी, नेता, मंत्री की तिजोरी चुटकी बजाते-बजाते भर जाती है। इस लुटेरी जमात के मान-सम्मान पर भी कभी कोई आंच भी नहीं आती। इनके बचाव के लिए पूरा तंत्र-मंत्र चौबीस घंटे लगा रहता है। रात को कोर्ट के दरवाजे तक खुल जाते हैं। किसी को पता ही नहीं चलता और संगीन अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं। उनका स्वागत, मान-सम्मान करने के लिए हार-गुलदस्ते लेकर भीड़ भी अदालतों तक पहुंच जाती है। 

14 मार्च 2025 के दिन होली थी। लोग रंग और भंग में डूबने के बाद रात को गहरी नींद में थे। दिल्ली हाईकोर्ट के माननीय (?) जज यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास में लगी आग में करोड़ों रुपयों की नोटों की गड्डियां धू...धू कर जलते हुए इंसाफ के रखवाले को कटघरे में खड़ा कर रही थीं। जज साहब के स्टोर रूम में जले-अधजले नोटों को बड़ी चालाकी से रहस्य की काली चादर में लपेट-समेट दिया गया। नोटों के वीडियों तथा तस्वीरें तो सभी ने देखीं, लेकिन नोट नहीं दिखे! यानी अधजले नोट भी गायब कर दिये गए। 15 से 20 करोड़ की रकम कम नहीं होती। यदि किसी व्यापारी, उद्योगपति के यहां यह अग्निकांड हुआ होता तो पूरे देश में हंगामा मच जाता। इस रहस्यमय कांड ने जजों के चरित्र और साख पर सवालिया निशान तो लगा ही दिया है। न्याय की कुर्सी पर विराजमान कुछ जजों पर पहले भी कलंक के छींटे पड़ चुके हैं। कुछ विद्वान जजों ने ऐसे-ऐसे फैसले सुनाये हैं, जिन्हें भरपूर शंका की निगाह से देखा गया है। कुछ जजों ने तो बचकाने निर्णय सुना कर आम जनों को चौंकाते हुए मीडिया की भरपूर काली-पीली सुर्खियां बटोरी हैं। बीते कई वर्षों से देश की न्यायपालिका के पूरे तंत्र में बदलाव लाने की वर्षों से मांग उठ रही है। आम लोगों को लगने लगा है कि उन्हें न्याय नहीं मिलता। अदालतों में तारीख पर तारीख देकर गरीबों की कमर तोड़ने और अमीरों को राहत देने की कष्टदायी परिपाट बन चुकी है। 17 मार्च 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राम मनोहर मिश्रा ने अपने एक निर्णय में यह कहकर देश और दुनिया को हतप्रभ कर दिया कि नाबालिग लड़की के स्तनों को छूना, उसके पायजामे के नाड़े को खोलना और उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करना बलात्कार या बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता। यह मामला उत्तरप्रदेश के कासगंज का है। जहां 2021 में दो व्यक्तियों पर 11 वर्षीय नाबालिग लड़की पर बलात्कार का आरोप लगाया गया था। जज साहब के ‘स्व विवेकी’ निर्णय ने सजग भारतीयों के मन-मस्तिष्क की संवेदनशील जड़ों को ज़मीन विहीन करके रख दिया है...।

Thursday, March 27, 2025

मन की किताब

जो हार नहीं मानते। हालातों से टकराते हैं। वही अंतत: मील का पत्थर बन राह दिखाते हैं। लोग उन्हीं के अटूट संघर्ष की मिसालें देकर हताश निराश और उदास लोगों का हौसला बढ़ाते हैं। किताबों के पन्नों में भी वही नज़र आते हैं। किताब को जब तक हाथ में लेकर खोला नहीं जाए तब तक उनमें समाहित ज्ञान से रूबरू नहीं हुआ जा सकता। किताबों ने न जाने कितने भटके लोगों को नई दिशा देते हुए मंजिल तक पहुंचाया है। असम के रहने वाले 33 वर्षीय डेका आर्थिक तंगी की वजह ज्यादा दिन तक स्कूल नहीं जा पाए। अनपढ़ होने के कारण ढंग की नौकरी नहीं मिली। जो नौकरी मिली उसमें कभी मन नहीं लगा। बेमन से नौकरी बजाते-बजाते डेका को पुस्तकें पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि वह उन्हीं में रम गया। तभी उसे अपनी भूल और कमी का भी पता चला। मन में यह विचार भी बार-बार आया कि यदि हिम्मत कर किसी तरह से पढ़-लिख जाता तो ऐसे मर-मर कर अभावों की आंधी में सूखे पत्तों की तरह इधर-उधर नहीं उड़ना-बिखरना पड़ता। विभिन्न विचारकों, विद्वानों के प्रेरक शब्दों ने उसकी नकारात्मक सोच को बहुत पीछे छोड़ दिया। उसने अपने भीतर दबे-छिपे ज्ञान और शक्ति से रूबरू होकर हमेशा-हमेशा के लिए किताबों से रिश्ता जोड़ने का निश्चय करते हुए अपनी बाइक को किताबों की दुकान बना दिया। बाइक पर किताबें लादकर वह आसपास तथा दूर-दराज के ग्रामों तक जाने लगा। उसे यह देखकर हैरानी हुई कि ग्रामवासी अपनी मनपसंद किताबों की मांग करने के साथ-साथ उसकी सुझायी किताबें खुशी-खुशी खरीदने लगे। शहरों में तो पाठकों को अपनी मनचाही पुस्तकें आसानी से मिल जाती हैं लेकिन ग्रामों में बड़ी मुश्किल होती है। डेका की मेहनत और कोशिश को रंग लाने में ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ ही महीनों में पास और दूर के लगभग दस गांवों के लोग उसके नियमित ग्राहक बन गए। नयी-नयी किताबों के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा स्टेशनरी के भी आर्डर मिलने लगे। अपनी बाइक पर ही बुक एवं स्टेशनरी की दुकान चला रहे डेका की अब हर माह बड़ी आसानी से पचास हजार रुपये की कमायी हो रही है। मात्र पांच-छह साल में किताबों की बदौलत लाखों में खेल रहे डेका का युवाओं से बस कहना है कि नौकरी के पीछे मत भागो। अपनी मेहनत से देर-सबेर जो सफलता मिलेगी उसकी खुशी से तुम झूम उठोगे। मन सदैव यह सोच-सोच कर गदगद रहेगा कि हमने जो भी पाया अपनी मेहनत और लगन से पाया। 

असम-अरुणाचल की सीमा पर बसे भोगवारी गांव के बच्चे चाहकर भी स्कूल नहीं जा पाते थे। उनके घर का वातावरण अत्यंत निराशाजनक था। पुरुषों को पीने की लत ने लगभग नकारा बना दिया था। जो भी कमाते शराब पर उड़ा देते। घर में रोज-रोज होने वाले लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौज ने बच्चों को भी हिंसक, आवारा और गालीबाज बना दिया था। पिता के हाथों जब-तब पिटना उनका नसीब बन कर रह गया था। इसी गांव में रहने वाली युवती अनिंदिता बच्चों की दुर्गति देख-देख कर हैरान-परेशान होती रहती थी, लेकिन इससे समस्या का हल नहीं होने वाला था। अनिंदिता ने बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए खुद की जमापूंजी से लाइब्रेरी की शुरुआत की। इस लाइब्रेरी में उसने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए आवश्यक कॉपी, किताबों के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें रखनी प्रारंभ कर दीं। उसने बच्चों के मां-बाप को भी रोड साइड लाइब्रेरी में आने का निवेदन किया। मूलभूत आवश्यकताओं से जूझते माता-पिता भी शिक्षा और अध्ययन के महत्व और जरूरत से अंजान नहीं थे। अनिंदिता को शुरू-शुरू में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना प़ड़ा। खुद की पूंजी भी कुछ महीनों में खत्म हो गई। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। इलाके के धनवानों तथा समाजसेवी लोगों से उसका सेवाकार्य और संघर्ष छिपा नहीं था। अनिंदिता जब उसके पास सहयोग के लिए पहुंची तो उन्होंने उम्मीद से ज्यादा तन-मन-धन से उसका साथ देना प्रारंभ कर दिया। अब तो अनिंदिता के हौसले, संघर्ष की बदौलत भोगबारी गांव में बच्चों तथा बड़ों की जिन्दगी में बदलाव आ चुका है। नयी रोशनी ने सभी के चेहरे पर चमक ला दी है। रोड साइड लाइब्रेरी चौबीसों घण्टे खुली रहती है। गांव के 200 बच्चे नियमित पढ़ने आते हैं। जिन बच्चे-बच्चियों के घरों में रहने की सुविधा नहीं है वे यहीं खाते-पीते और सोते हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए अनिंदिता ने क्लॉथ हाउस भी शुरू किया है। यहां से सभी गांववासी अपनी आवश्यकता के अनुसार कपड़े ले सकते है। जिनकी हैसियत कीमत चुकाने की नहीं उन्हें बिलकुल नि:शुल्क वस्त्र प्रदान किये जाते हैं। अनिंदित की लाइब्रेरी से बच्चे ही नहीं वयस्क भी जुड़ते चले जा रहे हैं। 

मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में पुस्तकों को पढ़ने वाले कम हो गये हैं। विभिन्न विधाओं की पुस्तकें तो धड़ाधड़ छप रही हैं, लेकिन पाठकों की संख्या बढ़ने का नाम नहीं ले रही है। हर साहित्यकार की यही शिकायत है कि अधिकांश युवा तो पुस्तकों के निकट ही नहीं जाते। उन्हें मोबाइल से ही फुर्सत नहीं है। शहरों व ग्रामों में पहले वाचनालयों का जो चलन था, उनमें भी बहुत कमी देखी जा रही हैं। अधिकांश वाचनालय पाठकों का इंतजार करते रहते है। यह भी सच है कि वहां पर सभी की पसंद की कृतियों का नितांत अभाव रहता है।  देश के प्रदेश केरल को छोड़कर कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहां सार्वजनिक वाचनालयों की उल्लेखनीय उपस्थिति बनी हुई हो। लगभग 3.34 करोड़ की आबादी वाले केरल राज्य में किसी भी कस्बे या शहर में चले जाइए आपको सार्वजनिक पुस्तकालय अवश्य दिखाई देंगे। इन वाचनालयों में आपको हर उम्र के पाठक अपनी-अपनी पसंद की पुस्तकें तलाशते और पढ़ते नज़र आ जाएंगे। किताबों की भीनी-भीनी महक और शब्दों का जादू नये-नये पाठकों को वाचनालयों तक खींच लाता है। केरल में स्थित कन्नूर की आबादी लगभग तीस हजार है। यहां पर 34 वाचनालय हैं। यानी हर वर्ग किलोमीटर में लगभग एक वाचनालय! हर वाचनालय पढ़ने के शौकीनों से आबाद रहता है। अधिकांश में कम्प्यूटर व एकीकृत कैटलॉग की सुविधा के साथ-साथ प्रशिक्षित लाइब्रेरियन पदस्थ हैं, जो वहां आने वाले पाठकों का मार्गदर्शन करते हैं। कुछ युवक और युवतियां मूविंग लाइब्रेरी (चलती-फिरती) के जरिए सजग पाठकों के घरों तथा संस्थानों तक किताबें और पत्रिकाएं नियमित पहुंचाते हैं। सभी प्रदेशवासी वाचनालयों के प्रति आकर्षित हों इसके लिए सरकार तो नियमित फंड उपलब्ध कराती ही है। इसके साथ-साथ कुछ सार्वजनिक संस्थाए और सक्षम लोग भी इस जनहित कार्य में पीछे नहीं रहते। केरल में कुछ लाइब्रेरी ऐसी हैं जिन्हें आम लोगों ने आपस में राशि एकत्रित कर स्थापित किया है। लोगों का लाइब्रेरी से इस कदर लगाव है कि जब भी क्षेत्र में नया घर बनता है तो लाइब्रेरी के नाम से उसके पास कोई फलदार पेड़ लगाया जाता है। शिक्षा सामाजिक जुड़ाव और सुधार में भी ग्रंथालयों ने अहम भूमिका निभायी है। यहां पर पुस्तकालयों को पठन-पाठन एवं चिंतन-मनन की संस्कृति के विकास का बहुत बड़ा माध्यम माना जाता है। समय-समय पर हुए विभिन्न आंदोलनों को भी पुस्तकालयों से दिशा और ताकत मिलती रही है। साठ साल की हो चुकी फुर्तीली राधा लाइब्रेरी आंदोलन की एक जानी-पहचानी हस्ती हैं। राधा बीते कई वर्षों से राजनीति में भी सक्रिय हैं। इस उम्र में भी वे महिलाओं और बुजुर्गों को उनके घरों तक किताबें पहुंचाती हैं। वह कहती हैं जब मैं अपने हाथ में लाइब्रेरी का रजिस्टर और कंधों पर किताबों भरा बैग लेकर चलती हूं तो मेरा तन-मन खुशी से झूमने लगता है। यदि मेरा बचपन से साहित्य से लगाव नहीं होता तो मैं मनचाही सफलता से दूर रहती। मेरा तो यही मानना है कि किताबें हालातों को बदलने का हथियार हैं। जब किसी को भी किताब खरीदते देखती हूं तो मैं नतमस्तक हो जाती हूं।  किसी वाचनालय में प्रवेश करने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारना मैं कभी नहीं भूलती। पुस्तकालय मेरे लिए किसी देवालय से कम नहीं। यही किताबें ही हैं जो हमें हमारी अज्ञानता और हैसियत से रूबरू कराती हैं...।

Thursday, March 20, 2025

इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...

चित्र-1 : बबीता। उम्र 50 वर्ष। दायां हाथ और पैर निष्क्रिय हैं। हिलाने-डुलाने में तकलीफ होती है। बचपन में ही पोलियोग्रस्त हो गईं थीं। ऐसे पीड़ादायी रोग और परेशानी में भी उनका मनोबल नहीं टूटा। अटूट हिम्मत और व्हीलचेयर ही उनका सहारा है। बी.कॉम करते-करते मन में शारीरिक रूप से कमजोर, असहाय लोगों की सहायता, सुरक्षा और देखभाल करने की ऐसी इच्छा बलवति हुई कि, जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सच्ची और सार्थक चाह होने पर राह खुद-ब-खुद कदम चूमने लगती है। अपंग बबीता को जैसे ही ‘अपना घर’ नामक आश्रम में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिली तो उन्हें लगा परम पिता परमेश्वर ने उनकी सुन ली है। मात्र एक साल बीतते-बीतते बबीता को 100 बीघा में फैले आश्रम की देखरेख के साथ-साथ मानसिक रूप से विक्षिप्त, शारीरिक तौर पर असक्षम लोगों की सेवा करने का दायित्व सौंप दिया गया। परोपकारी सोच में रची-बसी बबीता ने आश्रम की व्यवस्था ऐसी संभाली कि देखने वाले हैरान रह गए। बबीता बड़ी कुशलता के साथ असक्षम लोगों के रेस्क्यू, रजिस्ट्रेशन, आवास, भोजन, चिकित्सा, स्वच्छता, पुनर्वास, प्रशिक्षण, अध्यापन और अन्य व्यवस्थाएं ऐसी कर्मठता के साथ करती हैं, जैसे वह इसी के लिए बनी हों। उनका साथ देने के लिए 480 कर्मचारी चौबीस घंटे चाक चौबंद रहते हैं। वे सभी बबीता दीदी के तहेदिल से शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने उनके मन-मस्तिष्क में विक्षिप्त और असहायों की सेवा करने के प्रेरणा दीप जलाए हैं। बच्चों और बड़ों की प्यारी बबीता दीदी सुबह 4 बजे तक उठ जाती हैं। उसके बाद ऑटोमेटिक व्हीलचेयर पर विशाल आश्रम के चप्पे-चप्पे में घूमते हुए सभी का हालचाल जानने, सहायता उपलब्ध करवाने में कब रात हो जाती है उन्हें पता ही नहीं चलता। उनके जागने का समय तो निर्धारित है, लेकिन सोने का कोई वक्त तय नहीं है। चौबीस घंटे जोश और उमंग के झूले में झूलती, जरूरतमंदों के फोन अटेंड करती बबीता दीदी के जीवन का बस यही मूलमंत्र है, भले ही आप शारीरिक तौर पर कमजोर और लस्त-पस्त हैं, लेकिन अपने दिमाग को कभी भी अपाहिज मत मानो। उसे हमेशा सक्रिय रखो। अच्छे विचारों से सदैव रिश्ता बनाये रखो। सकारात्मक सोच आपका उत्साह बढ़ायेगी। चुस्ती-फूर्ती भी बनी रहेगी। आश्रम में रहने वाले सभी लोग हमारे लिए प्रभु का रूप हैं। हमें उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिला है। उनकी देखरेख करना हमारा एकमात्र कर्तव्य है। देश-विदेश में फैले 62 आश्रमों में रह रहे लगभग 15 हजार असहायों, विक्षिप्तों की देखरेख में लगी बबीता दीदी अक्सर एक प्रसिद्ध गीत की यह पंक्तियां गुनगुनाती देखी जाती हैं, ‘‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल...।’’

चित्र-2 : हमारे देश में कई पुरातन रीति रिवाज ऐसे हैं, जो मानव के विकास में बाधक बने हुए हैं। बाल विवाह की परंपरा उन्हीं में से एक है। जिसके खिलाफ अभियान तो बहुत से चलाए गए, लेकिन पूरी तरह से उसका खात्मा नहीं हो पाया। देश के कुछ प्रदेशों में नाबालिग, मासूम, नासमझ बच्चियों की शादी करने का चलन कहीं चोरी-छिपे तो कहीं खुले आम आज भी देखा जा सकता है। जिन बेटियों का बाल विवाह होता है उनका भविष्य भी कहीं न कहीं अंधकारमय हो जाता है। यह अत्यंत सुखद और अच्छी बात है कि अब इस चिंताजनक परिपाटी के खिलाफ बेटियां खुद कमर कस रही हैं। इस प्रथा के खिलाफ उनके विरोध के स्वर गूंजने लगे हैं। वे वो मनचाहा कार्य करने लगी हैं, जिन्हें करने से उन्हें रोका जाता था और उनके सपनों की हत्या कर दी जाती थी। राजस्थान में स्थित अजमेर जिले के 13 ग्रामों में हर दूसरे घर की बेटी आज फुटबॉल खेलती है। यहां 550 लड़कियां फुटबॉलर हैं। इनमें से अधिकांश लड़कियां वो हैं जिनके मां-बाप बचपन में ही उनकी शादी करवाने पर तुले थे, लेकिन वे बाल विवाह के खिलाफ डटकर खड़ी हो गईं। अंतत: मां-बाप को भी झुकना पड़ा। कुछ लड़कियों की तो सगाई भी हो चुकी थी, लेकिन उन्होंने फुटबॉल खेलने की चाह में सगाई ही तोड़ दी। लड़कियों को फुटबॉल खेलने से रोकने के लिए गांव के कुछ बड़े-बुजुर्गों तथा खुद को कुछ ज्यादा ही समझदार मानने वाले शिक्षित लोगों ने अपने ज्ञान का पिटारा खोलते हुए कहा कि, फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों का इससे दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं। यहां तक कि सरकारी स्कूल में भी बच्चियों के फुटबॉल खेलने पर पाबंदी लगा दी गई। पुरुषों की मानसिकता बदलने के लिए लड़कियों ने दिन-रात मेहनत की और स्टेट और नेशनल खिलाड़ी बन उपदेशकों की बोलती बंद कर दी। फुटबॉल की जुनूनी बेटियों के जीवन में ऐसे भी क्षण आए जब उन्होंने बचपन की शादी के बंधन में मिले पति की बजाय फुटबॉल को चुना। अब तो इन गांवों की कुछ बेटियां डी-लाइसेंस हासिल कर सफल कोच बन गई हैं और कई लड़कियां नेशनल टूर्नामेंट में शामिल होकर इस संदेश की पताका लहारा चुकी है कि लड़कियों को कम मत समझो। उनका रास्ता मत रोको। वो जो भी चाहें, उन्हें खुलकर करने दो। लड़कियां कभी भी लड़कों से कमतर साबित नहीं होंगी। हर नई शुरुआत के पीछे कोई न कोई प्रेरणा स्त्रोत और कारण अवश्य होता है। अजमेर जिले के 13 ग्रामों में बदलाव लाने का श्रेय जाता है समाजसेविका इंदिरा पंचौली को। राजस्थान में कई इलाकों में अभी भी बीमारी की तरह जड़े जमाए बाल विवाह पर विराम लगाने के उद्देश्य से जब वे अध्ययन के लिए बंगाल गईं थी, तब उन्होंने देखा कि गांव की बच्चियां स्कूल से छूटने के बाद पुलिस थानों में स्थित मैदानों में फुटबॉल खेल रही हैं। पंचौली मैडम के मन में आया कि अपने जिले अजमेर में यदि बच्चियों में फुटबॉल खेलने की इच्छा जगायी जाए तो धीरे-धीरे बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। इसके लिए उन्होंने प्रारंभ में गांवों में खेल उत्सव का आयोजन किया। जिसमें जोर-शोर से ऐलान करवाया गया कि, जो बेटियां फुटबॉल खेलने की इच्छुक हैं वें तुरंत हमसे आकर मिलें। उम्मीद से ज्यादा लड़कियों के फुटबॉल खेलने की इच्छा प्रकट करने पर उनके मनोबल में और जान फूंक दी, लेकिन जब अभ्यास और प्रतियोगिता के लिए बाहर जाने की बात आई तो उनके घरवालों ने यह कहकर अड़ंगा डालना प्रारंभ कर दिया कि फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों के हाथ-पांव टूट गए तो वे अपंग हो जाएंगी और उनसे शादी कौन करेगा? लड़कियों के घर से बाहर जाने पर उनके बारे में लोग उलटी-सीधी बातें करेंगे। लेकिन लड़कियां फुटबॉल खेलने की जिद से टस से मस नहीं हुईं। बात पुलिस प्रशासन तक भी जा पहुंची। उन्होंने भी मां-बाप को समझाया। तब कहीं जाकर वे माने और बेटियां बेखौफ होकर फुटबॉल खेलते हुए एक से एक कीर्तिमान रचने लगीं। उनके नाम की पताका दूर-दूर तक फहराने लगी। जो मां-बाप बेटियों को घर में कैद रखने और बाल विवाह करने के प्रबल पक्षधर थे वे भी बाल विवाह को हमेशा-हमेशा के लिए भूलकर बेटियों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रोत्साहित करने लगे हैं।

चित्र-3 :  उदयपुर में रहती हैं, सरला गुप्ता। महिला हैं, लेकिन पुरुषों से कहीं भी कम नहीं। शादी-मुंडन से लेकर अंतिम संस्कार तक के दायित्व वर्षों से कुशलतापूर्वक निभाती चली आ रही हैं। यह महिला पंडित अभी तक 50 से अधिक शादी-ब्याह के साथ-साथ 70-75 दाह संस्कार संपन्न करवा चुकी हैं। उन्हें इन संस्कार कार्यों से जो धनराशि दक्षिणा के तौर पर मिलती है उसे जरूरतमंद लड़कियों की पढ़ाई के लिए सहर्ष दान कर देती है। पति के रिटायरमेंट के बाद सरला ने समाजसेवा के इस नये मार्ग को चुना। जब उन्होंने अपने जीवनसाथी को पुरोहिताई करने की इच्छा जताई तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को हर तरह से प्रोत्साहित किया। शुरू-शुरू में उन्हीं के समाज के कुछ लोग पीठ पीछे उनकी खिल्ली उड़ाते हुए तरह-तरह की बाते करते थे। कुछ लोग तो उन्हें अपमानित करते हुए यह भी कह देते कि जबरन पंडितों के पेशे से जुड़कर उन्हीं के पेट पर लात मार रही हो। तुम्हें बहुत पाप लगेगा। ईश्वर भी माफ नहीं करेंगे, जिन्होंने सभी के कर्म-धर्म निर्धारित कर रखे हैं। नारी हो, कुछ तो शर्म करो! वही काम करो जो औरतों को शोभा देते हैं। जिन कार्यों को सदियों से पंडित-पुरोहित करते आये हैं उन्हें अपनाकर आखिर वह क्या साबित करना चाहती हो? नाम कमाने के पागलपन में अपने मूल संस्कारों को तिलांजलि देने पर तुली हो। इसका प्रतिफल कदापि अच्छा नहीं होगा, लेकिन अपनी मनपसंद नई राह पर कदम बढ़ा चुकी सरला ने किसी की परवाह नहीं की। अब तो वह जिस घर में जाती हैं, वहां की महिलाएं भी उनसे प्रेरित होकर उनके साथ खड़ी नजर आती हैं। ज्ञातव्य है कि भारत में मात्र तीन महिलाएं हैं जो अंतिम संस्कार करवाती हैं...।

Saturday, March 15, 2025

कौन किसके लायक?

चित्र 1 : पति, पत्नी के रिश्तों में तनाव, लड़ाई झगड़ा, मनमुटाव कोई नई बात नहीं। सदियों से ऐसा होता आया है, लेकिन पिछले आठ-दस वर्षों से अपने देश में इस पवित्र रिश्ते में जो विष घुलता चला जा रहा है, वह ज़हरीली खबर बन लगभग प्रतिदिन हमारे सामने आ रहा है। कोई भी ऐसा दिन नहीं बीतता जिस दिन पत्नी, प्रेमिका तथा पति की हत्या, आत्महत्या की खबर पढ़ने-सुनने में न आती हो। हर नगर, महानगर और अब तो ग्रामों में भी अपने पति से नाखुश, निराश नारियां खुदकुशी का दामन थामने लगी हैं। कभी-कभार जब किसी पुरुष के फांसी के फंदे पर झूल जाने का पता चलता है तो लोगों का बड़ी तेजी से माथा ठनक जाता है। यह कैसा बदलाव है? पुरुषों की तो ऐसी छवि नहीं थी! एक दूसरे की प्रताड़ना, यातना और जानी दुश्मनी से आहत होकर यदि इसी तरह से हत्याएं और आत्महत्याएं होती रहीं तो सोचिए पति, पत्नी के जन्म-जन्मांतर के रिश्ते का कोई अर्थ बचेगा?

आंधी-तूफान की रफ्तार से महानगर की शक्ल अख्तियार करते नागपुर में बीते हफ्ते अपनी शादी के मात्र 14 माह के बीतते-बीतते प्रियंका ने अपने पति की प्रताड़ना से तंग आकर फांसी लगा ली। भावुक और संवेदनशील प्रियंका ने अपने सुसाइड नोट में लिखा, ‘‘मैं तुम्हारे लायक नहीं। मैं तुम्हारी पसंद भी नहीं। मैं तुम्हारी और मम्मी (सास) की ख्वाहिश को पूरा करने में असमर्थ हूं। मेरे मरने के बाद तुम खुशी-खुशी दूसरी शादी करने में देरी न करना। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि तुम्हे ऐसी बीवी मिले जो तुम्हारी हर तमन्ना के तराजू पर खरी उतरे।’’ प्रियंका के पिता परलोक सिधार चुके हैं। उसकी मां मेहनत मजदूरी करती है। उसने बड़ी बेहतर उम्मीदों के साथ अपनी बेटी को पढ़ाया लिखाया। पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा धारक प्रियंका की तीन बहनें और भी हैं। 3 जनवरी 2024 को प्रियंका ने शैलेष नामक युवक के साथ जब सात फेरे लिये थे तब उसके मन-मस्तिष्क में खुशियों का समंदर हिलोरें मार रहा था। अपने सुखद भावी जीवन को लेकर वह पूरी तरह से आश्वस्त थी। शादी के बंधन में बंधने से पहले परिजनों ने भी उसे बताया था कि शैलेष ठेकेदारी के काम से अच्छी-खासी कमायी कर लेता है। वह उसे हर तरह से प्रसन्न और संतुष्ट रखेगा, लेकिन शादी के चंद हफ्तों के बाद ही प्रियंका जान गई कि उसका पति तो कोई काम धंधा ही नहीं करता। बस निठल्ला घर में पड़ा रहता है। शराब पीने का भी उसे जबर्दस्त लत लगी हुई है। प्रियंका जब उससे कुछ काम-धाम करने को कहती तो वह उससे कहता कि वह एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का कार्यकर्ता है। शीघ्र ही वो वक्त आयेगा जब वह करोड़पति बन उसकी झोली खुशियों से भर देगा। वैसे भी दूसरे किसी धंधे में नेतागिरी से बढ़कर मालामाल होने की गुंजाइश ही कहां बची है। उसने प्रियंका का मंगलसूत्र, सोने की चेन और अंगूठी को भी बेचकर शराब पर उड़ा दिया। वह बार-बार प्रियंका को अपनी मां से रुपए मांग कर लाने का दबाव बनाता, लेकिन जब प्रियंका ने थक-हार कर असहाय मां को तंग करने से मना कर दिया तो वह पूरी तरह शैतान बन गया। शादी की पहली सालगिरह पर प्रियंका को उसके चाचा ने दस हजार रुपये उपहार स्वरूप दिए तो उन्हें भी शैलेष ने जबरन छीन लिया और शराब गटक ली। प्रियंका को लाडली बहन योजना की जो राशि मिलती थी उसे भी वह अपने नशे-पानी में उड़ा देता था। इसी दौरान विरोध करने पर शैलेष ने उसे गला घोटकर मारने की भी कोशिश की। प्रियंका रोज-रोज की चिकचिक और प्रताड़ना से इस कदर तंग आ गई कि अंतत: वह खुदकुशी कर ऐसी खबर बनकर रह गई, जिसे पढ़कर-सुनकर लोग तुरंत भुला देते हैं...।

चित्र-2 : मानव शर्मा ने अपनी पत्नी के चरित्रहीन होने की वजह से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। 23 फरवरी को मानव पत्नी के साथ मुंबई से आगरा आया था। यहीं पर उसकी पत्नी का मायका है। 24 फरवरी को वह फांसी के फंदे पर झूल गया। मौत को गले से लगाने से पहले उसने अपनी पत्नी निकेता को भी सूचित किया कि वह मरने जा रहा है। निकेता ने हमेशा की तरह इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन हां, उसने अपनी ननद यानी मानव की बहन को मोबाइल कर बता दिया कि उसका भाई फांसी पर झूलने जा रहा है। वह चाहे तो समय रहते उसे बचा ले, लेकिन ननद ने अपनी भाभी को दिलासा देते हुए कहा कि वह ज्यादा परेशान न हो। वह खुदकुशी नहीं कर सकता। ऐसी धमकी-चमकी तो वह कई बार पहले भी दे चुका है। तुम इत्मीनान से सो जाओ...। आईटी कंपनी टीसीएस में रिक्रूटमेंट मैनेजर मानव ने धमकी को साकार करते हुए अंतत: आत्महत्या कर ली। अपनी जान देने से पहले उसने पूरे होशोहवास के साथ लाइव वीडियो भी बनाया, जिसमें उसने पत्नी के द्वारा उसके ‘शारीरिक अंग’ की कमतरी को लेकर हमेशा की जाने वाली तानाकशी को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराते हुए कानून और देश के हुक्मरानों को चेतावनी के अंदाज में कहा, ‘‘द लॉ नीड्स टु प्रोटेक्ट मैन... अदरवाइज देयर विल बी ए टाइम, दैट देयर विल बी नो मेन। कोई आदमी बचेगा ही नहीं, जिसके ऊपर तुम इल्जाम लगा सको। मैं तो खैर जा रहा हूं, लेकिन मैं फिर भी कह रहा हूं कि मर्दों की भी फिक्र करो। प्लीज उनके बारे में सोचो। मैं यह कहते-कहते थक चुका हूं कि, अरे, मर्दों के बारे में कोई तो बात करे। बेचारे बहुत अकेले हैं। ...पापा सॉरी। मम्मी सॉरी। अक्कू सॉरी। बट गाइज, प्लीज अंडरस्टैंड। देखो, जैसे ही मैं चला जाऊंगा। सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैंने पहले भी कई बार खुदकुशी की कोशिश की है। इसके गवाह हैं मेरे जिस्म पर लगे कट के निशान। मुझे पता चला कि मेरी वाइफ का बाहर चक्कर चल रहा है, लेकिन मैं उससे पूछताछ नहीं कर सकता। एकाध बार मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो उसने बखेड़ा खड़ा कर दिया था। कानून भी औरतों के साथ खड़ा है। कैसा है तुम्हारा लॉ एंड ऑर्डर! ढंग से इंसाफ करो यार। हां एक बात और... मेरे चल देने के बाद मेरे मां-बाप को बिल्कुल टच मत करना...।

चित्र-3 : देश की एक राष्ट्रीय पार्टी की महिला शाखा की अध्यक्ष रोहिणी खडसे ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर भारत की राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु को पत्र लिखकर मांग की है कि नारियों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों, अपराधों और घरेलू हिंसा को देखते हुए महिलाओं को एक हत्या करने पर सजा में छूट दी जाए। देश की महिलाएं दमनकारी और दुष्कर्म वाली मानसिकता और निष्क्रिय कानून व्यवस्था की प्रवृत्ति का खात्मा करना चाहती हैं। रोहिणी ने हाल ही में मुंबई में एक बारह वर्षीय लड़की पर किये गए सामूहिक बलात्कार की घटना का हवाला देते हुए महिलाओं के खिलाफ निरंतर बढ़ते अपराधों पर रोष और चिन्ता व्यक्त की है। अपने निवेदन पत्र में उन्होंने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट का भी हवाला दिया है, जिसमें बताया और चेताया गया है कि महिलाओं के लिए भारत सबसे असुरक्षित देश बन चुका है।

चित्र-4 : पुणे की रहने वाली एक महिला ने अपने पति की हिंसक प्रवृत्ति से त्रस्त होकर पुणे की जिला अदालत की शरण ली। वह रोज-रोज की गालीगलौज और दुर्व्यवहार से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पाना चाहती थी। तलाक के इस मामले के मध्यस्थता केंद्र में पहुंचने पर जज साहब ने महिला पर तंज कसते हुए कहा कि, आप न तो बिंदी लगाती हैं, न ही मंगलसूत्र पहनती हैं और न ही पति को रिझाने के लिए बन ठन कर रहती हैं तो फिर ऐसे में आपके पति आप में चिलचस्पी क्यों दिखाएंगे? जज के इस नुकीले सवाल से वहां पर मौजूद लोग हतप्रभ रह गए। जज महोदय ने अपने महाज्ञान का पिटारा खोलते हुए यह भी कहा कि, जो महिलाएं अच्छी नौकरी पर हैं, मोटी तनख्वाह पाती हैं वे हमेशा ऐसा पति चाहती हैं जो उनसे ज्यादा कमाता हो, लेकिन दूसरी तरफ अच्छा कमाने वाला पुरुष पसंद आने पर अपने घर में बर्तन धोने वाली नौकरानी से भी शादी करने में संकोच नहीं करता। विद्वान जज साहब के प्रवचन से आहत महिला वहीं खड़ी-खड़ी रोने लगी...।