Monday, August 18, 2025

ऐसे कैसे खोता मनोबल?

संतरानगरी नागपुर में स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में एमबीबीएस अंतिम वर्ष के छात्र संकेत दाभाड़े ने होस्टल में शाल की मदद से फांसी लगा ली। संकेत एक होनहार छात्र था। उसके डॉक्टर बनने में मात्र एक वर्ष ही बाकी था। माता-पिता बहुत खुश थे। उनका सपना जो साकार होने जा रहा था। संकेत के पिता शिक्षक हैं। मां संस्कारी, परिश्रमी गृहिणी हैं। कॉलेज के पहले दस अत्यंत होशियार विद्यार्थियों में गिने जानेवाले संकेत ने खुदकुशी क्यों की, इसका भी जवाब नहीं मिल पाया। उसके रहन-सहन और बर्ताव से कभी भी ऐसा नहीं लगा कि वह किसी परेशानी में है। वह नियमित डायरी लिखा करता था। देश की राजधानी दिल्ली के पॉश इलाके बंगाली मार्केट के एक गेस्ट हाऊस में ठहरे धीरज नामक चार्टेड अकाउंटेंट (सीए) ने भी खुदकुशी की, लेकिन उसकी खुदकुशी का तरीका स्तब्ध करने वाला है। आर्थिक तौर पर अच्छे-भले धीरज ने आत्महत्या की पूरी तैयारी के साथ गेस्ट हाऊस में प्रथम मंजिल पर 28 से 30 जुलाई तक के लिए एक बीएचके बुक कराया था। चेक आउट का समय आने पर जब कर्मचारियों ने दरवाजा खटखटाया तो उन्हें कोई प्रतिक्रिया और हलचल नहीं दिखायी दी। उलटे उन्हें अंदर से आ रही असहनीय बदबू की वजह से नाक पर रूमाल रखना पड़ा। खबर पुलिस तक पहुंचायी गयी। दरवाजे को तोड़ने पर धीरज का शव बिस्तर पर पड़ा मिला। मृतक ने एक मास्क पहना हुआ था, जो पतली नीली पाइप के माध्यम से एक वाल्व और मीटर वाले सिलेंडर से जुड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर एक पतली पारदर्शी प्लास्टिक लिपटी हुई थी और गर्दन पर सील थी। घातक तरीके से मुंह में पाइप डालकर शरीर के अंदर हीलियम गैस को प्रवेश करा कर खुदकुशी करने वाला धीरज बिना तड़पे मौत का आलिंगन करना चाहता था। पाइप से शरीर में हीलियम गैस डालकर आत्महत्या करने का यह पहला मामला है। धीरज ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि, मैं जा रहा हूं। इसके लिए किसी को कसूरवार न ठहराया जाए। मौत मेरे लिए जीवन का ही एक खूबसूरत हिस्सा है। मेरी नज़र में खुदकुशी करना गलत नहीं है। वैसे भी यहां मेरा अपना कोई नहीं। फिर मेरा भी किसी से कोई जुड़ाव नहीं रहा। धीरज के पिता की 2003 में मृत्यु हो गई थी और मां ने उनकी मौत होते ही किसी और से शादी कर ली थी। 

भारत के महानगर विशाखापटनम में कलेक्टर के पद पर आसीन चालीस वर्षीय आनंदम ने रेल की पटरी पर सिर रख कर अपनी जान दे दी। इन युवा महत्वाकांक्षी कलेक्टर महोदय को बेहतरीन प्रशासन और मिलनसार स्वभाव का धनी माना जाता था। उनसे जो भी एक बार मिल लेता, हमेशा-हमेशा उनको याद रखता। महिलाओं में खासे लोकप्रिय रहे आनंदम की दिल दहलाने वाली खुदकुशी की वजह हैं उनकी अर्धांगिनी, जिन्हें वो जी-जान से चाहते थे। उनकी एक पांच साल की प्यारी-प्यारी बिटियां भी है। पत्नी भी रेलवे में उच्च पद पर कार्यरत है। ऐसी जोड़ियों को हमारे यहां बहुत खुश नसीब माना जाता है, लेकिन यहां एक गड़बड़ थी। वैसे ऐसी परेशानियां अधिकांश घर-परिवारों में आम हैं। कलेक्टर की पत्नी की अपनी सास से नहीं निभ रही थी। जब देखो तब घर में कलह-क्लेश मचा रहता था। कलेक्टर साहब अपनी बीवी के साथ-साथ मां को भी समझाते-समझाते थक गये थे। इस घरेलू जंग की वजह से मां और बीवी दोनों उन्हें ही कोसते रहते। तमाम बाहरी समस्याओं का चुटकी से हल निकालने वाले कलेक्टर को एक दिन लगा कि वे घर के मोर्चे की जंग पर अंकुश लगाने में सक्षम नहीं हैं। उनकी जिन्दगी नर्क बनती चली जा रही है। जीवन भी बोझ हो चला है। जब उनकी पत्नी और मां को उनकी खुदकुशी की खबर मिली तो उनका रो-रोकर बुरा हाल था। उन्हें अपनी गलती पर पछतावा भी था, लेकिन उन्हीं की वजह से निराश और हताश होकर जाने वाला अब वापस तो नहीं आने वाला था। 

नारंगी नगर के ही एक डॉक्टर को बीमारी, परेशानी और अकेलेपन ने अपने जबड़ों में ऐसा जकड़ा कि उन्होंने जहर खा लिया। मौत के मुंह में समाने के लिए उन्होंने पत्नी को भी राज़ी कर ज़हर का सेवन कराया। डॉक्टर तो चल बसे, लेकिन पत्नी अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही है। दूसरों की जान बचाने वाले डॉक्टर ने खुदकुशी करने से पहले जो सुसाइड नोट लिख कर छोड़ा, उसमें इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया। डॉक्टर गंगाधर पिछले काफी समय से पेट के अल्सर और दांतों की गंभीर बीमारी से लड़ रहे थे। लगातार इलाज के बाद भी जब स्थिति नहीं सुधरी तो खुदकुशी को ही अंतिम इलाज मान लिया। ऐसा भी कतई नहीं था कि गंगाधर की प्रैक्टिस नहीं चलती थी। जानने-पहचानने वाले सभी लोग उन्हें सफल और सुलझा हुआ डॉक्टर मानते थे। उनके क्लिनिक में पहुंचने वाले मरीजों को उनके इलाज पर भी भरोसा था। पति-पत्नी दोनों घर में अकेले रहते थे। उनकी बेटी एक निजी स्कूल में शिक्षिका हैं और बेटा उत्तराखंड में एक स्टील प्लांट में अकाउंटेंट है। 

पुलिस को घटनास्थल की जांच के दौरान तीन सुसाइड नोट के साथ-साथ दो कीटनाशक की बोतलें भी मिलीं। यह आत्महत्या करने वाले सभी चेहरे उन खास लोगों में शामिल हैं, जिनसे समाज को अनंत अपेक्षाएं रहती हैं। लोगों को खुश और संतुष्ट रखने की जिम्मेदारी इनके कंधों पर होती है। इनके ही इस तरह से मर जाने पर लोग आसानी से यकीन नहीं कर पाते। बस हतप्रभ रह सोचते रह जाते हैं कि क्या इनके पास कोई और विकल्प नहीं था? जब खुद पर आती है, तो अच्छा भला मनुष्य इतना असहाय, निर्बल और दिशाहीन क्यों हो जाता है? जिन्दगी तो विधाता का सौंपा गया एक अनमोल उपहार है, उसे सहेज और संवार कर रखने की बजाय यूं ही गंवा देना सवाल तो खड़े करता ही है। जहां लोग अपनी लंबी उम्र के लिए तरह-तरह के जतन करते हों, वहीं पर ऐसे लोगों की मौजूदगी सहानुभूति और मान-सम्मान की हकदार भी नहीं लगती। कोरोना की महामारी ने इंसानों को जीवन का मोल समझा दिया था। वैसे भी बीते कुछ वर्षों से भारतीयों में स्वास्थ्य के प्रति सतर्क रहने की भावना बलवती हुई है। सेहतमंद बने रहने के लिए बेहतर खान-पान, मार्निंग वॉक, योग, मेडिटेशन और जिम जाने के चलन में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। पहले जहां पचपन-साठ साल की उम्र में अधिकांश लोग बिस्तर पकड़ लेते थे, अब सत्तर-अस्सी की उम्र में भी कई स्त्री-पुरुष भागते-दौड़ते दिखायी देते हैं। सतत ऊर्जावान, सेहतमंद और लंबी आयु जीने के मामले में पूरे विश्व में जापानियों को प्रेरणा स्त्रोत माना जाता है। जापान में 70-80 साल की महिलाएं टैक्सी चलाती देखी जा सकती हैं। 100 साल की उम्र के बुजुर्ग खुद अपने लिए खाना बनाते हैं। बागवानी करते हैं। अच्छी तरह से देख और सुन सकते हैं। सकारात्मक सोच, पौष्टिक भोजन, नियमित मॉर्निंग और इवंनिंग वॉक तथा चिन्तामुक्त भरपूर नींद जापानियों की लंबी उम्र का जबरदस्त टॉनिक है। अभी हाल ही में जापान की 114 वर्षीय सेवानिवृत्त चिकित्सक शिगेको कागावा चल बसीं। कागावा ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले मेडिकल स्कूल से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। युद्ध के दौरान ओसाका के अस्पताल में अपनी सेवाएं देने के प्रश्चात प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में अपने परिवार के क्लिनिक का संचालन किया। वह 86 वर्ष की आयु में जब सेवा निवृत्त हुईं तब भी उनकी चुस्ती-फुर्ती में कोई फर्क नहीं आया था। उनसे जब उनकी बेहतरीन सेहत और लंबी उम्र का राज पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘मेरे पास कोई रहस्य नहीं है। मैं बस रोज अपने मनपसंद गेम खेलती हूं। सकारात्मक सोचती हूं। मेरी ऊर्जा ही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है। मैं जहां चाहती हूं, वहां तुरंत चली जाती हूं। जो चाहती हूं, वही खाती हूं और जो चाहती हूं, वही करती हूं। एकदम स्वतंत्र होने का यही एहसास मेरा हमेशा मनोबल बढ़ाता है।’

Thursday, August 7, 2025

नई पहल की साहसी दस्तक

 सदियों से इंसानों के जीने के तरीकों का जो रंग-ढंग और सांचा बना हुआ है, उसी में ही अधिकांश लोग ढल और रच बसकर जीना पसंद करते हैं। उनके जीवन में सब कुछ पहले से ही निर्धारित होता है। कब खुशी मनानी है और कब गम इसके लिए किसी को बताना नहीं पड़ता। मिलने पर खुशी और बिछुड़ने पर दुखी होना अदना-सा बच्चा भी जानता है। जन्म पर जश्न और मौत पर गमगीन होने की जगजाहिर परिपाटी से यकीनन सभी वाकिफ हैं, लेकिन कुछ लोग इस परंपरा के विपरीत चलते हुए एक नई राह और नई सोच के प्रबल पक्षधर के रूप में सामने आ रहे हैं। उनसे प्रभावित होकर उनका अनुसरण करने वाले बड़ी तेजी से तो नहीं, लेकिन धीरे-धीरे सामने आकर परंपरावादियों को चौंका रहे हैं। यह भी सच है कि हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराओं में एकाएक बदलाव लाना बिलकुल आसान नहीं। खासतौर पर वो आदतें और परंपराएं जो करीबी रिश्तों की सुकोमल, नितांत आत्मिक भावनाओं की नींव पर बड़ी मजबूती से टिकी हों और जिन्हें हिलाने की कोशिश करने वालों को एकजुट होकर लताड़ और दुत्कार लगाने में देरी नहीं की जाती हो। क्रांतिकारी चिंतक, वक्ता ओशो ने वर्षों पूर्व जब अपने सभी शिष्यों को मौत पर गम नहीं, जश्न मनाने का संदेश दिया था तब उन्हें पागल करार देते हुए अनेकों परंपरावादियों ने पूछा था कि किसी प्रियजन की मौत तो हमेशा दुखदायी ही होती है। कोई अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, चाचा-मामा और जान से प्यारे मित्र के गुजर जाने पर खुश कैसे हो सकता हैं? यह तो निष्ठुरता की इंतिहा है। पवित्र रिश्तों का सरासर अपमान है। ओशो तो ओशो थे। जो कह दिया बस पत्थर की लकीर। प्रत्युत्तर में ओशो बोले थे मृत्यु से डरने की बजाय, इसे जीवन की निरंतरता के रूप में स्वीकार करना चाहिए। मृत्यु शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं। आत्मा अमर है और मृत्यु के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है। इसलिए मृत्यु को जीवन के एक नए चरण की शुरुआत के रूप में देखना चाहिए, न कि उसे अंत मानना चाहिए। मृत्यु का उत्सव मनाना जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण दर्शाता है। साथ ही यह भी दर्शाता है कि हम जीवन के हर पहलू को सहजता से स्वीकार करते हैं, चाहे वह सुखद हो या दुखद। ओशो अपने शिष्यों को अंत तक कहते रहे कि मृत्यु को रहस्य के रूप में नहीं, बल्कि एक प्राकृतिक प्रक्रिया के तौर पर देखें। मृत्यु को उत्सव मनाने का मतलब जीवन के हर पल को समग्रता से जीने और किसी भी चीज से मोह न रखना भी है। जब हम मृत्यु से नहीं डरते तो हम जीवन के हर पल को और अधिक तीव्रता से जी पाते हैं। ओशो के शिष्यों ने 1990 में ओशो रजनीश की हार्ट अटैक की वजह से मृत्यु होने के पश्चात उनकी सीख का पालन करते हुए उनकी मृत्यु को एक जश्न... उत्सव के रूप में मनाया। उनके शव को सभागृह में रखकर धड़ाधड़ तस्वीरें उतारीं तथा रंग-बिरंगे कपड़ों में नृत्य और संगीत का आनंद लेते उनका अंतिम संस्कार किया था। 

फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने भी ओशो का अनुसरण करते हुए अपने पिता की मृत्यु होने पर प्रचलित तरीकों से गमगीम होकर आंसू बहाने की बजाय उन्हें खुशी-खुशी अंतिम विदाई दी। अभिनेता अपने खुशमिजाज पिता को बहुत चाहते थे। उनसे अत्यंत प्रभावित भी थे। अनुपम ने पिता को हमेशा बेफिक्री के साथ हंसते-मुस्कुराते देखा था। वे दूसरों को भी सदा खुश रहने की सीख देते थे। अनुपम के प्रिय पिता जब चल बसे, तभी उन्होंने निश्चय किया कि पिता जैसे आनंद के साथ जीते रहे वैसे ही उनकी मृत्यु को खुशी-खुशी उत्सव के रूप में मना कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। उन्होंने अंतिम संस्कार में पिता की मौत को रंगीन बनाने के लिए अपने दोस्तों को काले या सफेद लिबास में आने की बजाय रंगारंग कपड़ों में आने को कहा। जश्न में किसी भी तरह की कमी न रहे इसके लिए अनुपम ने विशेष तौर पर रॉक बैंड को आमंत्रित कर रंगीन माहौल बनाते हुए पिता के जीवन के तमाम खुशनुमा, सकारात्मक पहलुओं को साझा किया। भारत में इन दिनों इस तरह के बदलाव की बयार चल रही है। पहले लोग सकुचाते थे-लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे? लेकिन अब जो उन्हें सुहाता है उसे कर गुजरने में नहीं हिचकिचाते। हरियाणा के शहर रेवाड़ी में पत्नी की मौत की खबर सुनते ही पति ने कुर्सी पर बैठे-बैठे प्राण त्याग दिए। पति 93 साल के तो पत्नी 90 साल की थी। उम्रदराज माता-पिता के अपार अपनत्व को देखते हुए बच्चों ने उनकी अर्थी को रंग-बिरंगे गुब्बारों से सजाकर धूमधाम से निकाला। दोनों का एक ही चिता में अंतिम संस्कार किया गया। धार्मिक नगरी उज्जैन में कुछ महीने पूर्व मनोरमा नामक 65 वर्षीय महिला का निधन हो गया। इत्तेफाक से उसी दिन उनका जन्म दिन भी था। परिजनों ने उनके जन्म दिन को धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रखी थी। उस दिन 14 फरवरी होने के कारण पूरी दुनिया वैलेंटाइन-डे मना रही थी। इस उत्सवी दिन को प्यार का दिन भी कहा जाता है। मनोरमा धार्मिक होने के साथ-साथ समाज सेवा से भी जुड़ी थीं। उन्होंने अपने घरवालों की सहमति से वर्षों पूर्व देहदान का संकल्प लिया था। वह चाहती थी कि मृत्यु होने पर उनका शरीर जरूरतमंदों के काम आए। मनोरमा के अंतिम दर्शन कर श्रद्धा सुमन अर्पित करने पहुंचे अनेकों लोग तब हैरत में पड़ गए जब उन्होंने परिवार वालों को ‘हैप्पी बर्ड डे’ का गीत बड़ी प्रसन्न मुद्रा में गाते देखा। मृत्यु के दुखद अवसर पर तो उन्होंने कभी किसी को ऐसी प्रसन्न हालत में नहीं देखा था। परिजनों की देखादेखी सभी लोगों ने मृतका को शुभकामनाएं देकर श्रद्धा सुमन अर्पित किए। देहदान की प्रक्रिया को पूर्ण करने के बाद जब उनके शरीर को फूलों से सजी एम्बूलेंस में विदा किया गया तो वहां पर मौजूद सभी लोग श्रद्धा से नतमस्तक हो गए। उनके लिए अपने आंसू रोकना काफी मुश्किल था, लेकिन फिर भी उन्होंने खुद को संभाले रखा। 

मध्यप्रदेश के जावरिया गांव में चार कंधों पर जब एक अर्थी निकल रही थी, तभी एकाएक बैंड बाजे की आवाज गूंजने लगी।  एक शख्स अर्थी के आगे आकर झूम-झूम कर नाचने लगा। शवयात्रा में शामिल मृतक के रिश्तेदारों ने उसे यह कहकर मना किया कि यह कोई खुशी का मौका नहीं, जो तुम बैंड बाजे के साथ नाच रहे हो। मातम की घड़ी में कभी कोई ऐसे जश्न मनाता है? लेकिन वह अपनी धुन में जोर-जोर से थिरकता रहा। उसने किसी की एक भी नहीं सुनी। दरअसल, वह मृतक सोहनलाल जैन का खास मित्र था, जो उनकी इच्छा का पालन कर दोस्ती का फर्ज निभा रहा था। वह और सोहनलाल पिछले दस वर्षों से हर सुबह 5 बजे एक साथ प्रभात फेरी पर निकलते थे। इसी दौरान सोहनलाल ने अपने इस मित्र को कहा था कि मैं जब नहीं रहूं तो मेरी अंतिम यात्रा में शामिल होकर मेरी अर्थी के आगे बैंड बाजे के साथ नाचते हुए मुझे विदा करना। एक सच्चे दोस्त ने अपने प्रिय साथी की अंतिम इच्छा को पूर्ण करने वो हिम्मत दिखायी, जो जगहंसाई के डर से लोग दिखा ही नहीं पाते हैं। उसकी इस साहसी पहल ने अंतत: गांव वालों को प्रशंसा भाव के साथ-साथ आंखें नम करने को विवश कर दिया।

Thursday, July 31, 2025

असमंजस में इंसाफ

 11 जुलाई 2006 को मुंबई में हुए सिलसिलेवार ट्रेन विस्फोटों में मुंबई के सावंत परिवार ने अपने 24 वर्ष के जवान बेटे को खो दिया। उनका महत्वकांक्षी पुत्र अमरेश सावंत एक कंपनी में नौकरी करता था। अमरेश हर रोज लोअर परेल से आकर शाम पांच बजकर पचपन मिनट की लोकल ट्रेन पकड़कर अंधेरी आता था। 11 जुलाई 2006 की शाम को अमरेश ने पांच मिनट पहले की लोकल ट्रेन पकड़ी थी। यह सफर उसकी जिन्दगी का आखिरी सफर बनकर रह गया। ट्रेन में वह जिस फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट में बड़े इत्मीनान से बैठा था, उसी में आतंकियों ने बम रखा था, ये बम दादर से दस मिनट की दूरी पर खार रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पटरी पर जब ट्रेन चल रही थी, तब ब्लास्ट हुआ था। इस जोरदार धमाके से एक पल में कई जिंदगियां मौत का निवाला बन अपने घर-परिवार से सदा-सदा के लिए दूर बहुत दूर चली गईं थी। इस कातिल हादसे ने अमरेश के परिवार को जो जख्म दिए वो अभी तक भर ही नहीं पाये। 44 वर्षीय हरीश पवार को वो खून ही खून से सना दिन जब भी याद आता है तो कंपकपी छूटने लगती है। 11 जुलाई 2006 के उस दिन हरीश जब विरार जाने के लिए लोकल ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सवार थे तभी धमाका हुआ और खून से लथपथ होकर वहीं गिर पड़े थे। लेकिन उनका मस्तिष्क तेजी से दौड़ रहा था। डरी-डरी हतप्रभ आंखें भी खुली थीं। डिब्बे के अंदर शव पड़े थे। फर्श और दीवारों पर खून छिटका था। दर्द से तड़पते लोगों की चीखें सीना चीर रही थीं। भयंकर बारूदी विस्फोट से किसी के शरीर से अलग होकर डिब्बे में उड़कर आया सिर उनकी धड़कनों को बेकाबू किए जा रहा था। उन धमाकों में चिराग चौहान मरते-मरते बच तो गए लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए अपनी टांगों से चलने में लाचार हो गये और उन्हें व्हीलचेयर को अपना उम्र भर का साथी बनाना पड़ा। चिराग चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं। इस बम कांड ने उनके कई सपनों की हत्या कर अरमानों को रौंद कर रख दिया। महेंद्र पिताले को ब्लास्ट में अपना एक हाथ गंवाना पड़ा। दहिसर निवासी एक शख्स जो अब 74 वर्ष के हो चुके हैं, ब्लास्ट के धमाके ने उनके कान के पर्दे पूरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिए। अब भी वे सुनने से लाचार हैं। 

पराग सावंत उस दिन बहुत खुश था। प्रमोशन की खुशी में मन ही मन दोस्तों के साथ जश्न मनाने की सोच रहा था। ट्रेन की खिड़कियों से आते हवा के मस्त-मस्त झोंके उसके सपनों में नये-नये रंग भर रहे थे। उसने मां और पत्नी को कहीं बाहर चलने के लिए तैयार रहने को कह दिया था। आज बहुत दिन बाद परिवार के साथ किसी अच्छे होटल में एक साथ बैठकर मनपसंद खाना खाने के आनंद की कल्पना में डूबा पराग सोच रहा था कि उसे तो घर जाने की जल्दी है लेकिन यह ट्रेन बहुत धीमी क्यों चल रही है? दरअसल, ट्रेन तो हमेशा की तरह अपनी निर्धारित गति से चल रही थी लेकिन पराग पर उमंगों-तरंगों से भरी शीघ्रता सवार थी। लेकिन तभी ट्रेन में जोरदार धमाका हुआ। खून से लथपथ मृतकों और घायलों के बीच दर्द से कराहते पराग की सांसों की डोर अभी टूटी नहीं थी। मां, पत्नी राह देखती रहीं लेकिन पराग घर नहीं पहुंचा। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसे हिंदूजा अस्पताल पहुंचा दिया गया। कोमा की गिरफ्त में जा चुका 35 वर्ष का युवा पराग अब जिन्दा होकर भी जिन्दा नहीं था। उसकी मां, पत्नी और मासूम बिटिया उसके होश में आने के इंतजार में दिन-रात उसके बिस्तर के इर्द-गिर्द बैठे रहते। उसने दो साल बाद हल्की सी आंख खोली और मां को पुकारते हुए बड़े धीमे से मुस्कुराया। मां को लगा बेटा होश में आ गया है। गमगीन पत्नी के चेहरे पर भी रौनक आयी। लेकिन उसके बाद पराग ने एक शब्द भी नहीं कहा। हर बार की तरह मां ने बहू को दिलासा दिया कि चिंता मत करो। मेरे ईश्वर मेरे दुलारे को शीघ्र ठीक कर देंगे। उन्होंने मुझसे वादा किया है कि तुम्हारा बेटा फिर से हंसने-खेलने और चलने-फिरने लगेगा। पराग का मस्तिष्क अनेकों चोटों का शिकार हुआ था। डॉक्टर सर्जरी पर सर्जरी करते रहे। पूरे नौ साल तक पराग बिस्तर पर पड़ा-पड़ा सांस लेता रहा। मां हर सुबह बेटे से मिलने आती रहीं। पत्नी भी एक दिन नहीं चूकी। नन्हीं बिटिया पापा की गोद में जाने के लिए तरसती रही। जब भी उसकी मम्मी अस्पताल जाने लगती तो पापा की जान से प्यारी बिटिया साथ चलने की जिद पकड़ लेती। पराग ने कभी-कभार बीच-बीच में पानी, हां, नहीं जैसे शब्द बोलकर आस बंधाये रखी। लेकिन मौत अब और मोहलत देने को तैयार नहीं थी। उसने भी तो पूरे नौ साल तक इंतजार कर उसके भले-चंगे होने की राह देखी थी। 

मुंबई के उपनगर वसई में रहने वाले यशवंत भालेराव ने इस विस्फोट में अपने 23 वर्षीय बेटे को खो दिया। मुंबई के ही रमेश विट्ठल की 27 साल की बेटी ब्लास्ट में मारी गई। मात्र 11 मिनट में मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात ब्लास्ट कर 189 बेकसूरों की जान लेने और आठ सौ से ज्यादा लोगों को घायल करने वाले इन बम धमाकों में प्रेशर कूकर का इस्तेमाल किया गया था। जिन-जिन कोच में ब्लास्ट हुआ, उनके परखच्चे उड़ गये थे, तो ऐसे में जिन्दा इंसानों के जिस्म के क्या हाल हुए होंगे इसकी कल्पना कर आज भी दिल घबराने लगता है। मायानगरी मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेनों में 11 जुलाई 2006 के दिन भी हमेशा की तरह काफी भीड़भाड़ थी। इनमें ज्यादातर ऑफिस से घर जाने वाले यात्री थे जिनका कोई न कोई अपना बेसब्री से इंतजार कर रहा था। यात्रियों के चेहरों पर भी दिन भर की थकावट के बावजूद घर लौटने की सुकून भरी चाह थी। लेकिन बम धमाकों ने क्या से क्या कर दिया। सभी को वर्षों से इंसाफ का इंतजार था। परंतु 19 साल बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने सीरियल बम धमाकों के सभी आरोपियों की सजा यह कहते हुए रद्द कर दी कि अभियोजन पक्ष उन सबके अपराध को उचित संदेह से परे साबित करने में बुरी तरह से नाकाम रहा है। गौरतलब है कि पहले भी कई ऐसे आतंकी मामलों में इसी तरह से आरोपियों को बरी कर पीड़ितों को अथाह ठेस पहुंचायी जाती रही है। 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमले के मामले में, जिसमें 33 लोग मारे गये थे। छह लोगों को सज़ा सुनाई गई थी। उनमें से तीन को सजाए-मौत सुनाई गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में इन सबको इस आधार पर बरी कर दिया था कि अभियोजन पक्ष ने कमजोर और बनावटी सबूतों का सहारा लिया था। 2005 में दिवाली से पहले दिल्ली में सीरियल बम धमाकों में 67 लोग मारे गए थे। इस मामले में तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था और उन पर एक दशक से ज्यादा समय तक मुकदमा चला। लेकिन आखिरकार उनमें से दो को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और तीसरे को दिल्ली की एक अदालत ने 2017 में सजा सुनाई थी, परंतु पुलिस जांच में कई गंभीर खामियां बताई थी। महाराष्ट्र के संवेदनशील शहर मालेगांव में 2006 में हुए विस्फोट मामले में भी पुख्ता सबूत नहीं मिलने से साध्वी प्रज्ञासिंह सहित सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया है। 17 साल बाद आये इस फैसले से भी कहीं खुशी तो कहीं गम है। सवाल अभी जिन्दा है कि, मृतकों का हत्यारा कौन? इस सवाल का जवाब शायद ही मिले। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुंबई बम धमाकों के फैसले से कई प्रश्न अनुत्तरित हैं। ये फैसले हमारी दंड विधान व्यवस्था की खामियों को कहीं न कहीं उजागर करते हैं। मुंबई धमाकों के फैसले को सुनते ही सभी पीड़ितों के मुंह से यही शब्द निकले, यह फैसला तो घावों पर नमक छिड़कने वाला है। हजारों परिवारों को हुई अपूरणीय क्षति और जिन्दगी भर के लिए मिले जानलेवा जख्मों के लिए किसी को सज़ा न मिलना न्याय के ही कत्ल होने जाने जैसा है...।

Thursday, July 24, 2025

परवरिश

चित्र : 1 इंसान तो इंसान है। देशी हो या विदेशी। उसे जहां प्यार मिलता है वहीं का हो जाता है। जैसी परवरिश मिलती है उसी में ढल जाता है। बच्चों पर यह हकीकत काफी ज्यादा लागू होती है जैसा देखते हैं वैसा ही करते हैं। जिस तरह से मां-बाप अपने बच्चों के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं। वैसे ही संस्कारित, संवेदनशील संतानें भी अपने जन्मदाताओं के प्रति समर्पित होने में आगा-पीछा नहीं देखतीं। लापरवाह माता-पिता का अंधापन कभी-कभी उनके बच्चों के वर्तमान और भविष्य का किस तरह से सत्यानाश कर देता है उसका सटीक प्रमाण है ये खबर : शराब पीकर नशे में टुन्न रहने वाली उस औरत ने बेटे को जन्म तो दिया, लेकिन उसकी परवरिश से कन्नी काट ली। उस लापरवाह मां ने मेहनत-मजदूरी से धन कमाकर बच्चे की देखरेख करने की बजाय उसे लावारिस हालत में उसी गंदी बदबूदार झोपड़पट्टी में छोड़ दिया, जहां पर कीचड़ में मुंह मारते सुअरों और कुत्तों का जमावड़ा लगा रहता था। शहर के गली कूचों में दिन-भर भटक-भटक कर वह निर्दयी, स्वार्थी मां भीख मांगती और अंधेरा घिरते ही शराब गटककर बेसुध हो फुटपाथ पर ही सो जाती। मां की देखरेख और ममता से वंचित मासूम बच्चे ने कुत्तों के बीच रहते-रहते जानवरों को ही अपना सबकुछ मान लिया। कुत्ते जो खाते, वही वह खाता और रात को उन्हीं के साथ सो जाता। संगत का असर पड़ना ही था। वह भी कुत्तों की तरह लड़ने-झगड़ने और भौंकने लगा। आसपास के मोहल्लों में रहने वाले लोगों ने अपने बच्चों को उसके निकट जाने पर यह सोचकर पाबंदी लगा दी कि वे भी कहीं भौंकने न लगें और पागल कुत्तों की तरह काटने पर उतारू न हो जाएं। बच्चे के कुत्ते की तरह व्यवहार करने की खबर जब प्रशासन तक पहुंची तो पुलिस और अधिकारियों का दल नशेड़ी महिला की झोपड़ी में पहुंचा। झोपड़ी में बच्चा कुत्तों के झुंड के साथ खेल रहा था। वह उन्हें देखकर जोर-जोर से भौंकने लगा। अधिकारी असली कुत्तों के भौंकने और बच्चे के भौंकने में फर्क तलाशते रहे, लेकिन काफी माथापच्ची के बाद भी तय नहीं कर पाये कि दोनों में क्या फर्क है। बच्चों की सुरक्षा से जुड़ी एक महिला कार्यकर्ता को देखकर जब बच्चा भौंकते हुए उसे काटने को दौड़ा तो उसका शरीर कांपने लगा। वह वहां से ऐसे भागी जैसे बच्चा उसकी जान ही ले लेगा। कुछ दूर जाने के पश्चात उसने खुद को भयमुक्त कर पानी पिया और यह निर्णय भी लिया कि वह इस बच्चे को नई जिन्दगी देगी। मां के साथ-साथ समाज ने इसके साथ जो अन्याय किया है उसका दंड वह किसी और को नहीं खुद को ही देगी।

चित्र 2 : दो हजार पच्चीस की 9 जुलाई की दोपहर कर्नाटक के दक्षिणी तट पर स्थित रामतीर्थ पहाड़ियों में पुलिस जब नियमित गश्त पर निकली थी तब उसने जंगल की एक गुफा में हलचल और इंसानी आवाज़े सुनीं। गुफा के बाहर कपड़े भी लटके नज़र आए। सतर्क पुलिस वालों का माथा ठनका तो उन्होंने गुफा के भीतर झांका। वहां का नजारा देखकर तो वे स्तब्ध के स्तब्ध रह गये। पैरों तले की जमीन गायब होती सी लगी। गुफा के भीतर एक विदेशी महिला अपने दो मासूम बच्चों के साथ बड़े आराम से हंसती-खेलती बैठी थी। महिला को तुरंत बाहर आने को कहा गया। महिला बिना किसी ना नुकुर के झुकते-झुकते-झुकाते बड़ी सावधानी से बच्चों के साथ गुफा से बाहर निकल आई। पुलिस को पता चला कि नीना कुटिना नाम की यह चालीस वर्षीय रूसी महिला बिना पासपोर्ट और विजा के पिछले आठ वर्षों से भारत में अवैध रूप में बड़ी बेफिक्री के साथ रह रही थी। नीना और उसकी बेटियों को बेंगलुरु में आश्रयगृह में लाया गया तो वह खुद को बहुत असहज महसूस करने लगी। जंगल से निकलने के बाद उसने तुरंत अपना फोन रिचार्ज कर सबसे पहले अपने करीबी रिश्तेदार को रशियन भाषा में एक मेल किया। उसमें उसने लिखा कि हमारी गुफा वाली शांतिपूर्ण जिन्दगी खत्म हो गई है। हमारा गुफा वाला आनंददायक ठिकाना उजड़ गया है। सालों से खुले आसमान के नीचे हम प्रकृति के साथ जीते आ रहे थे, लेकिन अब पता नहीं क्या होगा? जंगल से बाहर निकलने के लिए भी नीना बहुत मुश्किल से मानी। पुलिस ने उसे जंगल के खूखांर जानवरों, जीव, जंतुओं और ज़हरीले सांपों का भय भी दिखाया। नीना ने बड़ी बेबाकी से यह कहकर उनका मुंह बंद कर दिया, उसे कभी भी जंगल के जानवरों से डर नहीं लगा। उसे न कभी सांप ने काटा और न ही किसी जानवर ने उस पर या बच्चों पर हमला किया। उसे तो बस इंसानों से डर लगता है। इसलिए वह शहर छोड़ जंगल में रहने चली आई। जितने भी दिन यहां कटे, बहुत मज़े से कटे। जब मन करता सोती और जागती। झरने के नीचे नहाने का आनंद लेती। यहीं की लकड़ियों से खाना बनाती। बच्चों को खिलाती और खुद भी मज़े से खाती थी। 

उसका जंगल में मंगल चल ही रहा था कि पुलिस की उस पर नज़र पड़ गई। वर्ना कौन जाने कब तक वह गुफावासी बनी रहती। शहर के भीड़-भाड़ वाले वातावरण में स्थित आश्रयस्थल तो उसे जेल से भी बदतर लग रहा था। यहां से उसे न जंगल जैसा खुला-खुला आसमान दिख रहा था और न ही दूर-दूर तक मन को लुभाती हरियाली और ताजी-ताजी हवा के सुकून का अता-पता था। उसे गुफा की उबड़-खाबड़ जमीन पर जो नींद आती थी वो भी यहां नदारद थी। पुलिस जब उसे और उसकी छह और चार साल की बेटियों को चेकअप के लिए हॉस्पिटल लेकर गई तो तीनों को पूरी तरह से ठीक-ठाक पाया गया। नीना ने यह भी बताया कि उन्हें जंगल में कभी भी बीमारी ने नहीं घेरा। यहां तक कि उन्हें कभी सर्दी और जुकाम भी नहीं हुआ। जहांं वह रह रही थीं वहां से गांव ज्यादा दूर नहीं था। गुफा की खिड़की से समुद्र का नजारा भी साफ-साफ दिखता था। लोग भी वहां से यदाकदा गुजरते दिखायी देते थे। 

गुफा में ही बगैर किसी डॉक्टर या नर्स की मदद से एक बेटी को जन्म देने वाली नीना का पति इजरायली कारोबारी है। कई देशों का भ्रमण कर चुकी यह रूसी महिला 2017 में पर्यटक वीजा पर भारत में आने के बाद सबसे पहले गोवा में रही। उसने यह खुलासा कर भी पुलिस को चौंका दिया कि मैं रूस से 15 साल से बाहर हूं। मैंने अपना ज्यादातर समय कोस्टा रिका, मलेशिया,  बाली नेपाल और यूक्रेन में गुजारा है। मेरी बड़ी बेटी का जन्म भी यूक्रेन में हुआ। गोवा में रूसी भाषा की ट्यूटर के तौर पर काम कर चुकी नीना कभी भी स्थायी रूप से गोकर्ण की गुफा में नहीं रही। उसका जब-जब मन करता वह यहां रहने चली आती। भारत में इतने ज्यादा समय तक रहने की उसने वजह बतायी कि यहां की प्रकृति अत्यंत सुहावनी है। तन और मन सेहतमंद और शांत रहता है। लोग भी अपने काम से काम रखते हैं। अब तो वह और उसके बच्चे यहां रहने के अभ्यस्त हो गये हैं। कहीं दूसरी जगह हमारा मन भी नहीं लगेगा। जंगल में रहने के दौरान वॉटरफॉल में नहाने, मिट्टी के बर्तन बनाने और पेंटिंग करने तथा मिट्टी के चूल्हे पर रोटियां बनाने का मनचाहा सुख और कहीं मिल भी नहीं सकता। नीना जिस गुफा में रहती मिली उसके अंदर खाने-पीने का अच्छा-खासा सामान मिला। उसने यह भी बताया कि वह आर्ट और म्यूजिक वीडियो बनाकर पैसा कमाती थी। उसके पिता और भाई भी पर्याप्त पैसे भेज देते थे। पति भी जब मिलने के लिए आते थे तो थोड़ी बहुत सहायता कर देते थे। हालांकि उनसे ज्यादा नहीं बनती है।

चित्र 3 : बाप और बेटे का रिश्ता भी बड़ा खट्टा-मीठा होता है। बेटे पिता को भले ही देरी से समझें, उससे दूरियां बनाये रखें लेकिन पिता की उन्हीं में जान अटकी रहती है। उनके अच्छे भविष्य के लिए अपनी जीवनभर की कमायी को दांव पर लगाने से नहीं हिचकते। कुछ पिता तो अपनी औलाद के भले के लिए अपराध करने से भी नहीं चूकते। राजस्थान में बीते दिनों एक ट्रेनी थानेदार और उसके पिता को गिरफ्तार किया गया। आदित्य को सब इंस्पेक्टर बनने का मौका उसकी मेहनत और काबिलियत से नहीं, पेपर माफिया की बदौलत मिला था। इसमें उसके पिता बुद्धि सागर की प्रमुख भूमिका सामने आयी। किसी भी हालत में अपने बेटे को खाकी वर्दी में देखने का सपना संजोये बुद्धि सागर ने जब देखा कि बेटा अपनी योग्यता के दम पर झंडा नहीं गाड़ सकता तो उसने नकल माफिया से संपर्क पर 10 लाख रुपये में परीक्षा का पेपर खरीदा। आदित्य ने नकल के दम पर एसआई परीक्षा में न केवल सफलता हासिल की बल्कि प्रदेश भर में 19वीं रेंक हासिल कर सभी को चौंका दिया। लेकिन गलत राह अपनाने की जानबूझकर की गई गलती ने बाप-बेटे दोनों को जेल भी पहुंचा दिया।

Thursday, July 17, 2025

शिकारी

 यह षडयंत्र, घटनाएं, वारदातें और दुर्घटनाएं इंसानी बेवकूफी और फितरत का परिणाम नहीं तो क्या हैं?...

अनुराधा की 2014 में शादी हुई थी। वैवाहिक जीवन के दस साल बीतने के बाद भी मां नहीं बन पाई थी। इस दौरान सास-ससुर और देवरानी की तानेबाजी शिखर पर पहुंच गयी। मां बनना उसके बस में तो नहीं था। सभी के ताने-उलाहने सुनने के सिवा उसके पास और कोई चारा भी नहीं था। उसके साथ-साथ पति की भी डॉक्टरी जांच करवाने पर दोनों शारीरिक तौर पर दुरुस्त पाये गए। अनुराधा की सास को किसी ने ओझा के पास ले जाने का पुरजोर सुझाव दिया तो वह बिना देरी किये तांत्रिक के यहां जा पहुंची। तांत्रिक ने एक लाख रुपये में अनुराधा को मां बनाने का ठेका लेने के पश्चात झाड़-फूंक प्रारंभ कर दी।

झाड़-फूंक के दौरान धन के लालची तांत्रिक ने अनुराधा को बार-बार बाल पकड़ कर घसीटा और टॉयलट का पानी भी जबरदस्ती पिलाया। अनुराधा ने जब टॉयलेट का पानी पीने में असमर्थता जतायी तो ओझा और सास ने उसे खूब फटकारा। न चाहते हुए बच्चे की चाह में अनुराधा ने बदबूदार पानी किसी तरह से घूंट-घूंट कर पिया। तांत्रिक ने अनुराधा और उसकी सास को तीन-चार दिन बाद फिर से बाकी के पैसों के साथ आने का निर्देश दिया। दरअसल उसे एडवांस में मात्र बीस हजार रुपए ही दिए गए थे। चार दिन के पश्चात बाकी के पूरे पैसों के साथ सास-बहू ने बच्चा होने के यकीन के साथ तांत्रिक के यहां दस्तक दी। पूरे रुपये हाथ में लेते ही वह गद्गद् हो गया। इस बार वह पहले से ज्यादा जोश में था। उसने अपनी पत्नी शबनम और दो सहयोगियों के साथ मिलकर अनुराधा को बाल पकड़कर जोर से घसीटते हुए गले और मुंह को दबाने में पूरी ताकत लगा दी तथा चीच-चीखकर कहना शुरू कर दिया कि इसके ऊपर जबर्दस्त भूत-प्रेत की छाया है। इसका यही एकमात्र उपाय है। भूत-प्रेत के भागने के बाद इसे मां बनने से कोई नहीं रोक सकता। तांत्रिक भूत को भगाने के लिए और...और आक्रामक होता चला गया। असहनीय पीड़ा से उपजी अनुराधा की चीत्कार बेअसर रही। वह कब बेहोश हुई किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। अस्पताल ले जाने पर डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। 

बिहार के पूर्णिया के रानीगंज पंचायत टोले में डायन होने के शक में एक ही परिवार की तीन महिलाओं और दो पुरुषों को पेट्रोल छिड़ककर जिन्दा जला दिया गया। इसके पश्चात सभी शवों को गांव वालों सहयोग से घर से दो किमी दूर तालाब में फेंक दिया गया। कुछ दिन पूर्व टीले के ही रहने वाले एक शख्स के बच्चे की मौत हो गई थी। बच्चे की मौत के बाद उस शख्स के भांजे की भी तबीयत बिगड़ गई। वहीं वर्षों से रह रहे बाबूलाल उरांव के परिवार पर दबाव बनाया गया कि किसी भी हालत में उनके भांजे को ठीक करो। उस शख्स तथा टोले के अन्य लोगों को शक था कि बाबूलाल उरांव के परिवार ने खासतौर पर उनकी पत्नी सीता देवी ने जादू-टोना कर उसके बच्चे की जान ली है तथा भांजे की तबीयत भी बिगाड़ दी है। बच्चे की मौत के बाद गांव में पंचायत बैठी। इसमें लगभग तीन सौ लोग शामिल हुए। पंचायत ने जो तालिबानी फैसला सुनाया उसी का यह असर हुआ कि देखते ही देखते सैकड़ों की संख्या में आदमी-औरत और बच्चों ने धारदार हथियार और लाठी-डंडों के साथ बाबूलाल उरांव के घर पर हमला कर दिया। इस हिंसक घटना के एकमात्र चश्मदीद बाबूलाल के बेटे ने किसी तरह से वहां से भाग कर अपनी जान बचाई। उसने बताया कि रात करीब 10 बजे गांव के कई लोग हथियारों के साथ घर पर आए। उन्होंने सबसे पहले मेरे पिता को पकड़कर बुरी तरह से पीटा। फिर मेरी भाभी, भाई, मां और दादी के साथ जानवरों की तरह मारपीट की। रात करीब 1 बजे मेरे पिता, मां, भाई, भाभी और दादी को बांधकर पेट्रोल छिड़का और आग लगा दी। मैंने अपनी आंखों के सामने सभी को जिन्दा जलते देखा। वहां पर मौजूद एक महिला ने मुझसे कहा कि, तुम यहां से तुरंत भागो, नहीं तो तुम्हें भी जिंदा जला देंगे। इसके बाद मैं वहां से भाग गया। पूर्णिया शहर से महज 12 किमी की दूरी पर स्थित इस टोले में उरांव जनजाति के करीब 60 परिवार रहते हैं। मजदूरी और खेती करके किसी तरह से गुजारा करने वाले ये लोग लगभग अनपढ़ हैं। यह लोग बीमार पड़ने पर सबसे पहले ओझा के पास ही जाते है। जब ओझा से केस बिगड़ जाता हैं तब मरीज को अस्पताल ले जाते हैं। बाबूलाल भी ओझागिरी यानी झाड़-फूंक करता था। लेकिन बच्चे की मौत हो गई तो उसे तथा उसके सारे परिवार को डायन घोषित कर यह दिल दहला लेने वाला हश्र कर दिया गया।

इस हत्याकांड ने इस हकीकत पर मुहर लगा दी है कि भारत में आज भी जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, अंधश्रद्धा और तांत्रिकों-ओझाओं का अस्तित्व बरकरार है। महिलाओं को जिंदा जलाने, मल खिलाने, बाल काटने और कपड़े उतार कर नग्न घुमाने जैसी भयावह और अमानवीय घटनाओं की खबरें सिर्फ अनपढ़ों की बेवकूफी की देन नहीं हैं। खुद को पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी दर्शाने वाले कई लोग धूर्त बाबाओं के चक्कर में किस तरह से फंस जाते हैं, या उन्हें फंसाया जाता है, इसकी गवाह है अखबारों तथा न्यूज चैनलों पर छायी यह बहुचर्चित खबर ‘‘एक चतुर चालाक व्यक्ति जिसकी अथाह धन कमाने की तमन्ना थी, लेकिन धनवान बनने को उसे कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। काफी माथापच्ची करने के पश्चात एक दिन उसके मन में विचार आया कि क्यों न दूसरे करोड़पति बाबाओं, ओझाओं और फ्रॉड  ज्योतिषियों की तरह वह भी लोगों को बेवकूफ बनाए और हो सकता है उसकी भी किस्मत चमक जाए। वर्ष 2010 में इस भिखमंगे ने टोना-टोटका के कुछ दांव-पेंच और हुनर सीखे। उसके बाद वह साइकिल पर घूम-घूमकर नकली नग, अंगूठी, टोने-टोटके से संबंधित सामान को बेचने के साथ-साथ झाड़-फूंक करने लगा। वह अपनी-अपनी परेशानियों से त्रस्त लोगों के पास जाता और उन्हें खुशहाल, बेफिक्र स्वस्थ और मालामाल होने के लिए ताबीज के साथ-साथ मूंगा, मोती, माणिक्य, पुखराज पन्ना,  नीलम गोमेद आदि धारण करने की सलाह देता। अपने भाग्योदय के लिए भटकते लोगों को फांसने के लिए शुरू हुई उसकी यात्रा सफलता के साथ आगे बढ़ती रही। इस दौरान उसने अपने प्रचार के लिए भाड़े के कुछ लोगों को भी काम पर लगा दिया। यह भाड़े के टट्टू शहर और गांव-गांव जाकर प्रचारित करने लगे कि यह बंदा तो बहुत पहुंचा हुआ पीर है। इसके रूहानी इलाज ने कई लोगों को भला-चंगा किया है। इसके द्वारा दिये गए विभिन्न रत्नों को धारण करने के बाद अनेकों बेरोजगारों को नौकरी, बीमारों को सेहत, मनचाही शादी और व्यापार में तरक्की और उद्योग-धंधे में अत्याधिक फायदा हुआ है। उसके चमत्कारों की गूंज दूर-दूर तक फैलती चली गई। दूर-दराज से लोग उसकी शरण में आने लगे। देखते ही देखते उसने सर्वसुविधायुक्त आलीशान कोठी तान ली। उसकी कंटीले तारों से घिरी आलीशान कोठी में कब अवैध गतिविधियां चलने लगीं। इसका पता तो तब चला जब हाल ही में उसे युवतियों को बहला-फुसलाकर उनके धर्मांतरण करने के आरोप में हथकड़ियां पहनाकर जेल में डाला गया। छांगुर बाबा के नाम से सुर्खियां बटोरने वाले इस कपटी, शैतान का असली नाम जलालुद्दीन शाह है। इसने कई युवतियों की अस्मत लूटी है। एक लड़की ने बताया है कि यह कपटी बाबा भारत को इस्लामिक देश बनाने की बात करता था। अनेकों लोगों का धर्मान्तरण कर चुका यह बदमाश सीधी बात करने की बजाय इंटरनेट कॉल के जरिए संपर्क बनाते हुए असंख्य लोगों को बेवकूफ बनाता रहा और लोग बिना सोचे-समझे बनते भी रहे...।

Thursday, July 10, 2025

क्यों नहीं लेते सबक?

सेहतमंद, आकर्षक, खूबसूरत, धनवान, इज्जतदार, खुश और विख्यात होना और दिखना कौन नहीं चाहता? सीधा और सरल उत्तर है, सभी के सभी स्त्री-पुरुष, इन जरूरतों, आकर्षणों और उपलब्धियों से मालामाल होना चाहते हैं। इसके लिए अपने-अपने स्तर पर संघर्ष, प्रयास और जद्दोजहद भी जारी रहती है। इन सभी नियामतों में अच्छे स्वास्थ्य से बढ़कर और कुछ नहीं। यदि आप स्वस्थ हैं तो सारी दुनिया की खुशियां आज नहीं तो कल आपकी झोली में समा सकती हैं, लेकिन इन दिनों कई लोगों ने प्रकृति के खिलाफ चलते हुए खूबसूरत और कम उम्र का दिखने-दिखाने की जानलेवा सनक पाल ली है। वे भूल गये हैं कि कुदरत के अपने नियम-कायदे हैं। उनका अनुसरण करने वालों को हमने काफी लम्बी उम्र तक खुश और खुशहाल देखा है। इन दिनों अच्छे-भले युवाओं को हार्ट अटैक के चलते बड़ी तेजी से मौत के हवाले होते देखा जा रहा है। डॉक्टरों का भी यही कहना है कि स्वस्थ जीवन शैली को नहीं अपनाने की वजह से कम उम्र के स्त्री-पुरुषों में हार्ट अटैक के खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। शराब, बीयर, धूम्रपान, आरामपरस्ती, आलस्य, रात-रात भर जागना, बहुत ज्यादा प्रोसेस्ड फूड खाना और न्यूनतम कसरत और वॉक तक न करना युवाओं को रोगी बना रहे हैं। कोविड के बाद घर से काम करने परिपाटी ने भी लोगों का दशा और दिशा पर कहीं न कहीं विपरीत प्रभाव डाला है। प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, जल्दबाजी डिप्रेशन और तनाव भी कई युवाओं के जीवन का हिस्सा बन गया है। आम और खास दोनों इन स्वनिर्मित रोगों के शिकार हैं। यही बीमारियां सेहत के साथ-साथ वजन और लुक यानी आकर्षक दिखने की चाहत के साथ भी खिलवाड़ करते हुए खुदकुशी के मार्ग दिखा और सुझा रही हैं। यह भी जाना-माना सच है कि अच्छी सेहत ही सुंदरता, खूबसूरती और आकर्षण की जननी है। तरह-तरह के टॉनिक, इंजेक्शन और दवाइयां अंतत: छलावा ही साबित होती हैं। देश और विदेशों में इनकी अधिकता और अति से अभी तक कितनी मौतें हो चुकी हैं, इसका सटीक आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं, लेकिन फिर भी अपने-अपने काल में हुईं कुछ मौतों और आत्महत्याओं को याद रख उनसे सबक तो लिया ही जा सकता है...। 

बहुतों को लोकप्रिय टीवी सीरियल बालिका वधु की खूबसूरत नायिका प्रत्युषा बनर्जी का वो दिलकश मासूम चेहरा अभी भी याद होगा। लाखों प्रशंसकों की चहेती प्रत्युषा ने मात्र 24 साल की आयु में इसलिए मौत का दामन थाम लिया, क्योंकि अनियमित रहन-सहन की वजह से मोटापा धीरे-धीरे उसे अपने आगोश में लेने लगा था। अत्याधिक शराब पीने के कारण उसकी खूबसूरती भी उससे पल्ला झाड़ने लगी थी। वह दिन-रात इसी चिंता में डूबी रहती थी कि घटती लोकप्रियता के कारण जल्द ही उसे टीवी शो में काम मिलना बंद हो जाएगा। उसके प्रेमी ने भी उससे दूरियां बनानी प्रारंभ कर दी थीं। इसी चिंता और तनाव में रहते-रहते एक दिन वह फंदे पर झूल गई। 

कोलकाता की विख्यात मॉडल रिया घोष को जब मोटी होने का डर सताने लगा तो उसने दुबली-पतली और आकर्षक बने रहने के लिए धड़धड़ एस्टेरॉयड और स्लिमिंग ड्रग लेनी शुरू कर दीं। इससे शरीर में सुधार तो नहीं आया। दबे पांव मौत जरूर आ गई। चुस्त और फुर्तीली सोनाली फोगाट का राजनीति, सोशल मीडिया और फिल्मों में कभी अच्छा-खासा नाम था। उसकी भी जब उम्र बढ़ने लगी तो वह युवा और ग्लैमरस दिखने के चक्कर में ऐसा अंधाधुंध नशा करने लगी। शराब, सेक्स और बॉडी ट्रोनिंग ड्रग के नशीले गर्त में वह ऐसी फंसी कि बाहर निकल ही नहीं पायी। गोवा के एक रिसोर्ट में हार्ट अटैक की वजह से चल बसी सोनाली ने ‘बिगबॉस’ में भी अपने जलवे दिखाये थे। 

बॉलीवुड अभिनेत्री, विश्व सुंदरी का खिताब जीत चुकी सुष्मिता सेन को जब लगा कि उसके प्रशंसकों में तेजी से कमी आने लगी है तो उसने अपनी बढ़ती उम्र को छिपाने और खुद को खूबसूरत दिखाने के लिए जिम में अत्याधिक पसीना बहाना प्रारंभ कर दिया। फिटनेस की चाह में वह यह भी भूल गई कि शरीर की भी अपनी तय शुदा मर्यादा होती है। उस पर जरूरत से ज्यादा कसरती दबाव डालना खतरे से खाली नहीं। हुआ भी यही। एक दिन जिम में घंटों कसरत करते-करते उसे जबर्दस्त हार्ट अटैक आया। यह तो उसकी किस्मत अच्छी थी कि, अस्पताल में डॉक्टरों ने उसे बचा लिया। अपने जानदार नृत्य, गीत-संगीत की बदौलत संपूर्ण विश्व में छा जाने वाला माइकल जैक्सन कभी भी बूढ़ा नहीं होना चाहता था। इस अमेरिकी पॉप गायक ने अपने यहां कई डॉक्टर नियुक्त कर रखे थे, जो चौबीस घंटे उसकी देखरेख में लगे रहते थे। उन्हीं डॉक्टरों ने ही उसकी त्वचा को चमकदार, गोरा बनाने तथा आकर्षक जवान दर्शाने के लिए उसे पचासों दवाओं का गुलाम बना दिया था। किंग ऑफ पॉप कहलाने वाले माइकल ने खूबसूरत दिखने के लिए ठोड़ी का प्रत्यारोपण भी करवाया था। मौत को मात देने के लिए वह ऑक्सीजन के चैम्बर में सोता था। लेकिन फिर भी अनिद्रा का शिकार था। वह प्रतिदिन जो खाना खाता था उसे भी दस डॉक्टर पहले चेक और टेस्ट करते थे। बीमारी और मौत से भयभीत रहने वाला जैक्सन बहुत ही बेचैन और उतावला किस्म का इंसान था। वह मात्र 50 साल की उम्र में चल बसा। अत्याधिक नशीले ड्रग और बार-बार शरीर की प्लास्टिक सर्जरी से अपने शरीर का सत्यानाश करवा चुके माइकल की 150 साल तक जीवित रहने की इच्छा धरी की धरी रह गई। डॉक्टरों की फौज भी हाथ मलती रह गई। लेकिन हां, उसके मुर्दा जिस्म को सोने के ताबूत में दफना कर डंका जरूर बजवाया गया कि वह कितना धनवान था। अभी कुछ दिन पूर्व खूबसूरत चमकती-दमकती लोकप्रिय फिल्मी नारी शेफाली जरीवाला की मात्र 42 साल की उम्र में हुई मौत ने उसके लाखों प्रशंसकों को स्तब्ध और झकझोर कर रख दिया। मशहूर साँन्ग ‘कांटा लगा’ कि वजह से कांटा गर्ल के नाम से मशहूर हुई शेफाली की भी उम्र के बढ़ने के साथ-साथ नींद उड़ने लगी  थी। वह हर पल सोचती रहती कि भविष्य में जब उसकी खूबसूरती दगा देने लगेगी तो क्या होगा? अपने आलीशान वर्तमान पर संतुष्ट रहने की बजाय वह और युवा दिखने के लिए किस्म-किस्म की नशीली दवाएं और ड्रग लेने लगी। खाली पेट ड्रग लेना और तरोताजा दिखने के लिए जिम में बेतहाशा पसीना बहाना उसके लिए घातक साबित हुआ। कार्डियक अरेस्ट से एकाएक हुई उसकी मौत की खबर को सुनकर उसके प्रशंसक समझ ही नहीं पाये कि यह क्या हो गया! वे एक-दूसरे से पूछते रहे कि पहले से ही बेइंतहा खूबसूरत शेफाली जरीवाला और कितनी खूबसूरत होना चाहती थी?

Thursday, July 3, 2025

संत-असंत की माया

हम सबके देश भारत और भारतवासियों की यह खुशकिस्मती है कि हमें समय-समय पर प्रेरणा के दीप जलाकर अंधेरों को दूर करने वाले सच्चे साधु-संतों, उपदेशकों, कथावाचकों का आशीर्वाद और सुखद सानिध्य मिलता रहा है। इस काल में भी कुछ ऐसे महामानव हैं, जिनकी मधुर प्रभावी वाणी नतमस्तक होने को विवश कर देती है। देवी नंदन ठाकुर, पंडित प्रेमानंद जी महाराज, पंडित प्रदीप मिश्रा, अनिरुद्धाचार्य और महिला कथावाचक जया किशोरी, देवी चित्रलेखा,  पलक किशोरी आदि के कथा वाचन को जितना भी सुनें...जी नहीं भरता। आज के इस दौर में जब यह कहने वाले ढेरों हैं कि कथावाचकों तथा प्रवचनकारों का जमाना लद गया है। आज किसके पास फुर्सत है जो इनके रटे-रटाये प्रवचनों को सुनने के लिए अपना कीमती समय खराब करे। लेकिन फिर भी प्रभावी वाचकों के यूट्यूब और सोशल मीडिया पर लाखों-करोड़ोंफॉलोअर्स प्रशसंक हैं। यहां से इनकी झोली में लाखों रुपये बरसते हैं। इनके कथावाचन को रूबरू सुनने के लिए भी आयोजक लाखों रुपए सहर्ष देने को तैयार रहते हैं। यह उपलब्धि असंख्य जागरुक भक्तों, प्रशंसकों और श्रोताओं की बदौलत ही संभव है। यह सच अपनी जगह है कि पिछले कुछ वर्षों से कुछ प्रवचनकारों, बाबाओं के संदिग्ध आचरण के कारण लाखों लोगों ने संत समाज से ही दूरी बना ली है। उन्हें सभी संत-महात्मा एक जैसे लगते हैं। इसलिए वे उनके निकट जाना भी पसंद नहीं करते। लेकिन यह अधूरा सच है। अपने देश में ऐसे संतों की कमी नहीं जो वास्तव में निष्कंलक हैं।

बीते सप्ताह उत्तरप्रदेश के इटावा से जुड़े दांदरपुर गांव में एक कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहायक के साथ बदसलूकी की गई। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो को भी लाखों लोगों ने देखा। जिसमें गांव के ब्राह्मणों ने उनकी जाति पूछी तो उन्होंने कहा कि पहले तो उनकी कोई जाति नहीं है। वे 14 साल से भागवत कर रहे हैं। उनको सुनने के लिए लाखों की भीड़ उमड़ती है। लेकिन ग्रामीण उनकी जाति के बारे में जानने के लिए अड़े रहे। वे यह बताने से कतराते रहे कि वे यादव जाति से हैं। उन्होंने वहां पर उपस्थित साधुओं को भी समझाने का बहुतेरा प्रयास किया। गांव के कुछ युवा उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे। उन्हें बार-बार मुकुट मणि यादव पर गुस्सा आ रहा था। उसके पश्चात गुस्साये युवक उन्हें खींचकर गांव के बाहर ले गए। वहां पर उनसे मारपीट कर उनका मुंडन कर दिया। उनके साथी की भी चोटी काटी गई। इस अमानवीय, अपमानजनक घटना का भी वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद पक्ष और विपक्ष के बीच शाब्दिक युद्ध चल पड़ा।

लगभग हर विद्वान, बुद्धिजीवी का यही मानना है कि भागवत कथा करने का अधिकार सभी को है। किसी को रोका नहीं जा सकता। हमारी सनातन परंपरा में ऐसे तमाम गैर ब्राह्मण हैं, जिनकी गणना ऋषि के रूप में की गई है। इसमें चाहे महर्षि वाल्मीकि हों, वेद व्यास हों या रविदास हों। सनातन परंपरा में सभी को सम्मान और आदर प्राप्त है। सच तो यह है कि, जो शास्त्रों को जानते हैं, भक्तिभाव, सत्यनिष्ठ, ज्ञानवान और जानकार है, उन्हें कथा कहने का अधिकार है। किसी भी विद्वान और ज्ञानी को अपना धर्म और जाति छिपाने की कोई जरूरत नहीं। किसी को उसकी जाति के कारण अपमानित करने का भी कोई अधिकार नहीं है। मुकुट मणि यादव और उसके साथी पर जाति छुपाने और दो आधार कार्ड रखने के आरोप हैं। उन्होंने ऐसा क्यों किया, क्यों करना पड़ा, यह भी चिंतन और खोज का विषय है। हालांकि, मुकुट मणि बार-बार कहते रहे कि मुकुट मणि अग्निहोत्री नाम का जो आधार कार्ड वीडियो पर वायरल हुआ उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। यह तो उनके खिलाफ उन अपराधियों की साजिश है, जिन्होंने उन्हें अपमान कर सिर के बाल काटे, नाक रगड़वाई, पैर छूने को विवश कर मूत्र छिड़कने का आतंकी कृत्य किया। अपने देश में ऐसे मामलों में राजनीति न हो, नेताओं की बिरादरी चुप रहे, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। नेताओं को तो ऐसे अवसरोेंं का बेसब्री से इंतजार रहता है। ऐसे समय में स्वार्थी नेता आग में घी डालने की अपनी शर्मनाक आदत से बाज नहीं आते। 

यदि कथावाचक की कथा में कोई खोट था, या कोई भारी कमी थी तो एक बार उसका विरोध समझ में आता और इतना शोर-शराबा भी नहीं होता। लेकिन उनके गैर ब्राह्मण होने के कारण उन्हें अपमानित करना यकीनन अक्षम्य है। हां, खुद की जाति छुपाने की उनकी कोशिश कहीं न कहीं संशय खड़ा करती है और उनका आतंरिक बौनापन भी उजागर करती है। विद्वान तो डंके की चोट पर अपनी बात कहने के लिए जाने जाते हैं। झूठ और छल-कपट तो धूर्तों के बनावटी सुरक्षा कवच हैं। जिनके तहस-नहस होने में अंतत: देरी नहीं लगती। एक सच यह भी कि कुछ चतुर चालाक और अति होशियार लोगों ने राजनीति और समाज सेवा की तर्ज पर प्रवचन और कथावाचन को भी धंधा बना लिया है। उन्हें वे लाखों रुपये प्रलोभित करते हैं, जो स्थापित कथावाचकों को उनकी साख की बदौलत बड़ी आसानी से मिलते हैं। लेकिन उनके द्वारा किये जाने परोपकारी, जनहितकारी कार्य किसी को दिखायी नहीं देते। जिस तरह से कई लुच्चे-लफंगे नेता, जाति-धर्म के नाम पर चुनाव जीत कर विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं, वैसे ही कुछ कपटी बाबा भीड़ की आंखों में धूल झोंक कर माया बटोर रहे हैं। काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। सच की राह पर चलने के उपदेश देनेवाले झूठे, मक्कार प्रवचनियों की जब पोल खुलती है, जैसे-जैसे उनका घिनौना और शर्मनाक सच बाहर आता है, तो उनका हश्र भी कलंकित आसाराम, राम रहीम आदि-आदि जैसों जैसा हो ही जाता है।

 संतई के क्षेत्र में नाम और दाम कमाने को आतुर शैतानों को यही लगता है कि वे उन जेल यात्रियों से बहुत ज्यादा चालाक और चौकन्ने हैं, जो अपने कर्मों की सजा भुगत रहे हैं। कोई लाख कोशिशें करता रहे लेकिन उनका तो बाल भी बांका नहीं हो सकता। बनावटी और नकली बाबाओं को अपना परचम लहराने के लिए यदि असली-नकली भक्तों-अंधभक्तों का साथ न मिले तो उनका एक कदम भी आगे बढ़ पाना असंभव है। लेकिन एक-दूसरे की देखा-देखी भेड़चाल चलने वालों ने दुष्टों का हौसला बढ़ाने और देश का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ने की जैसे कसम ही खा रखी है।

Thursday, June 26, 2025

दहशत

यह हमारे युग का कटु सच है। दिन-ब-दिन और भयावह होते इस सच ने दहशत का माहौल बना दिया है। अभी-अभी यह खबर मेरे पढ़ने में आयी है : ‘‘भारत के शहर उन्नाव में अंडे-आमलेट की दुकान लगाने वाले रोहित नामक शख्स ने घर में मनपसंद खाना न मिलने पर अपनी पत्नी और दो मासूम बच्चों को ज़हर देकर मार डाला। यह शराबी रोज शराब पीकर घर आता था और पत्नी से मारपीट कर अपनी मर्दानगी का शर्मनाक प्रदर्शन करता था। उसके घर में पैर रखते ही डरे-सहमे बच्चे  छुप जाते थे।’’ कुछ लोग इस धारणा के साथ जीते हैं कि सब कुछ उनकी इच्छा के अनुसार हो। विपरीत हालातों से लड़ने की बजाय मरने-मारने पर उतारू होने वाले लोगों की संख्या इन दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं। उन्हें अपनों की जान लेने में जरा भी देरी नहीं लगती। यह लोग आत्महत्या करने से भी नहीं घबराते। बीते हफ्ते मेरठ में बारहवीं कक्षा के एक छात्र ने अपने घर में खिड़की से रस्सी बांधकर फांसी लगा ली। आत्महत्या करने से पहले उसने बाकायदा एक पत्र लिखा, ‘अब मेरी जीने की इच्छा नहीं रही। इसलिए मौत का दामन थाम रहा हूं।’ आदित्य नाम के इस लड़के की खुदकुशी ने उसके माता-पिता को जो सदमा दिया है, उससे वे शायद ही उबर पाएंगे। आदित्य के मन में दसवीं के बाद भी फांसी के फंदे पर झूलने का विचार आया था, लेकिन तब परिजनों ने उसे संभाल लिया था। लेकिन फिर भी उसके मन-मस्तिष्क में अपनी जान लेने के विचार नहीं थमे। माता-पिता तथा अन्य करीबियों को उम्रभर का गम देकर इस दुनिया से चल बसे आदित्य ने अपने सुसाइड नोट में सभी से माफी मांगी है।

राजस्थान में दौसा जिले के लालपोट की रहने वाली डॉक्टर अर्चना शर्मा की आत्महत्या ने अपनों तथा बेगानों को चकित कर दिया। डॉक्टर तो दूसरों की जान बचाने के लिए होते हैं। अर्चना शर्मा ने भी अपने निजी अस्पताल में आशा की जान बचाने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी थी, लेकिन प्रसव के बाद उनकी मौत हो गई। देश और दुनिया के बड़े से बड़े अस्पतालों में इलाज के दौरान ऐसी मौतें होती रहती हैं, लेकिन डॉक्टरों को हत्यारा तो नहीं मान लिया जाता। जिस औरत की इलाज के दौरान मौत हुई उसके परिजनों ने इसे ईश्वर की मर्जी माना और अस्पताल की एंबुलेंस से शव को घर ले आए थे। अंत्येष्टि की तैयारी की जा रही थी कि तीन-चार छुटभैया किस्म के नेता वहां आ धमके। उन्होंने मृतका के परिजनों को अस्पताल से मोटा मुआवजा लेने के लिए उकसाया। परिवारजनों की असहमति के बावजूद वे जबरन शव को फिर से अस्पताल ले आए। उनके साथ तमाशबीनों की अच्छी-खासी भीड़ भी थी। उन लोगों ने शव को अस्पताल के बाहर रखकर नारे लगाने प्रारंभ कर दिये, ‘डॉक्टर को गिरफ्तार करो। हत्या का मामला दर्ज करो। अस्पताल पर हमेशा-हमेशा के लिए ताले लगवा दो।’ नारेबाजी के साथ-साथ डॉक्टर अर्चना शर्मा और उनके पति को गंदी-गंदी गालियां भी दी जाती रहीं। पुलिस वाले मूकदर्शक बन सड़क छाप नेताओं का सुनियोजित खेल देखते रहे। तीन-चार घंटे तक ब्लैकमेलरों की दादागिरी चलती रही। आजू-बाजू का कोई भी कुछ नहीं बोला। हैरानी की बात तो यह थी कि जिस महिला मरीज की मौत हुई उसके पति ने किसी भी तरह की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज नहीं करवायी। वह तो अदना-सा श्रमिक है। जो ठीक तरह से लिखना और पढ़ना तक नहीं जानता। उससे जबरन कागजों पर हस्ताक्षर करवाए गए। अंतत: धूर्त नेता और उनके कपटी चेले-चपाटे पुलिस पर दबाव बनाने में सफल रहे, जिससे पुलिस ने भी सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन की अनदेखी कर गायकोलॉजिस्ट डॉ. अर्चना शर्मा के खिलाफ धारा 302 (हत्या) के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया। बिकाऊ खाकी वर्दी, लुंजपुंज कानून व्यवस्था तथा बद और बदमाश नेताओं ने एक होनहार डॉक्टर को प्रताड़ित कर इस कदर भयभीत कर दिया कि वह डिप्रेशन में चली गई। उन्होंने कभी भी ऐसे अपमान और तमाशे की कल्पना नहीं की थी। उनके मन में बस यही विचार आते रहे कि अब तो उनकी डॉक्टरी पर कलंक लग गया है। वर्षों की मेहनत पर पानी फेर दिया गया है। उनके कारण पति और बच्चों को भी अपराधी समझा जा रहा है। वह हत्यारिन घोषित की ही जा चुकी हैं। बुरी तरह आहत डॉक्टर अर्चना शर्मा ने मौत का दामन थामने से पहले एक पत्र लिखा, ‘मैं अपने पति और बच्चों से बहुत प्यार करती हूँ। प्लीज मेरे मरने के बाद इन्हें परेशान न किया जाए। मैंने कोई गलती नहीं की, किसी को नहीं मारा। मैंने इलाज में भी कोई कमी नहीं की। कृपया डॉक्टरों को इतना प्रताड़ित करना बंद करो। मेरी मौत शायद मेरी बेगुनाही साबित कर दे।’’ यह कितनी शर्मनाक और कायराना हकीकत है कि जब नेता, ब्लैकमेलर पत्रकार, डॉक्टर अर्चना शर्मा के अस्पताल की घेराबंदी कर नारेबाजी कर रहे थे तब किसी ने अर्चना की साथ नहीं दिया। कोई खबर नहीं ली। लेकिन जब वह चल बसीं तो सभी उनके हमदर्द बन गये।

डॉक्टर अर्चना की खुदकुशी के कुछ दिन बाद महानगर के स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा आर्या ने फांसी लगा ली। मात्र 13 साल की इस बच्ची की जब नोटबुक खंगाली गई तो उसमें जगह-जगह लिखा था ‘आई लव यू डेथ’, मुझे मौत से प्यार है, मुझे मरना अच्छा लगता है। सुसाइड नोट में ‘आई लव यू डेथ’ लिखकर दुनिया को सदा-सदा के लिए छोड़कर चल देने वाली लड़की के मां-बाप और भाई उसकी आत्महत्या की वजह से अनजान और हतप्रभ हैं! लेकिन, हतप्रभ कर देने वाली बात यह भी है कि लड़की लगातार अपनी नोट बुक्स में ‘आई लव यू डेथ’ लिखकर इशारा करती रही और मां-बाप अनजान रहे! इसी तरह से आदित्य पहले भी खुदकुशी की राह पकड़ने के संकेत दे चुका था, लेकिन माता-पिता ने भी उसका मानसिक उपचार नहीं कराया। 

जब जिन्दगी अच्छी नहीं चल रही होती है तो इंसान का विचलित और परेशान होना स्वाभाविक है। यह भी सच है कि इंसान चुभने वाली बातों और तानों से अक्सर निराश और हताश हो जाता है, लेकिन वह यह क्यों भूल जाता है कि लोगों का तो काम ही है मीन-मेख निकालना। अच्छाइयों को नजरअंदाज कर कमियों और बुराइयों के ढोल पीटना। मरना तो एक न एक दिन सभी को है, लेकिन किन्हीं भी हालातों में तथा किसी भी उम्र में की गयी खुदकुशी उन्हें अथाह पीड़ा और बदनामी की सौगात दे देती हैं, जिन्हें उम्र भर के लिए रोने-बिलखने के लिए छोड़ दिया जाता है...।

Thursday, June 19, 2025

छपरी

ऐसा लग रहा है, न जाने कब से नाराज और गुस्सायी महिलाओं ने इस दौर में पुरुषों से बदला लेने का भरपूर साहस जुटा लिया है। महिलाओं के गुस्से के प्रकटीकरण के तौर-तरीकों पर आम और खास लोग हैरान हैं। यह अनियंत्रित रोष, आक्रोश कहां पर जाकर थमेगा, कुछ भी लिखना-बताना मुश्किल है। यह भी सच है कि विद्रोही औरतें पुरुषों को ज्यादा पसंद नहीं आतीं। इक्कीसवीं सदी में भी अधिकांश पुरुष चुपचाप समझौता करने तथा कम बोलने वाली नारियों को पसंद करते हैं। उनका अत्याधिक मुखर होना पुरुषों को किसी चुनौती से कम नहीं लगता। अब वो वक्त नहीं रहा जब महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की खबरें ही पढ़ने-सुनने में आती थीं। अब तो महिलाओं के हिंसक और बेकाबू होने की खबरें भी सुर्खियां बटोर रही हैं। महिलाएं जहां अपनी सुरक्षा के लिए भी किसी भी हद तक जा रही हैं। वहीं, अपना आतंकी चेहरा भी दिखा रही हैं, ‘बिहार में मुजफ्फरपुर में साहूकार युवक ने एक महिला को कुछ रुपये ब्याज पर दिए थे। निर्धारित समय पर जब भुगतान नहीं हुआ तो युवक महिला के घर जा पहुंचा। महिला को घर में अकेली देख उसकी नीयत बिगड़ गई और वह उससे जबरदस्ती करने लगा। महिला के पुरजोर विरोध करने पर भी जब वह नहीं माना तो महिला ने युवक के प्राइवेट पार्ट को चाकू से काट डाला। महिला यदि कमजोर पड़ जाती तो युवक उस पर आसानी से बलात्कार कर गुजरता, लेकिन नारी का यह भयावह अपराध कर्म! उत्तर प्रदेश के एक हाईवे पर स्थित फ्यूल सेंटर पर पति, पत्नी और उनकी बेटी अपनी कार में सीएनजी भरवाने के लिए पहुंचे। सीएनजी डलवाते समय सुरक्षा की दृष्टि से गाड़ी से उतरना बहुत जरूरी होता है। इसीलिए सीएनजी भरवाने के दौरान सेल्समैन ने उनसे गाड़ी से उतरने को कहा, लेकिन गाड़ी में बैठे तीनों ने इसे अपना अपमान मानते हुए उतरने से मना कर दिया। उन्हें अंदर बैठे रहकर गैस डलवाने के खतरे के बारे में बताया गया। फिर भी वे गाड़ी से नहीं उतरे। ऐसे में उनकी जान की फिक्र करते हुए सेल्समैन ने सीएनजी डालने से साफ-साफ मना कर दिया। सेल्समैन का नियम-कायदे का पक्का होना उन्हें रास नहीं आया। वे उससे भिड़ गये और गाली-गलौज करने लगे। सेल्समैन के विरोध करने पर युवा बेटी का खून खौल उठा और उसने सेल्समैन के सीने पर रिवॉल्वर तानते हुए वहीं के वहीं मौत के घाट उतारने की धमकी दे दी। पुलिस ने वहां पहुंचकर किसी तरह से युवती को शांत किया।

हम सबको वो जमाना भी अच्छी तरह से याद है, जब मां-बाप अपनी बेटियों की शादी अपने मनपसंद लड़कों से कर खुश हो लेते थे। बेटियां भी चुपचाप विदा हो जाती थीं, लेकिन अब अधिकांश शादी-ब्याह के रिश्ते बेटियों की मर्जी और स्वीकृति से होने लगे हैं। स्त्रियों पर अपना सर्वोपरि अधिकार जमाने और उन्हें अपनी सम्पति मानने की मां-बाप तथा पतियों की सोच की बड़ी तेजी से हत्या के साथ-साथ महिलाओं के द्वारा अपने पैरों पर भी कुल्हाड़ी मारी जाने लगी है। मध्यप्रदेश के शहर इंदौर की सोनम आत्मनिर्भर थी। पिता के प्लायवुड के कारोबार में साथ देती थी। माता-पिता ने बहुत सोच-समझकर उसकी शादी इंदौर के ही युवा ट्रांसपोर्ट कारोबारी से करवा दी। शादी से पहले सोनम ने कोई विरोध नहीं किया। चुपचाप सात फेरे ले लिये। सोनम के संदिग्ध आचरण के बारे में उसकी मां को पूरी खबर थी। उसे यह भी पता था कि वह उन्हीं के यहां काम करने वाले युवक राज कुशवाह को चाहती है, लेकिन राज दूसरी जाति का था, इसलिए मां के साथ-साथ पिता को भी वह शादी के लिए उपयुक्त नहीं लगा। शादी के बाद षडयंत्रकारी सोनम ने हनीमून के लिए अपने पति पर मेघालय जाने का दबाव बनाया, जबकि पति राजा रघुवंशी का वहां जाने का बिल्कुल मन नहीं था। 11 मई को दोनों की धूमधाम से शादी हुई थी और 23 मई को हनीमून के लिए मेघालय रवाना हो गए। अगले दिन झरने के पास एक खाई में राजा का शव मिला। सोनम ने परिवारजनों को गुमराह करने की हजारों कोशिशें की। कई दिनों तक कई-कई झूठ बोले। अंतत: हनीमून के दौरान पति-पत्नी के रिश्ते की नृशंस हत्या का सच बाहर आ ही गया। इस हत्याकांड में सोनम के प्रेमी राज की प्रमुख भूमिका रही। सोनम के परिवार ने बार-बार कहा कि, दोनों में भाई-बहन जैसा रिश्ता है। सोनम राज को राखी बांधती थी। राज सोनम से पांच साल छोटा है। इससे कुछ हफ्ते पहले मेरठ में सौरभ राजपूत हत्याकांड में पत्नी मुस्कान और उसके प्रेमी साहिल का खूनी हाथ सामने आया। इन दोनों हत्याकांडों की अंदरूनी सच्चाई ने 2006 के मुन्नार केस की याद दिला दी। चेन्नई के रहने वाले 30 वर्षीय अनंतरमन और विद्यालक्ष्मी बड़े तामझाम के साथ परिणय सूत्र में बंधे थे। शादी के 9 दिन बाद दोनों हनीमून मनाने के लिए मुन्नार गये। अगले दिन अनंतरमन को मौत के घाट उतार दिया गया। विद्या ने पुलिस को भटकाने के बहुतेरे प्रयास किये। अज्ञात लोगों के द्वारा जेवर लूटने और पति की हत्या की जो कहानी उसने सुनायी वह किसी को भी हजम नहीं हुई। जांच में स्पष्ट हो गया कि विद्या स्कूल के दिनों में जिस युवक को दिलोजान से चाहती थी उसी से शादी करना चाहती थी, लेकिन परिवार वाले नहीं माने। विद्या के प्रेमी का गरीब तथा अनंतरामन का अमीर होना शादी में बाधक बना। विद्या के प्रेमी ने अपने किसी मित्र के साथ मिलकर अनंतरामन का काम तमाम कर दिया। अपने पति का कत्ल करने और करवाने वाली नारियों का यह सच भी अत्यंत हैरान करनेवाला है कि अधिकांश के कातिल प्रेमी उनके पतियों के समकक्ष कहीं भी नहीं ठहरते। न धन में, न तन में। आड़ी-तिरछी शक्ल सूरत और संदिग्ध व्यवहार। ऐसे युवकों को ‘छपरी’ कहा जाता है, जो दिखावा पसंद होने के साथ-साथ चालबाज तथा घोर नशेड़ी भी होते हैं। इनके चरित्र में कही कोई गरिमा और गहराई नहीं होती। समाज की चिंता और परवाह नहीं करने वाले ये ‘छपरी’ इन दिनों विद्रोही लड़कियों की पसंद बन रहे हैं। मेरठ के हत्यारे मुस्कान और साहिल नशे के आदी हैं। जेल में भी शराब, गांजा और चरस की मांग करते रहते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले वीडियो में पति की हत्यारिन मुस्कान बार-बार फरियाद करती दिखी कि बिना नशा किये उसे नींद नहीं आती। मुस्कान साहिल पर इसलिए मर मिटी थी, क्यूंकि वह सौरभ से ज्यादा उसकी चिंता करता था। सौरभ के पास उतना समय ही नहीं होता था जो मुस्कान के चेहरे पर हर वक्त मुस्कान ला सके। साहिल के पास मुस्कान को खुश करने के अलावा और कोई काम नहीं था। देश के एक जाने-माने मनोरोग विश्लेषक का कहना है कि कई लड़कियां खुलकर जीना चाहती हैं पर विभिन्न बंदिशों की वजह से जी नहीं पातीं। ये लड़कियां उन लड़कों पर तुरंत फिदा हो जाती हैं, जो बेबाक और बिंदास होते हैं। मरने-मारने पर तुरंत उतारू हो जाते हैं। कल की चिंता छोड़ आज में खुलकर जीते हैं। अपने नये नवेले पति को नशे का हाई डोज देकर पहाड़ी से नीचे फेंकने वाली सोनम के साथी राज के बारे में बार-बार कहा गया कि वह तो उससे राखी बंधवाता था। राखी बंधवाने वाला किसी पर गलत नज़र कैसे डाल सकता है? आज से लगभग 45 वर्ष पूर्व की आंखों देखी हकीकत को मैं कभी भी नहीं भूल सकता। उन दिनों मैं छत्तीसगढ़ के कटघोरा में था। वहां श्रीवास्तव नामक एक शिक्षक थे। उन्हीं के साथ हाईस्कूल में एक बंगाली खूबसूरत युवा टीचर भी थीं। शिक्षक श्रीवास्तव शादीशुदा थे और शिक्षिका कुंआरी। एक साथ पढ़ाते-पढ़ाते दोनों एक दूसरे के जिस्म को पढ़ने लगे। उनके इश्क के चर्चे भी बस्ती में होने लगे। शिक्षक ने इसे दुश्मनों का षडयंत्र कहकर अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की, लेकिन पत्नी की शंका में कोई कमी नहीं आयी। मामला बढ़ता देख एक दिन शिक्षक महोदय ने शिक्षिका को अपने घर बुलवाया और पत्नी के समक्ष कलाई पर राखी बंधवा ली। अब तो पत्नी बेफिक्र हो गई। वक्त बीतता गया लोगों ने भी दोनों पर ध्यान देना बंद कर दिया। कुछ महीने के बाद बहुत जबरदस्त धमाका हो गया। शिक्षिका के गर्भवती होने से श्रीमती श्रीवास्तव माथा पिटती रह गईं। राखी को ढाल बनाकर अपनी प्रेमिका से सतत जिस्मानी रिश्ते बनाये रखने वाले शिक्षक ने यह ऐलान कर सभी को चौंका दिया कि हम दोनों तो बहुत पहले से विवाह बंधन में बंध चुके हैं। अब जिसको जो सोचना हो... सोचता रहे।

Thursday, June 12, 2025

दीवानों की जान

अभी तक तो यही पढ़ने-सुनने में आ रहा था कि किसी प्रवचनकर्ता के यहां उमड़ी भीड़ में भगदड़ मचने के कारण पच्चीस-पचास श्रद्धालु चल बसे। मंदिर में पूजा करने के लिए इस कदर लोग जमा हो गए कि, उन्हें संभलना मुश्किल हो गया और फिर लोग एक दूसरे को कुचलते चले गए और बहुत भयावह हादसा हो गया। विभिन्न मेले-ठेलों में भी भीड़ के बेकाबू होने के कारण मौते होने की खबरों से हम और आप अक्सर रूबरू होते रहते हैं। कुंभ मेले में हुई भगदड़ के कारण हुई मौतों को तो कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस ऐतिहासिक आयोजन में तीस से अधिक श्रद्धालुओं की भीड़ में दब-कुचलकर मौत हो गई। यह सरकारी आंकड़ा था। सरकारी आंकड़े अक्सर विश्वसनीय नहीं होते। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मृतकों की संख्या 100 से ज्यादा थी। क्रिकेट की वजह से इस तरह से जानें जाने की खबर हमने तो पहली बार सुनी। रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (आरसीबी) की जीत के जश्न ने 11 क्रिकेट प्रेमियों की जान ले ली और लगभग 40 लोगों को घायल होकर अस्पताल की शरण लेनी पड़ी। अधिकांश भारतीयों की क्रिकेट के प्रति दीवानगी से सभी वाकिफ हैं, लेकिन आईपीएल चैंपियन बेंगलुरुरॉयल चैलेंजर्स की विजय परेड के दौरान चिन्नास्वामी स्टेडियम के पास मची भगदड़ में हुए हादसे ने सभी के दिल को दहला और रूला दिया। अनियंत्रित भीड़ की अफरातफरी में अपनी सदा-सदा के लिए जान खोने वाली देवी नामक युवती क्रिकेट और विराट कोहली की जबरदस्त प्रशंसक थी। शहर में होने वाला कोई भी क्रिकेट मैच मिस नहीं करती थी, लेकिन बेंगलुरु रॉयल चैलेंजर्स की विक्ट्री परेड वाले दिन वह टिकट से वंचित रह गई थी। फिर भी अपने दफ्तर के बॉस से मिन्नतें कर उसने छुट्टी ली और अपना लैपटॉप लावारिस हालत में टेबल पर छोड़ फौरन स्टेडियम की तरफ दौड़ पड़ी। खुशी के समंदर में गोते लगाती देवी को उम्मीद थी कि क्रिकेट के नये भगवान विराट कोहली से करीब से मिलने का अवसर उसे जरूर मिलेगा। उसने ऑटोग्राफ बुक भी संभाल कर रख ली थी। देवी ने ऑफिस से निकलते ही अपने दोस्त को मैसेज कर दिया था कि वह स्टेडियम जाने के लिए निकल पड़ी है। यदि उसे भी आना हो तो तुरंत आ जाए। ये देवी की आखिरी आवाज थी, जो उसके दोस्त ने सुनी। उसके बाद तो गमगीन होने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था। स्टेडियम के बाहर अथाह भीड़ थी। देवी ने टिकट पाने के लिए भी भरपूर हाथ-पैर मारे, लेकिन असफल रही। 40 हजार लोगों की क्षमता वाले स्टेडियम में दो लाख से अधिक भीड़ का जमावड़ा था। फिर भी अति उत्साहित देवी जोखिम लेने पर तुल गई। देवी की तरह हर किसी को स्टेडियम के अंदर जाने की जल्दी थी। इसी बेतहशा भागम-भाग ने ऐसी भगदड़ मचायी कि देखते ही देखते लोग एक-दूसरे पर गिरने और दबने लगे। कुछ लोग ऐसे गिरे कि दम घुटने के कारण उठ ही नहीं पाये। उन्हीं में देवी भी शामिल थी। 

जिन 11 लोगों की जान गई, उनमें सभी की उम्र 33 साल से कम थी। इन्हीं में एकमात्र 13 साल का लड़का भी था। इस क्रिकेट के दीवाने बेटे की मौत की खबर सुनकर उसकी मां बार-बार बेहोश होती रही। अब तो उसकी सारी उम्र रो-रोकर बीतने वाली है। इसी तरह से पानीपूरी बेचने वाले एक उम्रदराज पिता ने भी अपने 18 वर्षीय बेटे को क्रिकेट की आंधी में खो दिया। यह संस्कारित बेटा अपने पिता के काम में नियमित हाथ बंटाता था। कई बार जब पिता बीमार होते या शहर से दूर होते तो वह खुद पानीपूरी का ठेला लगाता था। सरकार ने जब अन्य मृतकों के साथ-साथ इस बेटे के लिए भी 10 लाख रुपए का मुआवजा देने की घोषणा की तो दुखी और निराश पिता के इस कथन ने सभी संवेदनशील भारतीयों के दिल को झकझोर दिया, ‘मैं 1 करोड़ रुपये देने को तैयार हूं, लेकिन क्या इससे मेरा बेटा वापस आ जाएगा?’ इस पिता के उन सपनों की ही हत्या हो गई हैं जो उसने अपने परिश्रमी आज्ञाकारी बेटे के लिए देखे थे। बेटा, पिता के सपनों को साकार करने की राह पर बढ़ रहा था कि अंधी और जुआरी क्रिकेट ने उसकी जान ले ली। स्टेडियम के बाहर धक्का-मुक्की और अफरातफरी होने से जब लाशें बिछ रही थीं, लोग घायल हो रहे थे तब अंदर नाचते-गाते हुए जश्न मनाया जा रहा था। खिलाड़ियों से ज्यादा तो क्रिकेट के दीवानों को मौज-मस्ती सूझ रही थी। जीत की ट्राफी हाथ में लेते ही कप्तान विराट कोहली के फफक-फफक रोने पर कई लोग खुद को आंसू बहाने से नहीं रोक पाये। कोहली और उनकी पत्नी अभिनेत्री अनुष्का शर्मा का अत्यंत भावुक होकर गले लगना उनके प्रशंसकों के लिए यादगार बन गया। सच तो यह है कि करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों का क्रिकेटरों से लगाव कोई नई बात नहीं है। नई बात तो हादसे में हुई 11 लोगों की मौत है। ये मौतें पुलिस के निकम्मेपन और भीड़ प्रबंधन में हुई चूक का नतीजा हैं। इन मौतों ने पूरे देश को गमगीन कर दिया। यदि सुरक्षा इंतजामों में खामियां नहीं होतीं तो दिल दहलाने वाली यह दुर्घटना नहीं होती। क्रिकेट के पहले भगवान सचिन तेंदुलकर के तो होश ही उड़ गए। उन्होंने सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट शेयर करते हुए लिखा, ‘बेंगलुरु के स्टेडियम में जो कुछ हुआ, वह दुखद से भी अधिक है। मेरी संवेदनाएं हर पीड़ित परिवार के साथ हैं।’ हरभजन सिंह ने अपना दर्द इन शब्दों में बयां किया, ‘इस घटना ने खेल की भावना पर एक काली चादर डाल दी है।’ फिल्म अभिनेता सुनील शेट्टी ने इन शब्दों में अपनी संवेदना व्यक्त की, ‘खुशी का एक पल...अकल्पनीय घटना में बदल गया। जान गंवाने वालों के बारे में सुनकर मेरा तो दिल ही टूट गया।’ क्रिकेट किंग विराट कोहली को आईपीएल ट्रॉफी हाथ में थामे सारी दुनिया ने रोते हुए तो देखा, लेकिन उन्होंने मृतकों के परिजनों से मिलकर संवेदना और अपनत्व के दो शब्द बोलना जरूरी नहीं समझा! घटना के अगले दिन ही बीवी बच्चों के साथ लंदन के लिए उड़ गए। यह तो निष्ठुरता की इंतिहा और घोर मतलब परस्ती है। क्रिकेट की बदौलत अरबों-खरबों कमाने वाले विराट का दिल अब भारत में नहीं लगता। उन्होंने लंदन में अपना आलीशान आशियाना बना लिया है। वहीं उन्हें सुकून और शांति मिलती है। भारत में तो क्रिकेट के पागल-दीवाने प्रशंसक उन्हें मौका पाते ही घेर लेते हैं। इससे उनका दम घुटने लगता है। हमारे देश के शासक भी बहुत बेरहम, बदतमीज और बेलगाम हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इस हादसे को महाकुंभ में मची भगदड़ में जोड़ते हुए यह कहने में देरी नहीं लगायी कि कुंभ मेले में भी तो भगदड़ मचने से 50-60 लोग मारे गए थे...। यह कौन सी बड़ी बात है। जिनकी जवाबदेही बनती है, वही जब अपने बचाव के लिए ऐसे घटिया चौंकाने वाले बयान देने लगें तो आप ही सोचिए कि हादसों और दुर्घटनाओं पर लगाम लगेगी या बेकसूर बस यूं ही कीड़े-मकोड़ों की तरह मरते ही रहेंगे?

Thursday, June 5, 2025

परोपकार...तिरस्कार

मानव, महामानव और दानव। इंसान की पहचान उसकी खूबसूरत शक्ल से नहीं, उसके कर्मों से होती है। अमूमन दिखने-दिखाने में तो लगभग सभी स्त्री-पुरुष एक से होते हैं, लेकिन किसी की एक सार्थक पहल और परोपकारी सोच, संवेदनशीलता उसे देवता के समक्ष खड़ा कर देती है। लोगों का हुजूम उसके समक्ष नतमस्तक होने को विवश हो जाता है। बात उन दिनों की है, जब महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में पूरी तरह से शराब पर पाबंदी थी। फिर भी कुछ अपराधी अवैध शराब बेचने से बाज नहीं आ रहे थे। मुफ्तखोरों को दूसरा कोई मेहनत मजदूरी करने वाला काम रास नहीं आता था। बेईमानी और अपराध कर्म से वे दूर ही नहीं होना चाहते थे। इससे उनके बाल-बच्चों पर भी बुरा असर पड़ रहा था, लेकिन उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं थी। शहर के एक आदतन अपराधी, अवैध शराब विक्रेता को तत्कालीन पीएसआई मेघा गोखरे ने गिरफ्तार कर लिया। उसे थाने में लाये अभी दो-तीन घंटे ही बीते थे कि तभी पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला एक बच्चा अपने पिता की जमानत के लिए आ पहुंचा। 

उसके फर्राटे से अंग्रेजी में बात करने के आकर्षक अंदाज से मेघा स्तब्ध रह गईं। उन्होंने उससे कहा कि अभी तुम बच्चे हो। तुम्हारी जमानत पर तुम्हारे पिता को छोड़ना संभव नहीं है, लेकिन बच्चा जिद पर अड़ा रहा। मेघा ने बड़े प्यार से उसे अपने करीब बिठाते हुए पूछा कि, क्या तुम नियमित स्कूल जाते हो? तब उसके पिता ने सिर झुकाकर बताया कि मेरे कहने पर अपने स्कूल बैग में शराब की बोतलें रख कर नियमित ग्राहकों को पहुंचाने जाता है। एक दिन स्कूल वालों ने उसके बैग में जब शराब की बोतल देखी तो उन्होंने उसी दिन से हमेशा-हमेशा के लिए स्कूल से निकाल दिया है। बच्चे ने बड़ी मासूमियत के साथ कहा, पर मैडम जी इसी काम से ही उनके घर का खर्चा चलता है। वैसे भी अपने पिता की सहायता करना उसका पहला फर्ज है। वहीं बच्चे के पिता को यकीन था कि बेटे की उम्र कम होने की वजह से उसे सजा नहीं मिलेगी। पुलिस उस पर दया कर चलता कर देगी। मेघा को बच्चे का अपराधी होना आहत कर गया। उन्होंने तुरंत स्कूल के प्रिंसिपल से मुलाकात की और बच्चे के हित में कदम उठाने का निवेदन किया। प्रिंसिपल बोले, इसमें सुधार आना मुश्किल है। यह पूरी तरह से बिगड़ चुका है। कई बार मना करने के बावजूद बैग में शराब की बोतल लेकर आता था। इसकी वजह से दूसरे बच्चे भी बिगड़ रहे थे। मेघा की मिन्नत का मान रखते हुए अंतत: प्रिंसिपल ने बच्चे को स्कूल में रख लिया। कालांतर में बच्चे के पिता की भी जमानत हो गई। मेघा ने उसे पांच हजार रुपए देते हुए कहा कि यदि बच्चे का भला चाहते हो तो तुम शराब बेचना बंद कर मछली बेचना प्रारंभ कर दो। उसने मेघा की सलाह का पालन करते हुए शराब बेचनी छोड़ दी और बच्चे की पढ़ाई पर ध्यान देने लगा। स्कूल की पढ़ाई के पश्चात बच्चे को चंद्रपुर स्थित राजीव गांधी इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल गया। अंतत: उसकी मेहनत रंग लाई और वह इंजीनियर बन गया। 2023 में हैदराबाद की एक कंपनी में अच्छी खासी पगार पर नौकरी भी मिल गई। वर्तमान में वह दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में लाखों रुपए के वेतन पर काम कर रहा है। बच्चे के इंजीनियर बनते-बनते मेघा भी तरक्की करते हुए पीएसआई से एपीआई बन गईं। उस बच्चे ने कई बार उनसे संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन मोबाइल नंबर बदल जाने के कारण बात नहीं हो सकी। अभी हाल में जब मेघा एक मामले के सिलसिले में मूल गईं तो उस बच्चे के पिता से अचानक मुलाकात हो गई। तब पिता ने उन्हें बताया कि शराब बेचने वाला बच्चा अब इंजीनियर बन चुका है। मेरा मछली का कारोबार भी बहुत बढ़िया चल रहा है। यह आपके प्रयास और उपकार का ही प्रतिफल है। बेटा आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाला है और आपसे मिलने को अत्यंत उत्सुक है...।

भिखारी कौन होते हैं? किसी के लिए भी जवाब देना मुश्किल नहीं। अधिकांश भिखारी अपंग और असहाय होते हैं। कोई काम धाम नहीं कर पाते, इसलिए कटोरा हाथ में लेकर भीख मांगने निकल पड़ते हैं। लोग उनकी हालत पर रहम खाकर चंद सिक्के उसके कटोरे में डाल देते हैं। इसी से जैसे-तैसे उनका जीवन कटता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके हाथ-पैर सलामत हैं, लेकिन निहायत बेशर्मी के साथ भीख मांगते फिरते हैं। उन्हें लोगों के दुत्कारने और फटकारने से कभी कोई लज्जा नहीं आती। उनके लिए भीख आसानी से पैसा कमाने का टिकाऊ धंधा है। ऐसे कुछ धंधेबाज प्रतिदिन हजारों रुपए पीट लेते हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूल कॉलेजों में पड़ते है। भीख की बदौलत फ्लैट, कार और दुकानों के मालिक बने इन भिखारियों को आखिर कहा तो भिखारी ही जाता है और मान-सम्मान भी इन्हें नहीं मिलता।

देश की राजधानी दिल्ली में जीतेश कुमार वर्षों से बसों में भीख मांगते नजर आते हैं, लेकिन लोग उनका अथाह मान-सम्मान करते है और उनका मनोबल बढ़ाते हैं। हर तरह से स्वस्थ और सेहतमंद जीतेश बसों में यात्रा करने वाले स्त्री-पुरुषों, युवकों और बच्चों से भीख में मात्र दस रुपए देने की मांग करते हैं। स्वेच्छा से कुछ सवारियां इससे ज्यादा भी दे देती हैं। जीतेश भीख में मिले एक भी पैसे का अपने लिए इस्तेमाल नहीं करते। मात्र कक्षा दूसरी तक  पढ़े जीतेश मासूम नौनिहालों का भविष्य संवारने के लिए यह काम करते हैं।बदरपुर इलाके में पिछले दस वर्षों से स्कूल चलाते आ रहे जीतेश की नेक नीयत को देखकर एक शिक्षा-प्रेमी, दरियादिल व्यक्ति ने अपने मकान का एक हिस्सा उन्हें स्कूल चलाने के लिए दे दिया है। वह महीने में 12 से 15 दिन विभिन्न बसों में भिक्षाटन करते हैं। हर रोज ढाई से तीन हजार रुपए बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। उनके स्कूल में नर्सरी से कक्षा पांचवीं तक पढ़ाने वाले शिक्षक नाममात्र का वेतन लेते हैं। कुछ स्वेच्छा से बिना वेतन अपनी सेवाएं देते हैं। झुग्गी झोपड़ी में रहनेवाले गरीब परिवारों के बच्चों को मुफ्त में कॉपी-किताब भी उपलब्ध करायी जा रही है। जीतेश अब तक 500 से ज्यादा बच्चों को पांचवी तक पढ़ाने के बाद आगे की शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में दाखिला करा चुके हैं...। पुलिस अधिकारी मेघा गोखरे और शिक्षा की अलख जलाते जीतेश कुमार पर जनहित के लिए किसी ने दबाव नहीं डाला था। परोपकार करने के पीछे उनकी कोई मजबूरी भी नहीं थी। वे भी अपनी राह पर चल सकते थे, जिस पर अन्य लोग चलते हैं। 

अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टरों, नर्सों तथा अन्य कर्मचारियों को मरीजों की देखरेख के लिए मोटी-मोटी तनख्वाहें मिलती हैं। सतर्क रहकर अपनी डयूटी निभाना उनका प्राथमिक कर्तव्य है, लेकिन वे क्या कर रहे हैं! जो सच सामने है वह तो...बेहद दु:ख के साथ गुस्सा भी दिलाता है। मन होता है कि इनकी जीभरकर धुनाई की जाए और नौकरी भी छीन ली जाए। कानपुर के निकट स्थित एक ग्राम में सुनील नायक नामक शख्स की गर्भवती पत्नी सरिता को रात को प्रसव पीड़ा हुई। रात को 1 बजे सुनील ने पत्नी को कानपुर के मेडिकल कॉलेज के महिला अस्पताल में भर्ती करवा दिया। रात 2 बजे प्रसव पीड़ा बढ़ने पर उन्होंने इधर-उधर देखा, लेकिन उन्हें अस्पताल का कोई कर्मचारी नजर नहीं आया। उन्होंने दो कमरों में सो रहे कर्मचारियों को जगाने का प्रयास किया। मगर कोई भी नहीं उठा। इसी दौरान गर्भवती का प्रसव हो गया। शर्मनाक और पीड़ादायी हद तो तब हुई जब प्रसव के तुरंत बाद नवजात बेड के किनारे रखे कचरे के डिब्बे में जा गिरा और देखते ही देखते उसने गंदगी में ही दम तोड़ दिया। बिहार की राजधानी पटना के सरकारी अस्पताल नालंदा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के हड्डी विभाग में भर्ती उम्रदराज अवधेश प्रसाद की उंगलियों को चूहों ने बुरी तरह से कुतर कर लहूलुहान कर दिया। वे रात भर दर्द के मारे तड़पते रहे। अवधेश मधुमेह के मरीज हैं और अपने टूटे हुए दाएं पांव का इलाज कराने आये थे। किसी के भी मन में यह प्रश्न खलबली मचा सकता है कि आखिर जब चूहे ने मरीज का पांव कुतरना प्रारंभ किया तो उन्हें मालूम क्यों नहीं चला? दरअसल अवधेश डायबिटिक न्यूरोपैथी से ग्रसित हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर पांव पर पड़ता है। डायबिटिक न्यूरोपैथी में अलग-अलग स्टेज हैं। इसमें एक स्टेज ऐसी भी आती है, जब मरीज के पांव का सेन्सेशन खत्म हो जाता है। यानी पांव में कुछ भी हो उसे अनुभव नहीं होता। यह तो हुई असहाय बेबस मरीज की हकीकत और मजबूरी लेकिन सरकारी अस्पताल के डॉक्टर, नर्सें एवं अन्य कर्मचारी क्यों अंधे, बहरे और दिमागी तौर पर लकवाग्रस्त हो जाते हैं कि उन्हें अपने कर्तव्य के स्थान पर हरामखोरी रास आती है?

Thursday, May 29, 2025

समझ-नासमझ

चित्र-1 : उसके मां-बाप ने उसे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए आस्ट्रेलिया भेजा था। वहां वह सिजोफ्रेनिया जैसे खतरनाक मानसिक रोग का शिकार हो गया। डॉक्टरी की निर्धारित कोर्स की किताबेें पढ़ने की बजाय उसका दिमाग इधर-उधर छलांगे लगाने लगा। इसी दौरान उसने ‘आत्मा’ के बारे में पढ़ा और सुना तो वह दिन-रात आत्मा के बारे में ही सोचने लगा। आत्मा कैसी दिखती है, हमारा शरीर आत्मा के साथ कैसे काम करता है। मौत होते ही क्या हम आत्मा को देख सकते हैं? उसकी जिज्ञासा बढ़ती चली गई। कई और सवाल परेशान करते हुए उसकी नींद उड़ाने लगे। एक शाम उसने डॉक्टरी की सारी किताबें आग के हवाले कर दीं। आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए उसने अपने मां-बाप और बहन की बेहद कू्ररता से हत्या कर दी। उसके पश्चात वह ‘आत्मा’ को ढूंढता रहा, लेकिन वह नहीं मिली। अलबत्ता सड़-गलकर मरने के लिए उसे जेल जरूर जाना पड़ा।

चित्र-2 : माता-पिता को अपनी औलाद से ज्यादा कुछ भी प्यारा नहीं होता। मां की आत्मा और समस्त चेतना में तो सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों की जान बसती है। वह उनके लिए किसी भी मुसीबत को झेलने को तैयार रहती है। महाराष्ट्र के ठाणे के मुंब्रा इलाके में रहने वाला 17 साल का सुहैल यह कहकर घर से निकला कि आधे घण्टे में लौट आऊंगा, लेकिन देर रात तक जब वह घर वापस नहीं आया तो मां बेचैन हो गयी। उसने आधी रात को ही थाने में जाकर बेटे के गुम होने की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। इतना ही नहीं मां फरीदा ने रात में ही बेटे के दोस्तों के घर का दरवाजा खटखटाया, लेकिन सभी ने अनभिज्ञता दर्शा दी। दिन-पर-दिन बीतते चले गए, लेकिन बेटे का कोई सुराग नहीं मिला। अपने दुलारे की तलाश में भूखी-प्यासी रहकर उसने कई दिन-रात थाने और जेलों के बाहर बैठकर बिताये। अजमेर में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को भी बार-बार फोन कर पता लगाती रही कि उन्होंने सोहेल को दरगाह पर तो नहीं देखा। जब उसकी समझ में आ गया कि पुलिस का उसकी मदद करने का कोई इरादा नहीं है तो उसने एक स्थानीय पत्रकार से मुलाकात की। दोनों और जोर-शोर से सोहेल की तलाश में लग गये। कई जाने-अनजाने लोगों तथा सोहेल के नये-पुराने यार-दोस्तों में मिलने-मिलाने के बाद पता चला कि सोहेल का एक दोस्त भी उसी दिन से लापता है, जिस दिन सुहेल गायब हुआ। पत्रकार कुछ हफ्ते दौड़धूप करने के बाद अपने किसी और काम में लग गया, लेकिन मां ने धैर्य और हिम्मत का दामन थामे रखा। अपने गुमशुदा बेटे का पता निकालने वह जासूस बन गई। उसने खुद ही कड़ी-दर-कड़ी ऐसे सबूत तलाशे जिनसे दो हत्याओं का खुलासा हो गया। एक हत्या उसके बेटे सुहेल की और दूसरी उसके दोस्त की। मां की ममता के खोजी  साहस को देखकर पुलिस भी हतप्रभ रह गई।

कोलकाता के निकट के एक गांव के तेरह साल के बच्चे को जब भूख ने बहुत सताया तो वह दौड़ा-दौड़ा मिठाई की दुकान पर जा पहुंचा। दुकान पर तरह-तरह की चिप्स रखीं थीं, लेकिन दुकानदार नदारद था। बच्चा ने तीन पैकेट हाथ में लेकर इधर-उधर देखने लगा। तभी दुकानदार आ गया। उसने बच्चे को चोर समझ कर पकड़ा और अंधाधुंध पीटने लगा। बच्चे ने गुस्साये दुकानदार को बीस का नोट देते हुए भूल के लिए बार-बार माफी मांगी। बच्चे की मां को जब इस घटना का पता चला तो उसने भी उसे कड़ी फटकार लगाई। भावुक और संवेदनशील बच्चे ने घर लौटने के बाद खुद को कमरे में बंद कर लिया। मां दरवाजा खटखटाती रही, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। कुछ देर के बाद पड़ोसियों की मदद से दरवाजा तोड़ा गया तो बच्चा बेहोश मिला। उसने बंगाली में एक नोट लिख छोड़ा था, ‘‘मां मैं चोर नहीं हूं। मैंने चोरी नहीं की। अंकल (दुकानदार) वहां नहीं थे। मैंने उनके आने की राह देखी। मुझे बहुत भूख लगी थी। वैसे भी कुरकुरे मुझे बहुत पसंद हैं। मेरे उन्हें उठाते ही अंकल आ गए और उन्होंने मेरी एक भी नहीं सुनी...। ये मेरे अंतिम शब्द हैं। कृपया मुझे इस काम के लिए माफ कर देना।’’ अस्पताल ले जाने के कुछ ही समय बाद उसने अंतिम सांस ले ली। मां की आत्मा चीत्कार उठी। वह खुद को कोसती रह गई कि थोड़ा धीरज रख अपने बच्चे की सुन लेती तो वह आहत होकर इस तरह से मौत के मुंह में तो नहीं समाता।

चित्र-3 : इन दिनों कई मां-बाप बच्चों की मनमानी से बहुत आहत और परेशान हैं। मोबाइल फोन तो उनके लिए बहुत बड़ी समस्या बन गया है। अधिकांश बच्चे मोबाइल को आसानी से छोड़ने को तैयार ही नहीं होते। टिकटॉक, इंस्टाग्राम, फेसबुक और ऑनलाइन गेम उनकी लत बन गई हैं। मां-बाप के रात को सो जाने के पश्चात भी बच्चे मोबाइल फोन से चिपके रहते हैं। रात को देरी से सोने के कारण उनकी आंख समय पर नहीं खुलती। मां-बाप उठा-उठाकर थक जाते हैं। 

केरल में स्थित नेदुंवपुरम ग्राम पंचायत ने बच्चों का मोबाइल के नशे से ध्यान हटाने के लिए अनोखी पहल की है। इसके तहत गांव के आठवीं से 12वीं क्लास के छात्रों को बीमार लोगों के साथ-साथ बुज़ुर्गों से मिलने और उनका हालचाल जानने के लिए भेजा जाता है। बच्चे उनका हौसला बढ़ाते हैं कि आप चिंता न करें। ईश्वर आपको शीघ्र ही भला-चंगा करेंगे। जागरूक ग्रामवासियों का मानना है कि मरीजों के साथ अधिक से अधिक वक्त व्यतीत करने से बच्चे ज्यादा संवेदनशील होंगे और बड़े-बुजुर्गों की देखभाल के प्रति जागरूक होंगे। उन्हें बुजुर्गों से बहुत कुछ नया सीखने को मिलेगा, जो किताबों में नहीं है। बच्चों को फर्स्ट एड की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। गांव के डॉक्टर गोयल कहते हैं कि बच्चों को मोबाइल से दूर रखने का लक्ष्य उन्हें दयालू और सामाजिक बनाना है। जब बच्चे बिस्तर पर पड़े किसी रोगी से बात करते हैं, उसका हालचाल पूछते हैं तो उनके व्यवहार में सकारात्मक बदलाव आते हैं। उनमें दूसरों की सहायता करने की भावना में बढ़ोतरी होती है। हम चाहते हैं कि बच्चे मोबाइल से दूरी बनाते हुए अपनी ऊर्जा, ज्ञान और कौशल का इस्तेमाल असहायों की मदद के लिए करें। बचपन और किशोरावस्था में बहुत एनर्जी होती है। यदि इसे सही दिशा दे दी जाए तो वे बड़े होकर बेहतरीन नागरिक बन सकते हैं। ग्राम पंचायत की सकारात्मक कोशिश रंग लाने लगी है। आयुर्वेदिक अस्पताल के डॉक्टर अविनेश गोयल इस बदलाव को लेकर अत्यंत प्रसन्न हैं। वे बताते हैं कि बच्चे पहले गांव के मरीजों का सर्वे करते हैं। इससे उनको गांव की प्राथमिक और जमीनी स्थिति का पता चलता है। उनकी सोच और समझ विकसित होती चली जाती है। इसके बाद वे डेटा का विश्लेषण करते हैं। फिर वे महीने में एक बार कम से कम मरीज से जरूर मिलने जाते हैं। हालांकि वे जितने चाहें उतने मरीजों से मिल सकते हैं। उन्हें एक डायरी भी दी गई है, जिसमें उन्हें सारी सूचनाएं अपनी भावनाएं लिखनी होती हैं। यह डायरी हर महीने चेक की जाती है, जिसकी सेवा सबसे अच्छी होती है। उसे इनाम भी दिया जाता है। यह भी सच है कि मोबाइल के अत्याधिक चक्कर में पड़े रहने की बीमारी सिर्फ बच्चों को ही नहीं है। कई बड़े-बुजुर्ग भी इसके गुलाम हो चुके हैं। जब मौका मिलता है मोबाइल खोलकर बैठ जाते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के वीआइपी रोड पर स्थित है ‘नुक्कड़ कैफें। यहां पर जो ग्राहक खाना खाने के लिए आते हैं उनका मोबाइल पहले ही जमा करवा लिया जाता है। कैफे ने इसे डिजिटल डिटॉक्स का नाम दिया है। कैफे के संचालक चाहते हैं कि अपने परिवार या दोस्तों के साथ कैफे में आने वाले लोग अधिकतम समय एक-दूसरे के साथ बिताएं। मोबाइल में उलझे रहने की बजाय आपस में बातचीत करें। इसके बदले में उनके बिल में दस प्रतिशत विशेष छूट भी दी जाती है।

Thursday, May 22, 2025

लोकतंत्र में लूटतंत्र

यह खबर यकीनन सभी ने तो नहीं पढ़ी होगी, ‘‘महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के नेता नारायण राणे जब महाराष्ट्र सरकार में राजस्व मंत्री थे तब उन्होंने वन विभाग की 300 एकड़ जमीन अपने अत्यंत चहेते बिल्डर को दे दी थी। इस जमीन की कीमत करोड़ों रुपये थी। नारायण राणे ने इस उपकार के बदले यकीनन मोटी रकम ली होगी। नेता यूं ही दरियादिली नहीं दिखाते, लेकिन हां, सरकारी संपति को लुटाने में इन्हें न कोई शर्म आती है और न ही दर्द होता है। विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही सरकारी जमीनों को अपनी खानदानी प्रॉपर्टी मानने वाले नेताओं की फसल बीते कई वर्षों से खूब फल-फूल रही है। चव्हाण नामक जिस जुगाड़ू और धुरंधर ने 1998 में मंत्री नारायण राणे से यह सौगात मिट्टी के मोल पायी थी, उसने इसे रिची रिच कोऑपरेटिव सोसाइटी को दो करोड़ में बेचकर अपनी तिजोरी का वजन बढ़ा लिया। वन विभाग की यह जमीन कृषि भूमि थी, लेकिन घोर आश्चर्य युक्त हकीकत यही है कि कुछ ही दिनों में तत्कालीन पुणे संभागीय आयुक्त राजीव अग्रवाल, कलेक्टर विजय माथनकर और वन संरक्षक अशोक खडसे ने यह प्रमाणित करने में किचिंत भी विलंब नहीं किया कि, यह कीमती तीस एकड़ भूमि गैर कृषि जमीन है। यानी इस पर मनचाही भव्य परियोजना को साकार कर अरबों-खरबों रुपये कमाने की खुली छूट है।

देश के मुख्य न्यायाधीश माननीय भूषण गवई ने पद ग्रहण करने के तुरंत बाद अपने पहले फैसले में इस जमीन को वन विभाग को वापस करने का निर्देश देकर राजनीति को धंधा बनाने वाले नेता नारायण राणे को तीखा झटका दे दिया। इसके साथ ही उनके भ्रष्टतम काले पन्ने पर मुहर लगाकर देशवासियों को सचेत होने का संदेश दे दिया है। नारायण राणे के प्रति मैं लाख चाहकर भी चोर, डाकू, धूर्त, बेईमान, शातिर जैसे तीखे शब्दों का इस्तेमाल करने से बच रहा हूं, क्योंकि वे माननीय सांसद हैं। उन्हें लाखों स्त्री-पुरूषों, युवक, युवतियों ने अपना कीमती वोट देकर सांसद बनाया है। नारायण राणे ने चिकन शॉप से राजनीति का जो सफर तय किया है वह भी किसी दृष्टि से सराहने के लायक तो नहीं है, लेकिन लोकतंत्र में जिसे भी वोटर मालामाल कर देते हैं वही साहूकार हो जाता है। वोटरों की इसी नादानी की वजह से ही नालायक से नालायक चेहरे विधायक और सांसद बनते चले आ रहे हैं। भारत में जो भी शख्स चुनाव में बाजी मार लेता है, उसके लिए सरकारी जमीनें पाना और हथियाना बहुत आसान और जन्मसिद्ध अधिकार हो जाता है। देश की संपत्ति को अपने बाप-दादा की जागीर समझने वाले नेता हर राजनीतिक पार्टी में हैं। किसी में ज्यादा तो किसी में कम। कांग्रेस के शासन में तो अदना-सा बंदा भी विधायक बनते ही स्कूल-कॉलेज के लिए करोड़ों की सरकारी जमीन मुफ्त में पाने का हकदार हो जाता था। महाराष्ट्र में तो शायद ही कोई कांग्रेसी नेता होगा, जिसने सरकारी जमीनें नहीं हथियायी होंगी। जमीनखोर, विधायकों, सांसदों की खोजी निगाहें उन जमीनों पर टिकी रहती है, जो स्कूलों, बाग-बगीचों, अस्पतालों, पुस्तकालयों आदि के लिए निर्धारित होती हैं, लेकिन अपने पद और पहुंच का फायदा उठाकर चुटकी बजाते ही उन्हें अपने नाम करवा लिया जाता है। इस छल-कपट के धूर्त-कर्म में उच्च सरकारी अधिकारी उनका पूरा साथ भी देते हैं और उन जमीनों का अता-पता भी बताते हैं, जिन्हें हथिया कर अपने बाप की जागीर बनाया जा सकता है। कुछ नेता तो लूट और बेशर्मी की सभी हदें पार करने में भी नहीं सकुचाते। उन्हें शहीद सैनिकों की जमीनें हथियाने में न संकोच होता है और न ही तनिक लज्जा आती है। 

महाराष्ट्र सरकार ने युद्ध में शहीद हुए सैनिकों और रक्षा मंत्रालय के कर्मचारियों को सिर ढकने के लिए छत दिलाने के लिए मुंबई के कोलाबा में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी का निर्माण किया था, लेकिन नियमों को ताक में रखकर इस सोसाइटी के अधिकांश फ्लैट नेताओं तथा अफसरों को बेहद कम कीमत में दे दिये गए। जांच में पाया गया कि 25 फ्लैट गैरकानूनी तौर पर आवंटित किये गए। इनमें से 22 फ्लैट फर्जी नाम से खरीदे गये। शहीदों के लिए बनाये गये फ्लैटों को झटकने वालों में प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख, सुनील कुमार शिंदे और शिवाजीराव निलंगेकर के नाम शामिल पाए जाने पर हंगामा मच गया था। लोगों ने ऐसे कपटी, लालची नेताओं की जात पर बार-बार थू...थू की थी। प्रमुख घोटालेबाज प्रदेश के मुखिया अशोक चव्हाण को इस्तीफा देकर अपने घर में बैठना पड़ा था।

सरकारी जमीनों को औने-पौने दाम में हथियाने के लूटकांड में कई बड़े-बड़े अखबार मालिकों की शर्मनाक भूमिका की ज्यादा चर्चा नहीं होती। देश में जितने भी नामी-गिरामी अखबार वाले हैं, उनमें शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने सरकार से करोड़ों की जमीनें कौड़ियों में न पायी हों। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले कई अखबारीलाल ऐसे हैं, जिन्होंने सरकार से बेतहाशा जमीनें तो लीं अपने अखबार की प्रिंटिंग प्रेस और कार्यालय के लिए, लेकिन उन्होंने उनके अधिकांश हिस्से पर दुकानें और फ्लैट बना उन्हें मोटे किराये पर देकर खूब चांदी काटी है। कुछ शातिर मीडिया वालों ने सत्ताधीशों की चापलूसी कर यह दर्शाते हुए हजारों वर्गफुट जमीन की सौगात पाने में सफलता पायी और पाते चले आ रहे हैं कि हम तो बेघर है। हमें सिर ढकने के लिए सरकार मदद नहीं करेगी तो कौन करेगा। ध्यान रहे कि वास्तव में लोकतंत्र के चौथे खम्भे की गाड़ी को चलाने और दौड़ाने में जमीनी श्रमजीवी पत्रकारों का ही प्रमुख योगदान होता है। लेकिन उन्हें सजग और निर्भीक पत्रकारिता के लिए कई तरह के खतरे उठाने और खून-पसीना बहाने के बाद भी किराये के छोटे-मोटे घरों में उम्र बीतानी पड़ती है। 

मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई ने राजनेताओं, बिल्डरों और प्रशासनिक अधिकारियों के आपसी गठजोड़ को लेकर फटकार लगाते हुए कहा है कि, वन विभाग की 30 एकड़ जमीन बिल्डर को देने का निर्णय इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि किस तरह से यह लोग देश के साथ धोखाधड़ी करते चले आ रहे हैं। देशभर में फैली लुटेरों और डकैतों की टोली में रेलवे, सेना और अन्य सरकारी विभागों की जमीनों को हड़पने की प्रतिस्पर्धा चलती चली आ रही है। अपने निजी स्वार्थ के लिए झुग्गी-झोपड़ी की कतारें लगवाने और जगह-जगह अवैध कब्जे करवाने वाले सत्ताधीशों, नेताओं की नकेल हर हाल में कसी जानी जरूरी है। सीजेआई भूषण गवई आम लोगों की समस्याओं से बहुत गहराई से वाकिफ हैं। उनका मानना है कि जजों को समाज की जमीनी सच्चाई समझकर फैसले देने चाहिए। केवल कानून की किताबों के सफेद-काले अक्षरों के आधार पर नहीं। देश के 52वें चीफ जस्टिस भूषण गवई के पिता रामकृष्ण सूर्यभान गवई एक जाने-माने आंबेडकरवादी नेता और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापक थे। उन्हें बिहार, केरल और सिक्किम का राज्यपाल बनने का गौरव भी हासिल हुआ था। वे वकील बनना चाहते थे, लेकिन समाजसेवा में सक्रिय होने के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो पाया। हालांकि उनके सुपुत्र ने उनका हर सपना पूरा कर दिखाया है और अब देशवासियों के सपनों का पूरा करने की जिम्मेदारी है।

Thursday, May 15, 2025

भारत माता की जय

नागपुर से दिल्ली की रेलयात्रा के दौरान उम्रदराज अब्दुल भाई से मेल-मुलाकात हुई। अब्दुल भाई वर्षों से रामनामी दुपट्टा बना कर बेचते चले आ रहे हैं। सनातन आस्था के सबसे बड़े समागम महाकुंभ के मेले में उन्होंने रामनामी दुपट्टे बेचकर लाखों रुपये की कमाई की। अब्दुल भाई के बनाये दुपट्टे देश के विभिन्न धार्मिक स्थलों में पहुंचने वाले श्रद्धालु निशानी के तौर पर ले जाते हैं। प्रयागराज में भी अनेकों लोगों ने अब्दुल भाई के बनाये दुपट्टे खुशी-खुशी खरीदे और अपने-अपने शहर-गांव में जाकर रिश्तेदारों तथा मित्रों को भेंट स्वरूप दिए। अब्दुल भाई बलिया के निकट स्थित जिस गांव में रहते हैं, वह हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है। इस गांव में एक साथ मंदिर, मस्जिद और मजार बने हुए हैं। हिंदु और मुस्लिम में कोई भेदभाव नहीं है। हिंदू और मुस्लिम एक साथ मिलकर यहां सभी त्योहार मनाते हैं। यहां मुस्लिम के किसी भी कार्यक्रम में हिन्दू और हिंदू के कार्यक्रम में मुसलमान खुशी-खुशी शामिल होकर आपसी प्रेम और सद्भाव को साकार करते हैं। यहां के स्त्री-पुरुषों, बच्चों, बूढ़ों का बस यही मानना है कि मंदिर और मस्जिद में कोई अंतर नहीं। दोनों ही आस्था और विश्वास के केंद्र हैं। किसी का भगवान मंदिर में तो किसी का भगवान मस्जिद में है। पहलगाम में हुई दिल दहला देने वाली घटना से अब्दुल भाई बेहद आहत हुए। उनका यह कहना भी मेरे मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गया कि देश के अस्सी प्रतिशत हिंदू-मुसलमान एकता के सूत्र से बंधे हैं। भारतवर्ष में पाकिस्तान की तुलना में अधिक मुसलमान रहते हैं। उनके लिए देश आपसी सद्भाव के शत्रुओं और इधर-उधर की खबरों के कोई मायने नहीं हैं। उनके लिए भारत के हिन्दू-मुसलमान न कल जुदा थे और न ही आज एक-दूसरे से अलग हैं। अपवाद अपनी जगह हैं। 

22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकवादियों के हमले में जिन 26 निर्दोष भारतीयों को अपनी जान गंवानी पड़ी, उन्हीं में शामिल थे भारतीय नौसेना के लेफ्टिनेंट विनय नरवाल। शादी के महज छह दिन बाद अपने पति से हमेशा-हमेशा के लिए जुदा कर दी गई हिमांशी की पति के शव के साथ बैठी तस्वीर ने पत्थर दिल इंसान की आंखों को भी नम कर दिया। हिमांशी पर क्या बीती होगी उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इस वीर भारतीय नारी ने अपना सुहाग उजड़ने के चंद दिनों बाद यह कहा कि, ‘हम नहीं चाहते कि लोग भारतीय मुसलमानों या कश्मीरियों के खिलाफ जाएं। हम केवल और केवल शांति चाहते हैं। बेशक, हम न्याय चाहते हैं। जिन्होंने गलत किया है उन्हें अवश्य सजा मिलनी चाहिए।’ लेकिन किसी भी बेकसूर को मुसलमान होने की वजह से सताना और प्रताड़ित करना गलत है। एकाएक विधवा हुई हिमांशी से कल तक तो सभी सहानुभूति दर्शा रहे थे। उसकी तथा उसके पति विनय नरवाल की तस्वीर को सोशल मीडिया पर वायरल करते हुए तुरंत इंसाफ की मांग करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे, लेकिन जैसे ही हिमांशी का एकता और सद्भाव वाला बयान आया तो कुछ लोग नफरती भाषा का इस्तेमाल करते हुए उन्हें गंदी-गंदी गालियां देते हुए उनके देशप्रेम पर ही सवाल उठाने लगे!

आप्रेशन सिंदूर को अंजाम देकर भारत के वीर सैनिकों ने पाकिस्तान और पीओके में स्थित 9 आतंकी ठिकानों को तबाह कर दिया। बहुत सावधानी से विचार विमर्श के बाद भारत की फौलादी सेना ने 100 आतंकी मार गिराए और 40 सैनिकों को ढेर कर पाकिस्तान को आईना दिखा दिया। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध फिलहाल कुछ शर्तों के साथ स्थगित हो गया है। भारतीय सैनिकों को आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान के होश ठिकाने लगा दिये हैं। फिर भी कपटी, अहसान फरामोश पाकिस्तान का कोई भरोसा नहीं। कुत्ते की पूंछ से भी बदतर छवि वाले पाकिस्तान के हुक्मरानों का युद्ध लड़ने का नशा भारतीय सेना ने तीन-चार दिनों में उतार दिया। पहलगाम में घूमने के लिए पहुंचे पर्यटकों पर आतंकी हमले के बाद देश का जन-जन गुस्से की आग में जल रहा था। भारत से टकराव में पाक ने इतना कुछ खोया है कि उसे संभलने में कई साल लगेंगे। गुस्साये भारतवासी तो पाकिस्तान की पूरी तबाही के इंतजार में थे। एक जंग सीमा पर लड़ी जा रही थी और दूसरा महायुद्ध आम नागरिकों के दिलो-दिमाग में चल रहा था। जिस पर अभी तक विराम नहीं लगा है। 

कई भारतीय मानते हैं कि पाकिस्तान को नेस्तनाबूत करने के मौके को गंवा दिया गया है। सोशल मीडिया पर अपने दांव पेंच दिखाने वाले कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने नरेंद्र मोदी को कमजोर प्रधानमंत्री दर्शाने का अभियान चला रखा है। इसी के लिए वे जन्मे और जिन्दा हैं। उन्होंने मोदी की तुलना में इंदिरा गांधी को शक्तिशाली बताते हुए उनकी वो चिट्ठी भी वायरल कर दी, जो 1971 की लड़ाई के समय तब के अमेरिकी राष्ट्रपति को लिखी थी, जिसमें उनके दिए गए युद्ध विराम के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। पाकिस्तान के साथ युद्ध स्थगित होने के बाद कांग्रेस के कुछ नेताओं के तेवर बदलने में किंचित भी देरी नहीं लगी। वो इंदिरा गांधी के तराने गाते हुए याद दिलाने लगे कि, इंदिरा गांधी के दम का ही प्रतिफल था कि 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के 93 हजार से ज्यादा सैनिकों ने भारत के सामने आत्मसमर्पण करने को विवश होना पड़ा था। उस बहादुर नारी ने ही उस समय बांग्लादेश बनवाने का साहस दिखाया था। जवाब में अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने के रोगी कांग्रेसियों को यह भी याद दिलाया जा रहा है कि इंदिरा गांधी के समय सेना ने जो युद्ध में हासिल किया था, उसे शिमला समझौते में गंवा भी तो दिया था। यह हिंदुस्तान है। यहां आरोप-प्रत्यारोप की हवा और आंधी-तूफान तो चलते ही रहते हैं। कुछ लोगों की रोजी-रोटी इसी की बदौलत चलती है। मोदी अमेरिका के दबाव में आए या उसके सुझाव को स्वीकारा, इसका भी उत्तर आने वाला वक्त दे ही देगा, लेकिन एक सच यह भी जान लें कि, यदि युद्ध पर विराम नहीं लगता और बात परमाणु युद्ध तक पहुंच जाती तो दोनों देशों में तबाही मच जाती। कम-अज़-कम दोनों देशों में दस-बारह करोड़ इंसानों की तुरंत मृत्यु हो सकती थी। असंख्य लोगों के अंधे, बहरे और अक्षम होने के साथ-साथ जलवायु इतनी विषैली हो जाती, जिससे जिन्दा बचे इंसानों और जीव-जंतुओं का ढंग से सांस लेना और जीना बेहद मुश्किल हो जाता। ऐसी भयावह स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने तथा देश को बार-बार भ्रमित करने वाले आतंकीस्तान के शुभचिंतक काले कोट धारी, विदेशी फंड से पल रहे बहुरुपियों पत्रकार, संपादक, नेता और तथाकथित समाज सेवक मोदी को ही करोड़ों लोगों का हत्यारा घोषित कर सड़कों पर नंग-धड़ंग नाचते हुए तबला बजाते। कई तो भारत से ज्यादा पाकिस्तान में हुई मौतों और तबाही पर छाती पीटते हुए मातम मनाते नज़र आते। जिसका जो पेशा है, उसे वह कैसे छोड़ सकता है? देश को तोड़ने वाली ताकतें कितना भी जोर लगा लें लेकिन सफल नहीं हो सकतीं। भारतीय सेना का विश्व में कोई सानी नहीं। सभी भारतीय उसके हौसले, समर्पण के प्रति नतमस्तक हैं। प्रदेश के सजग, संवेदनशील कवि, गज़लकार अविनाश बागड़े की लिखी इन पंक्तियों के साथ जय हिंद, वंदेमातरम...

‘‘थे सेना के संग खड़े,

देने को आधार।

जन-जन का है मान रही,

भारत माँ आभार॥

भले अचानक बंद हुआ,

जिस कारण भी युद्ध।

मगर एकता देश की

स्वयं सिद्ध साकार॥

Thursday, May 8, 2025

कुत्ते की पूंछ

कुछ समझ में नहीं आ रहा। अधिक सोचो तो सिरदर्द। गंदी-गंदी गालियां बकने वालों को कल तक दुत्कारा जाता था। उन्हें अपने पास भी नहीं फटकने दिया जाता था, लेकिन आज गालीबाज विधायक और सांसद बन रहे हैं। गली-कूचों और महफिलों में सराहे जा रहे हैं। उनको सुनने के लिए खूब भीड़ जुटती है। टिकटें भी बिकती हैं। व्यंग्य और हास्य की जगह अश्लीलता, फूहड़ता और निर्लज्जता ने मंचों पर अंगद के पांव की तरह कब्जा कर लिया है। लोकगीतों के नाम पर भी कैसी-कैसी करतबबाजी हो रही है! 

कई लुच्चे-लफंगे और लफंगियां पैरोडी करते-करते खुद को निर्वस्त्र करने का मज़ा ले रहे हैं। जिनकी दो टक्के की औकात नहीं वे अपने ही देश के कर्मठ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अपमानजनक शब्दावली का इस्तेमाल कर अपना बौनापन छिपाने की कवायद में तल्लीन हैं। अफसोस तो यह भी है कि इन्हें उत्साहित करने के लिए कुछ ‘महान’ तालियां पीट रहे हैं। खून के रिश्तों का मज़ाक उड़ाने वाले टुच्चों-लुच्चों को लाखों रुपये देकर यू-ट्यूब वाले क्यों उनका मनोबल बड़ा रहे हैं? बीते दिनों स्टैंडअप कॉमेडी शो ‘इंडियाज गॉट लैटेंट’ में बदतमीज़ यू-ट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया ने एक प्रतियोगी से बेहद अश्लील और गंदा सवाल कर डाला, ‘‘क्या आप अपने माता-पिता को अपने जीवन के बाकी हिस्से के लिए हर दिन सेक्स संबंध बनाते हुए देखेंगे या एक बार इसमें शामिल भी हो जाएंगे और हमेशा के लिए इसे रोक देंगे?’’ देश और दुनिया के हर मां-बाप के पवित्र रिश्ते और अंतरंंग संबंधों को कलंकित करने वाली यह गंदी अश्लील सोच जैसे ही लोगों तक पहुंची तो वे आगबबूला हो गए। गुस्सायी भीड़ इस धरती की सबसे निर्लज्ज पैदाइश का जूतों से पीटने के लिए जहां-तहां तलाशने लगी। मुंबई, दिल्ली, इंदौर, कोलकाता और गुवाहाटी समेत कई शहरों में इस लफंगे के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी गई। प्रतिष्ठित हस्तियों का अपने शो में अपमानित करने वाला इलाहाबादिया यू-ट्यूब से हर माह लगभग 60 लाख रुपये पाता है। उसकी नेटवर्थ 60 करोड़ से अधिक है। उसकी नीच सोच और टिप्पणियों को सुनने और जुटने वाले बेशर्मों की अच्छी खासी तादाद है।

लगता है कि वो जमाना अब बीतने के कगार पर है, जब कॉमेडीयन का नाम लेते ही उस कलाकार का चेहरा आंखों के सामने थिरकने लगता था, जो अपनी भिन्न-भिन्न अदाओं और बोलने-बतियाने के तौर तरीकों से उदासी में भी खुशी के रंग भर देता था। रुआंसे चेहरे भी खिलखिलाने लगते थे। लोग उसकी मनोरंजित करने की कला को वर्षों तक याद रखते थे। व्यंग्य एक परिपूर्ण साहित्यिक विधा है, जिसमें उपहास, मजाक और आलोचना का सात्विक मिश्रण होता है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के अनुसार व्यंग्य लेखन एक गंभीर कर्म है। सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है। विश्व विख्यात हास्य कवि काका हाथरसी का मानना था कि हास्य और व्यंग्य एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं। हास्य के बिना व्यंग्य में मजा नहीं और व्यंग्य के बिना हास्य बेमज़ा हो जाता है। दोनों बराबर एक दूसरे का साथ दें, तभी जन-गण-मन के मनोरंजन की गाड़ी प्रभावी तरीके से चलती है, लेकिन इन दिनों कॉमेडी, व्यंग्य और हास्य के मंचों पर अथाह अश्लीलता और तयशुदा हस्तियों को अपमानित करने की प्रतिस्पर्धा सी चल पड़ी है। कुछ कॉमेडियन तो बाकायदा उन हस्तियां पर गंदी-गंदी उक्साऊ, भड़काऊ टिप्पणियां करते देखे जा रहे हैं, जिनके कद तक पहुंचना उनकी औकात में ही नहीं। फिर भी बेवजह खुन्नस निकाल कर अपनी खिल्ली उड़वा रहे हैं। धन लेकर कीचड़ उछालने का खेल खेलने वाले कुणाल कामरा नामक स्टैंडअप कामेडियन की दो टक्के की पूछ परख नहीं, लेकिन वह बड़े-बड़े प्रतिष्ठित नेताओं का मज़ाक उड़ाता रहता है। इसी से इसकी रोजी-रोटी चलती है। खरीदे हुए दर्शकों की तालियों से इसकी छाती चौड़ी हो जाती है। इसी बिकाऊ कॉमेडियन ने बीते माह इस पैरोडी के माध्यम से टोपी उछालने की जो दुष्टता की, वही उस पर अंतत: भारी पड़ गई,

‘‘ठाणे की रिक्शा

चेहरे पर दाढ़ी

आंखों पर चश्मा हाय!

एक झलक दिखलाए कभी 

गुवाहाटी में छिप जाए।

मेरी नज़र में तुम देखों गद्दार नजर वो आए

मंत्री नहीं है, वो दल बदलू है 

और कहा क्या जाए।

जिस थाली में खाये

उसमें ही छेद कर जाए।’’

फिल्म ‘दिल तो पागल है’ के गीत की उपरोक्त पैरोडी में कामरा ने भले ही किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन सजग लोगों को कामरा की ओछी नीयत को गहराई तक जानने-समझने में किंचित भी देरी नहीं लगी। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान उपमुख्यमंत्री को निशाना बनाकर की गई इस भद्दी अपमानजनक अक्षरावली से आगबबूला होकर शिवसैनिकों ने उस स्टुडियो में जमकर तोड़फोड़ कर डाली, जहां शो की शूटिंग की गई थी। कला के नाम पर ऐसी अभद्रता, कमीनगी, लुच्चागिरी और बदमाशी यकीनन अक्षम्य है। मंच पर खड़े होकर किसी व्यक्ति विशेष के शरीर से लेकर निजी जीवन पर भड़काऊ प्रहार करना व्यंग्य नहीं भड़वागिरी है। कॉमेडी के नाम पर यही काम और शरारत पर शरारत तो पिछले कई दिनों से नेहा ठाकुर नामक लोकगायिका भी करती चली आ रही है। जब देखो तब प्रधानमंत्री का मज़ाक उड़ाते हुए अपनी पीठ थपथपाने लगती है। दरअसल, इस नचनिया की डोर किसी और के हाथ में है। आसमान पर थूकने वाली यह बदतर गायिका भूल गई है कि वही थूक उसके चेहरे पर गिर रही है। जिसे वह बस चाटे जा रही है। पहलगाम में हुए आतंकी हमले को लेकर तो नेहा सिंह ने ऊल-जलूल पोस्ट की झड़ी लगा दी। राष्ट्रीय अखंडता को नुकसान पहुंचाने, सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने और देश की शांति भंग करने वाली नेहा की पोस्ट की दुश्मन देश पाकिस्तान ने तालियां बजा-बजाकर सराहना की। दुनिया की बहादुर नारी का खिताब तक दे डाला। पाकिस्तानी मीडिया ने भी उसकी खूब वाह-वाही की। देश के मान और सम्मान का हनन और पहलगाम में मारे गये पर्यटकों का अपमान करने वाली पोस्ट से आहत होकर देश के सजग कवि अमर प्रताप सिंह निर्भीक प्रचार की अपार भूखी-प्यासी नेहा सिंह के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया है। आतंकियों ने पर्यटकों को मारने से पहले उनका धर्म पूछा फिर उनके हिंदू होने पर गोलियों से भूना इस सच पर सवाल उठाने वाली हत्यारे, आतंकी पाकिस्तान की लाडली नेहा की तरह महाराष्ट्र के एक बड़बोले कांग्रेसी नेता विजय वडेट्टीवार ने भी अपनी राजनीति की दुकान चमकाने और खुन्नस निकालने के लिए नेहा की तर्ज पर दहाडते हुए कहा कि, आंतकियों के पास इतना वक्त ही कहां था जो पर्यटकों का धर्म पूछ-पूछ कर गोलियां चलाते। यानी पहलगाम में जिन पर्यटकों ने अपनों को गोली का निशाना बनते देखा वो झूठ बोल रहे हैं और ये खोखले बिकाऊ चेहरे सच्चे है? 

कानपुर के शुभम द्विवेदी की 12 फरवरी को शादी हुई थी। शुभम और उनकी पत्नी ऐशान्या बहुत उमंगो-तरंगो के साथ पहलगाम घूमने गये थे। आतंकी ने शुभम की गोली मारकर हत्या कर दी। ऐशान्या ने रोते हुए बताया कि, शुभम अपनी बहन के साथ बैठे थे, इसी दौरान एक शख्स आया और उसने पूछा हिंदू हो या मुसलमान? हम उसका मकसद नहीं समझ पाए और हंसने लगे। तभी मैंने कहा कि भैया हम मुसलमान नहीं है। मेरा इतना भर कहना था कि उसने बंदूक निकाली और शुभम के सिर पर गोली मार दी। महाराष्ट्र के शहर डोंबिवली के निवासी संजय लेले, हेमंत जोशी और अतुल माने को भी आतंकवादियों ने बेरहमी से मार डाला। प्रत्यक्षदर्शी संजय लेले के बेटे हर्षल ने बताया कि, हम सब दोपहर को बैसरन घाटी पहुंचकर हंसते-मुस्कुराते हुए तस्वीरें ले रहे थे। कुछ देर के पश्चात वहां एकाएक गोलियों की आवाज सुनाई दी। हमें लगा कि शायद पर्यटनस्थल में कोई गेम चल रहा होगा, लेकिन अचानक फायरिंग तेज हो गई। तभी दो आतंकवादी चिल्लाने लगे, ‘आप लोगों ने आतंक मचा रखा है, हिंदू और मुसलमान अलग-अलग हो जाओ। फिर तुरंत पापा, चाचा और मामा को गोली मार दी। मेरा हाथ पापा के सिर के पास था। गोली मेरे हाथ को छूकर निकल गई।’ यह समय तो एकता और एकजुटता का है, लेकिन कुछ नीच अपनी नीचता से बाज नहीं आ रहे हैं। खुद को कानूनी शिकंजे में फंसते देख नेहा ठाकुर उन वकीलों के दरवाजों पर माथा टेक रही है, जो आतंकवादियों की पैरवी करने के लिए कुख्यात हैं। यही कांग्रेस के नेता और खरबपति वकील ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे लगाने वाले कन्हैया कुमार की पीठ थपथपाने के लिए दौड़े-दौड़े चले आए थे।

Friday, May 2, 2025

हम सब एक हैं

प्रिय पाठको,

आपके स्नेह, अपनत्व, जुड़ाव और शुभकामनाओं की बदौलत महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय साप्ताहिक ‘राष्ट्र पत्रिका’ ने अपनी निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता की यात्रा के 17वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। जब ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन प्रारंभ किया गया था तब की और वर्तमान की स्थितियों, परिस्थितियों में काफी बदलाव आ चुका है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार और जनप्रियता की वजह से प्रिंट मीडिया के प्रति लोगों की अभिरूचि में कमी आयी है, वैसे इस कमी की शुरुआत तो कोरोना काल में ही हो गई थी, लेकिन फिर भी ‘राष्ट्र पत्रिका’ के पाठकों एवं शुभचिंतकों का काफी हद तक यथावत तक बने रहना हमारे मनोबल को सतत मजबूत बनाये हुए है। हमने सदैव आम जन के पक्षधर बने रहने का जो संकल्प लिया था उस पर आज भी कायम हैं और भविष्य में भी इन पंक्तियों के साथ अडिग रहने का हमारा अटल वादा है,

‘‘उजाला हो न हो

यह और बात है, 

हमारी आवाज तो 

अंधेरों के खिलाफ है।’’

गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, अशिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कभी आज भी देश की प्रमुख समस्या है। नौकरी के अभाव के चलते अपराधी और अपराधों का पनपना देश की चहुंमुखी तरक्की में बाधक बना हुआ है। आम आदमी की खून-पसीने की कमायी महंगाई के समक्ष बौनी होती चली जा रही है। गरीब परिवारों के लिए अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए जो पापड़ बेलने पड़ रहे हैं उसकी पीड़ा वही जानते हैं। स्कूल, कालेजों की फीस आसमान छूने लगी है। धनपति तो बड़ी आसानी से अपने नालायक बच्चों को भी डॉक्टर, इंजीनियर, जज, कलेक्टर, कमिश्नर बनाने में सफल हो रहे है, लेकिन गरीबों के योग्य और परिश्रमी बच्चे छोटी-मोटी नौकरियां के कैदी बनकर रह गये हैं। देश के समक्ष आज और भी कई संकट सीना ताने खड़े हैं। कुछ विघटनकारी ताकतें हिंदुस्तान को तोड़ने के मसूंबो के साथ साजिशें रच रही हैं। उनका भाई से भाई को लड़ाने का इरादा कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इन दिनों भारत माता भीतरी और बाहरी षड़यंत्रकारियों की खूनी साजिशोेंं से आहत है। बीते हफ्ते जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादियों ने 28 निर्दोष भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया। पर्यटक जब खुशगवार मौसम का आनंद ले रहे थे, तभी वहां सेना की वर्दी में नकाब पहने आतंकवादी पहुंचे और उनका नाम और धर्म पूछ-पूछ कर उन्हें गोलियों से उड़ाने लगे। आतंकियों ने बहुत ही सोचे-समझे षडयंत्र के तहत इस कायराना हत्याकांड को अंजाम दिया। सभी देशवासी बहुत गुस्से में हैं। देश के कोने-कोने से पाकिस्तान को कड़ा सबक सिखाने की आवाज बुलंद की जा रही हैं। कश्मीर के आतंकी इतिहास में पहली बार देखा गया कि मस्जिदों से लाउडस्पीकर द्वारा ऐलान करके इस घिनौनी वारदात की निन्दा की गई और इसे इस्लाम के खिलाफ बताया गया। कश्मीर में जो कैंडल मार्च निकाले गए उसमें हजारों कश्मीरियों ने शामिल होकर आतंकवाद के खिलाफ नारे लगाये और पर्यटकों को अपनी रोजी-रोटी और भगवान बताया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी बड़े दु:खी मन से कहा कि पहलगाम में जोशो-खरोश के साथ घूमने आए मेहमानों के नरसंहार से वे आहत और अत्यंत शर्मिंदा है। इस आतंकी हमले पर हुई सर्वदलीय बैठक में भारतीय राजनीति की जो प्रभावी तस्वीर भी दिखी उसने सुखद एहसास करवाते हुए हर किसी को आश्वस्त कर दिया कि भारत के पक्ष और विपक्ष के नेता राजनीति से ज्यादा देश को अहमियत देते हैं। सभी दलों ने एक स्वर में सरकार से कहा कि, आतंक को मुंहतोड़ और निर्णायक जवाब देने के लिए जो भी जरूरी हो, तुरंत किया जाए। 

यह सच भी किसी से छिपा नहीं है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की गहरी खाई को खोदने की साजिशें होती रही हैं। मैंने अपनी पत्रकारिता के पचास वर्ष में अच्छी तरह से देखा और जाना है कि भाषा, धर्म, पहनावे रहन-सहन में अंतर के बावजूद हम सब भारतवासी एक हैं। हमारा ‘अनेकता में एकता’ के वाक्यांश पर जो भरोसा है। उसे तो सारी दुनिया ने समय-समय पर देखा और सराहा है। भारत माता पर जब भी कोई विपदा आती है तो सभी भारतीय तन-मन और धन से एकजुट हो जाते हैं। इसी एकजुटता और सतर्कता की बदौलत ही भारत ने हर जंग में धूर्त, कपटी, फरेबी पाकिस्तान को धूल चटाई है। इस बार भी यदि युद्ध होता है तो पाकिस्तान की हार और बरबादी निश्चित है। जम्मू-कश्मीर के मिनी स्विजरलैंड कहलाने वाले पर्यटन स्थल पहलगाम में खून-खराबा होने के पश्चात जो सन्नाटा छा गया था वह अब धीरे-धीरे दूर होने लगा है। हत्याकांड के सात-आठ दिन के अंतराल के पश्चात पहलगाम में पर्यटकों का वापस लौटना यही दर्शाता है कि हर भारतीय के सीने में सैनिक का दिल धड़कता है। जैसे-जैसे पर्यटकों की भीड़ बढ़ रही है उनके चेहरे पर निखार आ रहा है।

‘राष्ट्र पत्रिका’ के प्रकाशन काल ही मेें हमने यह भी कसम खाई थी कि चाहे कुछ भी हो जाए इसे किसी नेता, मंत्री राजनीतिक पार्टी, उद्योगपति, दल-बल और संकीर्ण सोच और धारणा का हिमायती नहीं बनने देंगे। देश में सर्वत्र अमन चैन, सद्भाव और भाईचारे को सतत बनाये रखने के लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए सदैव तैयार रहेंगे। झूठ और छल-कपट का पत्रकारिता से होने वाले नुकसान को भी हमने बहुत करीब से देखा और समझा है,

‘‘आग की झूठी गवाही जब भी अंगारों ने दी 

मौत की दस्तक हमारे दर पर हत्यारों ने दी’’

इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया भले ही पास और दूर की घटनाओं, वारदातों को पलक झपकते ही लोगों तक पहुंचा देते हैं, लेकिन जिस तरह से खबरों की तह तक पहुंचने के लिए प्रिंट मीडिया मेहनत करता है, वह गंभीरता न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया में बहुत कम नजर आती है। अखबार प्रदेश, देश, शहर और गांव की चेतना का हिस्सा हैं। जब चेतना मर जाती है तो अखबार भी मरने लगता है। सजग पाठक उससे दूरी बनाने लगतेे हैं। ‘राष्ट्र पत्रिका’ ने शहरी और ग्रामीण खबरों को निरंतर प्रकाशित करने के साथ-साथ खोजी रिपोर्टिंग को सदैव प्राथमिकता दी है। शोषित, दबे, कुचले, थके-हारे भारतीयों का बुलंद स्वर बनने की जिद ने ही ‘राष्ट्र पत्रिका’ को दूसरों से एकदम अलग और खास दर्जा दिलवाया है। अखबारी दुनिया की परंपरागत छवि को चुनौती देने वाले इस प्रगतिशील साप्ताहिक में विपरित परिस्थितियों से टकरा कर अपने मनोबल के दम पर बुलंदियों को छूने वाले आम और खास लोगों की खबरें और कहानियां बिना किसी भेदभाव के एक साथ जगह पाती हैं। वर्तमान में अधिकांश मीडिया तरह-तरह के लाछन और आरोपों के घेरे में है। अधिकांश भारतीय उसके पक्षपाती आचरण से अत्यंत चिंतित और दुखी हैं। जब भी कोई पत्रकारों और पत्रकारिता पर कीचड़ उछालता है तो मन आहत होता है, लेकिन सच तो, सच है। युवा कवयित्री भावना ने मीडिया के प्रति अपनी भावना को इन शब्दों में व्यक्त कर करोड़ों लोगों की सोच का चित्र प्रस्तुत किया है, 

‘‘दाने से मछलियों को लुभाता रहा

क्या हकीकत थी, क्या दिखाता रहा

था अजब उसके कहने का अंदाज भी

कुछ बताता रहा, कुछ छिपाता रहा।’’

दबाने और छिपाने की पत्रकारिता की वजह से पत्रकारों और संपादकों की ही नहीं संपूर्ण मीडिया की प्रतिष्ठा दांव पर लग चुकी है। कहावत है, मान-सम्मान नहीं तो कुछ भी नहीं...। इसलिए हम सबके लिए यह जागने और सतर्क होने का वक्त है...। महाराष्ट्र दिवस, श्रमिक दिवस और राष्ट्रपत्रिका की वर्षगांठ पर सभी पाठकों, संवाददाताओं, लेखकों, विज्ञापनदाताओं और एजेंट एवं बंधुओं को हार्दिक बधाई...शुभकामनाएं...अभिनंदन।

Thursday, April 24, 2025

काला-गोरा

 कुछ दिन पूर्व मैं अपने एक डॉक्टर मित्र के यहां बैठा था। तभी एक गोरी-चिट्टी महिला लगभग साल सवा साल के बच्चे को गोद में लेकर वहां पहुंची। वह काफी घबराई-घबराई-सी लग रही थी। मुझे लगा कि मासूम बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होगी, इसलिए मां चितिंत और परेशान है, लेकिन उसने जो समस्या बयां की, उससे हतप्रभ मैं उसे देखता रह गया। ‘‘डॉक्टर साहब, मेरे इस बच्चे का रंग बहुत काला है, प्लीज़ कोई ऐसी दवा या इंजेक्शन दीजिए, जिससे यह एकदम गोरा हो जाए। इसके लिए मैं कोई भी कीमत देने को तैयार हूं। देखिए न... मैं कितनी खूबसूरत हूं और इसके पिता भी गोरे-चिट्टे, हैंडसम हैं, लेकिन यह पता नहीं किस पर गया है। रिश्तेदार तथा यार-दोस्त भी इसके रंग पर जिस तरह से हैरत जताते हैं, उससे मुझे बहुत ठेस पहुंचती है। दु:खी और आहत मन को काबू में लाना मुश्किल हो जाता है।’’ बेचैन महिला की पीड़ा जानने के बाद डॉक्टर हल्के से मुस्कराए, फिर बोले, ‘‘काले को गोरा बनाने का अभी तक तो कहीं भी कोई इलाज ईजाद नहीं हो पाया है। वैसे भी यह कोई गंभीर समस्या नहीं है। इसलिए आप अपने बच्चे के रंग को लेकर चिंतित और परेशान होना छोड़ उसकी बेहतर परवरिश पर ध्यान देंगी तो यही बच्चा भविष्य में आपके परिवार का नाम ऐसा रोशन करेगा कि आप सबकुछ भूल जाएंगी। आपको पता होना चाहिए कि सांवले या काले रंग वाले बच्चों ने बड़े होकर कई क्षेत्रों में सफलता के नये-नये आयाम रचे हैं। आपने फिल्म अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की कोई न कोई फिल्म तो जरूर देखी होगी। दोनों को काले रंग का होने के कारण फिल्म निर्माता शुरू-शुरू में अपने पास फटकने ही नहीं देते थे, लेकिन इन्होंने जिद और जुनून का कसकर दामन थामे रखा। ऐसे में जब फिल्म मिली तो अपने अभिनय कौशल का ऐसा झंडा गाड़ दिखाया कि दुत्कारने वालों को भी शर्मसार होना पड़ा। मिठुन चक्रवर्ती ने तो अपनी पहली फिल्म ‘मृगया’ में प्रभावी अभिनय कर राष्ट्रीय पुरस्कार अपने नाम किया तो वहीं नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने भी देश और दुनिया में भरपूर नाम कमाया और पुरस्कार जीते। दोनों फिल्मी सितारे वर्षों से फिल्मी दुनिया में अपनी चमक-दमक बनाये हुए हैं। यह अलग बात है कि बॉलीवुड ने आज भी पूरी तरह से अपनी मानसिकता नहीं बदली है।’’ महिला डॉक्टर की बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद मुस्कराते हुए उठ कर चल दी। 

महिला के जाने के बाद मैंने अपने मित्र से प्रश्न किया कि उसे महिला को इतना सारा ज्ञान का डोज पिलाने की आखिर क्या जरूरत थी? सिर्फ यह कहकर उसे चलता किया जा सकता था कि, काले को गोरा बनाना किसी भी हालत में संभव नहीं। मित्र ने जो जवाब दिया उससे मैं चौंका। मेरी आंखें भी खोल दीं, 

‘‘अपने यहां ऐसे डॉक्टर भी भरे पड़े है, जो रईसों की जेबें काटने के लिए ही डॉक्टर बने हैं। यह सौदागर किस्म के चेहरे काले को गोरा बनाने के लिए तरह-तरह के कैप्सूल और इजेक्शन लगाकर मोटी फीस वसूल करते रहते हैं। मैं नहीं चाहता था कि यह महिला किसी ऐसे डॉक्टर के जाल में फंस कर लाखों रुपए लुटाए और अंतत: माथा पीटती रह जाए। मैं यह भी जानता हूं कि यह महिला इतनी जल्दी हार नहीं मानेंगी और पांच-सात डॉक्टरों के यहां जरूर जाएगी। मेरे यहां सांवली और काली त्वचा वाली बेटियों के मां-बाप भी अक्सर आते रहते हैं। उनकी बेचैनी तो और भी देखते ही बनती है। बेटी के काले रंग को गोरे रंग में तब्दील करवाने के लिए वे कोई भी कीमत देने को तत्पर नजर आते हैं। जिस बच्ची ने अभी चलना भी नहीं शुरू किया उसके वैवाहिक संबंधों को लेकर उनकी नींद उड़ी रहती है। अपने देश में काले या सांवले रंग की बेटियों के रिश्ते आसानी से तय नहीं होते। काले रंग के युवा भी गोरी युवती की ही चाहत रखते हैं। कई मां-बाप तो यह भी मानते हैं कि काले लड़के या लड़की की संतान भी गोरी जन्मने से रही। वे इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि गोरे मां-बाप को यदि तीन संताने हैं, तो सभी का रंग एक सा नहीं होता। किसी बच्चे का रंग काला या सांवला भी होता है। कुछ हफ्ते पूर्व केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन ने अपनी त्वचा को लेकर की जाने वाली टिप्पणियों और तानों को लेकर बहुत कुछ कहा और बताया। देश के सबसे शिक्षित राज्य केरल में रंग को लेकर ऐसा भेदभाव है तो दूसरे प्रदेशों के लोगों की सोच की बड़ी आसानी से कल्पना की जा सकती है। शारदा मुरलीधरन कहती हैं कि मैं अक्सर सोचती रह जाती हूं कि लोगों को काले रंग से इतनी चिढ़ क्यों है? काला, तो इस ब्रह्मांड की सर्वव्यापी सच्चाई है। यह काला रंग ही है, जो सब कुछ अपने भीतर समा लेता है। शारदा बताती हैं कि जब मैं चार साल की थी तो मां से बार-बार पूछा करती थी कि क्या मुझे अपनी कोख में दोबारा डाल सकती हैं और झक गोरा तथा सुंदर बनाकर निकाल सकती है? शारदा की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, अपने रंग की चिंता से मुक्त होती चली गईं। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई पर अपना संपूर्ण ध्यान केंद्रित रख उच्च शिक्षा प्राप्त की। उनकी योग्यता ने ही उन्हें वी.वेणु जैसे खूबसूरत शासकीय अधिकारी की जीवनसाथी बनने का सौभाग्य प्रदान किया। यह भी काबिलेगौर है कि अपने पति वी.वेणु के रिटायर होने के पश्चात शारदा केरल की मुख्य सचिव बनीं हैं। 

फिल्म अभिनेत्री नीना गुप्ता की पुत्री हैं, मसाबा गुप्ता। नीना गुप्ता ने विदेशी क्रिकेटर विवियन रिचर्ड से शादी किए बिना शारीरिक रिश्ता बनाते हुए मसाबा को जन्म दिया था, क्रिकेटर का रंग काला है। मोसाबा भी उसी पर गयी हैं। अब 35 वर्ष की हो चुकी हैं। अपना अच्छा खासा व्यवसाय है, लेकिन लोग अब भी काली कहकर नीचा दिखाने से बाज नहीं आते, लेकिन वह अपनी मस्ती में जीवन जीती हैं। फिल्म अभिनेत्री और निर्देशक नंदिता दास कहती हैं लोग उनकी त्वचा के रंग पर कटाक्ष क्यों करते हैं। मैंने फिल्मों में अभिनय करने के साथ-साथ निर्देशन भी किया है। मेरी प्रतिभा पर बोलने और लिखने की बजाय मेरे रंग पर जाने वालों पर अब तो मुझे दया आने लगी है। एक महत्वकांक्षी मॉडल-अभिनेत्री जो कभी विख्यात स्किन-व्हाइटनिंग क्रीम ब्रांड, दास ग्लो एंड लवली के विज्ञापनों में छायी रहती थी, उसी को हाल ही में एक टेलीविजन शो में मुख्य भूमिका से वंचित कर दिया गया, क्योंकि उसकी त्वचा का रंग काफी सांवला है, लेकिन उसे इसका कोई गम नहीं। वह अपने तरीके से जीने में यकीन रखती है। उसके लिए हर दिन जश्न है। जब कोई कटाक्ष करता है तो वह मुस्कुराते हुए इतना भर कह देती है, ये रंग मुझे अपने मां-बाप से मिला है, जिनकी तो मैं पूजा करती हूं...।