Thursday, April 24, 2025

काला-गोरा

 कुछ दिन पूर्व मैं अपने एक डॉक्टर मित्र के यहां बैठा था। तभी एक गोरी-चिट्टी महिला लगभग साल सवा साल के बच्चे को गोद में लेकर वहां पहुंची। वह काफी घबराई-घबराई-सी लग रही थी। मुझे लगा कि मासूम बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होगी, इसलिए मां चितिंत और परेशान है, लेकिन उसने जो समस्या बयां की, उससे हतप्रभ मैं उसे देखता रह गया। ‘‘डॉक्टर साहब, मेरे इस बच्चे का रंग बहुत काला है, प्लीज़ कोई ऐसी दवा या इंजेक्शन दीजिए, जिससे यह एकदम गोरा हो जाए। इसके लिए मैं कोई भी कीमत देने को तैयार हूं। देखिए न... मैं कितनी खूबसूरत हूं और इसके पिता भी गोरे-चिट्टे, हैंडसम हैं, लेकिन यह पता नहीं किस पर गया है। रिश्तेदार तथा यार-दोस्त भी इसके रंग पर जिस तरह से हैरत जताते हैं, उससे मुझे बहुत ठेस पहुंचती है। दु:खी और आहत मन को काबू में लाना मुश्किल हो जाता है।’’ बेचैन महिला की पीड़ा जानने के बाद डॉक्टर हल्के से मुस्कराए, फिर बोले, ‘‘काले को गोरा बनाने का अभी तक तो कहीं भी कोई इलाज ईजाद नहीं हो पाया है। वैसे भी यह कोई गंभीर समस्या नहीं है। इसलिए आप अपने बच्चे के रंग को लेकर चिंतित और परेशान होना छोड़ उसकी बेहतर परवरिश पर ध्यान देंगी तो यही बच्चा भविष्य में आपके परिवार का नाम ऐसा रोशन करेगा कि आप सबकुछ भूल जाएंगी। आपको पता होना चाहिए कि सांवले या काले रंग वाले बच्चों ने बड़े होकर कई क्षेत्रों में सफलता के नये-नये आयाम रचे हैं। आपने फिल्म अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की कोई न कोई फिल्म तो जरूर देखी होगी। दोनों को काले रंग का होने के कारण फिल्म निर्माता शुरू-शुरू में अपने पास फटकने ही नहीं देते थे, लेकिन इन्होंने जिद और जुनून का कसकर दामन थामे रखा। ऐसे में जब फिल्म मिली तो अपने अभिनय कौशल का ऐसा झंडा गाड़ दिखाया कि दुत्कारने वालों को भी शर्मसार होना पड़ा। मिठुन चक्रवर्ती ने तो अपनी पहली फिल्म ‘मृगया’ में प्रभावी अभिनय कर राष्ट्रीय पुरस्कार अपने नाम किया तो वहीं नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने भी देश और दुनिया में भरपूर नाम कमाया और पुरस्कार जीते। दोनों फिल्मी सितारे वर्षों से फिल्मी दुनिया में अपनी चमक-दमक बनाये हुए हैं। यह अलग बात है कि बॉलीवुड ने आज भी पूरी तरह से अपनी मानसिकता नहीं बदली है।’’ महिला डॉक्टर की बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद मुस्कराते हुए उठ कर चल दी। 

महिला के जाने के बाद मैंने अपने मित्र से प्रश्न किया कि उसे महिला को इतना सारा ज्ञान का डोज पिलाने की आखिर क्या जरूरत थी? सिर्फ यह कहकर उसे चलता किया जा सकता था कि, काले को गोरा बनाना किसी भी हालत में संभव नहीं। मित्र ने जो जवाब दिया उससे मैं चौंका। मेरी आंखें भी खोल दीं, 

‘‘अपने यहां ऐसे डॉक्टर भी भरे पड़े है, जो रईसों की जेबें काटने के लिए ही डॉक्टर बने हैं। यह सौदागर किस्म के चेहरे काले को गोरा बनाने के लिए तरह-तरह के कैप्सूल और इजेक्शन लगाकर मोटी फीस वसूल करते रहते हैं। मैं नहीं चाहता था कि यह महिला किसी ऐसे डॉक्टर के जाल में फंस कर लाखों रुपए लुटाए और अंतत: माथा पीटती रह जाए। मैं यह भी जानता हूं कि यह महिला इतनी जल्दी हार नहीं मानेंगी और पांच-सात डॉक्टरों के यहां जरूर जाएगी। मेरे यहां सांवली और काली त्वचा वाली बेटियों के मां-बाप भी अक्सर आते रहते हैं। उनकी बेचैनी तो और भी देखते ही बनती है। बेटी के काले रंग को गोरे रंग में तब्दील करवाने के लिए वे कोई भी कीमत देने को तत्पर नजर आते हैं। जिस बच्ची ने अभी चलना भी नहीं शुरू किया उसके वैवाहिक संबंधों को लेकर उनकी नींद उड़ी रहती है। अपने देश में काले या सांवले रंग की बेटियों के रिश्ते आसानी से तय नहीं होते। काले रंग के युवा भी गोरी युवती की ही चाहत रखते हैं। कई मां-बाप तो यह भी मानते हैं कि काले लड़के या लड़की की संतान भी गोरी जन्मने से रही। वे इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि गोरे मां-बाप को यदि तीन संताने हैं, तो सभी का रंग एक सा नहीं होता। किसी बच्चे का रंग काला या सांवला भी होता है। कुछ हफ्ते पूर्व केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन ने अपनी त्वचा को लेकर की जाने वाली टिप्पणियों और तानों को लेकर बहुत कुछ कहा और बताया। देश के सबसे शिक्षित राज्य केरल में रंग को लेकर ऐसा भेदभाव है तो दूसरे प्रदेशों के लोगों की सोच की बड़ी आसानी से कल्पना की जा सकती है। शारदा मुरलीधरन कहती हैं कि मैं अक्सर सोचती रह जाती हूं कि लोगों को काले रंग से इतनी चिढ़ क्यों है? काला, तो इस ब्रह्मांड की सर्वव्यापी सच्चाई है। यह काला रंग ही है, जो सब कुछ अपने भीतर समा लेता है। शारदा बताती हैं कि जब मैं चार साल की थी तो मां से बार-बार पूछा करती थी कि क्या मुझे अपनी कोख में दोबारा डाल सकती हैं और झक गोरा तथा सुंदर बनाकर निकाल सकती है? शारदा की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, अपने रंग की चिंता से मुक्त होती चली गईं। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई पर अपना संपूर्ण ध्यान केंद्रित रख उच्च शिक्षा प्राप्त की। उनकी योग्यता ने ही उन्हें वी.वेणु जैसे खूबसूरत शासकीय अधिकारी की जीवनसाथी बनने का सौभाग्य प्रदान किया। यह भी काबिलेगौर है कि अपने पति वी.वेणु के रिटायर होने के पश्चात शारदा केरल की मुख्य सचिव बनीं हैं। 

फिल्म अभिनेत्री नीना गुप्ता की पुत्री हैं, मसाबा गुप्ता। नीना गुप्ता ने विदेशी क्रिकेटर विवियन रिचर्ड से शादी किए बिना शारीरिक रिश्ता बनाते हुए मसाबा को जन्म दिया था, क्रिकेटर का रंग काला है। मोसाबा भी उसी पर गयी हैं। अब 35 वर्ष की हो चुकी हैं। अपना अच्छा खासा व्यवसाय है, लेकिन लोग अब भी काली कहकर नीचा दिखाने से बाज नहीं आते, लेकिन वह अपनी मस्ती में जीवन जीती हैं। फिल्म अभिनेत्री और निर्देशक नंदिता दास कहती हैं लोग उनकी त्वचा के रंग पर कटाक्ष क्यों करते हैं। मैंने फिल्मों में अभिनय करने के साथ-साथ निर्देशन भी किया है। मेरी प्रतिभा पर बोलने और लिखने की बजाय मेरे रंग पर जाने वालों पर अब तो मुझे दया आने लगी है। एक महत्वकांक्षी मॉडल-अभिनेत्री जो कभी विख्यात स्किन-व्हाइटनिंग क्रीम ब्रांड, दास ग्लो एंड लवली के विज्ञापनों में छायी रहती थी, उसी को हाल ही में एक टेलीविजन शो में मुख्य भूमिका से वंचित कर दिया गया, क्योंकि उसकी त्वचा का रंग काफी सांवला है, लेकिन उसे इसका कोई गम नहीं। वह अपने तरीके से जीने में यकीन रखती है। उसके लिए हर दिन जश्न है। जब कोई कटाक्ष करता है तो वह मुस्कुराते हुए इतना भर कह देती है, ये रंग मुझे अपने मां-बाप से मिला है, जिनकी तो मैं पूजा करती हूं...।

Thursday, April 17, 2025

रघु का सपना

चित्र - 1 : नेताजी दूसरी बार लोकसभा चुनाव में विजयी हुए। इस बार जीत का हार पहनने के लिए उन्हें ऐसे-ऐसे पापड़ बेलने पड़े, जिसकी उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी। उन्हें धूल चटाने के लिए सभी विरोधी दल एकजुट हो गये थे। उनका एक ही मकसद था कि नेताजी किसी भी हालत में सांसद न बन पाएं, लेकिन पिछले चुनाव की तरह इस बार भी धनबल ने अंतत: अपना चमत्कार दिखा ही दिया। उनके हजारों कार्यकर्ताओं की भीड़ ने भी कम दम नहीं लगाया। नेताजी ने अपने सभी कार्यकर्ताओं को उनकी हैसियत के अनुसार थैलियां थमाने में भरपूर दरियादिली दिखायी। इन कार्यकर्ताओं में विधायक और पार्षद भी शामिल थे, जिन्हें आगामी महानगर पालिका और विधानसभा के चुनाव में टिकट देने का आश्वासन देकर अपने खूंटे से ऐसे बांधा गया था, जैसे बैल और बकरी के सामने चारा डालकर उन्हें इधर-उधर न ताकने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। नेताजी की चुनावी जीत का जश्न चार दिन पहले मनाया जा चुका था। आज उनके केंद्रीय मंत्री बनने पर गुलदस्तों और मिठाई के डिब्बों के साथ कार्यकर्ताओं और तरह-तरह के लोगों का हुजूम कोठी को खचाखच कर चुका था। कुछ अतिउत्साही कार्यकर्ता कोठी की बाउंड्रीवॉल पर चढ़कर नेताजी के नाम का जयकारा लगा रहे थे। नेताजी के सुरक्षाकर्मी भीड़ को नियंत्रित और संयमित होने का अनुरोध कर रहे थे, लेकिन जीत का जोश उन्हें बेकाबू और बेचैन किये था। भीड़ को बार-बार यह भी बताया जा रहा था कि नेता जी आज सुबह ही मंत्री पद की शपथ लेकर दिल्ली से लौटे हैं। उन्हें तैयार होकर आने में कम अज़ कम दो घण्टे लग सकते हैं। जोश में मस्तायी भीड़ के लिए दो घण्टे दो मिनट समान थे। उसे इन्तजार करने और नारे लगाने की जन्मजात आदत थी। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, भीड़ को संभालना मुश्किल होता चला जा रहा था। शहर के जाने-माने-उद्योगपति, व्यापारी, ठेकेदार और अखबारों और न्यूज चैनलों के वो संपादक और मालिक, जिन्होंने नेता जी के आरती गान की सभी सीमाओं को लांघ कर पत्रकारिता और चापलूसी के अंतर की निर्ममता से हत्या कर दी थी, गुलदस्तों और हारों के साथ पहुंच चुके थे। कुछ तो पांच सौ और दो हजार के नोटों के हार भी लाये थे। उन्हें नेताजी के निजी कमरे में शोभायमान कर दिया गया था। उनके लिए किशमिश, काजू-बादाम के साथ-साथ तरह-तरह के पेय पदार्थों की भी व्यवस्था थी। 

नेताजी की एक झलक पाने को लालायित भीड़ का साम्राज्य कोठी के सामने की मुख्य सड़क पर भी अपना कब्जा जमाने लगा था। इस भीड़ में पसीने से तरबतर रघु भी खड़ा था। उसके हाथ में एक बड़ा गुलदस्ता था। चार दिन पहले नेताजी के जीतने की खुशी में मनाये गये जश्न की भीड़ में भी रघु शमिल हुआ था, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी उसका नेताजी के निकट जाना संभव नहीं हो पाया था। रिक्शा चालक रघु उस दिन तो खुशी से फूला नहीं समाया था, जब उसकी जर्जर झोपड़ी में नेताजी के चरण पड़े थे। उनके साथ क्षेत्र के पार्षद तथा कई और पार्टी कार्यकर्ता थे, जिन्हें रघु अच्छी तरह से पहचानता था। पार्षद ने रघु की तारीफ करते हुए नेताजी को बताया था कि यह बंदा बड़े काम का है। झोपड़पट्टी के सभी लोग इसी के इशारे पर चलते हैं। यह जिसे वोट देने को कहेगा उसी को उनके वोट मिलेंगे। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई थी। उन्होंने झट से रघु से हाथ मिलाया था। पीठ भी थपथपायी थी। उनके साथ आये एक कार्यकर्ता ने चुपके से पांच-पांच सौ के दस नोट उसकी तरफ बढ़ाये थे, जिन्हें रघु ने यह कहते हुए लेने से इन्कार कर दिया था कि मैंने कभी भी अपना वोट नहीं बेचा। वोट बेचने वालों से मैं नफरत करता हूं। नेताजी उसका चेहरा देखते रह गये थे। उन्होंने जाते-जाते कहा था कि तुम्हारे जैसे ईमानदार वोटरों की बदौलत ही मैंने पिछला चुनाव जीता था। इस बार भी कोई माई का लाल मुझे हरा नहीं सकता। पिछली बार की तरह इस बार भी मेरा मंत्री बनना तय है। चुनाव का परिणाम आने के पश्चात तुम मुझसे जरूर मिलना। तुम सभी झोपड़पट्टी के निवासियों के लिए शीघ्र ही पक्के घरों की व्यवस्था करवा दूंगा।

गर्मी की तपन बढ़ती जा रही थी। रघु का दम घुटने लगा था। उसके कपड़े पसीने से गीले होकर उसके बदन से चिपक गये थे। एकाएक रघु पर उसी की झोपड़पट्टी में रहने वाले विद्रोही नामक पत्रकार की नजर पड़ी तो उसने रघु पर सवाल दागा कि क्या तुम भी नेताजी को उनका वादा याद दिलाने आये हो? रघु हैरान होकर पत्रकार को देखता रह गया। फिर पत्रकार ने बताया कि वोट हथियाने के लिए मतदाताओं से तरह-तरह के वादे करना और मनमोहक प्रलोभनों के जाल फेंकना तो नेताजी का पुराना पेशा है। वोटरों को बेवकूफ बनाने की इसी कला की बदौलत ही तो आज वे सत्ता की बुलंदियों पर हैं। इस भीड़ में तुम जैसे हजारों लोग शामिल हैं, जो नेताजी से मिलने की आस में पहुंचे हैं। चुनाव जीतने के बाद नेताजी को अपने खास लोगों के काम करवाने और उन्हें मालामाल करने से कभी फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में वे तुम जैसे आम लोगों से क्या खाक मिलेंगे! रघु पत्रकार का चेहरा देख रहा था और पत्रकार खिलखिला रहा था। उनकी बातचीत चल ही रही थी कि वहां पर पुलिस वाले भीड़ को खदेड़ने लगे। नेताजी अपने खास लोगों से मेल-मुलाकात करने के बाद सुरक्षाकर्मियों के घेरे में कोठी से निकले और अपनी चमचमाती कार में बैठकर फुर्र हो गये। रघु को बड़ा गुस्सा आया। उसने गुलदस्ते को तोड़ा-मरोड़ा और वहीं सड़क पर फेंक दिया। यह देश के नब्बे प्रतिशत से अधिक नगरों, महानगरों और वहां के जनप्रतिनिधियों की कड़वी हकीकत है इसलिए किसी एक शहर और नेता का नाम लिखना बेमानी है।

चित्र - 2 : अपने देश में विधायक और सांसद का चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं। अथाह धन लुटाने के बाद भी जीत हासिल हो, ऐसा कोई दावा नहीं किया जा सकता। रघु ने कई जमीनी नेताओं को विधायक और सांसद बनते देखा है। चुनाव जीतने के पश्चात जमीन की बजाय आकाश में उड़ने वाले अधिकांश नेताओं की असली फितरत से रघु खूब वाकिफ है। उसने कई नेताओं को अपने रिक्शे पर बैठाकर यहां-वहां घुमाया है। उसने फटेहाल नेताओं को विधायक, सांसद बनने के बाद करोड़ों में खेलते देखा है। उसे यह जानकर हैरानी होती है कि प्रदेश के कुछ नेता हजारों करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं। यह सारी धन-दौलत उन्होंने विधायक, सांसद और मंत्री बनने के बाद जुटायी है। शहर के कुछ नेता भी उनका अच्छी तरह से अनुसरण कर रहे हैं। किसी अनपढ़ विधायक को मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज चलाते देख अब उसे कोई हैरानी नहीं होती। हां, पहले जरूर होती थी। शहर में कुछ नेता ऐसे भी हैं, जिन्होंने चुनाव जीतने के बाद धड़ाधड़ सरकारी जमीनें अपने नाम करायीं और स्कूल, कॉलेज और शराब के कारखाने तान दिए। करोड़ों की जमीने कौड़ी के मोल हथियाने वाले नेताओं में कुछ तो ऐसे हैं, जिनके विभिन्न शहरों में पचासों स्कूल कॉलेज हैं। इन कॉलेजों में गरीब आदमी के बच्चों को प्रवेश ही नहीं मिलता। खुद रघु इसका भुग्तभोगी है। उसके बेटे को योग्य होने के बावजूद मंत्री जी के मेडिकल कॉलेज में दाखिला इसलिए नहीं मिला था, क्योंकि उसकी पचास लाख रुपए डोनेशन देने की औकात नहीं थी। रघु ने मंत्री महोदय की उन दिनों की याद भी दिलायी थी जब वे फटेहाल उसके रिक्शे की सवारी किया करते थे! आज कई कारों और कोठियों के मालिक बन चुके नेताजी बस मुस्कराते रह गए थे। अपने इकलौते बेटे को डॉक्टर बनाने का रघु का सपना धरा का धरा रह गया। कुछ महीने पहले ओडिशा के बालासोर लोकसभा क्षेत्र से सांसद बने प्रताप चंद्र सारंगी शहर में आये हुए थे। रघु ने ही उन्हें शहर घुमाया था। उनका लिबास और व्यवहार देखने के बाद रघु सोचता रह गया था कि कोई सांसद इतना सहज और सरल भी हो सकता है। उसे यह जानकर हैरत हुई थी कि सारंगी ने चुनाव में एक पैसा भी खर्च नहीं किया और करोड़पति को मात दे दी। सारंगी दो बार विधायक भी रह चुके हैं। अपना एक साप्ताहिक अखबार निकालते है, जिसमें आम आदमी की समस्याओं को निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ उठाया जाता है। गांव और शहर की गलियों में पैदल घूमते हैं। चुनाव लड़ने से पहले जिस मिट्टी और बांस के कच्चे घर में रहते थे। वह आज भी जस का तस है। उनके घर के दरवाजे चौबीसों घण्टे सभी के लिए खुले रहते है। उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में कई स्कूल और अस्पताल बनवाये हैं, जहां मुफ्त शिक्षा और इलाज की सुविधा उपलब्ध है। लोकसभा चुनाव जीतकर जब सारंगी संसद भवन पहुंचे थे तब हर कोई इन्हे देखने और मिलने को आतुर था। उनकी ईमानदारी और सादगी को देखते हुए पहली बार सांसद बनने पर भी उन्हें मंत्रिमंडल में जगह दी गई। जब उन्होंने मंत्रीपद की शपथ ली तब तालियां थमने का नाम नहीं ले रही थीं। रघु कहता है कि शहर के अधिकांश नेताओं ने भले ही कितनी-कितनी काली माया बटोर ली हो, लेकिन सारंगी जैसा मान-सम्मान उनके नसीब में नहीं। बेइमानों का लोग भले ही ऊपर-ऊपर से सजदा करते हैं, लेकिन पीठ पीछे भद्दी-भद्दी गालियों से नवाजते हैं। रघु वर्षों से सपना देखता आ रहा है कि, उसके शहर में भी सारंगी जैसा कोई शख्स विधायक और सांसद बने जो हर आम आदमी के सुख-दु:ख का सच्चा साथी हो...।

Thursday, April 10, 2025

अपना-अपना सफरनामा

चित्र-1 : उसने एमए किया था। मां-बाप को यकीन था कि बेटा शीघ्र अच्छी नौकरी हासिल करेगा। सभी तकलीफें दूर हो जाएंगी। उनकी तपस्या रंग लाएगी। उसे शिक्षित करने के लिए उन्होंने साहूकार से अच्छा-खासा लोन लिया था। कर्जे की वसूली के लिए उसने बार-बार घर में दस्तक देनी शुरू कर दी थी। उन्होंने जवान बेटे की किसी अच्छी गुणवान लड़की से शीघ्र शादी करने की पुख्ता योजना भी बना ली थी, लेकिन काफी प्रयास के बाद भी बेटे को मनचाही नौकरी नहीं मिल पायी। उसके चचेरे भाई को बीए पास करने के बाद ज्यादा हाथ पैर नहीं मारने पड़े थे। उसे शहर की विख्यात रेडिमेड कपड़े की दुकान पर हाथों-हाथों सेल्समैन की नौकरी मिलने से उसके परिजन खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। फर्स्ट डिविजन से एमए करने वाले युवक को लगातार मानसिक तनाव में रहना पड़ रहा था। वह ऐसी-वैसी जगह पर नौकरी नहीं करना चाहता था। उसकी तो बस सरकारी नौकरी कर मज़े से दिन काटने की चाह थी। एक दिन की सुबह जब वह काफी देर तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकला तो मां-बाप ने दरवाजा खटखटाया, काफी हो-हल्ला भी मचाया, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। आखिरकार पड़ोसियों के सहयोग से दरवाजे को तोड़ा गया। अंदर युवक का शव फांसी पर लटका मिला। बिस्तर पर जो सुसाइड नोट मिला, उसमें लिखा था, कई महीनों तक चप्पलें घिसने के बाद भी सरकारी नौकरी नहीं मिली। उस पर परिजनों के असफल और नकारा होने के तानों ने मेरा जीना दूभर कर दिया है। इसलिए मैंने मर जाना ही उचित समझा। युवक ने खुदकुशी करने के दौरान अपने मोबाइल में तीन घंटे का वीडियो भी बनाया, जिसमें उसकी अपनी ही हत्या करने की हकीकत रिकार्ड हो गई। अच्छे खासे हट्टे-कट्टे युवक की खुदकुशी से घर में कोहराम मच गया। माता-पिता रो-रोकर कर बेहाल हैं।

चित्र-2 : प्रशांत हरिदास, राजधानी दिल्ली का निवासी है। सरकारी, अर्ध सरकारी और प्राइवेट कार्यालयों के चक्कर काटते-काटते थक गया, लेकिन नौकरी नदारद। निराशा और हताशा ने जब लस्त-पस्त कर दिया उसने खुद के लिए एक शोक संदेश पोस्ट कर दिया। इसमें उसने अपनी तस्वीर पर ‘रेस्ट इन पीस’ लिखते हुए नौकरी की तलाश में मिली हताशा और निराशा का खुलकर वर्णन करते हुए स्पष्ट किया कि, भले ही उसकी नौकरी पाने की कोशिशें रंग नहीं लाईं, लेकिन फिर भी उसने किसी भी तरह से खुद को चोट पहुंचाने की कभी नहीं सोची। मैं खुद को उन लोगों में शामिल कर भगौड़ा और कायर नहीं कहलाना चाहता, जो विपरीत परिस्थिति से घबराकर खुदकुशी कर लेते हैं। अभी मेरी उम्र ही क्या है। मुझे कई वर्षों तक जीते हुए तरह-तरह के खाने का स्वाद चखना है। देश और दुनिया में घूमने फिरने की कई जगहें हैं, जहां की मुझे यात्राएं करनी हैं। करीब तीन साल तक बेरोजगार और अलग-थलग रहने के बाद जो अनुभव मेरे हिस्से में आये हैं, वो भी मेरे लिए बहुत कीमती हैं। इन्होंने ही मुझे बिगड़ी चीज़ों को दुरुस्त करने, नौकरी पाने की और...और कोशिशें करने और जीवन से प्यार करने की प्रेरक ऊर्जा और शक्ति दी हैं।’

चित्र-3 : राजस्थान के बांसवाड़ा में जन्मे बालक कृष्णा के जन्म से ही हाथ- पांव नहीं हैं। दिव्यांगता के बावजूद जन्म से ही कृष्णा की मुस्कान इतनी मनमोहक थी, जिसकी वजह से माता-पिता ने सभी गमों को भुलाते हुए उसका नाम कृष्णा रख दिया। डॉक्टरों ने कृष्णा के बचने की बहुत कम संभावना बतायी थी, लेकिन कृष्णा ने उनके अनुमान पर पानी फेर दिया। कृष्णा जैसे-जैसे बढ़ा होता गया, अपनी अपंगता के अटल सच को समझते हुए हिम्मती और आत्मविश्वासी बनता चला गया। उसके मनोबल को दिव्यांगता कहीं भी शिथिल नहीं कर सकी। चार साल का होने पर वह खुद ही नहा-धोकर घुटनों से चलते हुए स्कूल जाने लगा। अभी वह पांच साल का ही था कि मां का देहांत हो गया। घुटनों में चप्पल और कोहनियों के सहारे लिखने वाले होनहार छात्र कृष्णा की बड़ा होकर एक अच्छा शिक्षक बनने की तमन्ना है। वह जब कोहनियों से क्रिकेट खेलता है तो लोग तालियां बजाते नहीं थकते। कृष्णा के पिता मजदूरी करते हैं। उसके दादा उसे घर से दो किमी दूर स्थित स्कूल छोड़ने जाते हैं। दादा कभी-कभार चलते-चलते थक जाते हैं, लेकिन कृष्णा बिलकुल नहीं थकता-रूकता। स्कूल की छुट्टी होने पर वह पैदल-पैदल अकेला ही घर पहुंच जाता है। जिन शिक्षकों को शुरू-शुरू में लगता था कि वह भविष्य में कुछ नहीं कर पायेगा, अब वही क्लास के सबसे होनहार छात्र के बारे में यह कहते हैं कि, परम पिता परमेश्वर ने इसे कोई नया इतिहास रचने के लिए भेजा है। वह बीमार होने पर भी कभी स्कूल मिस नहीं करता। कहता है, स्कूल तो मेरा मंदिर है...।

चित्र-4 : संघर्ष के बिना मनचाही सफलता नहीं मिलती। कुछ लोगों का संघर्ष हतप्रभ कर देता है। आंखें नम हो जाती हैं। उनके कभी हार नहीं मानने के जज्बे को बार-बार सलाम करने को जी चाहता है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो तमाम सुख-सुविधाओं के होने के बावजूद नाकामयाब होने पर तरह-तरह की शिकायतों और बहानों की झड़ी लगा देते हैं। वहीं भुखमरी, गरीबी और लाचारी के शिकार कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपने लक्ष्य को पाने के लिए कोई शोर-शराबा नहीं करते। उन्हीं में शामिल हैं आईएएस बी अब्दुल नासर। कम उम्र में पिता की मौत हो जाने की वजह से बी अब्दुल नासर को अनाथालय में रहना पड़ा। स्कूल की फीस भरने के लिए घर-घर अखबार बांटे, ट्यूशन पढ़ाई, होटल में खाना परोसा, फोन आपरेटर की नौकरी की और अनेकों अवरोधों का डट कर सामना किया, लेकिन फिर भी अपनी पढ़ाई पर अपना सारा ध्यान केंद्रित रखा। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद भी अब्दुल नासर ने केरल स्वास्थ्य विभाग में सरकारी नौकरी की। उसके पश्चात केरल की राज्य सिविल सेवा परीक्षा पास करके डिप्टी कलेक्टर बने। उन्हें सर्वश्रेष्ठ डिप्टी कलेक्टर के रूप में सम्मानित भी किया गया। उनकी शानदार परफॉर्मेंस और प्रशासनिक कुशलता को देखते हुए कलांतर में केरल सरकार ने उन्हें आईएएस अधिकारी के तौर पर प्रमोट किया। इसके बाद वह कोल्लम के जिला कलेक्टर और केरल सरकार के हाउसिंग कमिश्नर जैसे उच्च पदों पर विराजमान रहे। अनाथालय से आईएएस अफसर बनने तक के उनके सफरनामे से हजारों युवक-युवतियों को प्रेरणा मिल रही है और वे भी उन्हीं की तरह शिखर पर पहुंचने के लिए सतत संघर्ष करने को तैयार हैं...।

Thursday, April 3, 2025

चरित्र के चित्र...

 आज सुबह अखबार को हाथ में लेते ही सबसे पहले इन दो खबरों पर नज़र गढ़ी की गढ़ी रह गई। पहली खबर का शीर्षक है, ‘‘टुकड़े कर ड्रम में भर दूंगी, बिगड़े पति को पत्नी की धमकी’’ 

‘‘उत्तरप्रदेश के शहर मेरठ में एक युवक ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी है कि उसकी बीवी ने उसे ईंट मारकर बुरी तरह घायल कर दिया। युवक के सिर पर पट्टी बंधी थी। रात को वह शराब पीकर घर पहुंचा था। हमेशा की तरह दोनों में कहा-सुनी हुई। खाना खाने के बाद वह चारपाई पर लेट गया। पत्नी का बड़बड़ाना कम नहीं हुआ, जिससे विवाद और बढ़ता चला गया। पहले भी वह विरोध जताती थी, लेकिन इस बार तो उसने ईंट उठाकर सिर पर दे मारी और उसे लहूलुहान कर दिया। इतने से भी शायद उसका मन नहीं भरा। उसने चीखते हुए धमकी दे दी कि इस बार तो उसने सिर फोड़ा है, अगली बार यदि वह अपनी पीने की आदत से बाज नहीं आया तो जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर ड्रम में भर देगी। किसी को उसकी लाश का भी अता-पता नहीं चल पायेगा।’’

दूसरी खबर का शीर्षक है, ‘‘महिलाएं भी रिश्वतखोरी में कम नहीं, खेल अधिकारी डेढ़ लाख लेते पकड़ाई’’ 

‘‘एंटी करप्शन ब्यूरो ने जिला महिला खेल अधिकारी कविता को डेढ़ लाख रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगेहाथ गिरफ्तार किया है। एक ठेकेदार के बिल को मंजूर करने की ऐवज में यह वसूली की जा रही थी। आरोपी कविता के परभणी स्थित घर की तलाशी के दौरान एसीबी ने एक लाख पांच हजार रुपए नकद जब्त किए। उसके छत्रपति संभाजी नगर और पुणे स्थित घरों की तलाशी का अभियान चल रहा है...।’’ इन दोनों खबरों को पढ़ते ही मेरे दिमाग की घड़ी की सुई दो हफ्ते पहले की उन दो खबरों पर जाकर रुक गई, जो लगातार देशभर के न्यूज चैनलों तथा अखबारों की सुर्खियां बनी रहीं। उत्तरप्रदेश के मेरठ में वासना की आंधी में उड़ती मुस्कान नामक युवती ने प्रेमी के साथ मिलकर मर्चेंट नेवी अधिकारी अपने पति सौरभ के 15 टुकड़े किए फिर उन्हें एक ड्रम में भरकर सीमेंट और रेत के साथ ड्रम में बंद कर दिया। मुस्कान और उसके प्रेमी साहिल ने पुलिसिया पूछताछ में बताया कि उन्होंने सौरभ का गला काटा और सिर धड़ से अलग करने के साथ-साथ उसकी उंगलियों को भी काट डाला। इस नृशंस हत्याकांड को बड़ी चालाकी से अंजाम देने के बाद सिर को धड़ से अलग किया। कलाइयां भी काटीं। फिर सिर और धड़ को अलग-अलग रख दिया, ताकि लाश पहचान में ही न आए। शराब, गांजा और चरस की लत में डूबी मुस्कान लंबे समय से कर्मठ सौरभ को रास्ते से हटाने की योजना बना रही थी। सौरभ मुस्कान से बहुत प्यार करता था। वह उसे दुनिया की सभी खुशियां देना चाहता था, लेकिन मुस्कान का वफा और समर्पण से कोई वास्ता नहीं था। देह की भूख ही उसके लिए सबकुछ थी। इसलिए उसने जिस शख्स के साथ कभी जीने-मरने की कसमें खाई थीं, उसी के टुकड़े-टुकड़े कर ड्रम में दफन कर दिया। 

अपने साथी को फ्रिज, कूकर, बैग, दीवार, फर्श, बोरे, बिस्तर और ड्रम में दफन करने वाले प्रेमी, प्रेमिका, पति, पत्नी बाद में चैन से कैसे जी पाते होंगे? संवेदनशील लोग तो सोच-सोचकर बेचैन हो जाते हैं। उनकी रातों की नींद उड़ जाती है। मेरठ के लोगों ने तो अब ड्रम भी सोच-समझकर खरीदने का निर्णय कर लिया है। हत्यारी मुस्कान ने जिस ड्रम मेें पति की लाश के टुकड़ों को पैक किया था उसका रंग नीला था। लोगों ने नीले रंग के ड्रमों से ही दूरी बनानी प्रारंभ कर दी है। बेचारे दुकानदार ग्राहकों को समझा-समझा कर थक गए हैं कि इन नीले ड्रमों का कोई कसूर नहीं है। कसूरवार तो वो इंसानी हरकतें हैं, जिनके चलते इंसान शैतान, हैवान और पत्थरदिल  बन जाता है और रिश्तों की अहमियत और मान-मर्यादा को सूली पर लटका देता है। लेकिन लोग हैं कि अब नीले रंग के ड्रम को छूने को तैयार नहीं। आखिरकार दुकानदारों ने भी अपनी दुकानों से नीले रंग के ड्रमों को हटा कर नए-नए रंगों के ड्रम रखने प्रारंभ कर दिए हैं...। 

जिस देश में न्याय पालिका भ्रष्टाचार के छींटों से दागदार हो रही हो, कुछ वकीलों और जजों की मिलीभगत से न्याय के बिकने-बिकाने की खबरों का अंबार लगा हो, वहां पर यदि कोई नारी रिश्वत लेते पकड़ी जाए तो आश्चर्य कैसा? शासकीय कार्यालयों में रिश्वत लेकर जायज काम करने की नाजायज परंपरा से तो देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। मेहनतकश आम आदमी को हजार पांच सौ रुपए कमाने के लिए कई-कई तिकड़मे और कसरतें करनी पड़ती हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारी, कर्मचारी, नेता, मंत्री की तिजोरी चुटकी बजाते-बजाते भर जाती है। इस लुटेरी जमात के मान-सम्मान पर भी कभी कोई आंच भी नहीं आती। इनके बचाव के लिए पूरा तंत्र-मंत्र चौबीस घंटे लगा रहता है। रात को कोर्ट के दरवाजे तक खुल जाते हैं। किसी को पता ही नहीं चलता और संगीन अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं। उनका स्वागत, मान-सम्मान करने के लिए हार-गुलदस्ते लेकर भीड़ भी अदालतों तक पहुंच जाती है। 

14 मार्च 2025 के दिन होली थी। लोग रंग और भंग में डूबने के बाद रात को गहरी नींद में थे। दिल्ली हाईकोर्ट के माननीय (?) जज यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास में लगी आग में करोड़ों रुपयों की नोटों की गड्डियां धू...धू कर जलते हुए इंसाफ के रखवाले को कटघरे में खड़ा कर रही थीं। जज साहब के स्टोर रूम में जले-अधजले नोटों को बड़ी चालाकी से रहस्य की काली चादर में लपेट-समेट दिया गया। नोटों के वीडियों तथा तस्वीरें तो सभी ने देखीं, लेकिन नोट नहीं दिखे! यानी अधजले नोट भी गायब कर दिये गए। 15 से 20 करोड़ की रकम कम नहीं होती। यदि किसी व्यापारी, उद्योगपति के यहां यह अग्निकांड हुआ होता तो पूरे देश में हंगामा मच जाता। इस रहस्यमय कांड ने जजों के चरित्र और साख पर सवालिया निशान तो लगा ही दिया है। न्याय की कुर्सी पर विराजमान कुछ जजों पर पहले भी कलंक के छींटे पड़ चुके हैं। कुछ विद्वान जजों ने ऐसे-ऐसे फैसले सुनाये हैं, जिन्हें भरपूर शंका की निगाह से देखा गया है। कुछ जजों ने तो बचकाने निर्णय सुना कर आम जनों को चौंकाते हुए मीडिया की भरपूर काली-पीली सुर्खियां बटोरी हैं। बीते कई वर्षों से देश की न्यायपालिका के पूरे तंत्र में बदलाव लाने की वर्षों से मांग उठ रही है। आम लोगों को लगने लगा है कि उन्हें न्याय नहीं मिलता। अदालतों में तारीख पर तारीख देकर गरीबों की कमर तोड़ने और अमीरों को राहत देने की कष्टदायी परिपाट बन चुकी है। 17 मार्च 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राम मनोहर मिश्रा ने अपने एक निर्णय में यह कहकर देश और दुनिया को हतप्रभ कर दिया कि नाबालिग लड़की के स्तनों को छूना, उसके पायजामे के नाड़े को खोलना और उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करना बलात्कार या बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता। यह मामला उत्तरप्रदेश के कासगंज का है। जहां 2021 में दो व्यक्तियों पर 11 वर्षीय नाबालिग लड़की पर बलात्कार का आरोप लगाया गया था। जज साहब के ‘स्व विवेकी’ निर्णय ने सजग भारतीयों के मन-मस्तिष्क की संवेदनशील जड़ों को ज़मीन विहीन करके रख दिया है...।

Thursday, March 27, 2025

मन की किताब

जो हार नहीं मानते। हालातों से टकराते हैं। वही अंतत: मील का पत्थर बन राह दिखाते हैं। लोग उन्हीं के अटूट संघर्ष की मिसालें देकर हताश निराश और उदास लोगों का हौसला बढ़ाते हैं। किताबों के पन्नों में भी वही नज़र आते हैं। किताब को जब तक हाथ में लेकर खोला नहीं जाए तब तक उनमें समाहित ज्ञान से रूबरू नहीं हुआ जा सकता। किताबों ने न जाने कितने भटके लोगों को नई दिशा देते हुए मंजिल तक पहुंचाया है। असम के रहने वाले 33 वर्षीय डेका आर्थिक तंगी की वजह ज्यादा दिन तक स्कूल नहीं जा पाए। अनपढ़ होने के कारण ढंग की नौकरी नहीं मिली। जो नौकरी मिली उसमें कभी मन नहीं लगा। बेमन से नौकरी बजाते-बजाते डेका को पुस्तकें पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि वह उन्हीं में रम गया। तभी उसे अपनी भूल और कमी का भी पता चला। मन में यह विचार भी बार-बार आया कि यदि हिम्मत कर किसी तरह से पढ़-लिख जाता तो ऐसे मर-मर कर अभावों की आंधी में सूखे पत्तों की तरह इधर-उधर नहीं उड़ना-बिखरना पड़ता। विभिन्न विचारकों, विद्वानों के प्रेरक शब्दों ने उसकी नकारात्मक सोच को बहुत पीछे छोड़ दिया। उसने अपने भीतर दबे-छिपे ज्ञान और शक्ति से रूबरू होकर हमेशा-हमेशा के लिए किताबों से रिश्ता जोड़ने का निश्चय करते हुए अपनी बाइक को किताबों की दुकान बना दिया। बाइक पर किताबें लादकर वह आसपास तथा दूर-दराज के ग्रामों तक जाने लगा। उसे यह देखकर हैरानी हुई कि ग्रामवासी अपनी मनपसंद किताबों की मांग करने के साथ-साथ उसकी सुझायी किताबें खुशी-खुशी खरीदने लगे। शहरों में तो पाठकों को अपनी मनचाही पुस्तकें आसानी से मिल जाती हैं लेकिन ग्रामों में बड़ी मुश्किल होती है। डेका की मेहनत और कोशिश को रंग लाने में ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ ही महीनों में पास और दूर के लगभग दस गांवों के लोग उसके नियमित ग्राहक बन गए। नयी-नयी किताबों के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा स्टेशनरी के भी आर्डर मिलने लगे। अपनी बाइक पर ही बुक एवं स्टेशनरी की दुकान चला रहे डेका की अब हर माह बड़ी आसानी से पचास हजार रुपये की कमायी हो रही है। मात्र पांच-छह साल में किताबों की बदौलत लाखों में खेल रहे डेका का युवाओं से बस कहना है कि नौकरी के पीछे मत भागो। अपनी मेहनत से देर-सबेर जो सफलता मिलेगी उसकी खुशी से तुम झूम उठोगे। मन सदैव यह सोच-सोच कर गदगद रहेगा कि हमने जो भी पाया अपनी मेहनत और लगन से पाया। 

असम-अरुणाचल की सीमा पर बसे भोगवारी गांव के बच्चे चाहकर भी स्कूल नहीं जा पाते थे। उनके घर का वातावरण अत्यंत निराशाजनक था। पुरुषों को पीने की लत ने लगभग नकारा बना दिया था। जो भी कमाते शराब पर उड़ा देते। घर में रोज-रोज होने वाले लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौज ने बच्चों को भी हिंसक, आवारा और गालीबाज बना दिया था। पिता के हाथों जब-तब पिटना उनका नसीब बन कर रह गया था। इसी गांव में रहने वाली युवती अनिंदिता बच्चों की दुर्गति देख-देख कर हैरान-परेशान होती रहती थी, लेकिन इससे समस्या का हल नहीं होने वाला था। अनिंदिता ने बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए खुद की जमापूंजी से लाइब्रेरी की शुरुआत की। इस लाइब्रेरी में उसने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए आवश्यक कॉपी, किताबों के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें रखनी प्रारंभ कर दीं। उसने बच्चों के मां-बाप को भी रोड साइड लाइब्रेरी में आने का निवेदन किया। मूलभूत आवश्यकताओं से जूझते माता-पिता भी शिक्षा और अध्ययन के महत्व और जरूरत से अंजान नहीं थे। अनिंदिता को शुरू-शुरू में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना प़ड़ा। खुद की पूंजी भी कुछ महीनों में खत्म हो गई। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। इलाके के धनवानों तथा समाजसेवी लोगों से उसका सेवाकार्य और संघर्ष छिपा नहीं था। अनिंदिता जब उसके पास सहयोग के लिए पहुंची तो उन्होंने उम्मीद से ज्यादा तन-मन-धन से उसका साथ देना प्रारंभ कर दिया। अब तो अनिंदिता के हौसले, संघर्ष की बदौलत भोगबारी गांव में बच्चों तथा बड़ों की जिन्दगी में बदलाव आ चुका है। नयी रोशनी ने सभी के चेहरे पर चमक ला दी है। रोड साइड लाइब्रेरी चौबीसों घण्टे खुली रहती है। गांव के 200 बच्चे नियमित पढ़ने आते हैं। जिन बच्चे-बच्चियों के घरों में रहने की सुविधा नहीं है वे यहीं खाते-पीते और सोते हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए अनिंदिता ने क्लॉथ हाउस भी शुरू किया है। यहां से सभी गांववासी अपनी आवश्यकता के अनुसार कपड़े ले सकते है। जिनकी हैसियत कीमत चुकाने की नहीं उन्हें बिलकुल नि:शुल्क वस्त्र प्रदान किये जाते हैं। अनिंदित की लाइब्रेरी से बच्चे ही नहीं वयस्क भी जुड़ते चले जा रहे हैं। 

मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में पुस्तकों को पढ़ने वाले कम हो गये हैं। विभिन्न विधाओं की पुस्तकें तो धड़ाधड़ छप रही हैं, लेकिन पाठकों की संख्या बढ़ने का नाम नहीं ले रही है। हर साहित्यकार की यही शिकायत है कि अधिकांश युवा तो पुस्तकों के निकट ही नहीं जाते। उन्हें मोबाइल से ही फुर्सत नहीं है। शहरों व ग्रामों में पहले वाचनालयों का जो चलन था, उनमें भी बहुत कमी देखी जा रही हैं। अधिकांश वाचनालय पाठकों का इंतजार करते रहते है। यह भी सच है कि वहां पर सभी की पसंद की कृतियों का नितांत अभाव रहता है।  देश के प्रदेश केरल को छोड़कर कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहां सार्वजनिक वाचनालयों की उल्लेखनीय उपस्थिति बनी हुई हो। लगभग 3.34 करोड़ की आबादी वाले केरल राज्य में किसी भी कस्बे या शहर में चले जाइए आपको सार्वजनिक पुस्तकालय अवश्य दिखाई देंगे। इन वाचनालयों में आपको हर उम्र के पाठक अपनी-अपनी पसंद की पुस्तकें तलाशते और पढ़ते नज़र आ जाएंगे। किताबों की भीनी-भीनी महक और शब्दों का जादू नये-नये पाठकों को वाचनालयों तक खींच लाता है। केरल में स्थित कन्नूर की आबादी लगभग तीस हजार है। यहां पर 34 वाचनालय हैं। यानी हर वर्ग किलोमीटर में लगभग एक वाचनालय! हर वाचनालय पढ़ने के शौकीनों से आबाद रहता है। अधिकांश में कम्प्यूटर व एकीकृत कैटलॉग की सुविधा के साथ-साथ प्रशिक्षित लाइब्रेरियन पदस्थ हैं, जो वहां आने वाले पाठकों का मार्गदर्शन करते हैं। कुछ युवक और युवतियां मूविंग लाइब्रेरी (चलती-फिरती) के जरिए सजग पाठकों के घरों तथा संस्थानों तक किताबें और पत्रिकाएं नियमित पहुंचाते हैं। सभी प्रदेशवासी वाचनालयों के प्रति आकर्षित हों इसके लिए सरकार तो नियमित फंड उपलब्ध कराती ही है। इसके साथ-साथ कुछ सार्वजनिक संस्थाए और सक्षम लोग भी इस जनहित कार्य में पीछे नहीं रहते। केरल में कुछ लाइब्रेरी ऐसी हैं जिन्हें आम लोगों ने आपस में राशि एकत्रित कर स्थापित किया है। लोगों का लाइब्रेरी से इस कदर लगाव है कि जब भी क्षेत्र में नया घर बनता है तो लाइब्रेरी के नाम से उसके पास कोई फलदार पेड़ लगाया जाता है। शिक्षा सामाजिक जुड़ाव और सुधार में भी ग्रंथालयों ने अहम भूमिका निभायी है। यहां पर पुस्तकालयों को पठन-पाठन एवं चिंतन-मनन की संस्कृति के विकास का बहुत बड़ा माध्यम माना जाता है। समय-समय पर हुए विभिन्न आंदोलनों को भी पुस्तकालयों से दिशा और ताकत मिलती रही है। साठ साल की हो चुकी फुर्तीली राधा लाइब्रेरी आंदोलन की एक जानी-पहचानी हस्ती हैं। राधा बीते कई वर्षों से राजनीति में भी सक्रिय हैं। इस उम्र में भी वे महिलाओं और बुजुर्गों को उनके घरों तक किताबें पहुंचाती हैं। वह कहती हैं जब मैं अपने हाथ में लाइब्रेरी का रजिस्टर और कंधों पर किताबों भरा बैग लेकर चलती हूं तो मेरा तन-मन खुशी से झूमने लगता है। यदि मेरा बचपन से साहित्य से लगाव नहीं होता तो मैं मनचाही सफलता से दूर रहती। मेरा तो यही मानना है कि किताबें हालातों को बदलने का हथियार हैं। जब किसी को भी किताब खरीदते देखती हूं तो मैं नतमस्तक हो जाती हूं।  किसी वाचनालय में प्रवेश करने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारना मैं कभी नहीं भूलती। पुस्तकालय मेरे लिए किसी देवालय से कम नहीं। यही किताबें ही हैं जो हमें हमारी अज्ञानता और हैसियत से रूबरू कराती हैं...।

Thursday, March 20, 2025

इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...

चित्र-1 : बबीता। उम्र 50 वर्ष। दायां हाथ और पैर निष्क्रिय हैं। हिलाने-डुलाने में तकलीफ होती है। बचपन में ही पोलियोग्रस्त हो गईं थीं। ऐसे पीड़ादायी रोग और परेशानी में भी उनका मनोबल नहीं टूटा। अटूट हिम्मत और व्हीलचेयर ही उनका सहारा है। बी.कॉम करते-करते मन में शारीरिक रूप से कमजोर, असहाय लोगों की सहायता, सुरक्षा और देखभाल करने की ऐसी इच्छा बलवति हुई कि, जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सच्ची और सार्थक चाह होने पर राह खुद-ब-खुद कदम चूमने लगती है। अपंग बबीता को जैसे ही ‘अपना घर’ नामक आश्रम में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिली तो उन्हें लगा परम पिता परमेश्वर ने उनकी सुन ली है। मात्र एक साल बीतते-बीतते बबीता को 100 बीघा में फैले आश्रम की देखरेख के साथ-साथ मानसिक रूप से विक्षिप्त, शारीरिक तौर पर असक्षम लोगों की सेवा करने का दायित्व सौंप दिया गया। परोपकारी सोच में रची-बसी बबीता ने आश्रम की व्यवस्था ऐसी संभाली कि देखने वाले हैरान रह गए। बबीता बड़ी कुशलता के साथ असक्षम लोगों के रेस्क्यू, रजिस्ट्रेशन, आवास, भोजन, चिकित्सा, स्वच्छता, पुनर्वास, प्रशिक्षण, अध्यापन और अन्य व्यवस्थाएं ऐसी कर्मठता के साथ करती हैं, जैसे वह इसी के लिए बनी हों। उनका साथ देने के लिए 480 कर्मचारी चौबीस घंटे चाक चौबंद रहते हैं। वे सभी बबीता दीदी के तहेदिल से शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने उनके मन-मस्तिष्क में विक्षिप्त और असहायों की सेवा करने के प्रेरणा दीप जलाए हैं। बच्चों और बड़ों की प्यारी बबीता दीदी सुबह 4 बजे तक उठ जाती हैं। उसके बाद ऑटोमेटिक व्हीलचेयर पर विशाल आश्रम के चप्पे-चप्पे में घूमते हुए सभी का हालचाल जानने, सहायता उपलब्ध करवाने में कब रात हो जाती है उन्हें पता ही नहीं चलता। उनके जागने का समय तो निर्धारित है, लेकिन सोने का कोई वक्त तय नहीं है। चौबीस घंटे जोश और उमंग के झूले में झूलती, जरूरतमंदों के फोन अटेंड करती बबीता दीदी के जीवन का बस यही मूलमंत्र है, भले ही आप शारीरिक तौर पर कमजोर और लस्त-पस्त हैं, लेकिन अपने दिमाग को कभी भी अपाहिज मत मानो। उसे हमेशा सक्रिय रखो। अच्छे विचारों से सदैव रिश्ता बनाये रखो। सकारात्मक सोच आपका उत्साह बढ़ायेगी। चुस्ती-फूर्ती भी बनी रहेगी। आश्रम में रहने वाले सभी लोग हमारे लिए प्रभु का रूप हैं। हमें उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिला है। उनकी देखरेख करना हमारा एकमात्र कर्तव्य है। देश-विदेश में फैले 62 आश्रमों में रह रहे लगभग 15 हजार असहायों, विक्षिप्तों की देखरेख में लगी बबीता दीदी अक्सर एक प्रसिद्ध गीत की यह पंक्तियां गुनगुनाती देखी जाती हैं, ‘‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल...।’’

चित्र-2 : हमारे देश में कई पुरातन रीति रिवाज ऐसे हैं, जो मानव के विकास में बाधक बने हुए हैं। बाल विवाह की परंपरा उन्हीं में से एक है। जिसके खिलाफ अभियान तो बहुत से चलाए गए, लेकिन पूरी तरह से उसका खात्मा नहीं हो पाया। देश के कुछ प्रदेशों में नाबालिग, मासूम, नासमझ बच्चियों की शादी करने का चलन कहीं चोरी-छिपे तो कहीं खुले आम आज भी देखा जा सकता है। जिन बेटियों का बाल विवाह होता है उनका भविष्य भी कहीं न कहीं अंधकारमय हो जाता है। यह अत्यंत सुखद और अच्छी बात है कि अब इस चिंताजनक परिपाटी के खिलाफ बेटियां खुद कमर कस रही हैं। इस प्रथा के खिलाफ उनके विरोध के स्वर गूंजने लगे हैं। वे वो मनचाहा कार्य करने लगी हैं, जिन्हें करने से उन्हें रोका जाता था और उनके सपनों की हत्या कर दी जाती थी। राजस्थान में स्थित अजमेर जिले के 13 ग्रामों में हर दूसरे घर की बेटी आज फुटबॉल खेलती है। यहां 550 लड़कियां फुटबॉलर हैं। इनमें से अधिकांश लड़कियां वो हैं जिनके मां-बाप बचपन में ही उनकी शादी करवाने पर तुले थे, लेकिन वे बाल विवाह के खिलाफ डटकर खड़ी हो गईं। अंतत: मां-बाप को भी झुकना पड़ा। कुछ लड़कियों की तो सगाई भी हो चुकी थी, लेकिन उन्होंने फुटबॉल खेलने की चाह में सगाई ही तोड़ दी। लड़कियों को फुटबॉल खेलने से रोकने के लिए गांव के कुछ बड़े-बुजुर्गों तथा खुद को कुछ ज्यादा ही समझदार मानने वाले शिक्षित लोगों ने अपने ज्ञान का पिटारा खोलते हुए कहा कि, फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों का इससे दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं। यहां तक कि सरकारी स्कूल में भी बच्चियों के फुटबॉल खेलने पर पाबंदी लगा दी गई। पुरुषों की मानसिकता बदलने के लिए लड़कियों ने दिन-रात मेहनत की और स्टेट और नेशनल खिलाड़ी बन उपदेशकों की बोलती बंद कर दी। फुटबॉल की जुनूनी बेटियों के जीवन में ऐसे भी क्षण आए जब उन्होंने बचपन की शादी के बंधन में मिले पति की बजाय फुटबॉल को चुना। अब तो इन गांवों की कुछ बेटियां डी-लाइसेंस हासिल कर सफल कोच बन गई हैं और कई लड़कियां नेशनल टूर्नामेंट में शामिल होकर इस संदेश की पताका लहारा चुकी है कि लड़कियों को कम मत समझो। उनका रास्ता मत रोको। वो जो भी चाहें, उन्हें खुलकर करने दो। लड़कियां कभी भी लड़कों से कमतर साबित नहीं होंगी। हर नई शुरुआत के पीछे कोई न कोई प्रेरणा स्त्रोत और कारण अवश्य होता है। अजमेर जिले के 13 ग्रामों में बदलाव लाने का श्रेय जाता है समाजसेविका इंदिरा पंचौली को। राजस्थान में कई इलाकों में अभी भी बीमारी की तरह जड़े जमाए बाल विवाह पर विराम लगाने के उद्देश्य से जब वे अध्ययन के लिए बंगाल गईं थी, तब उन्होंने देखा कि गांव की बच्चियां स्कूल से छूटने के बाद पुलिस थानों में स्थित मैदानों में फुटबॉल खेल रही हैं। पंचौली मैडम के मन में आया कि अपने जिले अजमेर में यदि बच्चियों में फुटबॉल खेलने की इच्छा जगायी जाए तो धीरे-धीरे बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। इसके लिए उन्होंने प्रारंभ में गांवों में खेल उत्सव का आयोजन किया। जिसमें जोर-शोर से ऐलान करवाया गया कि, जो बेटियां फुटबॉल खेलने की इच्छुक हैं वें तुरंत हमसे आकर मिलें। उम्मीद से ज्यादा लड़कियों के फुटबॉल खेलने की इच्छा प्रकट करने पर उनके मनोबल में और जान फूंक दी, लेकिन जब अभ्यास और प्रतियोगिता के लिए बाहर जाने की बात आई तो उनके घरवालों ने यह कहकर अड़ंगा डालना प्रारंभ कर दिया कि फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों के हाथ-पांव टूट गए तो वे अपंग हो जाएंगी और उनसे शादी कौन करेगा? लड़कियों के घर से बाहर जाने पर उनके बारे में लोग उलटी-सीधी बातें करेंगे। लेकिन लड़कियां फुटबॉल खेलने की जिद से टस से मस नहीं हुईं। बात पुलिस प्रशासन तक भी जा पहुंची। उन्होंने भी मां-बाप को समझाया। तब कहीं जाकर वे माने और बेटियां बेखौफ होकर फुटबॉल खेलते हुए एक से एक कीर्तिमान रचने लगीं। उनके नाम की पताका दूर-दूर तक फहराने लगी। जो मां-बाप बेटियों को घर में कैद रखने और बाल विवाह करने के प्रबल पक्षधर थे वे भी बाल विवाह को हमेशा-हमेशा के लिए भूलकर बेटियों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रोत्साहित करने लगे हैं।

चित्र-3 :  उदयपुर में रहती हैं, सरला गुप्ता। महिला हैं, लेकिन पुरुषों से कहीं भी कम नहीं। शादी-मुंडन से लेकर अंतिम संस्कार तक के दायित्व वर्षों से कुशलतापूर्वक निभाती चली आ रही हैं। यह महिला पंडित अभी तक 50 से अधिक शादी-ब्याह के साथ-साथ 70-75 दाह संस्कार संपन्न करवा चुकी हैं। उन्हें इन संस्कार कार्यों से जो धनराशि दक्षिणा के तौर पर मिलती है उसे जरूरतमंद लड़कियों की पढ़ाई के लिए सहर्ष दान कर देती है। पति के रिटायरमेंट के बाद सरला ने समाजसेवा के इस नये मार्ग को चुना। जब उन्होंने अपने जीवनसाथी को पुरोहिताई करने की इच्छा जताई तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को हर तरह से प्रोत्साहित किया। शुरू-शुरू में उन्हीं के समाज के कुछ लोग पीठ पीछे उनकी खिल्ली उड़ाते हुए तरह-तरह की बाते करते थे। कुछ लोग तो उन्हें अपमानित करते हुए यह भी कह देते कि जबरन पंडितों के पेशे से जुड़कर उन्हीं के पेट पर लात मार रही हो। तुम्हें बहुत पाप लगेगा। ईश्वर भी माफ नहीं करेंगे, जिन्होंने सभी के कर्म-धर्म निर्धारित कर रखे हैं। नारी हो, कुछ तो शर्म करो! वही काम करो जो औरतों को शोभा देते हैं। जिन कार्यों को सदियों से पंडित-पुरोहित करते आये हैं उन्हें अपनाकर आखिर वह क्या साबित करना चाहती हो? नाम कमाने के पागलपन में अपने मूल संस्कारों को तिलांजलि देने पर तुली हो। इसका प्रतिफल कदापि अच्छा नहीं होगा, लेकिन अपनी मनपसंद नई राह पर कदम बढ़ा चुकी सरला ने किसी की परवाह नहीं की। अब तो वह जिस घर में जाती हैं, वहां की महिलाएं भी उनसे प्रेरित होकर उनके साथ खड़ी नजर आती हैं। ज्ञातव्य है कि भारत में मात्र तीन महिलाएं हैं जो अंतिम संस्कार करवाती हैं...।

Saturday, March 15, 2025

कौन किसके लायक?

चित्र 1 : पति, पत्नी के रिश्तों में तनाव, लड़ाई झगड़ा, मनमुटाव कोई नई बात नहीं। सदियों से ऐसा होता आया है, लेकिन पिछले आठ-दस वर्षों से अपने देश में इस पवित्र रिश्ते में जो विष घुलता चला जा रहा है, वह ज़हरीली खबर बन लगभग प्रतिदिन हमारे सामने आ रहा है। कोई भी ऐसा दिन नहीं बीतता जिस दिन पत्नी, प्रेमिका तथा पति की हत्या, आत्महत्या की खबर पढ़ने-सुनने में न आती हो। हर नगर, महानगर और अब तो ग्रामों में भी अपने पति से नाखुश, निराश नारियां खुदकुशी का दामन थामने लगी हैं। कभी-कभार जब किसी पुरुष के फांसी के फंदे पर झूल जाने का पता चलता है तो लोगों का बड़ी तेजी से माथा ठनक जाता है। यह कैसा बदलाव है? पुरुषों की तो ऐसी छवि नहीं थी! एक दूसरे की प्रताड़ना, यातना और जानी दुश्मनी से आहत होकर यदि इसी तरह से हत्याएं और आत्महत्याएं होती रहीं तो सोचिए पति, पत्नी के जन्म-जन्मांतर के रिश्ते का कोई अर्थ बचेगा?

आंधी-तूफान की रफ्तार से महानगर की शक्ल अख्तियार करते नागपुर में बीते हफ्ते अपनी शादी के मात्र 14 माह के बीतते-बीतते प्रियंका ने अपने पति की प्रताड़ना से तंग आकर फांसी लगा ली। भावुक और संवेदनशील प्रियंका ने अपने सुसाइड नोट में लिखा, ‘‘मैं तुम्हारे लायक नहीं। मैं तुम्हारी पसंद भी नहीं। मैं तुम्हारी और मम्मी (सास) की ख्वाहिश को पूरा करने में असमर्थ हूं। मेरे मरने के बाद तुम खुशी-खुशी दूसरी शादी करने में देरी न करना। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि तुम्हे ऐसी बीवी मिले जो तुम्हारी हर तमन्ना के तराजू पर खरी उतरे।’’ प्रियंका के पिता परलोक सिधार चुके हैं। उसकी मां मेहनत मजदूरी करती है। उसने बड़ी बेहतर उम्मीदों के साथ अपनी बेटी को पढ़ाया लिखाया। पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा धारक प्रियंका की तीन बहनें और भी हैं। 3 जनवरी 2024 को प्रियंका ने शैलेष नामक युवक के साथ जब सात फेरे लिये थे तब उसके मन-मस्तिष्क में खुशियों का समंदर हिलोरें मार रहा था। अपने सुखद भावी जीवन को लेकर वह पूरी तरह से आश्वस्त थी। शादी के बंधन में बंधने से पहले परिजनों ने भी उसे बताया था कि शैलेष ठेकेदारी के काम से अच्छी-खासी कमायी कर लेता है। वह उसे हर तरह से प्रसन्न और संतुष्ट रखेगा, लेकिन शादी के चंद हफ्तों के बाद ही प्रियंका जान गई कि उसका पति तो कोई काम धंधा ही नहीं करता। बस निठल्ला घर में पड़ा रहता है। शराब पीने का भी उसे जबर्दस्त लत लगी हुई है। प्रियंका जब उससे कुछ काम-धाम करने को कहती तो वह उससे कहता कि वह एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का कार्यकर्ता है। शीघ्र ही वो वक्त आयेगा जब वह करोड़पति बन उसकी झोली खुशियों से भर देगा। वैसे भी दूसरे किसी धंधे में नेतागिरी से बढ़कर मालामाल होने की गुंजाइश ही कहां बची है। उसने प्रियंका का मंगलसूत्र, सोने की चेन और अंगूठी को भी बेचकर शराब पर उड़ा दिया। वह बार-बार प्रियंका को अपनी मां से रुपए मांग कर लाने का दबाव बनाता, लेकिन जब प्रियंका ने थक-हार कर असहाय मां को तंग करने से मना कर दिया तो वह पूरी तरह शैतान बन गया। शादी की पहली सालगिरह पर प्रियंका को उसके चाचा ने दस हजार रुपये उपहार स्वरूप दिए तो उन्हें भी शैलेष ने जबरन छीन लिया और शराब गटक ली। प्रियंका को लाडली बहन योजना की जो राशि मिलती थी उसे भी वह अपने नशे-पानी में उड़ा देता था। इसी दौरान विरोध करने पर शैलेष ने उसे गला घोटकर मारने की भी कोशिश की। प्रियंका रोज-रोज की चिकचिक और प्रताड़ना से इस कदर तंग आ गई कि अंतत: वह खुदकुशी कर ऐसी खबर बनकर रह गई, जिसे पढ़कर-सुनकर लोग तुरंत भुला देते हैं...।

चित्र-2 : मानव शर्मा ने अपनी पत्नी के चरित्रहीन होने की वजह से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। 23 फरवरी को मानव पत्नी के साथ मुंबई से आगरा आया था। यहीं पर उसकी पत्नी का मायका है। 24 फरवरी को वह फांसी के फंदे पर झूल गया। मौत को गले से लगाने से पहले उसने अपनी पत्नी निकेता को भी सूचित किया कि वह मरने जा रहा है। निकेता ने हमेशा की तरह इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन हां, उसने अपनी ननद यानी मानव की बहन को मोबाइल कर बता दिया कि उसका भाई फांसी पर झूलने जा रहा है। वह चाहे तो समय रहते उसे बचा ले, लेकिन ननद ने अपनी भाभी को दिलासा देते हुए कहा कि वह ज्यादा परेशान न हो। वह खुदकुशी नहीं कर सकता। ऐसी धमकी-चमकी तो वह कई बार पहले भी दे चुका है। तुम इत्मीनान से सो जाओ...। आईटी कंपनी टीसीएस में रिक्रूटमेंट मैनेजर मानव ने धमकी को साकार करते हुए अंतत: आत्महत्या कर ली। अपनी जान देने से पहले उसने पूरे होशोहवास के साथ लाइव वीडियो भी बनाया, जिसमें उसने पत्नी के द्वारा उसके ‘शारीरिक अंग’ की कमतरी को लेकर हमेशा की जाने वाली तानाकशी को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराते हुए कानून और देश के हुक्मरानों को चेतावनी के अंदाज में कहा, ‘‘द लॉ नीड्स टु प्रोटेक्ट मैन... अदरवाइज देयर विल बी ए टाइम, दैट देयर विल बी नो मेन। कोई आदमी बचेगा ही नहीं, जिसके ऊपर तुम इल्जाम लगा सको। मैं तो खैर जा रहा हूं, लेकिन मैं फिर भी कह रहा हूं कि मर्दों की भी फिक्र करो। प्लीज उनके बारे में सोचो। मैं यह कहते-कहते थक चुका हूं कि, अरे, मर्दों के बारे में कोई तो बात करे। बेचारे बहुत अकेले हैं। ...पापा सॉरी। मम्मी सॉरी। अक्कू सॉरी। बट गाइज, प्लीज अंडरस्टैंड। देखो, जैसे ही मैं चला जाऊंगा। सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैंने पहले भी कई बार खुदकुशी की कोशिश की है। इसके गवाह हैं मेरे जिस्म पर लगे कट के निशान। मुझे पता चला कि मेरी वाइफ का बाहर चक्कर चल रहा है, लेकिन मैं उससे पूछताछ नहीं कर सकता। एकाध बार मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो उसने बखेड़ा खड़ा कर दिया था। कानून भी औरतों के साथ खड़ा है। कैसा है तुम्हारा लॉ एंड ऑर्डर! ढंग से इंसाफ करो यार। हां एक बात और... मेरे चल देने के बाद मेरे मां-बाप को बिल्कुल टच मत करना...।

चित्र-3 : देश की एक राष्ट्रीय पार्टी की महिला शाखा की अध्यक्ष रोहिणी खडसे ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर भारत की राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु को पत्र लिखकर मांग की है कि नारियों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों, अपराधों और घरेलू हिंसा को देखते हुए महिलाओं को एक हत्या करने पर सजा में छूट दी जाए। देश की महिलाएं दमनकारी और दुष्कर्म वाली मानसिकता और निष्क्रिय कानून व्यवस्था की प्रवृत्ति का खात्मा करना चाहती हैं। रोहिणी ने हाल ही में मुंबई में एक बारह वर्षीय लड़की पर किये गए सामूहिक बलात्कार की घटना का हवाला देते हुए महिलाओं के खिलाफ निरंतर बढ़ते अपराधों पर रोष और चिन्ता व्यक्त की है। अपने निवेदन पत्र में उन्होंने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट का भी हवाला दिया है, जिसमें बताया और चेताया गया है कि महिलाओं के लिए भारत सबसे असुरक्षित देश बन चुका है।

चित्र-4 : पुणे की रहने वाली एक महिला ने अपने पति की हिंसक प्रवृत्ति से त्रस्त होकर पुणे की जिला अदालत की शरण ली। वह रोज-रोज की गालीगलौज और दुर्व्यवहार से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पाना चाहती थी। तलाक के इस मामले के मध्यस्थता केंद्र में पहुंचने पर जज साहब ने महिला पर तंज कसते हुए कहा कि, आप न तो बिंदी लगाती हैं, न ही मंगलसूत्र पहनती हैं और न ही पति को रिझाने के लिए बन ठन कर रहती हैं तो फिर ऐसे में आपके पति आप में चिलचस्पी क्यों दिखाएंगे? जज के इस नुकीले सवाल से वहां पर मौजूद लोग हतप्रभ रह गए। जज महोदय ने अपने महाज्ञान का पिटारा खोलते हुए यह भी कहा कि, जो महिलाएं अच्छी नौकरी पर हैं, मोटी तनख्वाह पाती हैं वे हमेशा ऐसा पति चाहती हैं जो उनसे ज्यादा कमाता हो, लेकिन दूसरी तरफ अच्छा कमाने वाला पुरुष पसंद आने पर अपने घर में बर्तन धोने वाली नौकरानी से भी शादी करने में संकोच नहीं करता। विद्वान जज साहब के प्रवचन से आहत महिला वहीं खड़ी-खड़ी रोने लगी...।

Thursday, March 6, 2025

हवस के शिकारी

चित्र-1 : महाराष्ट्र की उपराजधानी, संतरा नगरी के रंग बहुत तेजी से बदल रहे हैं। मायानगरी मुंबई की तर्ज पर यहां पर भी पब-लाउंज तथा विभिन्न होटलों, फार्म हाउस में रात को शुरू होने वाली भरपूर मस्ती की पार्टियां तड़के तक चलती रहती हैं। नशे के इन कुख्यात ठिकानों पर युवकों के साथ-साथ महिलाओं तथा युवतियों की बेखौफ भीड़ एक बारगी तो दंग ही कर देती है। नव धनाढ्य रईसों के बिगड़े लड़के-लड़कियों के इस मदमस्त जमावड़े को एमडी-गांजा तथा अन्य नशे के सामान मुहैया कराने के लिए ड्रग तस्कर वहीं के वहीं तंबू गाड़कर सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। दो-तीन पब-लाउंज तो ऐसे हैं जिनके मालिक दमदार नेता हैं, या उनके बेटे-बेटी की भागीदारी है, जिन्हें आगे जाकर राजनीति करनी है और प्रदेश और देश की बागडोर संभाल कर अपने भ्रष्टाचारी बाप की तरह चांदी काटनी है। इन ऊंचे चेहरों के नशीले धंधों-फंदों पर पुलिस कार्रवाई करने से घबराती-कतराती है। दूसरे पब-लाउंज, फार्म हाऊस, हुक्का पालॅर शराबखाने आदि में खाकी वर्दी वाले कभी-कभी धड़धड़ाते हुए पहुंच कर कानूनी डंडा चलाने का दावा करते हैं, लेकिन नेताओं के अड्डों के दरवाजे के इर्द-गिर्द मंडरा कर लौट जाते हैं। महाराष्ट्र व विदर्भ के कई नेता एक साथ स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बीयर बार, शराब दुकानें तथा पब-लाउंज चलाने की महारत रखते हैं। धन के लिए लोगों को बीमार भी करते हैं और दवा-दारू का इंतजाम भी बड़ी शान के साथ करते हुए समाजसेवा का डंका पीटते नज़र आते हैं। देश को खोखला करने में अग्रणी ये समाजसेवक अपराधियों से भी करीबी रखने में सिद्धहस्त हैं। 

संतरों के शहर में पड़ोसी शहरों के लड़के-लड़कियां काफी बड़ी संख्या में पढ़ने तथा नौकरी के लिए आते हैं। स्थानीय के साथ-साथ उन बाहरी कॉलेज छात्र-छात्राओं पर ड्रग तस्करों की नजरें सतत टिकी रहती हैं जिन्हें उनकी कमजोरियों के कारण अपने चंगुल में फंसाने में उन्हें आसानी होती है। युवाओं तथा नाबालिगों (हां, यह सच है) को पक्का नशेड़ी बनाने के लिए शुरू-शुरू में तो मुफ्त में गांजा और चरस, एमडी जैसे नशे थमाये जाते है। कुछ दिनों, हफ्तों के बाद इनकी लत लगने पर कीमत वसूली जाती है। जो घर-परिवार से संपन्न है। वे तो नशों का भुगतान कर देते हैं, लेकिन जिनकी हैसियत नहीं, लेकिन नशे के बिना रह नहीं पाते उन्हें मौत के सामानों को बेचने के लिए नये-नये ग्राहक तलाशने के काम पर लगा दिया जाता है। 

शहर की कई युवतियां ड्रग्स की डिलीवरी के काम में लगी हुई हैं। धनाढ्य घरानों की महिलाएं और युवतियां इनकी नियमित ग्राहक हैं। शहर की पॉश पार्टियों में भी ड्रग्स की डिलीवरी करने वाली नशेडी लड़कियों का हश्र भी किसी से छिपा नहीं। नशे ने इन्हें देह के धंधे में धकेल दिया है। खुद के ऊपर कालगर्ल का ठपा लगवा कर यह अपने वर्तमान से तो खुश हैं, लेकिन इनके डरावने कल का ऊपर वाला ही मालिक है।

चित्र-2 : पुणे शहर को महाराष्ट्र का सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है। यहां पर देश के विभिन्न प्रदेशों से लड़के-लड़कियां विभिन्न डिग्रियां लेने के लिए आते हैं। पुणे, लाखों युवाओं को नौकरियां देने में भी भेदभाव नहीं करता। सभी को खुशी-खुशी अपने में समाहित कर प्रसन्न कर देता है। इसी सांस्कृतिक शहर के बसस्टैंड पर खड़ी एक बस में 20 वर्षीय युवती नशेड़ी युवक की हवस का शिकार होकर अखबारों तथा न्यूज चैनलों की गर्मागर्म खबर बन गई। वासना के दलदल में डूबे शैतान ने अपनी मीठी-मीठी बातों के जाल में फंसाकर आधे घंटे से ज्यादा समय तक युवती को अपने कब्जे में रखते हुए दो बार बलात्कार का शिकार बनाया। युवती चीखती-चिल्लाती रही, लेकिन उसकी फरियाद वहीं सिमट कर दम तोड़ती रही। बस स्टैंड के बाहर पुलिस की तैनाती थी, लेकिन अंदर सन्नाटा था। बलात्कारी को पकड़ने के लिए पुलिस को 72 घंटे तक मशक्कत करनी पड़ी। वह पुणे के निकट स्थित एक गांव में जाकर छिप गया था। वहां के गन्ने के खेतों में वह दो दिनों तक छिपा-दुबका रहा। जब भूख और प्यास ने उसे परेशान किया तो वह अंधेरी रात में लस्त-पस्त हालत में अपने रिश्तेदारों के यहां भोजन-पानी के लिए जा पहुंचा। उसने उन्हें अपने गुनाह के बारे में भी बताया और यह भी कहा कि वह पुलिस से बचने के लिए भागता फिर रहा है। अब वह आत्म समर्पण कर आराम करना चाहता है। पानी की बोतल लेकर वह वापस गन्ने के खेत में जाकर सो गया। ग्रामीणों की सतर्कता और मदद से अंतत: उसे दबोच लिया गया। 

चित्र-3 : एक बीस वर्षीय युवती जो कि कॉलेज की छात्रा है उसे उसी की सहेली के रिश्तेदार युवक ने ढाबे पर पार्टी में शामिल होने के लिए बड़ी आसानी से मना लिया। दोनों ने ढाबे पर शराब और बीयर गटकी। युवती ने पहली बार नशा किया था। युवक उसे दुपहिया वाहन पर बैठाकर करीब के एक होटल में ले गया। उसने पहले से ही कमरा बुक करवा रखा था। कमरे में दाखिल होते ही वह छात्रा को जिस्मानी संबंध बनाने के लिए उकसाने लगा। छात्रा का माथा ठनका। युवक की वासना का शिकार होने से बचने के लिए वह उसे थोड़ा सब्र करने का लालीपॉप देकर बॉथरूम में चली गई। वहां से उसने बड़े धैर्य के साथ अपने किसी रिश्तेदार को घटना की संपूर्ण जानकारी देते हुए लोकेशन भी भेज दिया। उसका सजग रिश्तेदार कुछ ही मिनटों में वहां पहुंच गया और अनहोनी टल गई। युवक को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया है।

चित्र-4 : मंदिरों में लोग पूजा-पाठ के लिए जाते हैं। ईश्वर के प्रति अटूट आस्था उन्हें देवालयों में खींच कर ले जाती है। हर आस्थावान की यही सोच होती है कि जहां प्रभु बसते हैं, वहां उनकी सुरक्षा पर कभी कोई आंच नहीं आ सकती। उत्तरप्रदेश के शहर बदायूं में तीन बच्चों की मां रोजाना की तरह मंदिर में पूजा करने गई थी। उसे अकेले देख मंदिर के पुजारी की नीयत डोल गई। पुजारी के साथ-साथ उसके चेले और ड्राइवर ने पचास वर्षीय असहाय महिला की अस्मत लूटने के बाद उसके प्राइवेट पार्ट में रॉड डालकर तड़पा-तड़पा कर मार डाला। नृशंस बलात्कार और हत्या करने के पश्चात हवस के पुजारी ने अपने चेले और ड्राइवर की मदद से खून से लथपथ शव को जीप में डाला और उसके घर के बाहर फेंक कर फरार हो गया...।

Tuesday, March 4, 2025

अपमान की हथकड़ी

    वे गये थे खुशी-खुशी अपार धन कमाने। उनके मां-बाप को भी अत्यंत भरोसा था तभी तो उन्होंने अपनी जमीनें, घर, खेत और गहनेे बेचकर या गिरवी रख उन्हें अमेरिका जाने की इजाजत दी थी। लेकिन जब उनके बच्चे आतंकियों की तरह हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़कर वापस भारत की धरा पर लाये गए तो उनके होश फाख्ता हो गये। पैरों तले की जमीन ही जैसे गायब हो गई। उन्होंने घबराकर माथा ही पीट लिया। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के दोबारा राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के तुरंत बाद जब 104 अवैध अप्रवासियों को लेकर अमेरिकी सेना का विशेष विमान अमृतसर हवाई अड्डे पर उतरा तो पूरे देश में खलबली मच गई। भारतीयों को अमेरिका से ऐसे शर्मनाक बर्ताव की उम्मीद नहीं थी। यह तो शुरुआत थी। अमेरिका में अवैध तरीके से पहुंचे भारतीयों की जो तीसरी खेप अमृतसर पहुंची, उसमें 112 लोग शामिल थे। अवैध तरीके से अमेरिका गये भारतीयों का समर्थन यह कलम कतई नहीं करती, लेकिन हथकड़ियों, बेड़ियों में जकड़ने और सिखों की पगड़ी उतरवा कर उनका घोर अपमान करने के क्या मायने हैं? अमेरिका से भारत भेजे गए लोगों की दास्तानें जहां दिल को दहला कर रख देती हैं... वहीं, बार-बार चिंतन-मनन करने को उकसाती हैं कि अनेकों भारतीयों पर अवैध तरीके से विदेश जाने की यह कैसी सनक सवार है? 

    पंजाब के शहर लुधियाना में रहने वाले दलेर सिंह की किसी दिन इमिग्रेशन एजेंट सतनाम से मुलाकात हो गई। उसने दलेर को बताया कि अमेरिका में नोटों की बरसात हो रही है। उसे भी वह  अपनी जान-पहचान की ट्रांसपोर्ट कंपनी में काफी मोटी पगार वाली नौकरी दिलवा सकता है। सतनाम के फेंके जाल में फंसते ही दलेर सिंह ने अपना प्लॉट, घरवाली के जेवर और अन्य कीमती सामान 70 लाख रुपये में गिरवी रखे और उमंगों-तरंगों के साथ सारी रकम एजेंट को सौंप दी। 15 अगस्त, 2024 को अमेरिका जाने के लिए घर से निकले दलेर सिंह  को पहले दुबई और फिर ब्राजील में दो महीने तक यह भरोसा देकर रोके रखा गया कि, अमेरिका में अभी चुनावों का समय है। जिस वजह से वीजा रुका हुआ है। चुनाव निपटते ही उसका मनचाहा सपना पूरा होगा और वह मालामाल हो जाएगा। लेकिन जब दो महीने बीतने के बाद भी दलेर को गाड़ी आगे खिसकती नजर नहीं आयी तो उसने लगातार होती देरी को लेकर गुस्सा दिखाना प्रारंभ कर दिया तो एजेंट ने बड़ी मुश्किल से अमेरिका भेजने की तैयारी दिखाते हुए उसे एक गु्रप में शामिल कर दिया, जो पनामा के जंगलों के रास्ते से अमेरिका जा रहा था। पनामा के बीस किलोमीटर घने जंगल को चार दिनों तक पार करते-करते दलेर का दिल घबराने लगा और सिर चकराने लगा। रास्ते में जगह-जगह पर उन लोगों की लाशें और कंकाल बिखरे पड़े थे, जो अमेरिका जाने के लिए इन्हीं रास्तों से गुजरते-गुजरते जंगली जानवरों के शिकार हो गये थे या फिर बीमारी से थकहार कर मौत के मुंह में समा गए थे। किसी तरह से पनामा के जंगल पार करने के बाद वे सभी मैक्सिको पहुंचे और जब अमेरिका के तेजवाना बार्डर की ओर बढ़ ही रहे थे, तब सुबह-सुबह पेट्रोलिंग पुलिस के हत्थे चढ़ने पर ऐसी गिरफ्तारी हुई कि कई दिनों तक जेल की सलाखों के पीछे मर-मर कर दिन काटने पड़े।

    डंकी रूट यानी अवैध रास्ते से अमेरिका पहुंचे मनदीप की आपबीती भी दिल को दहलाकर रख देती है। हवाई जहाज से भारत लाते समय कई बार उनकी कनपटी पर बंदूक सटाकर गोली मारने की धमकी दी गई। मनदीप ने कई दिनों तक कमोड का पानी पीकर दिन गुजारे। उसके कपड़े, मोबाइल, कानों की बाली और सोने की चेन छीन ली गई। साठ लाख रुपये खर्च कर डंकी रूट के जरिये अमेरिका पहुंचे हरप्रीत को भी अमेरिका की पुलिस ने अपनी हिरासत में लेकर कू्ररतम यातनाएं देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब अमेरिकी सैन्य कर्मियों ने जहाज पर चढ़ाया तो उसे पता नहीं था कि, उसे कहां ले जाया जा रहा है। उस जहाज पर 19 और लोग भी सवार थे, जिनमें महिलाएं समेत तीन बच्चे भी थे। पैरों में बेड़ियां व हाथों में हथकड़ियां और उस पर चालीस घंटे के बेहद थकाऊ सफर ने जिस नर्क से मिलवाया, उससे उसे अपनी गलती पर कहीं न कहीं बहुत गुस्सा भी आया और यह विचार भी जागा कि अच्छी-खासी खेतीबाड़ी और रोटी तो अपने देश में भी थी तो फिर ज्यादा धन कमाने के लालच में खुद को जानवरों की तरह क्यों भटकाया? अमेरिका से भारत लाये गये सिख युवाओं की विमान में चढ़ने से पहले पगड़ी उतरवाई गई। इससे भी सजग देशवासियों की भावनाएं अत्यंत आहत हुईं। अमेरिका जाने के चक्कर में अपना सबकुुछ लुटा चुके लोगों को अब अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा है। अधिकांश ने अपनी जमीनें, जेवर आदि बेच डाले हैं या गिरवी रख दिए हैं। यानी अब वे खाली हाथ हैं। कोई भी कामधंधा करने के लिए पैसों की जरूरत होती है। अब यदि कुछ करेंगे नहीं तो लाखों रुपये का कर्जा कैसे चुकायेंगे? अपने बेहतर भविष्य के लिए यदि वे वैध तरीके से अमेरिका जाते तो उनकी ऐसी शर्मनाक दुर्गति नहीं होती। वैसे तो अपने देश के सभी प्रदेशों के लोगों पर विदेश में जाकर बसने और धन कमाने की धुन सवार है, लेकिन पंजाब के लोग इसमें सबसे आगे हैं। वहां तो अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा जैसे देशों में जाने की लहर सी चल पड़ी है। डॉलर की चमक ने उनकी आंखों को चुंधिया दिया है। उन्हें रुपयों के नहीं डॉलर के सपने आते हैं, इसलिए यदि उन्हें वीजा नहीं मिलता तो डंकी रूट से विदेश में घुसने का अपराध करने से नहीं कतराते तथा अवैध तरीके से विदेश भेजने वाले एजेंटों की साजिश का शिकार होने का बार-बार जोखिम उठाकर अपनी तथा देश की बेकद्री करने से भी बाज नहीं आते...। शातिर एजेंटो को 25 लाख रुपये से लेकर एक-एक करोड़ देने वाले अक्ल के कई अंधे बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। ठगी करना तो उनका जन्मजात पेशा है। उन्हें दोष देना व्यर्थ है। सोचना तो उन लोगों को चाहिए जो अपने देश में मेहनत करके धन कमाने की बजाय विदेशों में जाकर बेइज्जत होने को तत्पर रहते हैं। अधिक से अधिक धन बटोरने के लालच में अपनी संस्कृति और विरासत को भूल गये हैं। गलत काम के अच्छे परिणाम तो आने से रहे। जिन्दगी कोई जुआ तो नहीं कि कहीं भी दांव लगाया और खुद की तथा मां-बाप की जीवन भर की खून-पसीने की कमाई लुटा दी...और बाद में बुरी तरह से अपमानित हो माथा पकड़ कर बैठ गए...।

भ्रम और अंध विश्वास

    वर्तमान में जहां विज्ञान ने अंध विश्वास, अंधश्रद्धा के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी। वहां भूत-प्रेत आत्मा, जादू-टोने और बेहूदा सपनों को गंभीरता से लेने वालों की जमात के बारे में क्या कहा जाए? समाज में व्याप्त अंधविश्वास को समाप्त करने की कोशिशों को पूरी तरह से कामयाबी क्यों नहीं मिल पा रही है? उत्तरप्रदेश के शहर जौनपुर में रहने वाला चिंताहरण नामक उम्रदराज शख्स बीते छत्तीस वर्षों से औरत बनकर रह रहा है। चिंताहरण प्रतिदिन दुल्हन की तरह श्रृंगार कर घर से निकलता है। पहले लोग उस पर हंसा करते थे, व्यंग्यबाण भी छोड़ा करते थे, लेकिन अब जौनपुर और आसपास के स्त्री, पुरुष, बच्चों और वृद्धों को उम्रदराज चिंताहरण को लाल साड़ी, बड़ी-सी नथ और झुमके पहने देख कतई भी अटपटा नहीं लगता। चिंताहरण मानता है कि यह अनोखा स्त्री-भेष उसका सुरक्षा कवच है, जिससे उसे तथा उसके परिवार को हिफाजत मिली हुई है। उसके किसी भी करीबी का बाल भी बांका नहीं हो सकता। उसका कहना है कि बीते छत्तीस सालों में मेरे परिवार के 14 सदस्य एक-एक कर इस दुनिया से विदा हो गये। ऐसे में मुझे बाकी बचे अपने बच्चों, अपने परिजनों और खुद के खत्म होने का भय सताने लगा था। मेरी रातों की नींद ही उड़ गई थी। कभी-कभार जब नाममात्र की नींद आती भी थी, तो सपने में दूसरी पत्नी रोती-बिलखती दिखायी देती, जिससे मैंने बेवफाई की थी। इस गम ने ही उसे आत्महत्या करने को विवश कर दिया था। एक दिन सपने में मैंने पत्नी से माफी मांगी और मेरे परिवार को बख्श देने का निवेदन किया। तब उसने मुझसे यह भेष धारण कर बाकी की जिन्दगी गुजारने को कहा तो मैंने प्रतिदिन दुल्हन की तरह सजना-संवरना प्रारंभ कर दिया। पहले लोग मुझ पर हंसा करते थे, लेकिन जब उन्हें मेरी विवशता का भान हुआ तो हमदर्दी जताने लगे। अब मेरी तथा बच्चों की जिन्दगी बड़े मजे से कट रही है। 

    सब्जी का कारोबार करने वाली दो सगी बहनें रांची के निकट स्थित एक गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में सब्जी खरीदने के लिए गईं थीं। शाम को जब वे लौट रही थीं तो रास्ते में इनका ऑटो खराब हो गया। जहां ऑटो बिगड़ा था वहां से कुछ ही दूरी पर उनके परिचित रहते थे। रात दोनों वहीं रुक गईं। सुबह-सुबह हाथ में सब्जी के थैले पकड़े शहर की तरफ बढ़ रही थीं तभी किसी ने अफवाह उड़ायी कि जादू-टोना और बच्चे चोरी करने वाली दो अनजान महिलाएं गांव में घूम रही हैं। बस फिर क्या था। कुछ ही मिनटों में दर्जनों ग्रामीण उन्हें घेर कर अंधाधुंध मारने लगे। इतने में भी उनका मन नहीं भरा। दोनों को पेड़ से बांधकर तब तक पिटायी की गई जब तक वे अधमरी नहीं हो गईं। भीड़ में शामिल कुछ लोगों ने मौका पाते ही दोनों के बाल भी काट दिए। यह अच्छा हुआ कि सूचना पाते ही पुलिस मौके पर पहुंच गई। वर्ना भीड़ तो दोनों को खत्म कर देने पर उतारू थी। देश में जहां-तहां जनता का ये आतंकी चेहरा डराने लगा है। उन्मादी भीड़ किसी पर भी हमला कर देती है। पुलिस की भी नहीं सुनी जाती। उलटा उसे भी मारा पीटा जाता है। मुजफ्फरपुर के माड़ीपुर चित्रगुप्त नगर में बच्चा चोरी के शक में भीड़ ने दो महिलाओं को पकड़ा और जमकर पीटा। पुलिस के पहुंचने से पहले दोनों बुरी तरह से जख्मी हो चुकी थीं। सड़क भी खून से लाल हो गई थी। इस घटना से दो दिन पूर्व भी कुछ लोगों ने एक विक्षिप्त उम्रदराज महिला को बच्चा चोरी के आरोप में सड़क पर डंडों और लातों से पीटकर अपंग बना दिया। 

    ओडिशा में गंजाब के जिलाधिकारी विजय अमृत कुलंगे ने जादू-टोना और अंधविश्वास से जुड़ी प्रथाओं से उबारने और लोगों को जागरूक करने के लिए यह ऐलान करना पड़ा कि जो व्यक्ति जादू-टोना भूतों के अस्तित्व को साबित कर देगा उसे बड़े आदर-सम्मान के साथ 50 हजार रुपये का इनाम दिया जायेगा। जिलाधिकारी को गंजाब जिले में जादू-टोने के नाम पर हुई हिंसा के बाद यह कदम उठाया। कुछ सप्ताह पूर्व ग्रामीणों ने जादू-टोने के शक में छह लोगों के दांत तोड़ दिए थे। उन्हें जबरदस्ती अपशिष्ट पदार्थ खिलाया गया था। डंडे, लाठियों और हाकियों से तब तक पीटा गया था, जब तक वे बेहोश नहीं हो गये थे। पीटने वाले ग्रामीण बस एक ही रट लगाये थे कि उनके द्वारा किये जाने वाले जादू-टोना के कारण ही उनके रिश्तेदार बीमार होते रहते हैं। यह भी काबिलेगौर है कि यह पिटायीबाज जादू-टोने से बीमार होने वाले अपने प्रियजनों को इलाज के लिए तंत्र-मंत्र और झाड़फूंक करने वाले बाबाओं के पास ले जाते हैं। उन्हें डॉक्टरों पर भरोसा नहीं है। जिलाधिकारी कुलंगे को हर सप्ताह आयोजित होने वाली जनसुनवाई में अंधविश्वास के जाल में फंसे लोगों की दलीलें और जादू-टोना संबंधी शिकायतों ने स्तब्ध कर दिया था। उन्होंने अंधविश्वासियों को बार-बार समझाया कि यह उनका भ्रम है कि जादू-टोना करने से कोई बीमार होता है। दरअसल, जादू-टोना और भूतों का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। आज के वैज्ञानिक युग में इनकी कल्पना करना भी बेवकूफी है। लेकिन फिर भी जब अंधविश्वासी नहीं माने तो उन्होंने यह घोषणा कर दी, ‘‘भूत को ढूंढ़कर लाओ, 50 हजार इनाम पाओ।’’ अधिकारी इंतजार करते रह गए लेकिन कोई भी ऐसा इंसान सामने नहीं आया जो भूत को पकड़ कर लाता और इनाम पाता... फिर भी तंत्र-मंत्र और जादू-टोने को मानने वालों का कहीं कम, कहीं ज्यादा शर्मनाक अस्तित्व बरकरार तो है ही...!

Thursday, February 13, 2025

बदलाव के नायक

     अपने देश के आमजनों की दरियादिली बेमिसाल है। वे दूसरों की सहायता करने को हमेशा तत्पर रहते हैं। उनका मकसद ही खुशियां बिखेरना है। जिन कतव्यों और कार्यों को सत्ताधीश विस्मृत कर देते हैं उन्हें यह जागृत भारतवासी बड़ी दरियादिली और हिम्मत के साथ साकार कर दिखाते हैं। इन्हें न तो किसी प्रचार की भूख है और ना ही पुरुस्कार की तमन्ना। दरअसल, यही आम लोग भारत का असली चेहरा हैं, जिनमें हमदर्दी कूट-कूट कर भरी है और स्वार्थ से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। अभी तक आपने शहीद सैनिकों के परिवारों को पेट्रोल पम्प और जमीनें देने के आश्वासन के बाद उन्हें घनचक्कर बनाने की कई खबरें पढ़ी-सुनी होंगी। सरहद पर जंग लड़कर अपंग हो जाने वाले सैनिक के साथ धोखाधड़ी की खबरें भी पढ़ी होंगी और यह भी पढ़ा-सुना होगा कि सरहद पर लड़ाई लड़ने के बाद अपंग हुए कई पूर्व सैनिक रिक्शा चला रहे हैं, चाय-पान के ठेले लगा कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। सत्ताधीशों ने उनसे जो सहायता देने के वादे किये थे, उन्हें पूरा ही नहीं किया गया है। भूला दिया गया यह खबर...यह हकीकत यकीनन देश के झूठे, लफ्फाज और मक्कार राजनेताओं और सत्ताधीशों के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा ही है : 

    ‘‘मध्यप्रदेश के इंदौर जिले के बेटमा गांव में रहने वाले मोहन सिंह सुनेर वर्ष 1992 में त्रिपुरा में उग्रवादियों से लड़ते हुए शहीद हो गये थे। उनके दो बच्चे थे। शहीद की पत्नी राजूबाई ने एक छोटी-सी झोपड़ी में रहकर मेहनत मजदूरी करते हुए अपने दो बच्चों का लालन-पालन किया। जब मोहनलाल शहीद हुए थे तब देश भर के अखबारों में उनके साहस और त्याग की कई कहानियां प्रकाशित की गयी थीं। सरकार ने भी उनके परिवार को हर तरह की सहायता देने का आश्वासन भी दिया था, लेकिन बाद में सरकार ने उनकी पत्नी और बच्चों की कोई सुध लेना जरूरी नहीं समझा। शहीद के गांव के सतर्क युवाओं को सरकार का यह शर्मनाक रवैया बहुत कचोटता रहा। ऐसे में उन्होंने अपने दम पर शहीद की पत्नी की सहायता करने की ठानी। टूटी-फूटी झोपड़ी में रह रहे शहीद परिवार को पक्का मकान उपहार में देने के लिए उन्होंने विभिन्न शहरों, गांव के लोगों से आनन-फानन में चंदे के जरिए 11 लाख रुपये जुटाये और स्वतंत्रता दिवस के दिन शहीद परिवार को दस लाख रुपये का सर्वसुविधा युक्त एक मकान भेंट किया। बाकी के बचे एक लाख रुपये शहीद की पत्नी को दे दिए। इन सच्चे देशप्रेमी युवाओं ने शहीद की उम्रदराज पत्नी से राखी बंधवाई और उसके बाद अपनी हथेलियां जमीन पर रखकर उनके ऊपर से गृह प्रवेश करवाया। 

    हमारे देश में ज्यादातर खाकी वर्दी धारियों को लेकर लोगों की राय अच्छी नहीं है। उनके कटु व्यवहार और असहयोग तथा संवेदनशीलता की कमी की वजह से यह धारणा बनी है।  अरुप मुखर्जी पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के मूल निवासी हैं। पुलिस विभाग में कार्यरत हैं। आदिवासियों के बच्चे उन्हें बड़े आदर के साथ ‘पुलिस वाला बाबा’ कहकर बुलाते हैं। इस पुलिसवाला बाबा ने सबर आदिवासियों के जीवन में परिवर्तन लाने का अभियान चला रखा है। ध्यान रहे कि सबर दलित जनजाति है, जिन्हें आपराधिक जनजाति अधिनियम 1971 के तहत अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। देश के प्रदेश छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में यह सबर आदिवासी रहते हैं। अरुप मुखर्जी को बचपन में सबर आदिवासियों के बारे में अक्सर सुनने को मिलता था कि यह लोग चोरी-डकैती कर अपना घर-परिवार चलाते हैं। कई लोग तो नक्सली आंदोलन से भी जुड़े हैं। उनके अपराध में लिप्त रहने की प्रमुख वजह रही अशिक्षा और गरीबी। तब अरुप की दादी अक्सर रात को छुपते-छुपाते सबर समुदाय के लोगों के घरों में जाकर उन्हें खाने-पीने का सामान पहुंचाया करती थीं। अरुप के मन में तब विचार आता था कि अगर यह लोग पढ़ लिख जाएं तो इनमें काफी बदलाव और सुधार आ सकता है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही इन्हें चोर, डाकू बनने को मजबूर करती है। बच्चों को भी बड़ों का अनुसरण करने को विवश होना पड़ता है। अरुप ने पढ़ाई के दौरान आदिवासियों के बच्चों को शिक्षित कर उनके भविष्य को संवारने का जो सपना देखा था, पुलिस की नौकरी लगते ही उसे साकार करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने जब कुछ लोगों के समक्ष सबर दलित जनजाति के बच्चों के लिए स्कूल खोलने का अपना इरादा व्यक्त किया तो उनकी हंसी उड़ायी गयी। यह संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग कतई नहीं चाहते थे कि आदिवासी बच्चे शिक्षित होकर अपना भविष्य उज्ज्वल कर पाएं , लेकिन पूंचा गांव के एक उदार शख्स, जिनका नाम खिरोदासी मुखर्जी है, ने खुशी-खुशी स्कूल बनाने के लिए मुफ्त में अपनी जमीन दे दी। स्कूल का उद्घाटन एक सबर बच्चे से करवाया गया। प्रारभ काल में स्कूल में मात्र एक बरामदा और दो कमरे थे, जहां बीस छात्र-छात्राएं बैठ पाते थे, लेकिन अब काफी विस्तार हो चुका है। स्कूल में नौ कमरे हैं। सीसीटीवी कैमरे लगा दिये गये हैं। स्कूल में बच्चों के रहने-खाने-पीने की निशुल्क व्यवस्था है। भोजन, कपड़े और शिक्षण सामग्री के लिए भी एक पैसा नहीं लिया जाता। कालांतर में कुछ जागरूक लोगों ने हर महीने मदद करनी प्रारंभ कर दी। स्वयं अरुप भी अपनी तनख्वाह का अधिकांश हिस्सा स्कूल के लिए खर्च कर देते हैं। बीते वर्ष एक लड़की ने बहुत अच्छे नंबरों के साथ मेट्रिक की परीक्षा पास की तो उनसे दूरी बनाने वाले भी चकित रह गये। सर्वत्र खुशी का माहौल था। जो माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराते थे उन्होंने भी खुशी-खुशी अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजना प्रारंभ कर दिया है। आदिवासी बच्चों को अपराध के रास्ते पर जाने से रोकते हुए उनके हाथों में किताबें थमाने वाले इस खाकी वर्दीधारी का कहना है कि मुझे इस समुदाय के बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए ही ईश्वर ने इस धरती पर भेजा है। मैं इन्हें भूख से मरने नहीं देना चाहता और न ही अपराध के मार्ग पर चलते देखना चाहता हूं। 

    एक काबिलेगौर सच यह भी...। आप और हम अक्सर अखबारों में पढ़ते रहते हैं कि कहीं चोरी-डकैती, हत्या या और कोई जघन्य अपराध होने के बाद शहरों और ग्रामों की पुलिस सबसे पहले उन गुंडे बदमाशों पर ध्यान केंद्रित करती है, जो घोषित कुख्यात अपराधी होते हैं। कभी-कभी तो कुछ अभ्यस्त अपराधियों को शंका के आधार पर गिरफ्तार भी कर लिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व बहुत जोर-शोर से ऐसा ही होता था सबर आदिवासियों के साथ। जब गांव में इनके बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए स्कूल नहीं खुला था तब जिले में कहीं भी चोरी, लूट या डकैती होती तो सबर समुदाय के लोगों की धड़ल्ले से पकड़ा-धकड़ी शुरू हो जाती थी। कई बार निरपराध होने के बावजूद भी उन्हें पुलिसिया डंडों का शिकार होना पड़ता था, लेकिन अब जबसे उनके बच्चे बड़े उत्साह के साथ स्कूल जाने लगे हैं तो उनके पालकों में भी सुधार आया है। उनकी सोच भी बदली है। वे अपराध करने की बजाय मेहनत-मजदूरी करने लगे हैं। पुलिस के साथ-साथ लोगों की सोच में भी इन आदिवासियों के प्रति काफी बदलाव आया है।

Thursday, February 6, 2025

अच्छा-बुरा

    मौनी अमावस्या पर प्रयागराज में अमृत स्नान के लिए उमड़ी भारी भीड़ के अनियंत्रित होने से मची भगदड़ में तीस से ज्यादा श्रद्धालुओं की मौत हो गई। यह सरकारी आंकड़ा है। इस पर लोगों को यकीन कम और अविश्वास ज्यादा है। सरकारें अक्सर इस तरह का झूठ बोलने, प्रचारित करने का करतब दिखाती रही हैं। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि, महाकुंभ में मौत के तांडव ने 100 से अधिक लोगों की जिन्दगी छीनी है और अनेकों को बुरी तरह से घायल कर अस्पताल पहुंचाया है। दुनिया के सबसे बड़े आस्था के मेले के अवसर पर भारी भीड़ का उमड़ना कोई नई बात नहीं है। कुंभ मेलों का पूर्व का इतिहास भी भगदड़ के कारण मरने वाले श्रद्धालुओं के सच्चे, झूठे आंकड़ों को अपने में समेटे है। देश की आजादी के बाद 1954 में आयोजित हुए कुंभ मेला में 800 श्रद्धालु मौत के मुंह में समा गए थे। यह सरकारी आंकड़ा था, जबकि कम-अज़-कम 1000 लोगों की मौत होने के दावे किये गये थे। तब मेले में भगदड़ की वजह थी, एक खबर जिसमें कहा और प्रचारित किया गया था कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू आ रहे हैं। बस फिर क्या था। उन्हें देखने के लिए भीड़ टूट पड़ी। अपार भीड़ को अपनी तरफ आता देखकर नागा संन्यासी इस भ्रम के शिकार हो गये कि लोग उन्हें मारने के लिए भागे चले आ रहे हैं इसलिए वे त्रिशूल-तलवारों के साथ उन पर टूट पड़े। लोग डर के मारे इधर-उधर भागने लगे। देखते ही देखते भगदड़ ने विराट रूप ले लिया। लोग मरते-कटते और एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते चले गए। कई श्रद्धालु तो जान बचाने के लिए बिजली के खंभों से चढ़कर तारों पर जा लटके और अपने प्राण गंवा बैठे।  

    भारत के चार पवित्र स्थानों, प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में हर बारह साल के अंतराल में होनेवाले महाकुंभ में करोड़ों भारतीयों के साथ-साथ विदेशी भी शामिल होते हैं। दरअसल, महाकुंभ न केवल धार्मिक पर्व है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिकता और एकता का प्रतीक भी है। ...यह मान्यता भी है कि महाकुंभ के दौरान संगम में स्नान करने से पापों का नाश और मोक्ष की प्राप्ति होती है। अचानक मची भगदड़ में जिन लोगों ने अपनों को खो दिया, उनकी पीड़ा और वेदना अनंत है। यह दर्द ताउम्र उनके साथ रहने वाला है। सबसे बुरा हाल महिलाओं तथा बच्चों का हुआ, जो गिरकर दोबारा उठ नहीं सके। करोड़ों की भीड़ को संभालने के लिए पुलिस भी कम पड़ गई। भीड़ में बिछड़ चुके अपनों को खोजना आसान नहीं था। कभी इस अस्पताल तो कभी उस अस्पताल तथा खोया-पाया केंद्रों में पूछताछ करते-करते उन्हें कई तरह के ख्याल आते रहे। ग्वालियर से पंद्रह लोगों के साथ महाकुंभ मेला में आई शकुंतला देवी को उसके परिजन तलाशते-तलाशते थक गए। देवरिया से मौनी अमावस्या पर स्नान करने आई माया सिंह भीड़ में एकाएक ऐसी गुम हो गईं कि खोजना मुश्किल हो गया। उनके पति जनार्दन का रो-रोकर बुरा हाल था। महाकुंभ से स्नान कर लौटे हमारे एक करीबी रिश्तेदार ने बताया कि, दो-दिन पहले से ही कई श्रद्धालु स्नान के लिए संगम स्थल पर डेरा डालकर बैठे थे। उन्हें यकीन था कि उन्हें सबसे पहले स्नान करने का सौभाग्य मिलेगा, लेकिन जैसे ही मौनी अमावस्या के स्नान की घोषणा हुई, तो देश के कोने-कोने से आए अन्य श्रद्धालुओं की बेताब भीड़ बैरिकेड तोड़कर आगे बढ़ने लगी, जिससे पहले बैठे श्रद्धालु कुछ समझ ही नहीं पाए। इस चक्कर में जो भगदड़ मची, उसी से हालात बिगड़ गये। पुलिस और सुरक्षा बल भीड़ को नियंत्रित करने में पूरी तरह से असफल रहे। गौरतलब है कि, स्नान के लिए 24 घाटों के होने के बावजूद संगमघाट पर ही स्नान करने की जिद बहुत भारी पड़ी। इस घटना केे बाद सभी रास्ते बंद कर दिये गए। इससे कई लोगों को दो दिन तक एक ही जगह पर अटके रहना पड़ा। कई आस्थावानों की वापसी की रिजर्वेशन थी, लेकिन वे नहीं जा पाए। इतनी मौतों के बाद कुछ बदमाश किस्म के लोग मौके का फायदा उठाने से नहीं चूके। कुछ मृतकों और घायलों के सामान गायब कर दिये गए। पांच-दस रुपये कीमत वाले खाद्य पदार्थों के लिए पचास-साठ रुपये चुकाने को विवश होना पड़ा। कई मोटर साइकिल वालों ने श्रद्धालुओं को संगम घाट पहुंचाने के लिए दो से तीन हजार रुपए वसूल कर अपनी निर्दयता और घोर मौका परस्ती का उदाहरण पेश किया। एक तरफ भगदड़ मची थी, दूसरे तरफ कुछ अराजक तत्व लूटमार में लगे थे। दुकानों से सामानों को लूटने की नीचता करने वालों के लिए मेला अपना घर भरने का ऐसा सुनहरा मौका था, जो बार-बार नहीं आता। लोगों को आतंकित करने के लिए हथियार लहराने के साथ-साथ तोड़फोड़ भी की गई। भगदड़ में अपने पति को खो चुकी एक महिला को सड़क पर छाती पीटकर रोते-बिलखते देखा गया। किसी ने उसके पैसे और कीमती सामान पर हाथ साफ कर दिया था। मृत पति के शव को बिहार ले जाने के लिए एंबुलेंस वाले उससे 20 हजार रुपये मांग रहे थे, लेकिन उसके पास देने के लिए एक धेला भी नहीं था। निर्दयी, शैतान लोगों की बेरहमी से आहत महिला गुस्से में कहती नज़र आईं ‘क्या देह बेचकर पैसा दूं? कुंभ मेले में चोर-चकारी, ठगी और लूटमारी करने वालों की खबरों के बीच इस खबर ने बहुत राहत और तसल्ली बख्शी, ‘‘एक मेहनतकश युवक ने अपनी प्रेमिका की सलाह पर महाकुंभ मेले में दातून बेचने का अपना छोटा-सा व्यवसाय शुरू किया और सिर्फ पांच दिनों में 40,000 रुपये कमा लिए। जब उससे पूछा गया कि, उसे यह बिजनेस करने का विचार कहां से आया, तो उसने मुस्कुराते हुए गर्व से जवाब दिया कि, उसकी गर्लफ्रेंड ने उसे आइडिया दिया कि, दातून बेचने में कोई पूंजी नहीं लगती और वह इसे मुफ्त में लाकर बेच सकता है। उसी की प्रेरणा से वह अब अच्छी कमाई कर रहा है और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन गया है। यह वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है और लोग युवक की ईमानदारी और सच्चे प्रेम को सराह रहे हैं। एक यूजर ने लिखा-कभी भी ऐसी अद्भुत प्रेमिका को धोखा मत देना। दूसरे ने कहा-सच्चा आदमी, जिसने अपनी सफलता का पूरा श्रेय अपनी गर्लफ्रेंड को दिया।’’

Thursday, January 30, 2025

प्रतिशोध

    कुछ लोग अपने अहंकार के कवच को उतार फेंकने में बहुत देरी लगा रहे हैं। उन्हें गरीब, असहाय, पिछड़े भारतीय कीड़े-मकोड़े से लगते हैं। वे इन्हें कुचल देना चाहते हैं, लेकिन उन्हें यह याद दिलाना भी जरूरी है कि, वक्त बदल रहा है। दलितों, शोषितों और असहायों पर अत्याचार करना बहुत महंगा पड़ सकता है। महात्मा गांधी छुआछूत के खात्मे के लिए जीवनभर लड़ते रहे। आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी शोषक प्रवृत्ति के लोग दंभ और घटिया सोच का दामन कसकर थामे हुए हैं। कर्नाटक का एक छोटा-सा गांव है मारकुंबी। इस गांव में ऐसे सवर्णों का वर्चस्व है, जो यह मानते हैं कि दलितों और गरीबों को इस दुनिया में सम्मान के साथ जीने का कोई हक नहीं है। कोई दलित यदि पढ़-लिखकर ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाता है, तो इनके सीने में सांप लोट जाता है। मारकुंबी गांव में एक नाई की दुकान है, जहां बिना किसी भेदभाव के सभी की दाढ़ी और बाल काटे जाते थे, लेकिन एक दिन अचानक नाई ने दलितों के बाल काटने से मना कर दिया। दलितों के विरोध जताने पर नाई ने अपनी पीड़ा और परेशानी बतायी कि, सवर्णों की चेतावनी के समक्ष वह बेबस है। उसे चेतावनी दी गयी है कि, वह दलितों को अपनी दुकान की चौखट पर पैर भी न रखने दे। यदि उनकी बात नहीं मानी गयी तो उसकी खैर नहीं। दलितों के बढ़ते आक्रोश को देख सवर्ण तिलमिला गये। इनकी इतनी जुर्रत कि हमारे सामने सिर उठाएं। दलित और सवर्ण आमने-सामने डट गए। मारा-पीटी की नौबत आने में देरी नहीं लगी। आपसी संघर्ष में 27 लोग घायल हो गए। दलितों के तीन मकान राख कर दिये गये। दरअसल, देश के कई ग्रामीण इलाके ऐसे हैं, जहां सवर्णों, धनवानों और बाहुबलियों की तूती बोलती है। उन्हीं का शासन चलता है। उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं है। उनके लिए यह 21वीं सदी नहीं, सोलहवीं सदी है। वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। उन्हें लगता है कि यह देश सिर्फ उन्हीं का है। सत्ता भी उनकी, शासक भी उनके। 

    कर्नाटक के बेल्लारी जिले के तलुर गांव में भी मारकुंबी की तरह सवर्णों ने तांडव मचाया। यहां भी सवर्णों की दादागिरी से खौफ खाकर नाईयों ने दलितों के बाल काटने से इंकार कर दिया। यहां भी आपस में खूब जूते और डंडे चले। जमकर हाथापाई हुई। नाईयों के द्वारा दलितों के बाल काटने में असमर्थता जताने में पंचायत के उस आतंकी फरमान का बहुत बड़ा योगदान रहा, जिसमें साफ-साफ कहा गया कि किसी भी हालत में दलितों के बाल न काटे जाएं। जिस कुर्सी पर बाल कटवाने तथा दाढ़ी बनवाने के लिए सवर्ण और धनवान बैठते हैं, उसके आसपास दलितों को न फटकने दिया जाए। जिस आईने में सवर्ण अपना चेहरा निहारते हैं, उस पर तो किसी भी हालत में दलितों की परछाई नहीं पड़नी चाहिए। इस ऐलान के विरोध में पांच दिनों तक गांव के पांचों सैलून बंद रहे। सैलून मालिक भी इस भेदभाव की नीति के खिलाफ देखे गए। धारवाड जिले के हुबली तहसील के गांव कोलीवाड के दलितों को बाल कटवाने के लिए मीलों दूर हुबली जाना पड़ता है। बुजुर्ग शांत हैं, लेकिन दलित युवकों का गुस्सा उफान पर है। पता नहीं वे क्या कर गुजरें। उनका कहना है कि, अब हम इस जुल्म को सहन नहीं कर सकते। हमें कमजोर कतई नहीं समझा जाए। हम भी इसी देश के नागरिक हैं। इस पर हमारा भी उतना हक है, जितना दूसरों का। ऐसे में भेदभाव करने वालों के दबाव में हम क्यों आएं। हम चुप नहीं रहेंगे। ईंट से ईंट बजा देंगे। उम्रदराज लोग तो गांव से दूर जाकर बाल कटवा सकते हैं, लेकिन बच्चे कहां जाएं? सदियों से सबलों की चलती आयी है। ताकतवर धनवानों ने निर्बलों-गरीबों का गला काटा है। सामंती सोच रखने वालों ने दलितों के शोषण के लिए नये-नये तरीके ईजाद कर रखे हैं। यह आज़ादी का मजाक नहीं तो क्या है? 

    मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के निकट स्थित पीथमपुर से 15 किलोमीटर दूर बसा है सुलवाड़ गांव। इस गांव में किसी दलित की शवयात्रा सवर्णों की गली से नहीं गुजर सकती। दलितों की शवयात्रा गांव के कच्चे रास्ते से निकलती है। दलित डामर वाली सड़क से जुलूस आदि भी नहीं निकाल सकते। दलितों को 90 साल के कुवरा पूनम की मौत की अंतिम यात्रा अच्छी तरह से याद है। बेटों ने अंतिम यात्रा के लिए बैंड-बाजे बुलवाए थे। जैसे ही यात्रा गांव के भीतर पहुंची, तभी एकाएक पथराव हुआ और सवर्णों ने दलितों पर लाठियां बरसायीं और उन्हें धमकाया और डराया। दलितों को शवयात्रा को पलटा कर गांव के बाहरी गंदे रास्ते से ले जाना पड़ा। बेटों ने पुलिस, कलेक्टर और सरकार तक अपनी शिकायत पहुंचायी, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। मदमस्त सवर्णों ने दलितों का हुक्का-पानी बंद कर दिया। 

    देश की राजधानी दिल्ली में एक युवक जबरन पीटा गया। उसका कसूर था कि, वह दलित था। वह जब घुड़ चढ़ी की रस्म निभाने के लिए बग्घी पर सवार हो रहा था, तो उसी दौरान दो दबंग युवक अपनी दादागिरी दिखाने लगे। उन्होंने दूल्हे पर अपशब्दों की तेजाबी बौछार की और घोड़े पर चढ़ने से रोका। विरोध किये जाने पर दूल्हे तथा उसके परिजनों को भी मारा-पीटा गया। दबंगों को दलित की तामझाम वाली शादी और घुड़ चढ़ायी शूल की तरह चुभ गयी। ऐसे में उन्होंने अपना आपा खोने में जरा भी देरी नहीं लगायी और अपनी औकात पर उतर आये। अभी हाल ही में एक दलित दूल्हे की बारात में बारातियों से ज्यादा पुलिस वाले के शामिल होने की खबर देशभर के अखबारों में छपी। राजस्थान में स्थित लबेरा गांव में दूल्हे के घरवालों को आशंका थी कि, दूल्हे की आन-बान और शान के साथ घोड़ी पर बारात निकलने से कुछ दबंग आपत्ति और विरोध के स्वर बुलंद करते हुए मारपीट कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने विवाह समारोह से पहले प्रशासन से सुरक्षा व्यवस्था करने की गुहार लगाई। दरअसल इस गांव में लगभग बीस वर्ष पूर्व एक दूल्हे के घोड़े पर बारात निकालने से सामंती सोच वाले कुछ लोगों ने ऐतराज जताते हुए दलित दूल्हे को घोड़ी से नीचे गिरा दिया था। इसी घटना की याद अभी भी उनके मन में बसी हुई थी, लेकिन तब और अब में काफी बदलाव आ चुका हैं, तब तो दलित शांत रह गए थे, लेकिन अब उनका विरोध भी हिंसक हो सकता था। इसलिए प्रशासन ने सतर्क होते हुए सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद कर दी। बारात में जहां बारातियों की संख्या बीस-पच्चीस, वहीं खाकी वर्दी पचास-साठ की संख्या में बारात के साथ-साथ चल रहे थे। तामिलनाडु के मदुरै के निकट स्थित एक ग्राम में सत्रह वर्षीय दलित लड़के को दबंगों ने उसकी जाति के कारण जानवरों की तरह मारा-पीटा और गंदी-गंदी गालियां दीं। इतना ही नहीं एक छह वर्ष के बच्चे की मौजूदगी में उस पर पेशाब कर अपनी गुंडागर्दी का नंगा नाच किया। अपमान और प्रतिशोध की आग में जल रहे किशोर ने पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाने के बाद कहा कि वक्त आने पर वह उन्हें जरूर सबक सिखायेगा और ऐसे नानी याद दिलायेगा कि वे दलितों पर जुल्म ढाने की हिम्मत नहीं कर पायेंगे। आपसी मनमुटाव, भेदभाव, ईर्ष्या और अहंकार की भावना अब तो आदिवासियों में भी सिर उठाने लगी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में स्थित छिंदावाड़ा गांव में एक व्यक्ति के अंतिम संस्कार में विघ्न डाले जाने के कारण उसका शव कई दिनों तक शवगृह में इसलिए पड़ा रहा, क्योंकि गांव के लोगों ने एक साल पहले सर्वसम्मति से फैसला किया था कि ईसाई आदिवासियों को गांव में शव को दफन करने की इजाजत नहीं दी जाएगी। ऐसे कितने ही मामले अक्सर पढ़ने और सुनने में आते हैं। यह सब कुछ उन राजनेताओं की आंखों के सामने होता चला आ रहा है, जो दलितों शोषितों के मसीहा कहलाते हैं। वे तो दलितों और शोषितों के वोटों की बदौलत कहां से कहां पहुंच गये पर ये शोषित और गरीब अपमान का घूंट पीते हुए वहीं के वहीं खड़े जद्दोजहद कर रहे हैं। आजादी का असली मज़ा तो चंद दलित नेता ले रहे हैं। एक बार सत्ता पाते ही राजा-महाराजाओं को मात देने लगते हैं। पूंजीपति राजनेताओं और धन्नासेठों के साथ उठना-बैठना शुरू हो जाता है और उनके रंग में रंगकर दलितों और गरीबों को पूरी तरह से भूल जाते हैं।

Thursday, January 23, 2025

महाकुंभ में...

    इस बार के महाकुंभ का जलवा अद्भुत और खास है। भस्म लपेटे, जटाधारी, गेरूआ वस्त्र पहने साधुओं की भीड़ में कई अचंभित करते चेहरे भी नजर आ रहे हैं। देश और विदेशों से भी कई साधु-संत और पर्यटक इस आस्था के उत्सव में शमिल होकर मीडिया की सुर्खियां पा रहे हैं। सोशल मीडिया में छाये बाबा गिरी, अभय सिंह उर्फ आईआईटीयन बाबा, तीन फीट के गंगापुरी बाबा, चायवाले बाबा, भक्तों को अपने हाथ से रबड़ी बनाकर खिलाने वाले बाबा, बीस किलो चाबियां लेकर चलने वाले बाबा, एम्बेसडर कार दौड़ाते बाबा, सात फीट के बॉडी बिल्डर बाबा के साथ-साथ और भी कई साधु-संतों के क्रियाकलापों तथा असली-नकली खूबसूरत साध्वियों के सोशल मीडिया पर वायरल होते वीडियो ने महाकुंभ को मनोरंजक भी बना दिया है। इसमें दो मत नहीं कि, भारतीय संस्कृति में संत महात्माओं की विशेष अहमियत है। सभी संत अपनी-अपनी विशेषताओं के लिए जाने जाते हैं। नागा साधु अपनी रहस्यमयी दुनिया और जीवनशैली के लिए हमेशा जिज्ञासा का विषय रहे हैं। पुरुष नागा साधु तो कभी-कभार देखने में आ जाते हैं। उनकी शाही सवारी और स्नान की भी चर्चाएं और खबरें सुनने-पढ़ने में आती रहती हैं। लेकिन महिला नागा साध्वियां ज्यादातर लोगों की नजरों से दूर ही रहती हैं। लेकिन इस बार प्रयागराज के महाकुंभ में इनकी उपस्थिति ने स्तब्ध कर दिया है। अपनी तमाम इच्छाओं और धन दौलत का त्याग करना कतई आसान नहीं होता। साधु और साध्वी बनना हर किसी के बस की बात नहीं है। यह आस्था और भक्ति का ऐसा मार्ग है, जहां खुद को पूरी तरह से बदल देना पड़ता है। गुफाओं, जंगलों-पहाड़ों के एकांत में तप और तपस्या करनी पड़ती है। कुंभ मेले में कई साधु-संत और तपस्वी अपार उत्सुकता, जिज्ञासा और आकर्षण का विषय बने हुए हैं, जिनकी तपस्या और जीवन यात्रा अद्भुत और स्तब्ध करने वाली है। उन्हीं में शामिल हैं योग साधक स्वामी शिवानंद। भारत सरकार के द्वारा पद्मश्री से सम्मानित शिवानंद महाराज की आधार कार्ड के अनुसार उम्र 128 वर्ष है। उम्र के इस पड़ाव पर होने के बावजूद पूरी तरह से सक्रिय शिवानंद बाबा हर कुंभ में शामिल होते हैं। उनका यह सिलसिला 100 साल से निरंतर बरकरार है। बाबा कभी किसी से दान-दक्षिणा नहीं लेते। उबला हुआ खाना खाते है और अभी भी कठिन से कठिन आसन बड़ी आसानी से कर लेते हैं। इनके माता-पिता अत्यंत गरीब थे। भीख मांग कर किसी तरह से दिन काट रहे थे। चार साल की उम्र में मां-बाप ने इन्हें गांव में पधारे संत ओंकारानंद गोस्वामी के हवाले कर दिया, ताकि कम अज़ कम उनके बच्चे को खाना तो मिल जाए। शिवानंद ने चार साल की उम्र तक दूध, फल, रोटी अच्छी तरह से नहीं देखी थी, कालांतर में यही इनकी जीवनशैली बन गई। अभी भी आधा पेट ही भोजन करते हैं। बाबा रात को नौ बजे सो जाते है और नियमित सुबह तीन बजे उठते हैं और शौच आदि से निवृत्त होकर योग साधना में लीन हो जाते हैं। दिन में कभी भी उन्हें सोते नहीं देखा गया। युवाओं को उनका यही संदेश है कि, प्रतिदिन सुबह जल्दी उठो। आधा घंटा हर हालत में योग करो। टहलना कभी भी न भूलो। संतुलित जीवन शैली अपनाओगे तो हमेशा स्वस्थ रहोगे।

    41 साल से मौन व्रत पर हैं दिनेश स्वरूप ब्रह्मचारी। महाकुंभ में भीड़ से घिरे रहनेवाले इन बाबा को चायवाले बाबा के नाम से भी जाना जाता है। बाबा ने पिछले 41 वर्षों से अन्न, जल ग्रहण नहीं किया है। वे सिर्फ चाय पीते हैं। अपने अटूट संकल्प के बारे में किसी से कोई जानकारी साझा नहीं करते। हर बात का जवाब लिखकर देते हैं। वह बाएं हाथ से लिखते हैं। उनकी कलम जब चलती है तो बोलने की स्पीड को मात देती प्रतीत होती है। बाबा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अभ्यार्थियों को एक कुशल अध्यापक की तरह पढ़ाते हैं। वे नोट्स तैयार करके देने के साथ-साथ छात्रों की शंकाओं का समाधान मोबाइल पर टाइप करके भेजते हैं। उनके पढ़ाये 40 से ज्यादा छात्र उच्च अधिकारी बन चुके हैं। महाकुंभ में भी छात्र उन्हें घेरकर सफलता के गुरू मंत्र लेते दिखाई देेते हैं। अंग्रेजी और गणित जैसे विषयों के विशेषज्ञ हठयोगी चायवाले बाबा कहते है कि, वह तो ज्ञान की गंगा में प्रतिदिन डुबकी लगाते हैं। उनका हर दिन शाही स्नान की तरह होता है। महाकुंभ मेले में पधारे आचार्य महामंडलेश्वर अरुण गिरी अपने अनुयायियों को दो पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करते हैं। एक पेड़ अंतिम संस्कार के लिए और एक पीपल का पेड़ आक्सीजन के लिए। 2016 में वैष्णोदेवी से कन्याकुमारी तक बाबा ने 27 लाख पौधे वितरित किए। एक करोड़ से अधिक पेड़ लगाने का संकल्प ले चुके अरुण गिरी को उनके भक्त बड़े मान-सम्मान के साथ ‘पर्यावरण बाबा’ कहते हैं। 

    प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ में अनेकों विदेशी बाबाओं की साधना और तपस्या लोगों को प्रेरित और आकर्षित कर रही है। अमेरिका में जन्मे और अमेरिकी सेना में सैनिक रहे माइकल वर्ष 2000 में अपनी पत्नी और बेटे के साथ भारत आए थे। तब वे विभिन्न धार्मिक स्थलों के भ्रमण और साधु-संतों के प्रवचनों से अत्यंत प्रभावित हुए थे। दो वर्ष के पश्चात उनके पुत्र का आकस्मिक निधन हो गया। उन्हें गम और तनाव ने बुरी तरह से घेर लिया। तब उन्हें भारत में बिताये दिन याद हो आए और एहसास हुआ कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है। भारत आकर उन्होंने बहुत गहराई के साथ सनातन धर्म का अध्ययन करते हुए संन्यास की राह पकड़ ली। माइकल को अब मोक्षपुरी बाबा के नाम से जाना जाता है। ध्यान ने उन्हें सभी चिंताओं से मुक्ति दिलाई है। इस बार के महाकुंभ में मोक्षपुरी सनातन धर्म के शाश्वत संदेश को फैला रहे हैं। वेदों, उपनिषदों और भगवद् गीता के ज्ञानी अमेरिकी बाबा अनेकों भारतीयों के प्रिय बन चुके हैं। प्रयागराज में जूना अखाड़े के सात फुट कद के आत्मा प्रेमगिरी बाबा के चेहरे की चमक दमक और चुस्ती-दुरुस्ती का आकर्षण लाजवाब है। जो भी एक बार देखता है उन्हें भूल नहीं पाता। विख्यात पायलट बाबा के अनुयायी रह चुके आत्मा प्रेमगिरी बाबा जब महाकुंभ में भ्रमण के लिए निकलते हैं तो भीड़ उनके पीछे-पीछे चलने लगती है। यह बाबा भी मूलत: रूस के रहने वाले हैं। पेशे से अध्यापक हैं, लेकिन सनातन धर्म के आकर्षण में इस कदर बंधे कि पिछले तीस साल से नेपाल में रहकर हिंदू धर्म का प्रचार कर रहे हैं। फौलादी शरीर की वजह से वाहवाही बटोरते इस बाबा को परशुराम का अवतार भी बताया जा रहा है। 

    अभय सिंह नाम का एक दुबला-पतला युवक मेले की शुरुआत में असंख्य लोगों के आकर्षण और जिज्ञासा का विषय बनज्ञ रहा। सोशल मीडिया ने तो उसे जमीन से आसमान तक पहुंचा दिया। एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की पृष्ठभूमि वाले आईआईटी बॉम्बे के पूर्व छात्र अभय ने अच्छी खासी मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों को लात मारकर अध्यात्मका मार्ग चुना। अपने इस जुनून के चलते मां-बाप की नाराजगी और प्रेमिका को भी खोना पड़ा। बाबा अभय सिंह की मासूम मुस्कराहट पर उसके कटु बयान भारी पड़ गये। जूना अखाड़े के संत और संन्यासी उसे बार-बार समझाते रहे कि वह संयम का दामन न छोड़े। लेकिन वह नशे की धुन में कभी अपने माता-पिता तो कभी अपने गुरू के बारे में ऐसे-ऐसे बेहूदा और अशोभनीय बयान देने में लगा रहा, जो किसी संन्यासी बाबा को तो कतई शोभा नहीं देते। दरअसल देश के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी उसे चने के झाड़ पर चढ़ा दिया था। उसे लगने लगा था कि वह विद्वान भी है और अत्यंत महान भी। उसकी तथाकथित लोकप्रियता से कुछ लोग चिढ़ रहे हैं। ईर्ष्या कर रहे हैं। इसी अहंकार में वह ऊटपटांग बोलता चला गया। कल तक जिस अभय सिंह की कहानी सुनकर लोग उसके प्रति सहानुभूति दर्शा रहे थे, दांतो तले उंगलियां दबा रहे थे, अब उसे ढोंगी और नौटंकी बाज कहते हुए कोस रहे हैं। कुंभ की शुरुआत में ही सोशल मीडिया स्टार हर्षा रिछारिया भी अपनी विभिन्न आकर्षक मुद्राओं और बोलवचनों के कारण काफी छायी रही। सोशल मीडिया उस पर पूरी तरह से लट्टू और मेहरबान रहा। तीस वर्षीय इस खूबसूरत युवती के बारे में जानने के लिए देशभर के लोगों की उत्सुकता बढ़ती चली गई। हर्षा जब निरंजनी अखाड़े के रथ पर विराजमान हुई तो विरोध के साथ-साथ तरह-तरह की बातें होने लगीं। उस पर निशाना साधा जाने लगा कि यह सब खूबसूरती का कमाल है। उसके भगवा वस्त्र धारण करने पर भी आपत्ति के स्वर गूंजे। तब गुस्सायी हर्षा ने एक वीडियो शेयर किया, जिसमें फूट-फूट कर रोती दिखी। अंतत: कुंभ छोड़कर जाने से पहले हर्षा ने कहा, लोगों को शर्म आनी चाहिए। एक लड़की जो धर्म से जुड़ने, धर्म को जानने, सनातन संस्कृति को समझने के लिए आईं थी, लेकिन उसे इस लायक भी नहीं समझा गया कि वो कुंभ में शांति से रूक सके। मैं तो अभिनय को छोड़कर सुकून की तलाश में यहां आई थी, लेकिन कुछ लोगों को मेरा साध्वी का रूप रास नहीं आया...।

Thursday, January 16, 2025

अगले जन्म जरूर आना वापस...

    बीते हफ्ते गुजरात के पोरबंदर में इंडियन कोस्टगार्ड का एक हेलिकॉप्टर क्रैश हो गया। इस आकस्मिक हादसे में भारत माता के तीन लाल शहीद हो गए। तीनों के भरे-पूरे परिवार पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। हम और आप में से अधिकांश लोग ऐसी शहादत की खबरों को पढ़ने-सुनने के बाद अन्य दूसरी खबरों की तरह शीघ्र भूल-भाल जाते हैं। हमें किसी के जाने का कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जिन पर बीतती है, वही अपनों को खोने के गम और पीड़ा को समझ पाते हैं। हिंदुस्तान के शहीदों और उनके परिजनों की देशभक्ति की कहानियों से कई ग्रंथ पड़े हैं। जिनसे देश की रक्षा के लिए हंसते-हंसते कुर्बान होने की प्रेरणा मिलती है, लेकिन यह भी सच है कि सभी देशवासी अपनी संतानों को सेना में भेजने का साहस नहीं दिखाते। लेकिन जिनमें देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी होती है वे खुद तो खुद अपने बच्चों को भी सरहद पर भेजकर गर्वित होते हैं। अपने परिजनों के युद्ध में या अपने कर्तव्य निर्वाह के दौरान शहीद होने वाले सैनिकों की विदायी परिजनों को जहां रूलाती है, वही गर्व से भी भर देती है। फिर भी उनका संयम, साहस और धैर्य उनकी अटूट देशभक्ति से साक्षात्कार करवाते हुए नतमस्तक कर देता है। कोस्टगार्ड पायलट सुधीर कुमार यादव का तिरंगे में लिपटा पार्थिव शरीर जैसे ही घर लाया गया, सभी की आंखों से आंसू बहने लगे। शहीद की जज पत्नी आवृत्ति नैथानी ने धैर्य के साथ खुद को संभालते हुए पार्थिव शरीर को नमन किया और अपने हाथ से लिखा एक पत्र शरीर के पास रखते हुए कहा कि, प्लीज इसे जरूर पढ़ लेना। कोई फॉल्ट हो गया हो तो माफ कर देना। पति के प्रति ऐसे अनूठे प्रेम, समर्पण और विश्वास के पवित्रतम भाव को देखकर सभी स्तब्ध और नतमस्तक रह गए। शहीद की मां बार-बार बेटे की तस्वीर को चूमे और अपलक निहारे जा रही थी। पार्थिव देह के पास बैठकर बिलखती मां का यह कहना हर संवेदनशील इंसान की आंखों को भिगो गया, ‘‘हाय हमार बाबू चला गा... हमार हीरा चला गा...। हमसे फूल चढ़वा रहा है, तुम्हें हमारे चढ़ाना चाहिए था। मेरे बेटन की जोड़ी फूट गई। अगले जन्म में घर वापस जरूर आना...।’’ बेटे के ताबूत पर पुष्प अर्पित करते-करते पिता की जो अश्रु धारा बही उसे रोकना मुश्किल था। धैर्यवान पिता यह कहना भी नहीं भूले कि, मेरा बेटा देश सेवा करते-करते शहीद हुआ, हम सबको उस पर गर्व है। 

    42 वर्षीय कमांडेंट सौरभ यादव के पार्थिव शरीर को कोस्टगार्ड की नौ सदस्यीय टीम जब घर लेकर पहुंची तो पूरा प्रयागराज गमगीन हो गया। उनकी बहादुरी और सहज सरल स्वभाव की गाथाएं बड़े गर्व के साथ पेश की जाने लगीं। अंतिम यात्रा के लिए ले जाते वक्त भारत माता की जयकारों के साथ-साथ कमांडेंट सौरभ अमर रहे, सौरभ तुम्हारा ये बलिदान नहीं भूलेगा हिन्दुस्तान के नारे गूंजते रहे। शहीद की छह साल की बेटी टीका की दर्द भरी चीत्कार सुनकर पत्थर से पत्थर इंसान को रोना आ गया। मासूम बिटिया बार-बार सभी से अनुरोध कर रही थी कि ‘‘कोई मेरा पापा को उठा दो। पापा आप कब तो सोये रहोगे?.. जागो न’’ तीन साल के नादान बेटे को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसे इस सच का तनिक भी आभास नहीं था कि अब वह अपने प्यारे पापा को कभी नहीं देख पायेगा। तिरंगे में लिपटे पति के पार्थिव शरीर को अश्रुपूति निगाहों से ताकती पत्नी को परिजन सांत्वना दे रहे थे, लेकिन वह बुत बनी बैठी थी। जब अंतिम विदाई देने की घड़ी आई तो वह बेहोश होकर गिर पड़ी। शहीद की मां और पिता भी बेसुध थे। उनकी सदैव सुध लेने वाले उनके कर्मठ आज्ञाकारी बेटे ने बीते महीने जाते-जाते वादा किया था कि, मैं बहुत जल्द वापिस आऊंगा। लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। इन खबरों के बीच एक खबर यह भी... 

    ‘‘बारह साल बाद 13 जनवरी को प्रारंभ होने जा रहे महाकुंभ में दो-तीन दिन के लिए घूमने आए एक माता-पिता ने अपनी 13 साल की पुत्री को जूना अखाड़े में दान कर दिया। इस महाआयोजन में देश-विदेश से करोड़ों लोग शामिल होने के लिए आते हैं। लड़की के माता-पिता का कहना था कि उनकी बेटी राखी साध्वी बनने की इच्छुक थी। उसे बचपन से ही धार्मिक कार्यों में काफी रुचि थी। नौंवी कक्षा की छात्रा राखी पढ़ने में अव्वल होने के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़- चढ़कर भाग लेती रही है। राखी को साध्वी की दीक्षा दिये जाने तथा नया नाम गौरी गिरी रखने की खबर सोशल मीडिया पर छायी तो एक वीडियो भी धड़ाधड़ वायरल होने लगा। जिसमें लड़की को कहते सुना गया कि वो बड़ी होकर आईएएस बनना चाहती थी, लेकिन अब उसे साध्वी की तरह रहना पड़ेगा। इस वीडियो के वायरल होने के बाद पुलिस ने हस्तक्षेप किया। अखाड़े के लोग भी नींद से जाग गए। लड़की को संन्यास दिलाने वाले महंत कौशलगिरी को सात साल के लिए निष्कासित कर दिया गया। अखाड़े के नियमों के मुताबिक नाबालिग को कभी दीक्षा नहीं दी जा सकती। अखाड़े का नियम यह भी कहता है कि 25 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुकी लड़कियों को अखाड़े में प्रवेश दिया जाता है। माता-पिता के आग्रह पर केवल छोटी आयु के लड़कों को जूना अखाड़े में प्रवेश दिया जाता है। लड़की अब अपने आईएएस बनने के सपने को पूरा कर पाएगी। जो लोग बेटियों को वस्तु समझते हैं और उसे ‘दान’ कर अपनी पीठ थपथपाते हैं उन्हें भी सतर्क हो जाना चाहिए। महत्वाकांक्षी लड़की अपने माता-पिता के साथ अपने घर पहुंच चुकी है...।

Thursday, January 9, 2025

नराधम

    नये साल के पहले दिन तो अच्छी खबरें पढ़ने-सुनने की आकांक्षा रहती है। बीते साल की कटु यादों को भूलाने के लिए ही तो 31 दिसंबर की रात दिल खोलकर जश्न मनाया जाता है। कोशिश यह भी होती है कि नाराजगी और मनमुटाव को पीछे छोड़कर एक-दूसरे से मिला-मिलाया जाए और नववर्ष की शुभकामनाएं दी जाएं। होली, ईद, दिवाली, क्रिसमस की तरह सभी को नये साल का भी बेसब्री से इंतजार रहता है। नये साल के पहले दिन अच्छा ही अच्छा होने की हर किसी की तमन्ना रहती है, ताकि पूरा साल खुशी-खुशी गुजरे, लेकिन 2025 की शुरुआत बहुत आहत कर गई। सुबह-सुबह अखबार के पहले पन्ने पर खून से सनी कुछ खबरों ने दिल को दहलाकर रख दिया। नारंगी नगर नागपुर में एक नालायक, नराधम, नीच, लम्बट कुपुत्र ने अपने मां-बाप की इसलिए नृशंस हत्या कर दी, क्योंकि वे उसका भला चाहते थे। उसे बेहतर इंसान बनने की बार-बार नसीहत देते थे। इंजीनियरिंग में दूसरे वर्ष का छात्र हत्यारा उत्कर्ष छह साल से परीक्षा में पास ही नहीं हो रहा था, इसलिए पिता को उसके भविष्य की चिंता सताने लगी थी। सोचते-सोचते उनकी रातों की नींद उड़ जाती थी। हमारे नहीं रहने पर इकलौते बेटे का जीवन कैसे गुजरेगा। इसे तो अपने आनेवाले कल की चिन्ता ही नहीं। पढ़ने-लिखने में इसका मन नहीं लगता। यहां-वहां मटरगश्ती करते हुए टाइमपास कर रहा है। एक ही क्लास में छह साल से अटका है। शराब, गांजा और एमडी जैसे नशों के चंगुल में भी बुरी तरह से फंस चुका है। नशे तो पतन और बरबादी की जड़ होते हैं। आखिर ऐसा कब तक चलेगा? जब भी उसे समझाने की कोशिश करते हैं तो बेअदबी से पेश आते हुए चीखने-चिल्लाने लगता है। कई बार तो आंखें दिखाते हुए हावी भी हो जाता है, जिससे उन्हें भय लगने लगता है। उस दिन उन्होंने इतना ही तो कहा था कि जब पढ़ने में मन नहीं लगता तो परिवार की पुश्तैनी खेती-बाड़ी में क्यों नहीं लग जाते। कई युवा नये-नये तरीकों से खेती कर लाखों रुपये कमा रहे हैं। तुम भी मेहनत करोगे तो यकीनन बेहतर प्रतिफल मिलेगा, लेकिन वह तो ऐसे आगबबूला हो गया था, जैसे कि खेती का काम कोई अपमानजनक घटिया पेशा हो। 25 दिसंबर की रात भी पिता लीलाधर अपने जवान बेटे उत्कर्ष को सही राह पर चलने की सीख दे रहे थे। उत्कर्ष ने जब सीधे-मुंह बात नहीं की तो गुस्से में उन्होंने उत्कर्ष के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ दिया। पिता के चांटे को सुझाव और नसीहत का हिस्सा मानने की बजाय उत्कर्ष ने उसी समय उनका हमेशा-हमेशा के लिए काम तमाम करने का दृढ़ निश्चय करते हुए बाजार जाकर धारदार चाकू खरीद कर पैंट की जेब में रख लिया। 26 दिसंबर की सुबह लगभग दस बजे पिता किसी नजदीकी की अंत्येष्टि में गए हुए थे। केवल उत्कर्ष और उसकी मां ही घर में थे। मां ने भी पिता की तरह बेटे को बार-बार फेल होने को लेकर कड़ी फटकार लगाते हुए गांव जाकर खेत में पसीना बहाने को कहा तो उत्कर्ष का तन-बदन सुलग गया। मां-बेटे में लगभग डेढ़ घंटे तक विवाद होता रहा। इसी दौरान गुस्से से तमतमाये उत्कर्ष ने मां की गला घोटकर हत्या कर दी और बड़े इत्मीनान से टीवी देखते हुए पिता के लौटने का इंतजार करने लगा। दोपहर साढ़े चार बजे घर लौटकर जब पिता स्नान के लिए बाथरूम जाने लगे तभी बोखलाये हिंसक जानवर की तरह उत्कर्ष उन पर टूट पड़ा। अचानक हुए आक्रमण से पिता कुछ समझ नहीं पाए। उत्कर्ष ने पिता की पीठ पर चाकू से जैसे ही वार किया तो उन्होंने अपनी पत्नी को सहायता के लिए पुकारा। बेरहम उत्कर्ष ने उन्हें तुरंत बताया कि मां को तो मैंने पहले ही ऊपर भेज दिया है। ऐसे में अब अकेले रह कर क्या करेंगे? घबराये पिता ने बेटे को शांत होने के अनुरोध के साथ मिल-बैठकर बात करने की विनती की। उन्होंने कुछ पल प्रभु की अर्चना करने का भी पुत्र से समय मांगा, लेकिन उत्कर्ष पर तो खून सवार था। उसने अपने जन्मदाता पर रहम करने की बजाय हमेशा के लिए मौत की नींद के हवाले करके ही दम लिया। अपने मां-बाप की नृशंस हत्या करने के बाद वह किंचित भी चिंतित और विचलित नहीं हुआ। उसकी बहन शेजल जो कि बीएएमएस की छात्रा है, उसे उसने बताया कि मम्मी-पापा मेडिटेशन के लिए अचानक बेंगलुरु चले गए हैं। अपने घर में रहने की बजाय बहन के साथ वह निकट स्थित गांव में अपने रिश्तेदार के यहां उधेड़ बुन में लगा रहा। एक-एक दिन उस पर भारी पड़ रहा था। इसी दौरान घर से दुर्गंध आने की वजह से पड़ोसियों में भी सुगबुगाहट शुरू हो गई। पुलिस तक भी बात जा पहुंची। पड़ोसियों तथा रिश्तेदारों ने दरवाजा तोड़कर भीतर प्रवेश किया तो पति-पत्नी के शवों ने उनके पैरोंतले की जमीन खिसका दी। उत्कर्ष ने अपना गुनाह कबूलने में ज्यादा देरी नहीं लगाई। उसके हावभाव बता रहे थे कि उसे अपने जन्मदाताओं की हत्या करने का जरा भी मलाल नहीं है। उसका कहना था कि मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। ये न करता तो क्या सारी उम्र उनके ताने सुनते रहता? 

    इसी तरह से उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में नये साल के पहले ही दिन एक युवक ने अपनी मां और चार बहनों को मौत के घाट उतार दिया। इस हत्याकांड में उसे अपने पिता का भी पूरा-पूरा समर्थन और साथ मिला। यह परिवार मूलत: आगरा का रहने वाला था। अरशद ने मां और बहनों का खून करने के बाद एक वीडियो के माध्यम से बताया कि बस्ती वालों की गंदी सोच और वासना भरी निगाहों से बहनों को बचाने के लिए उसे हत्यारा बनना पड़ा। मेरी बहनों को हैदराबाद की देहमंडी में बेचने की साजिशें रची जा रही थीं। भाई होने के नाते मैं ऐसा कैसे होने देता? अशरद का पूरा परिवार 31 दिसंबर की रात लखनऊ पहुंचा था। होटल वालों ने सोचा कि सभी नया साल सेलिब्रेट करने के लिए आगरा से लखनऊ आये हैं। होटल में अशरद ने मां और बहनों को पहले जबरन शराब पिलाई। पहले मां के मुंह में दुपट्टा ठूंसकर गला घोंटा। फिर बहनों को भी तरह-तरह की यातनाएं देकर तड़पा-तड़पा कर मार डाला। अरशद और उसके परिवार का आगरा की जिस बस्ती में घर है, वहां के लोगों का कहना है कि बाप-बेटा दोनों बेहद सनकी हैं। मां तथा बहनों को कभी भी घर से बाहर कदम ही नहीं रखने देते थे। उनके लिए तो घर ऐसा कैदखाना था, जहां से रिहाई असंभव थी।  ज़रा-ज़रा-सी बात पर पड़ोसियों से लड़ना-झगड़ना बाप-बेटे की आदत में शुमार था। खुद ही लड़ते थे और खुद ही पुलिस को बुला लेते थे। बस्ती वालों पर बहनों को बेचने और जिस्म फरोशी कराने की साजिश रचने के आरोप भी पूर्णत: बेहूदा  और असत्य हैं। अरशद की साल 2017 में जिस लड़की से शादी हुई थी। वह सिर्फ दो महीने में ही इतनी परेशान हो गई कि, ससुराल को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर मायके चल दी। मायके वालों का कहना था कि, अरशद का बाप अपनी बहू पर बुरी नजर रखता था। इसलिए फटाफटा तलाक का रास्ता चुना गया। 

    ये खबरें नहीं, धारदार खंजर हैं, इनकी कातिल चुभन दिल-दिमाग को दहलाकर सुन्न कर देती है। मां, बाप, भाई-बहन और पति-पत्नी के रिश्तों से बढ़कर तो कुछ भी नहीं होता, लेकिन कुछ वहशी हैवान प्रवृत्ति के लोग इन्हीं पवित्र, आत्मिक रिश्तों को बड़ी बेरहमी से कत्ल करने में ज़रा भी नहीं सकुचाते। कोई भी माता-पिता अपनी संतान के अहित की कैसे सोच सकते हैं! वे तो उन्हें आकाश की बुलंदियों पर देखना चाहते हैं। इसके लिए वे अपना सबकुछ लुटाने को भी तत्पर रहते हैं, लेकिन जब उन्हें पता चलता है कि उनके बच्चे नालायक साबित हो रहे हैं। लोग उनकी परवरिश पर सवाल उठा रहे हैं तो वे जिस गम और टूटन से गुजरते हैं उसे बच्चे कम ही समझ और जान पाते हैं। उन्हें तो मां-बाप की नसीहत शूल की तरह चुभती है। यहीं से जो टकराव शुरू होता है उसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। भारतीय नारियां अपने पति को मात्र दिखावे के लिए परमेश्वर नहीं मानतीं, लेकिन कुछ कपटी पुरुष पत्नी की भावना को पढ़ ही नहीं पाते। किसी भी बेटे, पिता, भाई, बहन और पति का कातिल चेहरा कई-कई सवाल छोड़ जाता है...।

Thursday, January 2, 2025

। महामानव ।

    भारतवर्ष के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पंचतत्व में विलीन हो चुके हैं। 92 वर्ष की उम्र में उन्होंने दिल्ली के एम्स में अंतिम सांस ली। आर्थिक सुधारों के नायक मनमोहन सिंह की जीवन यात्रा का पन्ना-पन्ना अत्यंत प्रेरक और पठनीय है। उनका जन्म 26 सितंबर 1932 में पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान में) के एक गांव में हुआ था। देश के बंटवारे के बाद उनके परिवार ने सर्वप्रथम हलद्वानी में शरण ली। बचपन में ही उनकी मां का निधन हो गया। उनकी नानी ने उनका पालन-पोषण किया। गरीबी की वजह से बालक मनमोहन ने गांव में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई की। पिता का सपना था, बेटा पढ़-लिखकर डॉक्टर बने, लेकिन नियति ने तो कुछ और ही ठान रखा था। अपने शैक्षणिक जीवन में सदैव प्रथम रहे मनमोहन सिंह कुछ वर्ष तक पंजाब विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के टीचर के रूप में कार्यरत रहे। उसके पश्चात वहां अर्थशास्त्र के प्रोफेसर भी रहे। कालांतर में वे भारत सरकार में कई प्रमुख पदों पर आसीन हुए। रिजर्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार जैसे कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित करने वाले डॉ. मनमोहन को सक्रिय राजनीति में लाने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय पी.वी. नरसिंह राव को दिया जाता है। पी.वी. नरसिंह राव डॉ.मनमोहन की देशभक्ति, सूझबूझ, दूरदर्शिता के जबरदस्त कायल थे। भारत के मध्यमवर्ग को अच्छे दिन दिखाने वाले डॉ.मनमोहन जितने शिक्षित थे, उतना भारत की राजनीति में दूसरा और कोई नेता दूर-दूर तक दिखायी नहीं देता। यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि सफल वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री रहे डॉ.मनमोहन राजनीति के कुशल खिलाड़ी नहीं थे। यही वजह रही कि वे राजनीतिक नेता नहीं बन सके।

    विद्वता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति मनमोहन सिंह श्रीमती सोनिया गांधी के अनुरोध पर 2004 में भारतवर्ष के प्रधानमंत्री बने और 2014 तक लगातार इस पद पर आसीन रहे। मनरेगा, सूचना का अधिकार, आधार, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी परियोजनाएं उन्हीं के कार्यकाल में प्रारंभ हुई। दस वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन कभी लोकसभा के सदस्य नहीं रहे, लेकिन 1991 से 2019 तक असम से और 2019 से 2024 तक राजस्थान से राज्यसभा सदस्य रहकर देश की राजनीति की शान बने रहे और बने रहेंगे। लाइसेंसी राज का खात्मा करने वाले मनमोहन के बारे में यह भी प्रचारित किया गया कि वे सोनिया गांधी के इशारों पर नाचते हैं। इस तरह के और भी कई आरोप उनकी संघर्ष यात्रा के साथी बने रहे। देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने वाले पूर्व प्रधानमंत्री को माननीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इन शब्दों के साथ श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए याद किया। 

    ‘‘पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह जी उन चुनींदा राजनेताओं में से एक थे, जिन्होंने शिक्षा और प्रशासन की दुनिया में भी समान सहजता से काम किया। सार्वजनिक पदों पर अपनी विभिन्न भूमिकाओं में उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका निधन हम सभी के लिए बहुत बड़ी क्षति है। उनकी सरलता और सादगी के अनेकों किस्से हैं, जो बताते हैं कि वे कितने आम और महान थे। वर्ष 2004 से लगभग तीन वर्ष तक उनके बॉडीगार्ड रहे असीम अरुण ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में लिखा, ‘‘प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह को बीएमडब्ल्यू के बजाय अपनी मारुति-800 पसंद थी, क्योंकि वे इस कार के जरिए मध्यमवर्ग से जुड़ाव महसूस करते थे। पीएम हाउस में काली चमचमाती बीएमडब्ल्यू के एकदम पीछे मारुति खड़ी रहती थी। वे बार-बार मुझे कहते-अरुण मुझे महंगी कार से चलना पसंद नहीं। मेरी गड्डी तो यह (मारुति) है। मैं सादर उनसे कहता कि, सर यह गाड़ी आपके ऐश्वर्य के लिए नहीं है। इसके सिक्योरिटी फीचर्स वैसे हैं, जिनके लिए एसपीजी ने इसे लिया है, लेकिन जब बीएमडब्ल्यू को लेकर निकलता तो वे हमेशा पीछे खड़ी मारुति को बार-बार देखते रहते। जैसे संकल्प दोहरा रहे हो कि, मैं मिडिल क्लास व्यक्ति हूं और आम आदमी की चिन्ता करना मेरा काम है। करोड़ों की गाड़ी पीएम की है, मेरी तो यह मारुति है...।’’ 

    डॉ. मनमोहन पर कभी भी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे, लेकिन उनके कार्यकाल में राजनीति, उद्योग और मीडिया के कुछ बेइमानों ने खूब जमकर चांदी काटी। यह भी जोर-शोर से कहा और प्रचारित किया गया कि वे भ्रष्टाचारियों को देख-जानकर भी अनदेखा कर देते हैं। कहीं न कहीं ऐसा करने के पीछे उनकी राजनीतिक मजबूरियां रही होंगी। अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान निरंतर बदनामी और विवादों से घिरे रहे मनमोहन की चुप्पी भी बड़ी लाजवाब रही। आरोप के तीर चलाने वाले उनसे जवाब चाहते थे, लेकिन उनका कहना था, ‘‘हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी।’’ राहुल गांधी ने भरी सभा में अध्यादेश के टुकड़े-टुकड़े कर जिस तरह से उन्हें अपमानित किया, ठीक वैसे ही देश का अधिकांश प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया भी उन पर काफी ज्यादा आक्रामक बना रहा। मीडिया के तीखे से तीखे सवाल तथा अनुचित हमलों को भी बड़ी सहजता से झेलने वाले मनमोहन ने कभी भी किसी भी कलमकार, संवाददाता और संपादक को अपमानित नहीं किया। वे ऐसा सोच भी नहीं सकते थे। वे मानते थे कि स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए नितांत आवश्यक है। जीवन की हर राह में मौन को अपनी सबसे बड़ी ताकत मानने वाले डॉ. मनमोहन के निधन के तुरंत बाद एक तरफा चलने वाले मीडिया तथा राजनेताओं ने गिरगिट की तरह रंग बदलने में देरी नहीं लगाई। अपने जीवन काल में वे जिस मान-सम्मान के हकदार थे वह उन्हें तब मिला जब वे चल बसे। दरअसल, मीडिया को अपनी गलती का अहसास हो गया था कि पूर्व प्रधानमंत्री के शासन काल में उसने उन पर जो आरोप लगाए उनमें से अधिकांश बाद में गलत साबित हुए। भारतीय मीडिया की पश्चाताप करने की आदत नहीं है। वह अपने ही तौर-तरीकों से काम करता आया है। गुजरे वक्त में उसने जिन्हें खलनायक दिखाया दर्शाया उन्हीं को बाद में नायक के रूप में प्रतिष्ठित करने की जरूरत और मजबूरी को कई बार हमने देखा है। चुप्पी को अपनी ताकत मानने वाले डॉ. मनमोहन के संसद में एक चर्चा के दौरान कहे अल्लाम इकबाल के इस शेर की गूंज सोशल मीडिया में भी दूर-दूर तक सुनाई दे रही है, ‘‘माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक देख, मिरा इतज़ार देख...।’’ डॉ. मनमोहन के मन में देश के प्रति कैसी सम्मानजनक भावनाएं थीं, उन्हें उनकी इन पंक्तियों से जाना जा सकता है ‘‘मुझे जो कुछ भी मिला है इस देश से ही मिला है, एक ऐसा देश, जिसने बंटवारे के कारण बेघर हुए एक बच्चे को इतने ऊंचे पद तक पहुंचा दिया, ये एक ऐसा कर्ज है, जिसे मैं कभी अदा नहीं कर सकता, ये एक ऐसा सम्मान भी जिस पर मुझे हमेशा गर्व रहेगा...।’’